महिला जागृति अभियान

भारत अग्रणी था-अग्रणी रहेगा

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भारत को इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना है। जिस देश की संघमित्रा और आम्रपाली अपने सुविधा- साधनों को लात मारकर विश्व के कल्याण के लिए निकल पड़ी थीं और संसार भर में बौद्ध मठों की स्थापना एवं संगठन में असाधारण रूप से सफल हुई थीं, उसी देश में इन दिनों नारी का पिछड़ापन अभी भी बुरी तरह छाया हुआ है। देहाती क्षेत्रों में तो उसकी शिक्षा और सामाजिक स्थिति दयनीय स्तर की देखी जा सकती है, फिर भी समय का परिवर्तन इस पिछड़े क्षेत्र में भी चमत्कार प्रस्तुत करने के लिए कटिबद्ध हो रहा है और प्रगतिशीलता की नई उमंगें उभर रही हैं।

    भारत में पंचायती राज स्थापित होने की भूमिका बनाई गई है, साथ ही चुने हुए पंचों में नारी को तीस प्रतिशत अनुपात से चुने जाने की घोषणा हुई है। आशा की गई है कि वह अनुपात प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर भी ऊँची मान्यता प्राप्त करेगा। जनजातियों के आरक्षण की तरह अन्य महत्त्वपूर्ण भागों और पदों पर भी उनका समुचित ध्यान रखा जाएगा। समय की इस माँग को किसी के द्वारा भी झुठलाया नहीं जा सकता।

    बात भले ही शासकीय क्षेत्रों में प्रवेश पाने से आरंभ हो, पर यह प्रगतिक्रम उतने छोटे क्षेत्र तक ही सीमित होकर नहीं रह सकता। यह प्रतीक मात्र है कि उनकी उपयोगिता समझी जाने लगी। और समुचित सम्मान मिलने की प्रथा चल पड़ी है। सुधारने- संभालने के लिए अभी अगणित क्षेत्र खाली पड़े हैं। उन्हें सुव्यवस्थित करने की जिम्मेदारी नारी के कंधों पर अनायास ही बढ़ती चली आ रही है। सहकार का महत्त्व समझ में आने लगा है कि टाँग पकड़कर पीछे घसीटने का भौंड़ा खेल हर किसी के लिए हर दृष्टि से हानिकारक और कष्टदायक ही हो सकता है।

    अगले दिनों नारी स्वाभाविक रूप से अधिक समर्थ, कुशल और सुसंस्कृत बनने जा रही है। यह उसके नवजीवन का स्वर्णिम काल है। वर्षा ऋतु आए और हरियाली का महत्त्व दीख न पड़े, यह हो ही नहीं सकता। वसंत का अवतरण हो और पेड़- पादपों पर रंग- बिरंगे फूल न खिलें, यह हो ही नहीं सकता, प्रभात उगे और अंधकार एवं निस्तब्धता का माहौल बना रहे, यह अनहोनी होती दीख पड़े, इसकी आशंका किसके मन में रहेगी? नारी युग की अधिष्ठात्री, धरती की देवी अपनी गरिमा सिकोड़े- समेटे और दबाए- दबोचे बैठी रहे, यह विपन्नता क्यों, कैसे और कब तक बनी रह सकती है? समर्थता के साथ- साथ समझदारी भी बढ़ती है और वह अदृश्य के मार्गदर्शन में अभ्युदय की दिशा में चल पड़े, तो उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले चमत्कारों से वंचित ही बने रहना किस कारण रुका रह सकेगा?

    नारी के अनुदान कभी भी हलके स्तर के नहीं रहे। उसने धरित्री के, ऊर्जा के, वर्षा के व प्राणवायु के सदृश अपनी विभूति- वर्षा से संसार के कण- कण को सरस, सुंदर एवं समुन्नत बनाया है। करुणा, दया, सेवा उसका समर्पण और उसकी अनुकंपा ही है, जो इस संसार को सुरम्य और सुसंस्कृत रखे रह पा रही है। अगले दिनों तो उसे अपनी महत्ता का परिचय और भी बढ़- चढ़कर देना है। प्रतिकूलता को अनुकूलता में, पतन को उत्थान में और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना अगले दिनों उसी का अग्रगम्य अनुदान होगा।

    यह सब कुछ अनायास ही नहीं हो जाएगा। नियति चाहे कुछ भी क्यों न हो, पर उनके लिए पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है। बुद्ध और गाँधी जैसी देवात्माएँ विश्व- कल्याण के लिए अवतरित हुई थीं, पर यह लक्ष्य अनायास ही पूरा नहीं हो गया, उन्हें स्वयं तथा उनके सहयोगियों को निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए त्याग और साहस भरे प्रयत्न करने पड़े थे। हनुमान और अर्जुन महाप्रतापी बनने के लिए जन्मे थे। उन्हें दैवी अनुग्रह भी विपुल परिमाणों में प्राप्त था, पर यह भुलाया नहीं जा सकता कि उन्हें अपने साथियों सहित, असाधारण पुरुषार्थ का परिचय देना पड़ा था- अनायास तो सामने थाली में रखे भोजन को अपने आप मुँह में प्रवेश करते और पेट में पड़कर क्षुधा- निवारण करते नहीं देखा गया- फिर युग- अवतरण के लिए संभावित नारी- पुनरुत्थान भी अपना उचित मूल्य माँगे तो उसमें आश्चर्य ही क्या है?

    प्रत्यक्षतः: तो शिक्षा- स्वावलंबन परिवार- पोषण व कला- कौशल जैसे क्षेत्रों में नारी का सहयोग करने भर से काम चल रहा है। इन कामों में विचारवानों से लेकर सरकार तक का सहयोग मिल रहा है। वे नौकरियों में भी प्रवेश कर रहीं हैं। इन लक्ष्यों को प्रगति का नाम भी मिल रहा है। इतने पर भी एक भारी कठिनाई अभी भी आ रही है, जो मान्यताओं और प्रथाओं के रूप में अदृश्य होते हुए भी इतना अनर्थ कर रही है कि उसकी तुलना में दृश्यमान विकास कार्यों में होने वाले लाभों को नगण्य ही कहा जा सकता है।
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