महिला जागृति अभियान

नारी-अवमूल्यन को रोका जाए

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बच्चों के पेट में रखने के लिए तो नारी- समाज ही विवश है, पर अब यह माँग संसार भर में उठ रही है कि उनके पालन- पोषण में पिता की भी उपयुक्त भागीदारी होनी चाहिए और उन्हें भी दुलार देने, खेल खिलाने, समस्याओं को निपटाने तथा सुसंस्कारी बनाने में अपना समय नियमित रूप से लगाना चाहिए, भले ही वह आर्थिक अथवा किसी और दृष्टि से कितने ही मूल्यवान क्यों न हो! अभी कुछ ही महीनों पूर्व स्वीडन सरकार तथा समाज ने यह निर्धारण किया है कि जिस प्रकार महिलाओं को प्रसूति के अवसर पर नौकरियों से छुट्टी लेनी पड़ती है, उसी प्रकार पुरुष भी बच्चों के पालन- पोषण में अपनी सहभागी स्तर की जिम्मेदारी उठाएँ और छुट्टी लेकर बच्चों के साथ रहें। ‘‘पुरुषों द्वारा इस पर आपत्ति की गई कि इससे उनके अनुभव में कमी पड़ने से पदोन्नति रुकेगी तथा प्रतिस्पर्द्धाओं में बैठकर ऊँचा पद पाने में असमर्थ रहेंगे ।’’ यह ऐतराज इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि यही तर्क महिलाएँ भी तो दे सकती हैं। उन्हें भी तो घाटा उठाना और कष्ट सहना पड़ता है। संतानोत्पादन में पुरुष भी उतना ही उत्साह दिखाता है तो फिर इस कृत्य के फलितार्थों से निपटने में क्यों अपनी जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाकर भागने का प्रयत्न करना चाहिए?

कानून पास हो जाने से अब उसका दबाव पुरुषों पर भी पड़ेगा। अब तक दंड भुगतने के लिए अकेले नारी को ही बाध्य किया जाता रहा है, अब पुरुषों को भी नफे में ही नहीं, नुकसान में भी सहभागी रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। आरंभ भले ही स्वीडन से हुआ हो, पर उसका विस्तार सभी जगह होगा। सूरज भले पर्वत शिखर पर से उगता दिखाई पड़े, पर उसका प्रकाश क्रमश: समस्त संसार पर हो जाएगा। जापान में राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के उत्साहपूर्वक बाजी मारने का प्रभाव भारत पर पड़ा है और उन्हें ३० प्रतिशत स्थान सुरक्षित करा लेने का अवसर मिला है। अब यह प्रचलन आगे बढ़ेगा और महिलाओं को हेय मानने, त्रास देने, व असमानता के भेदभाव बरतने का प्रचलन क्रमश: संसार के सभी भागों से हटता चला जाएगा, भले ही इससे इच्छित लाभ उठाने के लिए कई तर्क प्रस्तुत करते रहने वालों को कुड़कुड़ाते ही क्यों न रहना पड़े, उनका विरोध नियति के अभिनव निर्माण के सामने टिक न सकेगा।

    जो होकर ही रहना है, उसके साथ टकराने की अपेक्षा लाभ इसी में है कि समय से पूर्व समझौता करके अपनी सदाशयता की कुछ पहचान तो छोड़ ही दी जाए। अंग्रेजों ने बदलते समय को भाँप लिया था, इसलिए उलटी लातें खाकर खदेड़े जाने का कटु प्रसंग उपस्थित नहीं होने दिया और समझौते की नीति अपनाकर विदाई के दिनों कटुता के स्थान पर सद्भावना सहित वापस गए। अस्तु भारत अभी तक स्वेच्छापूर्वक राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना हुआ है।

    हरिजनों- आदिवासियों को आरक्षण एवं विशेष सुविधाएँ देकर समय रहते समानता का अधिकार स्वीकार कर लिया गया है। गलतियों का प्रायश्चित्त हो रहा है। यदि इस सद्भावना का परिचय न दिया गया होता, तो निश्चय ही संसार में बह रही विकास की हवा उन्हें उत्तेजित किए बिना न रहती ।। जो परिवर्तन इन दिनों अच्छे वातावरण में हो रहा है, उसी के लिए दुराग्रह पर अड़े रहने से अपेक्षाकृत कहीं अधिक घाटे का सामना करना पड़ता। महिलाओं के प्रति भी पुरुष वर्ग द्वारा समय रहते न्यायोचित अधिकारों की माँग को मान्यता दे दी जाती है तो इसमें दोनों पक्ष नफे में रहेंगे, अन्यथा विग्रह की टकराव भरी स्थिति आने तक बात बढ़ जाए, तो फिर भूल सुधारने में देर लग जाएगी। संसार में ऐसे भी बहुत क्षेत्र हैं, जहाँ नारी- प्रधान समाज- व्यवस्था चल रही है। वहाँ समूचे अधिकार महिलाओं के ही हाथ में रहते हैं। नर को तो अपनी विवशता के कारण उनका आज्ञाकारी- अनुवर्ती मात्र बनकर रहना पड़ता है। अच्छा हो कि ऐसा आमूल- चूल परिवर्तन का सामना अपने समाज को न करना पड़े।

पिछली शताब्दी में अगणित राजनीतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक क्रांतियाँ हुई हैं। उनमें जीती तो यथार्थता और न्याय- निष्ठा ही है, पर वह उथल- पुथल ऐसे घटनाक्रमों का इतिहास अपने पीछे छोड़ गई है, जिनको स्मरण करके रोमांच हो आता है। घृणा- द्वेष के भाव अभी तक भी विचारवानों के कान में यथावत बने हुए हैं और पराजितों के प्रति सहानुभूति होने की अपेक्षा तिरस्कार भरी प्रतिक्रिया ही व्यक्त की जाती रहती है। वैसे दुर्दिन हम सबको न देखने पड़ें, इसी में समझदारी है। समता और एकता का अटल परिवर्तन किसी के रोके रुकने वाला तो है नहीं, अधिक- से इतना हो सकता है कि भवितव्यता को चरितार्थ होने में समय लगे।

    नारी समस्या के पीछे अनीतिमूलक दुर्भावनाओं का अहंकारी मानस ही प्रमुख बाधा बना हुआ है। यदि औचित्य को अपना लिया जाए और लाभ- हानि का सही आकलन कर लिया जाए, तो प्रतीत होगा कि संघर्ष में उलझने की अपेक्षा सहयोग की नीति अपनाना अधिक श्रेयस्कर है। उठने में सहायता देकर एहसान जताने और कृतज्ञता भरी सद्भावना उपलब्ध करने में लाभ- ही है। इस लाभ को इन दिनों के सुअवसर पर उठाया न जा सका, तो समय निकल जाने पर अपेक्षाकृत कहीं अधिक घाटा सहन करना पड़ेगा। समता और एकता के सिद्धांत संसार भर के दुखी समाज को अपना लिए जाने के लिए बाध्य कर रहे हैं। यह हो ही नहीं सकता कि आधी जनसंख्या नारी को उस महान परिवर्तन से विलग रखने के कोई प्रयत्न देर तक सफल होते रहें ।। सामंतवाद चला गया। अब सामाजिक सामंतवाद की विदाई की वेला भी आ ही पहुँची है। उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता।

    उपयुक्त यही होगा कि भारत के जिस अहिंसक सत्याग्रह का समर्थन देश की पूरी जनता ने किया और असंभव दीखने वाले नागपाश से छूटने में सफलता प्राप्त कर ली, अब उसी का उत्तरार्द्ध सामाजिक क्रांति के रूप में उभरना चाहिए। न्याय को मान्यता दिलाने में भी उसी रीति- नीति को अपनाया जाए, जो सत्याग्रह के दिनों समूचे देश में ही नहीं, संसार भर में उभर आई थी। नारी- मुक्ति आंदोलन पाश्चात्य देशों में कटुता भरे वातावरण में संघर्ष और प्रतिशोध के रूप में उभर रहा है। अच्छा हो कि वे टकराव से बचें और समझौतावादी उदारता अपनाने भर से कठिन दीखने वाला मोरचा सुलह- सफाई के वातावरण में ही निपट जाए।

    इसके लिए मात्र भ्रांतियों का निराकरण ही वह कार्य है, जिससे कायाकल्प जैसा सुखद- सुयोग सहज ही हस्तगत हो सकता है। यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि नर और नारी, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एकता और सद्भावना के वातावरण में ही उनके बीच सहकारिता विकसित हो सकती है और अक्षुण्ण बनी रह सकती है। लड़के- लड़की के बीच, कन्या और वधू के बीच बरता जाने वाला पक्षपातपूर्ण भेदभाव अब पूरी तरह समाप्त हो ही जाना चाहिए। दोनों को दो हाथ, दो पैर, दो आँख और दो कान की तरह परस्पर सहयोगी और समान महत्त्व पाने के अधिकारी मानकर चलने में ही समझदारी है।
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