सहयोग और सहिष्णुता

घृणा की हानिकारक मनोवृत्ति

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सहयोग का मूल प्रेम की भावना है । अगर हम अपने परिचितों पडोसियों से प्रेमयुक्त व्यवहार करेंगे तो पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती जायगी । इसके विपरीत यदि हमारे हृदय में दूसरों के प्रति घृणा की भावना रहेगी हम अन्य लोगों को तिरस्कार की दृष्टि से देखेंगे तो इसके परिणाम स्वरूप हमारे आस-पास वैमनस्य का वातावरण उत्पन्न होगा । इसलिए सहयोग के इच्छुकों को घृणा की भावना से सदैव दूर रहना चाहिए । यह दूसरों के लिए ही अहितकर नहीं होती वरन् स्वयं हमारे लिए भी घातक सिद्ध होती है । घृणा की मनोवृत्ति किसी विशेष विचार को हमारे मस्तिष्क में बैठा देती है । संवेगों के उत्तेजित होने पर कभी-कभी यही बाह्यविचार का रूप धारण कर लेते हैं और जितना ही अधिक हम उनको भूलना चाहते हैं उतने ही वे हमारे मन को जकड़ते जाते हैं और अन्त में मानसिक रोग का रूप धारण कर लेते हैं । हमारा मन अचेतनावस्था में जिस किसी विचार को मस्तिष्क में स्थान देता है वही विचार कुछ समय के पश्चात् हमारी विशेष प्रकार की मनोवृत्तियों में परिणत हो कार्यरूप में प्रदर्शित होने लगता है । मान लीजिए कोई आदमी एक कोढ़ी को देखता है और उससे उसके स्वयं पर गहरा प्रभाव पड़ता है, तो वह उसी के सम्बन्ध में विचार करने लगेगा । ये विचार धीरे-धीरे दृढ़तर होते जाते हैं और इन पर ध्यान केन्द्रित न करने की इच्छा रखते हुए भी वह व्यक्ति इनका आना रोकने में अपने आपको असमर्थ पाता है । अगर यही अवस्था काफी दिनों तक रही तो इस बीमारी के चिन्ह उसमें भी प्रकट होने लगते हैं और अन्त में वह कोढ़ी बन जाता है । अतएब जब हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखें जिसके कारण हमारे मन में घृणा की भावना और तत्सम्बन्धी बाह्यविचारों से हम बहुत कुछ अंश में मुक्ति पाने में सफल हो सकेगे । हमको बहुत-सी मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ केवल इसी कारण से होती हैं कि हम उनसे स्वभावतः घृण मानते हैं या उनसे डरते हैं । अगर कोई व्यक्ति किसी कुरूप व्यक्ति को सदा घृणा की दृष्टि से देखता है तो वह प्रत्यक्ष में तो उससे बचने की चेष्टा करता है किन्तु कभी-कभी जब घृणा की भावना बलवती होती है तो वह प्रत्यक्ष में ही उस व्यक्ति को देखने लगती है । यह सब इसलिए होता है कि घृणा का भाव एक प्रकार से आत्मनिर्देश से प्रभावित हो हम घृणित गुणों को अपने आप में ही चरितार्थ करने लग जाते हैं ।

अगर हम चाहें तो दूसरे लोगों की शक्तियों को निर्लिप्त भाव से देख सकते हैं । इससे हमारे मन पर कोई भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ने पाता लेकिन जैसे हो हम किसी के दुर्गुणों पर संवेगात्मक रूप से विचार करने लग जाते है हमारे विचार अपना बुरा प्रभाव हमारे मन पर डालना आरम्भ कर देते हैं । साधारणतया किसी व्यक्ति के दुर्गुणों के सम्बन्ध में बार-बार सोचने से हमारे विचार संवेगात्मक रूप धारण कर लेते हैं अतएव इस प्रकार के विचार सदैव हानिकर होते हैं । इसी सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए संसार के सभी महापुरुषों ने अपराधी को क्षमा करने का उपदेश किया है । अपराधी को क्षमा प्रदान कर हम अपनी घृण की भावना का सहानुभूति के द्वारा रेचन कर डालते हैं ।

घृणा की मनोवृत्ति का मूल कारण हमारे मन में स्थित कोई ग्रन्थि होती है । हमें इस ग्रन्थि को पहचान कर सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए । ग्रन्थि के सुलझाते ही हमारी घृणा की मनोवृत्ति भी अपने आप नष्ट हो जावेगी । साधारणत: हम अपनी बुराइयों को स्वीकार नहीं करना चाहते किन्तु आध्यात्मिक नियम के अनुसार हमें एक न एक दिन अपनी बुराइयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । हमारी प्रकृति धीरे-धीरे हमें आत्म स्वीकृति की ओर ले जाना आरम्भ करती है । पहले हम अपने इन दुर्गुणों को दूसरे में देखने लगते हैं और धीरे धीरे उन्हीं पर विचार करते-करते स्वयं उनके शिकार बन जाते हैं । वास्तव में दुर्गुण कहीं बाहर से नहीं आते । वे तो पहले से ही हमारे भीतर मौजूद रहते हैं । हमीं उनकी उपस्थिति स्वीकार नहीं करते अतएव प्रकृति टेढे़-मेढे़ रास्ते से उनकी आत्म-स्वीकृति कराती है । अगर प्रारंभ में ही हम उन दुर्गुणों को मान ले तो उनसे छुटकारा पा जाये किन्तु जब प्रकृति जबरदस्ती इन्हें स्वीकार कराती है तो वे हमें पकड़ लेते हैं । फिर इनसे छुटकारा पाना उतना सरल नहीं होता ।

हमारे विचारों का दूसरे पर उसी समय प्रभाव पड़ता है जबकि उसकी मानसिक स्थिति इन विचारों को ग्रहण करने योग्य होती है । यही बात हमारे लिये के विचारों के सम्बन्ध में भी सत्य है । हमारे मन में अच्छे-बुरे जैसे भी विचार उठते हैं, सबकी पृष्ठभूमि हमारे ही अन्दर होती है । किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में बुरे विचारों का कारण भी हमारे ही अन्दर होता है । वास्तव में अज्ञात रूप से वे दुर्गुण् हमीं में उपस्थित रहते हैं किन्तु प्रकाशन का उचित मार्ग न पा उनका दमन होने लगता है और समय पाकर वे दूसरों की नुक्ता-चीनी की आदत के रूप में छूट पड़ते हैं । यही हाल दूसरों के प्रति हमारे श्रद्धा के भाव का भी है । वास्तव में हमारे मन में ही इन श्रद्धा के योग्य गुणों की पृष्ठभूमि रहती है । हमारा मन भी उन्हीं सद्गुणों को ग्रहण करने की योग्यता रखता है इसलिए वह इन गुणों का सम्मान करने को हमको प्रेरित करता है । उदारचित्त मनुष्य के विचार सदा उदार है । इस प्रकार के मनुष्य दूसरों में सदा भलाई ही देखा करते हैं । उसकी नजर किसी भी बुराई पर नहीं पड़ती ।

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