यह निस्संदेह सत्य है कि हमको सबसे प्रेम और सहनशीलता का व्यवहार करना चाहिए पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम दुष्ट प्रकृति के लोगों के जघन्य कृत्यों को बिना रोकटोक होने दें और उनसे प्रेम भी करते रहें । ऐसा करने से तो समाज की व्यवस्था बिग़ड जायगी और लोगों को अनाचार अत्याचार करने में किसी प्रकार की शंका न रहेगी । इसलिए प्रेम के सिंद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी हमारा कर्तव्य है कि सदैव दुष्टता का विरोध करते रहें । सच्चे सहयोग का यही मार्ग है । एक तत्वज्ञानी का उपदेश है कि 'दुष्टों पर दया करो किन्तु दुष्टता से लड़ मरो । दुष्ट और दुष्टता का अन्तर किए बिना हम न्याय नहीं कर सकते हैं । अक्सर यही होता है कि लोग दुष्टता और दुष्ट को एक ही वस्तु समझ लेते हैं और एक ही ढेले से दोनों को शिकार बना लेते हैं ।
बीमार और बीमारी एक ही वस्तु नहीं हैं । जो डॉक्टर बीमारी के साथ बीमार को भी मार डालने का इलाज करता है उसकी बुद्धि को क्या कहें । एक बन्दर अपने मालिक को बहुत प्यार करता था जब मालिक सो जाता तो बन्दर पंखा किया करता ताकि मक्खियाँ उसे न सताबें । जब तक वह पंखा झलता रहता मक्खियाँ उड़ती रहतीं जैसे ही वह पंखा बन्द करता कि मक्खियाँ फिर मालिक के ऊपर आकर बैठ जाती ।
यह देखकर बन्दर को मक्खियों पर बड़ा क्रोध आया और उसने उनको सजा देने का निश्चय किया । वह दौड़ा हुआ गया और सामने की खूँटी पर टँगी हुई तलवार को उतार लाया । जैसे ही मक्खियाँ मालिक के मुँह पर बैठीं, वैसे ही बन्दर ने खींच कर तलवार का एक हाथ मारा । मक्खियाँ तो उड़ गई पर मालिक का मुँह बुरी तरह जख्मी हो गया । हम लोग दुष्टता को घटाने के लिए ऐसा ही काम करते हैं जैसे बन्दर ने मक्खियों को हटाने के लिए किया था ।
आत्मा किसी का दुष्ट नहीं है वह तो सत्य शिव और सुन्दर है सच्चिदानन्द स्वरूप है । दुष्टता तो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है यह अज्ञान एक प्रकार की बीमारी ही तो है । अज्ञान रूपी बीमारी को हटाने के लिए हर उपाय काम में लाना चाहिए परन्तु किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं मानना चाहिए । व्यक्तिगत द्वेष भाव जब मन में घर कर लेता है तो हमारी निरीक्षण बुद्धि कुण्ठित हो जाती है । वह नहीं पहचान सकती कि शत्रु में क्या बुराई है और क्या अच्छाई है । पीला चश्मा पहन लेने पर सभी वस्तुएँ पीली दिखाई पड़ने लगतीं हैं । इसी प्रकार स्वार्थपूर्ण द्वेष जिस मनुष्य के प्रति घर कर लेता हैं उसके भले काम भी बुरे प्रतीत होते हैं और अपनी आँखों के पीलिया रोग को न समझकर दूसरे के चेहरे पर पीलापन दिखाई पड़ने लगता है उसे पाण्डु रोग समझकर उनका इलाज करने लगता है । इस प्रकार अपनी मूर्खता का दण्ड दूसरों पर लादता है अपनी बीमारी की दवा दूसरों को खिलाता है । जालिम और दुष्ट क्रोधी और परपीड़क इसी अज्ञान में ग्रसित होते हैं उसके मन में स्वार्थ एवं द्वेष समाया हुआ है फलस्वरूप उन्हें दूसरों में बुराइयाँ ही बुराइयाँ नजर आती हैं । सन्निपात का रोगी दुनियाँ को सन्निपात ग्रसित समझता है ।
आप दुष्ट और दुष्टता के बीच अन्तर करना सीखिये । हर व्यक्ति को अपनी ही तरह पवित्र आत्मा समझिए और उससे आन्तरिक प्रेम कीजिए कोई भी प्राणी नीच पतित या पापी नहीं है । तंत्वत: पवित्र ही है । भ्रम, अज्ञान और बीमारी के कारण वह कुछ का कुछ समझने लगता है । इस बुद्धि प्रम का ही इलाज करना है । बीमारी को मारना है और बीमार को बचाना है । इसलिए दुष्ट और दुष्टता के बीच फर्क करना सीखना चाहिए । मनुष्यों से द्वेष मत रखिए चाहे उनमें कितनी ही बुराइयाँ क्यों न हों ? आप तो दुष्टता से लडने को तैयार रहिए फिर वह चाहे दूसरों में हो, चाहें अपनों में हो या चाहे खुद अपने अन्दर हो ।
पाप एक प्रकार का अंधेरा है जो ज्ञान का प्रकाश होते ही मिट सकता है । पाप को मिटाने के लिए कडुए से कडुआ प्रयत्न करना पड़े तो आप प्रसन्नतापूर्वक कीजिए क्योंकि वह एक ईमानदार डॉक्टर भी तरह विवेकपूर्वक इलाज होगा । इस इलाज में लोक-कल्याण के लिए मृत्यु दण्ड तक की गुंजायश है किन्तु द्वेष भाग से किसी को इस समझ लेना या उसकी भलाइयों को भी बुराई कहना अनुचित है । जैसे एक विचारबान डॉक्टर रोगी की सच्चे हृदय से मंगलकामना करता है और निरोग बनाने के लिए स्वयं कष्ट सहता हुआ जी तोड़ परिश्रम करता है वैसे ही आप पापी व्यक्तियों को निष्पाप् करने के लिए साम दाम दण्ड भेद चारों उपायों का प्रयोग कीजिए पर उन पापियों से किसी प्रकार का निजी राग-द्वेष मत रखिए ।