क्या धर्म ? क्या अधर्म

बहुत के लिए थोड़े का त्याग

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
द्विविधा पूर्ण गुत्थी को सुलझाने के लिए ‘बहुत के लिए थोड़े का त्याग’ की नीति बहुत ही उपयुक्त है। किसान जब बीज बोता है तो फसल पर विशाल अन्न राशि प्राप्ति करने की इच्छा से घर में रखा हुआ अन्न खेत में बिखेर देता है। व्यापारी अपना कारोबार आरम्भ करता है, लाभ की आशा से नकद पूंजी को माल असबाव में फंसा देता है। महाजन सूद की आशा से अपना रुपया कर्जदार को दें देता है। कारण यह है कि हर एक बुद्धिमान व्यक्ति इस नीति से भली प्रकार परिचित है कि अधिक लाभ के लिए थोड़ी जोखिम उठाना भी आवश्यक है। बीमार होने पर सोने-चांदी प्रिय वस्तुएं हैं, तो भी जिन्दगी के मुकाबले में उनका मूल्य कम है, इसलिए अधिक मूल्य की वस्तु के लिए कम मूल्यवान वस्तु खर्च कर दी जाती है। नामवरी के कार्यों में धर्म-कार्यों में, गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च कर दिया जाता है क्योंकि यश से, पुण्य से मन को जो आनन्द मिलता है वह पैसा जमा करने के आनन्द की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है। घाव में कीड़े पड़ गये हैं, डॉक्टर देखता है कि यदि कीड़े जीवित रहेंगे तो रोगी मर जायगा। उसके सामने धर्म-संकट आता है कि कीड़ों को मार दूं या रोगी मरने दूं? बुद्धि कहती है कि कीड़ों की अपेक्षा संसार के लिए मनुष्य अधिक उपयोगी है, डॉक्टर घाव पर विषैली दवा लगाता है। बच्चे के पांव में कांटा घुस गया है, निकालने के लिए उस स्थान को छूते ही बालक दर्द के मारे चिल्लाता है। माता सोचती है निकालने में इसको कष्ट होता है, पर यदि कांटा लगा रहेगा तो कष्ट की मात्रा अनेक गुनी बढ़ जायगी। इसीलिए वह जबरदस्ती करती है, बच्चे के हाथ-पांव पकड़कर कांटा निकालती है, बच्चा चीखता-चिल्लाता है, पर वह तो निकाल कर ही मानेगी। कारण यह है कि माता का विवेक उससे कहता है कि बड़े कष्ट का निवारण करने के लिए छोटा कष्ट देने में कोई हर्ज नहीं है। समाज के लिए हानि पहुंचाने वाले हिंसक, हत्यारे, डाकू लोग अदालत द्वारा मृत्यु-दण्ड पाते हैं। एक आदमी की जान जा रही है, पर उससे असंख्य व्यक्तियों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कठिनाई का निवारण होता है। अतएव जज उस हिंसा की परवाह नहीं करता जो मृत्युदण्ड देने में होती है। बहुत के लाभ के लिए थोड़ी हानि भी उठाई जा सकती है।

त्यागी, साधु पुरुष अन्य लोगों को सुखी बनाने के लिए अपनी जीवन अर्पण कर देते हैं, वे स्वयं कष्टपूर्वक निर्वाह करते हुए भी अन्य लोगों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि हमारे अकेले के कष्ट से यदि अनेक प्राणियों को सुख मिलता है, तो वही अधिक लाभ है। वीर क्षत्राणियां अपने पतियों को युद्ध-भूमि में प्रसन्नतापूर्वक भेज देती हैं और वैधव्य को स्वीकार कर लेती हैं, क्योंकि सुहाग सुख की अपेक्षा कर्तव्य को वे ऊंचा मानती हैं। सती-साध्वी महिलाएं सतीत्व की रक्षा के लिए प्राणों पर खेल जाती हैं। उनका विश्वास होता है कि शरीर की अपेक्षा सतीत्व का महत्व अधिक है। श्रेष्ठ पुरुष अपमान की जिन्दगी से आबरू की मौत पसन्द करते हैं क्योंकि वे जिन्दगी से आबरू को बड़ा मानते हैं।

दार्शनिक यीगल ने अपने ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या करते हुए ‘‘अधिक लोगों के अधिक लाभ’’ को प्रधानता दी है। जिस काम के करने से समाज की सुख-शान्ति में वृद्धि होती हो उसके लिए थोड़े लोगों को कुछ कष्ट भी दिया जा सकता है। करोड़ों गरीबों को भोजन देने के लिए यदि पूंजीवादी व्यवस्था बदलनी पड़े और उससे थोड़े पूंजीपतियों को कुछ कष्ट होता हो तो वह सहन करना पड़ेगा। पशु-वध बन्द होने से कसाई के कुत्तों को भूखा रहना पड़े तो उसे बर्दास्त कर लिया जायगा। बड़े कष्ट को निवारण करने के लिए छोटा कष्ट देना पड़े तो वह एक सीमा तक क्षम्य है। एक मनुष्य भूखा मर रहा हो और दूसरा आवश्यकता से अधिक भोजन लादे फिरता हो तो भूखे की प्राण रक्षा के लिए दूसरे से थोड़ा अन्न बलपूर्वक छीन करके भी दिया जा सकता है।

***

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118