कभी- कभी भटकाव के दुर्दिन भी आते और अपनी प्रकृति के अनुरूप अनेकानेक
त्रास भी देते हैं। मध्यकालीन सामंतवादी अंधकार युग में ऐसा कुछ अनर्थ उपजा
कि सब कुछ उलट- पलट हो गया- सिर नीचे और पैर ऊपर जैसे विचित्र दृश्य देखने
को विवश होना पड़ा, नारी की मूलसत्ता और आत्मा को एक प्रकार से भुला दिया
गया, उसे अबला समझा गया और कामिनी, रमणी, भोग्या व क्रीतदासी जैसी घिनौनी
स्थिति में रहने योग्य ठहराया गया। तिरस्कृत, शोषित, संत्रस्त और पददलित
स्थिति में रखे जाने पर हर विभूति को दुर्दशाग्रस्त होना पड़ता है। वही
नारी के संदर्भ में भी हुआ। पूज्य भाव कुदृष्टि के रूप में बदला और उसे
वासना की आग में झोंककर कल्पवृक्ष को काला कोयला बनाकर रख दिया गया।
मध्यकाल में नारी पर जो बीती, वह अत्याचारों की एक करुण कथा है- उसे
मनुष्य और पशु की मध्यवर्ती एक इकाई माना गया, मानवोचित अधिकारों से वंचित
करके उसे पिंजड़े में बंद पक्षी की तरह घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया
गया, कन्या का जन्म दुर्भाग्य का सूचक और पुत्र का जन्म रत्नवर्षा की तरह
सौभाग्य का सूचक माना जाने लगा, लड़की- लड़कों के बीच इतना भेदभाव और
पक्षपात चल पड़ा कि दोनों के बीच शिक्षा, दुलार एवं सुविधा- साधनों की
असाधारण न्यूनाधिकता देखी जाने लगी। अभिभावक तक जब ऐसे अनीति बरतें तो फिर
बाहर ही उसे कौन श्रेय और सम्मान प्रदान करे- ससुराल पहुँचते- पहुँचते उसे
रसोईदारिन, चौकीदारिन, धोबिन, सफाई करने वाली और कामुकता- तृप्ति की साधन-
सामग्री के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा, दूसरे दरजे की नागरिक ठहराया
गया, अनीति के विरुद्ध मुँह खोलने तक पर प्रतिबंध लग गया।
दोनों
के लिए अलग- अलग आचार- संहिताएँ चलीं- स्त्री के लिए पतिव्रत अनिवार्य और
पुरुष के लिए पत्नीव्रत का कोई अनुबंध नहीं, स्त्री के लिए घूँघट आवश्यक,
पर पुरुष के लिए खुले मुँह घूमने की छूट, विधवा पर अनेक प्रतिबंध और विधुर
के लिए कई विवाह कर लेने की स्वतंत्रता, विवाह में दहेज की वसूली कम मिलने
पर लड़की का उत्पीड़न, जल्दी बच्चे न होने पर दूसरे विवाह की तैयारी,
आर्थिक दृष्टि से सर्वथा अपंग तथा नागरिक अधिकारों से वंचित करने जैसी
अनीतियों से नारी को पग- पग पर सताया जाने लगा, फलतः: वह क्रमश: अपनी सभी
विशेषताएँ गँवाती ही गई। जिनमें रूप- सौंदर्य है, उन्हें पसंद किया जाता
है। और जो औसत स्तर की साधारण हैं, उन्हें कुरूप ठहराकर विवाह के लिए वर
ढूँढ़ना तक मुश्किल पड़ जाता है। और भी ऐसे कितने ही प्रसंग हैं, जिन पर
दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि एक वर्ग ने दूसरे वर्ग पर कितना
प्रतिबंध और अनाचार लादा है। नारी को प्रगति के लिए जिस प्रगतिशील वातावरण
की आवश्यकता है, उसके सभी द्वार बंद हैं।
भारत जैसे पिछड़े
देशों में नारी की अपनी तरह की समस्याएँ हैं और तथाकथित प्रगतिशील कहे जाने
वाले संपन्न देशों में दूसरे प्रकार की। संसार की आधी जनसंख्या को ऐसी
कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिन्हें यदि आड़े न आने दिया गया होता
तो नारी सदा की भाँति अभी भी नर की असाधारण सहायिका रही होती, पर उस
दुर्भाग्य को क्या कहा जाए, जिसने आधी जनशक्ति को पक्षाघात- पीड़ित की तरह
अपंग और असाध्य जैसी स्थिति में मुश्कें कसकर सदा कराहते और कलपते रहने के
लिए बाध्य कर दिया है। बाँधने और दबोचने की नीति ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट
करने से हाथ रोका नहीं है। बाँधने वाले को भी साथ- साथ अपने कुकृत्यों का
दंड भुगतने के लिए बाध्य कर दिया है- साथी को असमर्थ बनाकर रखने वालों को
उसका भार भी वहन करना पड़ेगा। ऐसी कुछ सहृदयता कहाँ बन पड़ेगी, जिसमें एक
और एक अंक समान पंक्ति में रखे जाने पर ११ बन जाते हैं। एक को ऊपर व एक को
नीचे रखकर घटा देने पर तो शून्य ही शेष बचता है। पिछड़ेपन से ग्रस्त नर और
नारी दोनों ही इन दिनों शून्य जैसी दयनीय स्थिति में रहने के लिए बाध्य हो
रहे हैं।