वस्तुतः: महाकाल का यह प्रथम आश्वासन है, जिसके पीछे पिछड़ों को ऊँचा उठाकर
समता का धरातल बनाने के लिए वचनबद्ध रहने का दैवी शक्तियों ने आश्वासन
दिलाया है। लोकमानस भी समय की प्रचंड धारा के विपरीत बने रहने का देर तक
दुराग्रह नहीं करता रह सकता। तूफान मजबूत पेड़ों को भी उखाड़ फेंकता है।
घटाटोप वर्षा में छप्परों से लेकर झोंपड़ों तक को बहते देखा जाता है। पानी
का दबाव बड़े- बड़े बाँधों में भी दरार डालने और उन्हें बहा ले जाने का
दृश्य प्रस्तुत करता है। यह महाकाल की हुंकार ही है, जिसने नारी को पिछड़े
क्षेत्र से हाथ पकड़कर आगे बढ़ने के लिए धकेला और घसीटा है। अब यह भी
निश्चित है कि नारी- शिक्षा का द्रुत गति से विस्तार होगा। शिक्षा और
व्यवस्था में पुरुष का ही एकाधिकार नहीं रहेगा। नारी- शिक्षा की परिवार-
परिकरों से लेकर शासकीय शिक्षा- विभाग तक में समुचित व्यवस्था बनानी होगी।
नारी- शिक्षा मात्र नौकरी दिलाने में काम आने भर का जादू, फुलझड़ी बनकर
समाप्त नहीं हो जाएगी, वरन उसके साथ- साथ समानता और एकता को हर क्षेत्र में
समान अवसर पाने, दिलाने की विधि- व्यवस्था भी जुड़ी रहेगी। इस कार्य को
अध्यापक, अध्यापिकाएँ करें, नहीं तो हर दिशा में उमड़ती हुई प्रगतिशीलता यह
कराकर रहेगी कि नारी अपना महत्त्व, मूल्य, अधिकार और भविष्य समझे,
अनीतिमूलक बंधनों को तोड़े और उस स्थिति में रहे, जिससे कि स्वतंत्र
वातावरण में साँस लेने का अवसर मिले। कहना न होगा कि यही लक्ष्य युगचेतना
ने भी अपनाया है तथा नर और नारी एक समान का उद्घोष निखिल आकाश में
गुंजायमान किया है।
असहाय रहने और अनुचित दबाव के नीचे विवश रहने की
परिस्थितियाँ समाप्त समझनी चाहिए। वे अब बदलकर ही रहने वाली हैं- कन्या
जन्म पर न किसी को विलाप करते देखा जाएगा और न पुत्र- जन्म पर कहीं कोई
बधाई बजाएगा। जो कुछ होगा, वह दोनों के लिए समान होगा। अगर अपने घर की
लड़की पराये घर का कूड़ा है तो दूसरे घरों का कूड़ा अपने घर में भी तो बहू
के रूप में गृहलक्ष्मी की भूमिका निभाने की, आने की तैयारी में संलग्न है।
फिर भेदभाव किस बात का? लड़की और लड़के में अंतर किसलिए? दोनों के
मूल्यांकन में न्याय- तुला की डंडी मारने की मान्यता किस लिए?
नारी की पराधीनता का एक रूप यह है कि उसे परदे में, पिंजड़े में बंदीगृह की
कोठरी में ही कैद रहना चाहिए। इस मान्यता को अपनाकर नारी को असहाय,
अनुभवहीन और अनुगामी ही बताया जाता रहा है। अबला की स्थिति में पहुँचने पर
वह अब आक्रांताओं का साहसपूर्वक मुकाबला कर सकने की भी हिम्मत गँवा बैठी
है, आड़े समय में अपना और अपने बच्चों का पेट पाल सकने तक की स्थिति में
नहीं रही है। व्यवसाय चलाना और ऊँचे पद का दायित्व निभाना तो दूर, औसतन
पारिवारिक व्यवस्था से संबंधित अनेक कार्यों में, हाट- बाजार अस्पताल तथा
अन्य किसी विभाग का सहयोग पाने के लिए जाने में भी झिझक- संकोच से डरी रहकर
मूक- बधिर होने जैसा परिचय देती है। इस प्रकार की विवशता उत्पन्न करने के
लिए जो भी तत्त्व जिम्मेदार होंगे, उन्हें पश्चात्ताप पूर्वक अपने कदम पीछे
हटाने पड़ेंगे। परिवार- परिकर के बीच नर और नारी बिना किसी भय व संकोच के
जीवन- यापन करते रह सकते हैं, तो फिर बड़े परिवार- समाज में आवश्यक कामों
के लिए आने- जाने में किसी संरक्षक को ही साथ लेकर जाना क्यों अनिवार्य
होना चाहिए?
विवाह की बात तय करने में अभिभावकों की मरजी ही
क्यों चले? यदि लड़की को भी लड़कों के समान ही सुयोग्य बनाने के लिए अधिक
समय तक शिक्षा- दीक्षा प्राप्त करने का औचित्य हो, तो फिर उसे बाल- विवाह
के बंधनों में बाँधकर घसीटते हुए किसी भी दूसरे पिंजड़े में स्थानान्तरित
किए जाने का क्या औचित्य हो सकता है? विवाह के बाद योग्यता- संवर्द्धन के
अवसर पूरी तरह समाप्त क्यों हो जाने चाहिए? अभिभावकों के घर लड़की ने जितनी
योग्यता और सम्मान अर्जित किया है, उससे आगे की प्रगति का क्रम जारी रखने
का उत्तरदायित्व ससुराल वालों को क्यों नहीं निभाना चाहिए? विवाहित होने के
बाद प्रगति के सभी अवसर छिन जाने और मात्र क्रीतदासी की भूमिका निभाते
रहने तक ही उसे क्यों बाध्य रखा जाना चाहिए? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनका उचित
उत्तर हर विचारशील को, हर न्यायनिष्ठ को व हर दूरदर्शी को छाती पर हाथ
रखकर देना चाहिए और सोचना चाहिए कि यदि उन्हें इस प्रकार बाध्य रहने के लिए
विवश किया जाता, तो कितनी व्यथा- वेदना सहनी पड़ती। अधिकांश बालिकाओं
द्वारा विवाह के बाद अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गँवा बैठना भी
इसीलिए देखा जाता है कि उन्हें आजन्म कैदी- जीवन जीकर किस प्रकार दिन
गुजारते रहने के अतिरिक्त और कोई भविष्य दिखाई नहीं देता।