यात्रा का नियम है कि मध्यम वृत्ति से कदम उठाये जायं, मामूली बीच की चाल से चला जाय। बहुत ही धीरे-धीरे चलना तथा अत्यन्त तेजी से भागकर चलना यह दोनों ही स्थितियां हानिकारक हैं। बहुत धीरे चलने से यात्रा का क्रम रुक जाता है और नाना प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर को परिश्रम करने की आवश्यकता है यदि कोई व्यक्ति गद्दे-तकिया पर पड़ा-पड़ा समय बिताये तो नाड़ियां निर्बल हो जायेंगी, पाचन शक्ति घट जायगी, इन्द्रियों में दोष उत्पन्न हो जायेंगे। इसी प्रकार यदि शरीर से अत्यधिक काम लिया जाय, दिन-रात कठोर परिश्रम में जुटा रहा जाय तो भी शक्ति का अधिक व्यय होने से देह क्षीण हो जायगी, परमात्मा ने मन एवं इन्द्रियों के सुन्दर औजार दिये हैं जिनसे जीव अपनी मूलभूत आकांक्षा को पूरी कर सके। पेट को भूख लगती है, बुद्धि को चिन्ता होती है कि भोजन प्राप्त करने का परिश्रम करना चाहिए। मस्तिष्क धन कमाने के उपाय सोचता है, पैर उद्योग धन्धे की तलाश में घूमते हैं, हाथ मजदूरी करते हैं, अन्य अंग भी अपना-अपना काम करते हैं। इन सबके प्रयत्न से शरीर के हर अंग की योग्यता बढ़ती है। बुद्धि, मस्तिष्क, हाथ, पैर सभी का अभ्यास बढ़ता है और उनकी सामूहिक उन्नति से मनुष्य की गुप्त शक्तियां सुदृढ़ होती जाती हैं। जीव का उतने अंशों में विकास होता जाता है। पेट को भूख न लगती तो मनुष्य जो निरन्तर उद्योग करता है उसे क्यों करता? अजगर की तरह किसी गुफा में पड़ा सोया करता, जब भी चाहता थोड़ा बहुत खा लेता। न बुद्धि को कष्ट देने की जरूरत होती, न शरीर को। आज जितनी दौड़-धूप चारों ओर दिखाई पड़ रही है, भूख के न होने पर इसका हजारवां भाग भी दिखाई न पड़ता। सृष्टि संचालन के लिए परमात्मा को जीव की विकास यात्रा निर्धारित करनी पड़ी और वह यात्रा गड़बड़ में न पड़ जाय इसलिए ऐसी आवश्यकताएं पीछे लगा देनी पड़ीं जिनसे प्रेरित होकर जीव की विकास यात्रा निरन्तर जारी रहे।
ऊपर पेट की भूख का उल्लेख किया गया है। ऐसी ही अनेक भूखे मनुष्य को रहती हैं। उनमें से कुछ शारीरिक हैं कुछ मानसिक। इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को चाहती हैं यह कोई बुरी बात नहीं है वरन् आत्मोन्नति के लिए आवश्यक हैं। मैथुनेच्छा यदि मनुष्य को न होती तो वह बिल्कुल ही स्वार्थी बना रहता। सन्तान के लालन-पालन में जो परोपकार की, सेवा की, स्नेह की, दुलार की, कष्ट सहन की भावनाएं जागृत होती हैं वे बिना सन्तान के कैसे होतीं? काम-वासना बिना सन्तान न होती, इसलिए सात्विकी वृत्तियों को जगाने के लिए काम-वासना की परमात्मा ने मनुष्य को दें दी। इन्द्रियों की भूखे बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं उनकी रचना परमात्मा ने बहुत सोच-विचारकर ही की है। इसी प्रकार मनुष्य की सभी शारीरिक और मानसिक वृत्तियां जो जन्म से उसे स्वभाविक रीति से प्राप्त होती हैं जीवन को उन्नत, विकसित, सरस, उत्साहप्रद एवं आनन्दी बनाने के लिए बहुत ही आवश्यक हैं।
अक्सर धार्मिक विद्वान इन्द्रिय भोगों को बुरा, घृणित, पापपूर्ण बताया करते हैं। असल में उनके कथन का मार्ग यह है कि इन्द्रिय भोगों का दुरुपयोग करना बुरा है। जैसे अभाव बुरा है वैसे ही अति भी बुरी है। भूखा रहने से शरीर का ह्रास होता है और अधिक खाने से पेट में दर्द होने लगता है। उत्तम यह है कि मध्यम मार्ग का अवलम्बन किया जाय। न तो भूखें रहें और न अधिक खायें वरन् भूख की आवश्यकता को मर्यादा के अन्तर्गत पूरा किया जाय। वास्तविक बात यह है कि अति एवं अभाव को पाप कहते हैं। जैसे धन उपार्जन करना एक उचित एवं आवश्यक कार्य है। इसी में जब अति या अभाव का समावेश हो जाता है तो पापपूर्ण स्थिति पैदा होती है। धन न कमाने वाले को हरामखोर, निठल्ला, आलसी, अकर्मण्य, नालायक कहा जाता है और धन कमाने की लालसा में अत्यन्त तीव्र भावना से जुट जाने वाला लोभी, कंजूस, अर्थ-पिशाच आदि नामों से तिरस्कृत किया जाता है। कारण यह है कि किसी बात में अति करने से अन्य आवश्यक कार्य छूट जाते हैं। व्यायाम करना उत्तम कार्य है पर कोई व्यक्ति दिन-रात व्यायाम करने पर ही पिल पड़े अथवा हाथ-पैर हिलाना भी बन्द कर दें तो यह दोनों ही स्थितियां हानिकारक होंगी और विवेकवानों द्वारा उनकी निन्दा की जायगी। विवेकपूर्वक खर्च करना एक मध्यम मार्ग है, परन्तु खर्च न करने वाले को कंजूस और बहुत खर्च करने वाले को अपव्ययी कहा जाता है। खर्च करना एक स्वाभाविक कर्म है, पर अति या अभाव के साथ वही अकर्म बन जाता है।
लघुता से महानता की ओर, अपूर्णता से पूर्णता की ओर जीवन की यात्रा का प्रभाव बह रहा है। इस चक्र को चालू रखने के लिए शारीरिक और मानसिक स्वाभाविक इच्छा आकांक्षाएं अपनी भूख प्रकट करती रहती हैं। (1) आरोग्य, (2) ज्ञान वृद्धि, (3) सौन्दर्य, (4) धन, (5) कीर्ति, (6) संगठन, (7) विवाह, (8) आत्म-गौरव—यह आठ वस्तुएं हर मनुष्य चाहता है। इनकी शाखा-उपशाखाएं अनेक हैं पर मूलतः यह आठ वृत्तियां ही प्रधान होती हैं। सत् चित् आनन्द की तीन इच्छाएं संसार के पंच भौतिक पदार्थों से टकराकर उपरोक्त आठ टुकड़ों में बंट जाती हैं। आठों पहर इन्हीं आठ कामों की इच्छा अभिलाषाएं मनुष्य को सताती हैं और वह किसी न किसी रूप में तृप्त करने के लिए उद्योग किया करता है। साधु-चोर, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री-पुरुष सब कोई अपनी आठ मानसिक वृत्तियों को बुझाने के नाना प्रकार के कर्मों का ताना-बाना बुनते रहते हैं। तीन सूक्ष्म आकांक्षाएं पंच तत्वों के आठ पदार्थों के साथ आठ प्रकार से प्रकट होती हुई हर कोई देख सकता है। पापी और पुण्यात्मा इन कार्यों के अतिरिक्त और कोई कार्यक्रम अपने सामने नहीं रखते।
मध्यम वर्ग से इन वृत्तियों को तृप्त करने वाला इस संसार में धर्मात्मा कहा जाता है और जो अति या अभाव की नीति ग्रहण करता है, उसकी शुमार पापियों में की जाती है। जो शरीर को निरोग रखने के लिए प्रातःकाल उठता है, स्नान करता है, दन्त धावन, व्यायाम करता है, मस्तिष्क को शीतल रखे के लिए चन्दन लगाता है, छना हुआ जल पीता है, रोगनाशक तुलसी-पत्रों का सेवन करता है, गन्दे आदमियों का दुआ नहीं खाता, व्रत-उपवास रखता है, वह धर्मात्मा है। निस्संदेह स्वास्थ्य को ठीक रखने वाला पुण्यात्मा ही कहा जा सकता है क्योंकि मनुष्य के अन्तःकरण में घुसकर बैठी हुई आरोग्य भावना का वह मध्यम मार्ग से पोषण करता है जो अभाव या अति का व्यवहार करेगा वही पापी कहलायेगा। सूर्योदय तक सोने वाला, स्नान में लापरवाही करने वाला, अन्न–जल की शुद्धता पर ध्यान न देने वाला, उपवास न करके पेट को खराब रखने वाला पापी है क्योंकि उसमें मध्यम मार्ग का अभाव है। जो व्यक्ति आरोग्य की आतुरता में अन्धा हो रहा है, भक्ष-अभक्ष का विचार न करके जो चाहे सो खाता है या बहुत व्रत रखता है, अन्य सब काम छोड़कर केवल दिन-रात आरोग्य को ही पकड़े बैठा है, वह भी पापी है क्योंकि उसने मध्यम मार्ग को छोड़कर अति का आश्रय लिया है।
‘जानकारी बढ़ाना’ स्वाभाविक वृत्ति है। जो विद्या पढ़ता है, स्वाध्याय करता है, सत्संग करता है, ग्रन्थ सुनता है, तीर्थयात्रा करता है, वह पुण्यात्मा है। जो अपनी बुद्धि को आगे न बढ़ने देने के लिए कसम खाकर अन्ध-विश्वास एवं कूप-मण्डूक की भांति कोठरी में ताला बन्द करके बैठा है वह पापी है। इसी प्रकार वह भी पापी है जो ज्ञान की लालसा में अगम्य स्थानों पर जाता है। अनुचित तर्क करता है, न जानने योग्य, गुप्त एवं दूषित बातों को जानने का प्रयत्न करता है। अभाव बुरा है अति भी बुरी है।
‘सौन्दर्य प्रियता’ सभी स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाओं को होती है। सफाई, स्वच्छता, सजावट, आकर्षण, सुन्दरता का प्रदर्शन इस इच्छा को किसी भी प्रकार दबाया नहीं जा सकता। संसार को मिथ्या कहने वाले भी ईश्वर की मूर्तियों को नाना सजावट शृंगारों से सुसज्जित करके नेत्रों को तृप्त करते हैं। धार्मिक कर्मकाण्डों में हर काम सजावट से भरा-पूरा होता है। सोलह संस्कारों में से एक-एक भी ऐसा नहीं है जिसमें संस्कार होने वाले व्यक्ति की, उस स्थान की, वहां की वस्तुओं की अनेक बहानों से सजावट न होती हो। रंग-बिरंगे चौक पूरन, कलश, रोली, अक्षत, आम्रपत्र, शुभ वस्त्र आदि की सजावटें तो धार्मिक कर्मकाण्डों का प्रधान अंग बन चुकी हैं। कला प्रेमी व्यक्ति शौच, स्वच्छता, सात्विक सजावट से रहने वालों तक का समाज में विशेष आदर होता है। वेश-भूषा को देखते ही उसकी पोजीशन समझ में आ जाती है। घर, कमरा, फर्श, कपड़े, टोपी, काम में आने वाली वस्तुएं किसी मनुष्य के टुच्चेपन एवं महत्व को चिल्ला-चिल्लाकर बताते रहते हैं। इससे तो कुवेशभूषा वालों, अस्त-व्यस्त सजावट रखने वालों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। जो लोग सजावट में अति करते हैं, फैशन में ही डूबे रहते हैं, योग्यता और स्थिति का उल्लंघन करने अत्यधिक टीप-टॉप करते हैं वे भी तिरस्कृत होते हैं क्योंकि अभाव की भांति अति को भी पापी माना जाता है।
धन उपार्जन के सम्बन्ध में पहले ही कहा जा चुका है कि कमाऊ पूत सबसे अच्छे लगते हैं। उनकी सर्वत्र प्रशंसा होती है। धर्म पालन करने वाले की प्रशंसा होनी भी चाहिए। धन न कमाने वाले आलसी और अधिक कमाने वाले अर्थ पिशाच इसीलिए कहे जाते हैं कि उन्होंने मध्यम मार्ग छोड़कर या तो अति का आश्रय लिया है या अभाव में पड़े हुए हैं।
‘‘कीर्ति’’ के लिए मनुष्य प्राण दें देते हैं। अपनी प्रशंसा सुनकर मनुष्य की बांछे खिल उठती हैं। लोक हितकारी, आत्म-सुख-वर्द्धक, धर्म-कार्य करने से प्रतिष्ठा, आदर, सद्भाव, आशीर्वाद, प्रोत्साहन, प्रशंसा कीर्ति प्राप्त होती है। यह धर्म मध्यम मार्ग है। दूसरों की रुचि, इच्छा, आवश्यकता का ध्यान रखे बिना अविवेकपूर्वक मनमानी करते रहना अधर्म है, जो स्वार्थी, एकाकी, हृदयहीन एवं जड़ होगा वही यश-अपयश का ध्यान रखे बिना कार्य करेगा। नीति ग्रन्थों में यश की बड़ी प्रशंसा की है। यशस्वी का जीवन ही जीवन बताया है। यश रहित को निर्जीव की उपमा दी है। शास्त्रकारों का मन्तव्य है कि सुयश सम्पादित करके यशेच्छा की आध्यात्मिक भूख को बुझाना चाहिए। प्रीति-भोजों में, मेले, उत्सवों में, शहरों में जाना लोग इसलिए पसन्द करते हैं कि वहां रहने वाले बहुत से मनुष्यों की शारीरिक विद्युत की गर्मी से मिलने वाला सुख प्राप्त करें। जाड़े के दिनों में अधिक कपड़े पहनकर उनकी गर्मी से शरीर को सुख मिलता है इसी प्रकार जहां अधिक मनुष्य रहते हैं उन स्थानों में पहुंचने पर उनके शरीर से निकलने वाली अनेक विद्युत-तरंगों से मन प्रसन्न होता है। यश से भी ऐसी ही आध्यात्मिक विद्युत-तरंगें प्राप्त होती हैं। प्रशंसक लोग अपनी शुभ कामनाएं, सद्भावनाएं प्रवाहित करते हैं। वे सब इकट्ठी होकर यशस्वी व्यक्ति के आस-पास इकट्ठी हो जाती हैं और गरम कपड़ों की भांति तथा मित्र-मण्डली की भांति अदृश्य रूप से आध्यात्मिक सुख पहुंचाती है। अपयश के साथ लोगों का रोष, घृणा, विरोध एवं दुर्भाव इकट्ठा होकर उस व्यक्ति पर आक्रमण करते हैं और उसके अन्तःकरण को व्यथित कर डालते हैं, ऐसे व्यक्ति जितनी चारों ओर निन्दा होती है बड़े ही दुःखी, चिन्तित, उदास एवं अशान्त देखे जाते हैं। शर्म के भार से उनका मन सदैव दबा हुआ रहता है।
कहीं-कहीं कीर्ति की इच्छा को बुरा बताया गया है और यश आकांक्षा छोड़ देने के लिए कहा गया है। वहां ‘अति’ का विरोध है। सुकर्म करके प्रशंसा प्राप्त करने के मध्यम मार्ग को उल्लंघन करके जब मनुष्य किसी भी प्रकार दूसरों के मुंह अपनी चर्चा सुनने के लिए लालायित हो जाता है तो वह भले-बुरे का विचार छोड़ देता है। बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा की नीति अपना लेना यश की अति इच्छा का परिणाम है। झूठा, शेखीखोर, ढोंगी मनुष्य अपनी यशेच्छा को अत्यन्त बढ़ जाने देते हैं और उसकी पूर्ति के लिए अनेक प्रकार उच्छृंखल, उद्दण्ड, अति साहसी लोग भारी जोखिम उठाते हैं, नीति-अनीति का विचार छोड़ देते हैं और ऐसे असाधारण कार्य करते हैं जिनसे उनकी चर्चा चारों ओर होने लगे। मुझे भूत चढ़ता है, मुझे देवता के दर्शन हुए, मैंने अमुक-अमुक साहसिक कार्य किए आदि मनगढ़न्त बातें कहकर कई व्यक्ति अपनी विशेषता प्रकाशित करते हैं और उसके कारण होने वाली जन चर्चा से अपनी यशेच्छा तो तृप्त करते हैं। किसी स्वतंत्र पुस्तक में हम यह बताने का प्रयत्न करेंगे कि यशेच्छा के विकृत रूप में लोग नाना प्रकार की बीमारियों और बुरी आदतें भी किस प्रकार अन्दर धारण कर लेते हैं। यश प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि उससे आध्यात्मिक लाभ होता है, परन्तु उसका अभाव और अति दोनों ही हानिकारक होने से अधर्म कहे जाते हैं।
समूह बनाने, मिल-जुलकर रहने, संगठन करने की इच्छा ने ही मनुष्य को सामाजिक प्राणी बना दिया है। कुटुम्ब, जाति, गोत्र, धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि का निर्माण इसी इच्छा ने कराया है। अनेक सभाएं, पार्टी, संगठन, परिवार, सत्संग, गोष्ठी, गिरोह, यूनिटें, अखाड़े, दल, क्लब हम अपने चारों ओर गुप्त एवं प्रकट रूप में फैले हुए देखते हैं। इन सबके मूल में मनुष्य की एक ही भूख काम कर रही है कि हम अधिक लोगों के साथ दल बांध कर रहें। ऊपर कीर्ति की चर्चा करते हुए बता चुके हैं कि मनुष्यों के शरीरों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों की गर्मी से जीव को बल प्राप्त होता है, इसलिए उसे अकेले रहना बुरा लगता है और बहुत लोगों के बीच में रहते हुए प्रसन्नता प्राप्त होती है, इस सम्बन्ध में यही एक बात और भी जान लेने की है कि रुचि का आकर्षण समानता में ही विशेष रूप से रहता है। मनुष्य का आचार-विचार जैसा है वह वैसे लोगों को ही अपने साथ सम्बन्धित कर लेता है। ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ बन जाते हैं। नशेबाजों की उक्ति है कि ‘दम भाई सो निज भाई’। इसी प्रकार भले-बुरे, चोर, साधु, बालक, वृद्ध, हर तरह के मनुष्य अपनी समानता का संगठन करते हैं। इस संगठन से अनेक गुना लाभ है। अलग-अलग मनुष्य थोड़ी लकड़ी लाकर अलग-अलग जलाकर शीत निवारण करें तो बहुत खर्च होने पर थोड़ा-थोड़ा लाभ होगा किन्तु यदि वे सब अपनी लकड़ियों को इकट्ठा करके एक ही स्थान पर सम्मिलित रूप से जलावें तो आग तीव्र जलेगी और सबका शीत निवारण हो जायगा। संगठन में ऐसी ही महत्वपूर्ण विशेषता होने के कारण लोग अपने समान विचार के लोगों के साथ रहना ठीक समझते हैं। इसलिए यह धर्म है। हर एक सम्प्रदाय का कहना है कि हमारे धर्म में शामिल होने से मुक्ति, स्वर्ग, जन्नत, बहिस्त, हैविन आदि की प्राप्ति होगी। धर्माचार्यों का यही प्रयत्न रहता है कि उनके सम्प्रदाय में अधिक लोग शामिल हों। वे अपने सम्प्रदाय में दीक्षित व्यक्ति को धर्मात्मा घोषित करते हैं कारण यही है कि एक समान विचार के लोगों का एक सम्बन्ध सूत्र में बंधकर रहना एक-दूसरे के लिए बहुत ही लाभदायक है। जो सबसे अलग रहता है, दूसरों से कम सम्बन्ध रखता है, उसे लोग अज्ञानी, स्वार्थी, निर्मोही, हृदयहीन, निष्ठुर कहते हैं एवं जो समूह में अत्यन्त लिप्त होकर किन्हीं व्यक्तियों से अति ममता जोड़ लेता है, उसे मोहग्रस्त, माया-बन्धित कहते हैं। हमें समूहबद्ध रहना चाहिए, सद्विचार वालों को समता वाले व्यक्तियों के साथ सम्बन्धित रहना चाहिए। यह धर्म है। अति और अभाव की दशा में स्वार्थी अथवा मोहग्रस्त कहा जाता है, जो अधर्म के ही दूसरे नाम हैं।
एक पूर्ण मानव की रचना के ईश्वर ने दो भाग कर दिये हैं। चने की दो दालें मिलकर एक चना बनता है। इसी प्रकार स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण मानव बनता है। न केवल शारीरिक विकास का वरन् मानसिक विकास की गति भी दाम्पत्य जीवन से बढ़ती है। इस धर्म विवेचन की पुस्तक में शरीर रचना और काम विज्ञान की उन पेचीदगियों का वर्णन करने का स्थान नहीं है जिसके आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से यह सिद्ध किया जा सकता है कि स्त्री और पुरुष बिना एक-दूसरे के बहुत ही क्षति पीड़ित रहते हैं। बालक-बालिकाएं अपने माता-पिता, भाई-बहिनों से वह रस खींचते हैं। जिन लड़कियों को छोटे लड़कों के साथ खेलने का, पिता, चाचा, ताऊ आदि के पास रहने का अवसर नहीं मिलता वे अनेक दृष्टियों से निर्बल रह जाती हैं। इसी प्रकार जो लड़के माता, बहिन, चाची, दादी, बुआ आदि के सम्पर्क से वंचित रहते हैं, उनमें भी अनेक भारी-भारी कमियां रह जाती हैं। सरकारी मर्द्रुमशुमारी (जनगणना) की रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि विवाहितों की अपेक्षा विधवा एवं विधुरों की मृत्यु संख्या बहुत बढ़ी-चढ़ी होती है। यहां साधू-महात्माओं के कुछ अपवादों की हम चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि वे तो एकाकी रहते हुए भी अन्य उपायों से क्षति की किसी प्रकार पूर्ति कर लेते हैं, पर यह सर्व साधारण के लिए संभव नहीं है। विवाह को पवित्र धार्मिक संस्कार माना गया है। पुत्र का विवाह कर देना पिता अपना धर्म कर्तव्य समझता है, कन्यादान के फल से कन्या का पिता स्वर्ग प्राप्ति की आशा करता है। कारण यह कि दाम्पत्य जीवन बिताना मनुष्य की स्वाभाविक, ईश्वर प्रदत्त आवश्यकता है, उसकी पूर्ति करना धर्म कर्तव्य कहा ही जाना चाहिए। तरुण एकाकी स्त्री-पुरुषों को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है। विधवाएं और विधुर स्वाभाविक रीति से गृहस्थ जीवन बिताने वालों की अपेक्षा तिरस्कृत समझे जाते हैं, उन्हें भाग्यहीन समझा जाता है। शहरों में किसी सम्मिलित बड़े घर में एक हिस्सा कराये पर लेने के लिए विधुर लोग कोशिश करते हैं पर उन्हें बहुत बार सफलता नहीं मिलती क्योंकि सद्गृहस्थों के बीच विधुर तो एक अविश्वासी, नीची श्रेणी का जीव समझा जायगा। सधवा स्त्रियां बाहर के लोगों से वार्तालाप कर सकती हैं, श्रृंगार कर सकती हैं, परन्तु विधवा का ऐसा करना संदेह से भरा हुआ समझा जायगा, क्योंकि अविवाहित रहना मनुष्य की स्वाभाविक ईश्वर प्रदत्त दृष्टि के अनुसार अवांछनीय है। यह अभाव जन्य अधर्म है। अब अतिजन्य अधर्म को लीजिए। व्यभिचारी, कुकर्मी, अप्राकृतिक कर्म करने वाले, अगम्या से गमन करने वाले, जो अनुचित-उचित का भेद त्याग कर विवाह क्षुधा की अतिशय तृप्ति करने पर उतारू हो जाते हैं वे भी पापी कहे जाते हैं।
आत्म-गौरव की वृद्धि चाहने की भावना सर्वत्र पाई जाती है। नेता, मुखिया, गुरु, शासक, व्यवस्थापक, अधिकारी, पदवीधारी, जीवन मुक्त, सिद्ध, वैज्ञानिक, विद्वान, दार्शनिक, आविष्कारक, संचालक बनने की इच्छाएं मानसिक भूमिका को आन्दोलित करती रहती हैं। चरित्रवान्, धर्मनिष्ठ, सदाचारी, सद्गुणी, कर्तव्य परायण व्यक्तियों में स्वाभिमान की भावना प्रमुख होती है। वे आत्म-गौरव को स्वयं अनुभव करते हैं और उसे ऐसे सुन्दर ढंग से संसार के सामने रखते हैं कि अन्य लोग भी उनके व्यक्तित्व का आदर करें। नीचे दर्जे के लोग कपड़े, जेवर, धन, सवारी, पदवी आदि की सहायता से अपनी महत्ता प्रकट करते हैं और ऊंची श्रेणी के विचार वाले व्यक्ति सद्गुणों से अपने आपे का प्रदर्शन करते हैं। ‘‘आत्मा का बढ़ा हुआ गौरव अनुभव करना’’ सारी योग साधना का केवल मात्र इतना ही दृष्टि बिन्दु है आत्मा को परमात्मा में मिला देना, मुक्ति लाभ करना, इन शब्दों के अन्तर्गत आत्म-गौरव की वृद्धि करने की ही भावना खेल रही है। स्वाभिमान की, आत्म-सम्मान की आकांक्षा उन्नततम, विकासवान मनुष्यों में अधिक स्पष्ट देखी जाती है क्योंकि वह इच्छा उच्च आध्यात्मिक, सतोगुणी भूमिका में उत्पन्न होती है। आत्म-गौरव की प्राप्ति मनुष्य की आध्यात्मिक भूख है। जो इस साधना में प्रवृत्त है वह धर्मात्मा कहलाता है किन्तु जिसने आत्म-सम्मान नष्ट करके दीनता, दासता, पशुता को अपना लिया है, वह पापी है। इसी प्रकार वह भी पापी है जो अनुचित आत्म-गौरव में प्रवृत्त है। ऐसे मनुष्य अहंकारी, घमण्डी, अकड़बाज, बदमिजाज कहकर अपमानित किए जाते हैं।
मनुष्य को मनुष्य बनना चाहिए। इन्सानियत, अहमियत, मनुष्यत्व वह स्वर्ग सोपान है जिसके लिए देवता भी तरसते हैं। इस मध्यम मार्ग को अपनाने वाले देव स्वभाव के मनुष्य कर्तव्य परायण एवं धर्मात्मा कहे जाते हैं। इन्सानियत धर्म है, इसके अभाव को हैवानियत और अति को शैतानियत कहते हैं। जो व्यक्ति अपनी स्वाभाविक, ईश्वर प्रदत्त इच्छाओं को कुचलता हुआ दीनतापूर्वक अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहा है वह आत्मघाती पशुता को अपनाने वाला अधर्मी है। इसी प्रकार वह भी अधर्मी है जो इच्छाओं की अति पूर्ति के लिए व्याकुल होकर मर्यादा को छोड़ बैठता है। दूसरों की परवाह किए बिना अत्यन्त तीव्र वेग से, इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए तूफानी गति से दौड़ता है उस परपीड़क, शैतानियत को ग्रहण करने वाले को अधर्मी के अतिरिक्त और क्या कहा जाय? अति में पाप है और अभाव में भी पाप है। अत्यन्त धीरे चलने वाला पिछड़ जाता है और अधिक दौड़ने वाला थककर चूर हो जाता है। इसलिए आप मध्यम मार्ग को ग्रहण कीजिए, दीनतापूर्वक अकर्मण्यता के अज्ञान में पड़े अभावग्रस्त जीवन बिताना छोड़िये! चलिए, उठिए मनुष्यों की भांति गौरव और सुख-शान्ति का जीवन प्राप्त कीजिए! परमात्मा ने आपको जो भूखे दी हैं वे आपकी उन्नति में सहायता के लिए हैं, उन्हें पूरा करने के लिए विवेकपूर्वक अपना कार्यक्रम निर्धारित कीजिए। संसार सब प्रकार सुविधाजनक सामग्रियों से भरा पूरा है, फिर आप ही क्यों मलिन, उदास, अभावग्रस्त, दीनतापूर्वक जीवन बितावें? उठिए, मध्यम मार्ग को अपनाइए और मनुष्यों का सा सुव्यवस्थित जीवन व्यतीत कीजिए लेकिन सावधान रहना कहीं आपकी इच्छायें अमर्यादित होकर शैतानियत की ओर न खिसक पड़े। घोड़े को ‘आगे रोक, पीछे ठोक’ नीति से कदम चाल चलना सिखाया जाता है। आप जीवन को विकसित कीजिए किन्तु उसे शैतानियत तक मत बढ़ने दीजिए। मनुष्य का धर्म है इसलिए इसी अमृतमय मध्यम मार्ग पर आरूढ़ होते हुए अपनी मंगलमय जीवन यात्रा को आगे बढ़ने दीजिए।