पिछले पृष्ठों पर बताया गया है कि हर एक व्यक्ति चाहे वह भले कर्म करता हो या बुरे निःसन्देह सच्चिदानन्द की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहा है। मानव जीवन की धारा इसी निश्चित दिशा में प्रवाहित हो रही है, उसका पलटना या बदलना किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं क्योंकि वह ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक धर्म वृत्ति है। मनुष्य जन्म से ही उसे साथ लेकर पैदा होता है।
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जब सभी मनुष्य स्वाभाविक धर्म का पालन कर रहे हैं तो फिर पाप-पुण्य का, उचित-अनुचित का, भले-बुरे का भेद क्यों है? किन्हीं कार्यों को धर्म और किन्हीं कार्यों को अधर्म क्यों कहा जाता है? पापी और पुण्यात्मा का भेद क्यों किया जाता है? इन प्रश्नों का तात्विक समाधान जानने के लिए हमें भले और बुरे कर्मों के बीच में जो भेद है, उसे समझना होगा। वास्तव में कर्म तो एक भी बुरा नहीं है, पर उनको करने की व्यवस्था में अन्तर आ जाने से रूप बदल जाते हैं। एक ही कर्म, व्यवस्था-भेद से पाप भी हो सकता है और पुण्य भी। जैसे ‘दान देना’ एक कर्म है। यदि सत्पात्र को दान दिया जाय तो वह पुण्य हुआ और यदि कुपात्र को दान दिया जाय तो वही पाप है। ‘मैथुन’ एक कर्म है। यदि वह स्वपत्नी के साथ हो तो उचित है किन्तु यदि परपत्नी के साथ हो तो अनुचित है। ‘मद्यपान’ एक कर्म है। यदि रोग निवृत्ति के लिए औषधि रूप में उसे सेवन किया जाय तो योग्य है, किन्तु उन्मत्त होने के लिए उसे किया जाय तो अयोग्य है। ‘हिंसा’ एक कर्म है। यदि अत्याचारी, दुष्ट, घातक प्राणी को मार डाला जाय तो उचित है किन्तु उपकारी, हानि न करने वाले, निर्दोष प्राणी को मार डाला जाय तो वह अनुचित है। अदालत की आज्ञानुसार अपराधी को फांसी देने वाला व्यक्ति पापी नहीं होता, न सिंह, सर्पादि दुष्ट जीवों को हनन करने वाला क्षत्रिय पापी कहा जाता है। किन्तु निर्दोष को मारने वाला अपराधी ठहराया जाता है। परोपकार के लिए, धर्म-कार्य के लिए, विवेकपूर्वक यदि चोरी, ठगी, झूठ, दल का भी आश्रय लेना पड़े तो वह अधर्म नहीं ठहरता। पाठक गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे तो उनकी समझ में यह बात भली प्रकार आ जायगी कि जितने भी कार्य मनुष्य द्वारा होते हैं, वे कर्म स्वतः भले या बुरे नहीं हैं पर उनका प्रयोग जिस रूप में किया जाता है उसके अनुसार वे पाप-पुण्य बन जाते हैं।
दो रसोइया भोजन बनाते हैं। एक का भोजन अच्छा बना दूसरे ने अज्ञान से उसमें बहुत-सी त्रुटियां रहने दीं। खाने वाला अच्छा भोजन बनाने वाले की प्रशंसा करेंगे, उसे सुयोग्य ठहरावेंगे। परन्तु जिसने भोजन बनाने में बहुत-सी भूलें की थीं, उसकी तैयार की हुई वस्तुएं ठुकराई जायेंगी, खाने वाले उससे नाराज होंगे, हर कोई कटु शब्द कहेगा। मालिक उसे दण्ड भी देगा। दोनों ही रसोइयों ने वस्तुतः अपना नियत कर्म ही किया था। मूल कर्म में कुछ दोष न था पर कार्य करने की पद्धति में भेद हो जाने से एक को भलाई और दूसरे को बुराई मिली, एक ने आदर पाया, दूसरा तिरस्कार का भाजन बना। पाप-पुण्य की भी ऐसी ही बात है। अपनी तरक्की के लिए, ज्ञान वृद्धि के लिए, आनन्द प्राप्त करने के उद्देश्य से ही समस्त मनुष्यों के सब काम होते हैं। इन तीन को छोड़कर चौथे उद्देश्य में कोई भी व्यक्ति कुछ काम नहीं करता। साधु, सन्त, त्यागी, परोपकारी या दुष्ट दुराचारी सभी कोई उपरोक्त तीन आकांक्षाओं में प्रेरित होकर अपने-अपने कार्य कर रहे हैं। इनमें से चतुर रसोइए की भांति जो लोग सावधानी और बुद्धिमानी से अपनी कार्य पद्धति निर्माण करते हैं वे पुण्यात्मा कहे जाते हैं और जो असावधानी एवं अदूरदर्शिता के साथ काम करते हैं उन्हें पापी कहा जाता है।
अमुक कर्म पाप है, अमुक पुण्य है, यह निर्णय करने में सृष्टि के आदि से ही सम्पूर्ण धर्म शास्त्र और तत्ववेत्ता लगे हुए हैं। अब तक पाप-पुण्य की परिभाषा करने में हजारों धर्म निर्मित हो चुके हैं परन्तु कोई सर्व सम्मत फैसला न हुआ। एक दल के विद्वान जिन कार्यों एवं विचारों को धर्म ठहराते हैं दूसरे उसे अधर्म कह देते हैं। इस प्रकार लोक में बुद्धि भ्रम तो बढ़ता है पर कुछ ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो पाता। महाभारतकार का मत इस सम्बन्ध में हमें सबसे अधिक बुद्धि संगत प्रतीत हुआ है। भगवान व्यास ने लिखा है—‘‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीडनम्’’ अर्थात् परोपकार पुण्य है और दूसरों को दुःख देना पाप है। दूसरों के साथ उपकार करना पुण्य इसलिए है कि इससे अपनी तीनों मूल वृत्तियों के बढ़ने में विशेष सहायता मिलती है। यह एक निश्चित नियम है कि जैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ करते हैं वैसा ही व्यवहार दूसरे हमारे साथ भी करते हैं। यदि हम दूसरों के मार्ग में बाधक नहीं हों तो बहुत अंशों में दूसरे लोगों का व्यवहार भी हमारे प्रति वैसा ही होगा। चोर, डाकुओं को चारों ओर अपने पकड़ने वाले ही दिखाई पड़ते हैं किन्तु सज्जन, धर्मात्मा एवं ईमानदार व्यक्ति निधड़क पैर पसार कर सोते हैं। उन्हें आत्मिक अशान्ति का अनुभव नहीं करना पड़ता जैसा कि दूसरों को हानि पहुंचाने वाले लोगों का कलेजा हर घड़ी कांपता रहता है। सत्पुरुषों का सर्वत्र आदर होता है, वे निर्धन होते हुए भी बेताज के बादशाह होते हैं। कारण यह है कि परोपकार वृत्तियों में बहुत बड़ा आध्यात्मिक आकर्षण होता है। फूल की सुगन्ध से मुग्ध मधुमक्खियां इसके चारों ओर भिनभिनाती फिरती हैं वैसे ही परमार्थी स्वभाव के आकर्षण से अन्य लोग अपने आप प्रशंसक एवं सहायक बन जाते हैं।
अपने कार्यों को सेवा युक्त बना देने से अन्तःकरण को असाधारण शान्ति प्राप्त होती है। जीवन में पग-पग पर उल्लास बढ़ता जाता है। क्रूरता, कुटिलता, छल-पाखण्ड से जो मानसिक उद्वेग उत्पन्न होता है, वह जीवन को बड़ा ही अव्यवस्थित, अशान्त एवं कर्कश बना देता है। मानव जीवन में जो आध्यात्मिक अमृत छिपा हुआ है वह स्वार्थी लोगों को उपलब्ध नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपने ही सुख का ध्यान रखता है, अपनी ही चिन्ता करता है और दूसरों के स्वार्थों की परवाह नहीं करता वह बड़ी विषम स्थिति में फंस जाता है। सब लोग उससे घृणा करते हैं, कोई भी सच्चे दिल से उसे प्यार नहीं करता। यह हो सकता है कि मतलबी चापलूस उसकी हां में हां मिलावें, यह भी हो सकता है कि उसकी शक्ति के आतंक से डरकर विरोध करने वाले कुछ प्रत्यक्ष हानि न पहुंचा सकें तो भी अदृश्य रूप से वह बड़े भारी घाटे में रहता है। स्वार्थी मनुष्य अपेक्षाकृत अपने लिए अधिक सुख चाहता है इसके लिए दूसरों को सताता है, सताये हुए व्यक्ति की आत्मा में से शाप युक्त आहें निकलती हैं जो शब्दबेधी बाण की तरह उसके पीछे चिपक जाती हैं और उसे घोर मानसिक कष्ट देती रहती हैं। जिन लोगों की प्रत्यक्ष हानि नहीं की है वे भी स्वार्थी की अनीति से घृणा करते हैं और वे असंख्य मनुष्यों की घृणा भावनाएं उस स्वार्थी के लिए अदृश्य रूप से बड़ी घातक परिणाम उपस्थित करने में लग जाती हैं। मोटी बुद्धि से देखने में स्वार्थी मनुष्य भौतिक वस्तुएं इकट्ठी कर लेने वाला, मालदार भले ही दिखाई देता हो, परन्तु वह असल में बहुत बड़े घाटे में रहता है, उसकी सारी मानसिक सुख, शान्ति नष्ट हो जाती है।
परमार्थमय जीवन बिताने पर, अपने कार्यों को दूसरे के लिए लाभदायक बना देने पर अपना जीवन बिलकुल निरापद एवं प्रफुल्लित हो जाता है। त्याग भावना को, प्रेम व्यवहार को प्रमुख नीति बना लेने पर किसी से संघर्ष होने का अवसर उपस्थित नहीं होता और न शाप एवं घृणा के शब्दबेधी बाण आत्मा को हर घड़ी घायल करते हैं वरन् दूसरों के आशीर्वाद, शुभ संकल्प, सद्भाव देवताओं की भांति पुष्प वृष्टि करते हैं। अदृश्य लोक से अपने ऊपर अमृत वृष्टि होती हुई, हमारा अन्तःकरण अनुभव करता है, जिसके कारण मानस लोक उल्लास और आनन्द से भरपूर बना रहता है। उत्तम स्वभाव वाला परमार्थी मनुष्य अपने दैवी प्रभाव से आस-पास के लोगों पर वैसा ही प्रभाव डालता है, जिससे एक उत्तम समाज का निर्माण होने लगता है। पड़ौसियों के साथ हम प्रेम, भलमनसाहत, न्याय और ईमानदारी का व्यवहार करते हैं तो वह भी उसका अनुकरण करने के लिए बहुत अंशों में प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार मनुष्य अपने और दूसरे के जीवन को, परमार्थ नीति के अपना लेने पर सुख-शांति पूर्ण बना लेते हैं।
इस लेख के आरम्भ में ही यह कहा गया है कि किसी कर्म को बुरा या भला बतलाना ठीक नहीं क्योंकि कर्म तो एक पदार्थ है—जैसे लोहा। लोहे से शास्त्र रचना करने वाली लेखनी भी बन सकती है और हत्या करने वाली छुरी भी बन सकती है। वस्तु एक है पर प्रयोग भेद से वह दो भिन्न प्रकार की हो गई। पाप-पुण्य भी ऐसे ही किसी एक कार्य के दो प्रयोग भेद हैं। व्यासजी ने परोपकार को पुण्य और स्वार्थ को पाप बता कर एक बहुत ही उत्तम सम्मति प्रकट की है। अपने लिए अपेक्षाकृत अधिक चाहना पाप है और दूसरों की सुविधा का अधिक ध्यान रखना पुण्य है। स्वार्थी को पापी और परमार्थी को पुण्यात्मा कहा जा सकता है, क्योंकि स्वार्थ से स्वयं मानसिक अशान्ति प्राप्त होती है एवं दूसरों को कष्ट होने के कारण विरोधी वातावरण उत्पन्न होता है, परमार्थ से आत्मिक शान्ति उपलब्ध होती है, दूसरे लोग सुख पाते हैं, समाज में शान्ति रहती है और सद्भावों का सुखदायी वातावरण उत्पन्न होता है।
कर्मयोग के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों के अनुसार कोई व्यक्ति साधारण काम-काज करता हुआ भी संन्यासी और तपस्वियों की गति प्राप्त कर सकता है। शिक्षा, मजदूरी, व्यापार या अन्य कोई भी काम करता हुआ मनुष्य यदि अपने विचारों को परमार्थी रखे तो उसका वही दैनिक कार्य धर्म हो जायगा। एक दुकानदार अपनी दुकान को परमार्थी भावना से चलाता है। अपनी मजदूरी, मुनाफा नियत कर लेता है। फिर ठीक भाव से, पूरा तोलकर, बेचता है। अनजान को कम और जानकार को अधिक नहीं देता। अपने कार्य को समाज सेवा, धर्म समझता है इसलिए वह खराब, मिलावटी, दूषित, हानिकर वस्तुएं नहीं बेचता, यदि कोई दुकानदार इस तरीके से अपनी दुकानदारी चलाता है तो निस्सन्देह वह पूर्ण धर्मात्मा है। धर्म की पहचान यही है कि स्वयं आत्मिक शान्ति प्राप्त हो और दूसरों को सुख मिले। उस दुकान से यदि यह दोनों कार्य पूरे होते हैं तो यज्ञशाला से वह किसी प्रकार कम नहीं ठहराई जा सकती। राजा जनक राजपाट करते थे, उनकी बहुत-सी रानियां भी थीं, पर वे उच्चकोटि के योगी थे। बड़े-बड़े तपस्वी, वनवासी उनसे शिक्षा प्राप्त करने आते थे। राजपाट, दुकान, वेद पाठ, संन्यास, मजदूरी एक कार्य मात्र हैं। स्वयं न तो भले हैं न बुरे। इनका प्रयोग जिस रूप में किया जाय वैसा ही इनका भला-बुरा स्वरूप बन जाता है। उत्तम काम भी यदि बदनीयती से किया जाय तो उसका फल पाप के समान ही होगा और साधारण काम-काज भी यदि उत्तम भावना से किया जाय तो उसका परिणाम पुण्य स्वरूप होगा।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। कुछ अपवादों को छोड़कर शेष समस्त मनुष्य दूसरों के ही सहयोग से आनन्द लाभ कर सकते हैं। उत्तम भोजन, सुन्दर वस्त्र, मकान, सवारी, विद्या, मनोरंजन यह सब दूसरों के सहयोग से ही तो प्राप्त होता है। निन्दा-स्तुति, संयोग-वियोग, हानि-लाभ, अपमान, सत्कार यह कार्य दूसरों द्वारा होते हैं, परन्तु हमारे सुख-दुःख का बहुत कुछ अवलम्बन इन्हीं पर निर्भर रहता है। निस्संदेह समाज और व्यक्ति का घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यक्ति की उत्तमता से समाज की सुख-शान्ति और समाज की उत्तमता से व्यक्ति की प्रसन्नता बढ़ती है। पुण्य कार्य वे हैं जो व्यक्ति को त्यागी बनाकर उसे समाज के लिए उपयोगी बनाते हैं। ‘अपने लिए अपेक्षाकृत कम चाहना और दूसरे की सुविधा का अधिक ध्यान रखना यह मनोवृत्ति धर्म की आधारशिला है। त्याग, दया, उदारता, दान, सहायता, सेवा, परोपकार, परमार्थ यह पुण्य हैं क्योंकि इनको अपनाने से समाज के लिए मनुष्य उपयोगी बन जाता है और उस उपयोगिता के कारण दोनों पक्षों की समृद्धि बढ़ती है।
चोरी, हिंसा, छल, व्यभिचार, स्वार्थ, विश्वासघात, घमण्ड, मिथ्या भाषण, कर्कशता, अत्याचार, जुआ यह आदतें अधर्म कही जाती हैं। इन स्वभावों के साथ जो कार्य किए जाते हैं, वे पाप ठहराये जाते हैं, कारण यह है कि इससे दूसरों को, समाज को हानि होती है। जिन्हें हानि पहुंचाई गई है उनमें बदले की भावना बढ़ती है और कलह खड़ा हो जाता है। इसी प्रकार नशेबाजी, फिजूल खर्ची, बीमारी, गन्दगी, व्यक्तिगत पाप हैं। इनमें फंसा हुआ मनुष्य समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होता है अतएव ऐसी आदतों को भी पाप ठहराया जाता है। व्यक्तिगत पाप अधिकतर पाप अधिकतर अपने निजी जीवन को अनुपयोगी बनाते हैं और चोरी आदि सामाजिक पाप दूसरों को अधिक हानि पहुंचाते हैं इसलिए व्यक्तिगत पापों से सामाजिक पापों को बड़ा माना गया है।
पहले प्रकरण में बताया गया था कि हर मनुष्य सत-अस्तित्व की उन्नति, चित्-ज्ञान वृद्धि, आनन्द-सुख साधना में लगा हुआ है। इन तीनों को प्राप्त करने की इच्छा से ही उसके सारे काम होते हैं। उन कार्यों में कौन अनुचित है? किन को करने से उलटी हानि उठानी पड़ती हैं? इन प्रश्नों का उत्तर ऊपर कहा जा चुका है कि परमार्थ भावना से किए हुए काम ही उत्तर एवं इष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले हैं। गीता के कर्मयोग का यही सारांश है।