जैसे हम दूसरों के दोषों पर दृष्टि रखते हैं और उनका विरोध करते हैं उसी प्रकार अपने दोषों पर भी हमको निगाह रखनी चाहिए । ताली दोनों हाथों से बजा करती है । सहयोग के लिए दोनों ही पक्षों में श्रेष्ठता का होना आवश्यक है । जब तक हम अपने दुर्गुणों को दूर नहीं करेगे हमारी सहयोग और सहिष्णुता की बातें कोरी दिखावटी ही समझी जायेंगी । क्योंकि जब तक हम दूसरों के गुणों को उचित महत्व प्रदान करके उनको स्वयं भी स्वीकार करने का प्रयत्न न करेगें तव तक वे हमारे प्रति आकृष्ट नहीं हो सकते ।
गुणी बनना तो हम सब चाहते हैं पर संस्कार और सम्पर्क दोष से हममें दुर्गुण घुस जाते हैं उन्हें हम दूर नहीं कर पाते और अपनी योग्यता का विकास किए बिना उसके द्वारा होने वाले फल को प्राप्त नहीं किया जा सकता । अत: हमारे मनीषियों ने स्वानुभव से गुणी बनने के लिए एक बहुत सरल सीधा और सच्चा रास्ता बतलाया है जिसके द्वारा प्रत्येक मानव सहज ही में गुणी बन सकता हैं और उसके दोष क्रमश: कम एवं दूर किए जा सकते हैं । वह उपाय है-मनुष्य गुणों के प्रति अनुराग रखे गुणीजनों के प्रति आदर-सत्कार व भक्ति रखे । जैसे-जैसे मनुष्य का गुणानुराग बढ़ेगा वैसे-वैसे उसका खिंचाव गुणों के प्रति बढ़ कर वह गुणी बनता चला जायगा । यह क्रिया इतनी स्वाभाविक है कि इसमें विचार करने की और श्रम करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती । गुणी से प्रेम और गुणों के प्रति आकर्षण हो तो बस गुणी बनने का मार्ग प्रस्तुत होता चला जायगा ।
सत्संग का माहात्म्य और महापुरुषों के नाम स्मरण व गुण कीर्तन को जो बड़ा भारी फल हमारे शास्त्रों में वर्णित है उसका एक मात्र कारण यही है कि जैसे व्यक्तियों के साथ हमारा सम्पर्क होता है उनके गुण-दोष का प्रभाव हमारे पर भी पड़े बिना नहीं रहता | महापुरुषों में गुणों की प्रधानता होती है । अत: मनुष्य उनके गुणों को स्मरण करके यही चाहता है कि वह भी वैसा हो गुणी बन जाय । मनुष्य की जैसी इच्छा होती है उसी के अनुरूप उसकी प्रवृत्ति होती है और जिस चीज की इच्छा जितनी बलवती होगी तो प्रयत्न भी वैसे ही सबल होगें और उसकी पूर्णता भी उतनी ही शीघ्रता से हो सकेगी ।
वास्त्व में देखा जाय तो जो परमात्म पुरुष सिद्ध व बुद्ध हो चुके हैं वे किसी का भला-बुरा नहीं करते, पर उनके निमित्त से मनुष्य में अच्छी भावनाओं का उदय होता है गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ता है । अपने दोषों दुर्गुणों व कमियों का उसे ज्ञान होता है तथा दूर करने की भावना होती, है । इसी से मनुष्य पतन से बचकर उत्थान की ओर अग्रसर होता है । गुणों का आकर्षण जितना बढ़ेगा दोषों का सम्पर्क स्वयं उतना ही घट जायगा ।
प्राणि मात्र गुणों एवं दोषों के पुञ्ज हैं । किसी में गुणों की अधिकता है तो किसी में दोषों की । दृष्टि भिन्नता से कभी-कभी किसी के गुण दूसरों को दोष रूप लगने लगते हैं और दोष गुण । जिसकी दोष-दर्शन की दृष्टि होती है वह बड़े महापुरुषों में भी कोई न कोई दोष ढूँढ़ निकालता है, जबकि गुण ग्राहक व्यक्ति भयंकर पापी में से कोई न कोई गुण पा लेता है । थोड़े बहुत गुण और दोष सभी, में भरे हैं । देखने वाला स्वयं जैसा होगा या जिस गुण या दोष को महत्व देगा, उसे दूसरे में वही दिखाई देगा । हमारे दोष की इतनी प्रचुरता क्यों ? एवं गुणों की इतनी कमी क्यों ? इस प्रकार जब गम्भीर विचार करते हैं तो विदित होता है कि हमारी दृष्टि दूसरों के अवगुण को देखने में लगी रहती है । दोषों की ओर बहुत बार विशेष रूप से स्थान जाने के कारण ही हम में दोषों की प्रबलता और अधिकता हो जाती है । यदि हम अपनी दृष्टि को गुण ग्रहण में लगा दें, जहाँ कहीं भी जिस किसी में छोटा-मोटा जो भी गुण देखें उसे ग्रहण करने का लक्ष्य रखें अर्थात् गुणग्राही बनें तो गुणवान बनने में देर नहीं लगेगी । केवल अपनी दृष्टि या वृत्ति में परिवर्तन करने भर की देर है । दोष दृष्टि की जगह गुण दृष्टि को महत्व देना है फिर हमारा काम सरल और शीघ्र हो जायेगा । गुणग्राही व्यक्ति की दृष्टि बहुत उदार होती और विशाल हो जाती है । सामुदायिक अनुदार व संकुचित भावना नहीं होती । क्योंकि गुण प्रत्येक मनुष्य में पाये जाते हैं । यह किसी देश जाति सम्प्रदाय की ही बपौती नहीं । अत: गुणग्राही व्यक्ति को जहाँ भी थोड़ा बहुत गुण दिखाई देगा उसके प्रति आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता । संकुचित दृष्टि वाला अपने देश, जाति, सम्प्रदाय बालों के तो गुणों का बखान करेगा, पर उस सीमा के बाहर के व्यक्तियों के गुणों की ओर उसका ध्यान नहीं जायगा और लक्ष्य में आ जाने पर भी वह उनके गुणों की स्तुति करने में हिचकिचाएगा । ऐसी संकुचित वृत्ति को दृष्टि राग की संज्ञा दी जाती है । यदि व्यक्ति संकुचितता का आश्रय लेता है तो उसका संप्रदाय या व्यक्ति विशेष के प्रति इतना अधिक मोह हो जाता है कि उसे उसके दोष भी गुण रूप दिखाईं देने लगते हैं और दूसरों के गुण भी दोष रूप । अतएव हमें सावधानी रखनी आवश्यक है कि हमारी गुण दृष्टि संकुचित व अनुदार न हो । जहाँ कहीं किसी में भी गुण दिखाई दें बिना हिचकिचाहट के सराहना करें व गुणों को अपनाने का प्रयत्न करें ।