नारी का परमपूज्य दैवी रूप जीवसृष्टि की संरचना जिस आदिशक्ति महामाया द्वारा संपन्न होती है, उसे विधाता भी कहते हैं और माता भी। मातृशक्ति ने यदि प्राणियों पर अनुकंपा न बरसाई होती, तो उसका अस्तित्व ही प्रकाश में न आता। भरण की आरंभिक स्थिति एक सूक्ष्म बिंदु मात्र होती है। माता की चेतना और काया उसमें प्रवेश करके परिपक्व बनने की स्थिति तक पहुँचाती है। प्रसव- वेदना सहकर वही उसके बंधन खोलती और विश्व- उद्यान में प्रवेश कर सकने की स्थिति उत्पन्न करती है। असमर्थ- अविकसित स्थिति में माता ही एक अवलंबन होती है, जो स्तनपान कराती और पग- पग पर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यदि नारी के रूप में माता समय- समय पर चित्र- विचित्र प्रकार के अनुग्रह न बरसाती तो मनुष्य ही नहीं, किसी भी जीवधारी की सत्ता इस विश्व- ब्रह्माण्ड में कहीं भी दृष्टिगोचर न होती, इसलिए उसी का जीवनदायिनी ब्रह्मचेतना के रूप में अभिनंदन होता है। वेदमाता, देवमाता व विश्वमाता के रूप में जिस त्रिपदा की पूजा- अर्चना की जाती है, प्रत्यक्षतः: उसे नारी ही कहा जा सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त प्रतिभावान प्राणियों में देव- दानवों की गणना होती है। कथा है कि वे दोनों ही दिति