वैसे तो ‘धर्म’ शब्द नाना अर्थों में व्यवहृत होता है, पर दार्शनिक दृष्टि से धर्म का अर्थ स्वभाव ठहराता है। अग्नि का धर्म गर्मी है अर्थात् अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हर एक वस्तु का एक धर्म होता है जिसे वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त धारण किए रहती है। मछली का प्रकृति धर्म जल में रहता है, सिंह स्वभावतः मांसाहारी है। हर एक जीवित एवं निर्जीव पदार्थ एक धर्म को अपने अन्दर धारण किए हुए है। धातुएं अपने-अपने स्वभाव धर्म के अनुसार ही काम करती हैं। धातु-विज्ञान के जानकार समझते हैं कि अमुक प्रकार का लोहा इतनी आग में गलता है और वह इतना मजबूत होता है, उसी के अनुसार वे सारी व्यवस्था बनाते हैं। यदि लोहा अपना धर्म छोड़ दे, कभी कम आग से गले कभी ज्यादा से, इसी प्रकार उसकी मजबूती का भी कुछ भरोसा न रहे तो निस्संदेह लोहकारों का कार्य असम्भव हो जाय। नदियां कभी पूरब को बहें कभी पश्चिम को, अग्नि कभी गरम हो जाय कभी ठण्डी तो आप सोचिए कि दुनिया कितनी अस्थिर हो जाय। परन्तु ऐसा नहीं होता, विश्व का एक-एक परमाणु अपने नियत धर्म का पालन करने में लगा हुआ है, कोई तिल भर भी इधर से उधर नहीं हिलता। धर्म रहित कोई भी वस्तु इस विश्व में स्थिर नहीं रह सकती।
बहुत काल की खोज के उपरान्त मनुष्य का मूल धर्म मालूम कर लिया गया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण मनुष्य अपने मूलभूत धर्म का पालन करने में प्रवृत्त रहते हैं। आपको यह सुनकर कि कोई भी मनुष्य धर्म रहित नहीं है, आश्चर्य होता होगा इसका कारण यह है कि आप मनुष्य कृत रीति-रिवाजों, मजहबों, फिरकों, प्रथाओं को धर्म नाम दे देते हैं। यह सब तो व्यवस्थायें हैं जो वास्तविक धर्म से बहुत ऊपर की उथली वस्तुएं हैं, आपको वास्तविकता का पता लगाने के लिए एक सत्य शोधक की भांति बहुत गहरा उतरकर मनुष्य स्वभाव का अध्ययन करना होगा।
यह पहिले ही बताया जा चुका है कि धर्म का अर्थ स्वभाव है। स्वभाव मनुष्यकृत नहीं होता वरन् ईश्वर प्रदत्त होता है। जिस योनि में जैसी शिक्षा प्राप्त करनी होती है उसकी मर्यादा चारों ओर से खिंची हुई होती है, जिससे नौसिखिए कुछ भूल न कर बैठें। स्कूल के छात्र खेल के घण्टों में जब गेंद खेलते हैं तो अध्यापक उन्हें एक मर्यादित क्षेत्र बता देता है कि इस भूमि में खेलो। वैसे तो अपनी बुद्धि के अनुसार खेलने, हारने, जीतने में खिलाड़ी लोग स्वतंत्र हैं अध्यापक उसमें हस्तक्षेप नहीं करता पर क्षेत्र जरूर मर्यादित कर देता है। फील्ड छोड़कर सड़क पर फुटबाल उछालने की वहां व्यवस्था नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य की कुछ स्वाभाविक मर्यादाएं हैं जिनके अन्दर वह भले-बुरे खेल खेलता है। यही स्वाभाविक मर्यादाएं दार्शनिक दृष्टि से धर्म कहलाती हैं। धर्म के अन्तर्गत क्षेत्र में ही मनुष्य के सारे काम होते हैं, इसमें पाप पुण्य क्या है? और किस प्रकार है? इसकी विवेचना तो हम अगले पृष्ठों में करेंगे। इस समय तो मूलभूत धर्म के बारे में ईश्वर दत्त स्वाभाविक मर्यादा के सम्बन्ध में चर्चा की जा रही है, जिसे जानकर यह निश्चय किया जा सके कि हमें यह मानव देह क्या शिक्षा प्राप्त करने के लिए मिली है।
मनुष्य क्या करने में लगा रहता है, इसका गहरा निरीक्षण करके आध्यात्मिक तत्ववेत्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘सच्चिदानन्द’ की उपासना में मानव प्राणी हर घड़ी लगा रहता है, एक पल के लिए भी इसे नहीं छोड़ता और न इसके अतिरिक्त और कुछ काम करता है। पाठक अधीर न हों कि सच्चिदानन्द की उपासना तो विरले ही करते हैं, यदि विरले ही करते तो वह बात स्वाभाविक धर्म न रह जाती, फिर उसे मनुष्यकृत मानना पड़ता है। अगली पंक्तियों में यही बताया जा रहा है कि किस प्रकार प्रत्येक मनुष्य सच्चिदानन्द की उपासना करता हुआ अपने धर्म कर्तव्य को पालन करने में लगा हुआ है।
सत् का अर्थ है अस्तित्व, चित् का अर्थ ज्ञान और आनन्द का अर्थ सुख है। अपने अस्तित्व की उन्नति में, अपने ज्ञान की वृद्धि में, अपने सुख को बढ़ाने में ही सब लोग लगे हुए हैं। मनोविज्ञान शास्त्र के फ्रांसीसी पण्डित सारेन्सस ने मानव प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए बताया है कि—(1) शरीर और मन का सुख प्राप्त करने, (2) आत्म-रक्षा, (3) अपने को सबके सामने प्रकट करने, (4) बड़प्पन पाने, (5) समूह इकट्ठा करने, (6) गुप्त विषयों को जानने, (7) विपरीत योनि से (पुरुष स्त्री से, स्त्री पुरुष से) घनिष्ठता रखने, (8) साहस करने की इच्छाओं में प्रेरित होकर ही मनुष्य अनेक प्रकार के कार्य करता है। अर्थात् मनुष्य को जितने भी कार्य करते हुए देखते हैं वे सब इन्हीं इच्छाओं के फल मात्र होते हैं। इन आठ वृत्तियों का विभाजन हम इस प्रकार किए देते हैं—
अस्तित्व—उन्नति के अन्तर्गत—(1) आत्म–रक्षा, (2) अपने को प्रकट करना (कीर्ति), (3) बड़प्पन प्राप्त करना।
ज्ञान वृद्धि के अन्तर्गत — (1) गुप्त विषयों को जानना, (2) समूह इकट्ठा करना।
आनन्द बढ़ाने के अन्तर्गत — (1) शरीर और मन सुख, (2) साहस, (3) विपरीत योनि से घनिष्ठता।
अब विचार कीजिए कि मनुष्य के समस्त कार्य इस सीमा में आ जाते हैं कि नहीं। हिंसक, दस्यु आक्रमणकारियों से, आपत्ति से बचने के लिए लोग घर बनाते, बस्तियों में रहते, शस्त्र रखते, डरते, छिपते, भागते, वैद्यों, डाक्टरों के पास जाते, राज्य निर्माण करते, देवी-देवताओं की सहायता लेते, युद्ध करते तथा अन्यान्य ऐसे प्रयत्न करते हैं, जिससे आत्म-रक्षा हो, अधिक दिन जियें, मृत्यु से दूर रहें। कीर्ति के लिए लोकप्रिय बनना, फैशन बनाना, भाषण देना, अपने विचार छापना, लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले शब्द अथवा प्रदर्शन करना आदि कार्य किए जाते हैं। गौरव के लिए नेता बनना, अपने संरक्षण में छोटे लोगों को लेना, ओहदा प्राप्त करना, सम्पत्तिवान, बलवान बनना, राज्य सम्पत्ति पाना, गुरु बनना, अपने को पदवीधारी, ईश्वर भक्त, धर्म प्रचारक प्रकट करना आदि कृत्य होते हैं। इस प्रकार आत्मरक्षा, कीर्ति और गौरव प्राप्त करके आत्म-विश्वा, आत्म-सन्तोष, आत्म-उन्नति का उद्योग किया जाता है।
विद्याध्ययन, सत्संग, स्वाध्याय, साधना, अन्वेषण, आविष्कार, खोज, परीक्षण, वाद-विवाद, यात्रा, समारोहों में सम्मिलित होना, नवीन वस्तुओं का देखना, इस श्रेणी के कार्य ‘गुप्त विषयों की जानकारी’ के लिए होते हैं। समाज में रहना, मित्र बढ़ाना, संगठन में बंधना, दल बनाना, कम्पनी खोलना, साझा करना आदि कार्यों के द्वारा मनुष्य दूसरों की योग्यताओं की जानकारी प्राप्त करता एवं उनकी सामूहिक अनुभूतियों के आधार पर अपनी ज्ञान चेतना में वृद्धि होने का लाभ उठाना चाहता है। इस प्रकार रहस्यान्वेषण को अपना प्रिय विषय बनाकर हम अल्पज्ञता से सर्वज्ञता की ओर बढ़ना चाहते हैं। अपने संसार के और अदृश्य विषयों के रहस्य से परिचित होने के लिए ज्ञान की तीव्र पिपासा को जीव अपने अन्दर धारण किए हुए हैं। शिक्षालय, योग साधनाएं, प्रयोगशालाएं, पुस्तकें, समाचार पत्र, रेडियो, मनुष्य की इसी महान मानसिक क्षुधा के निवारणार्थ—ज्ञान वृद्धि के निमित्त प्रयत्न कर रहे हैं।
स्वादिष्ट भोजन, शीतोष्ण निवारण के प्रयत्न, वस्त्र, कोमल बिस्तर, सवारी, सेवक आदि शरीर सुख के लिए तथा खेल, तमाशे, नाच-रंग, गीत, वाद्य आदि मनोरंजन के लिए होते हैं। त्याग, दान, अद्भुत कार्य, कष्टों का मुकाबला आदि धीरता-वीरता के कार्य साहस प्रदर्शित करने के लिए हुआ करते हैं, पुरुषों का स्त्रियों के सम्बन्ध में और स्त्रियों का पुरुषों के सम्बन्ध में अनेक मार्गों से अधिक दिलचस्पी लेना भी सर्वत्र देखा जाता है, यह खिंचाव भी आनन्ददायक समझा जाता है। शरीर सुस्थिर, दीर्घजीवी, आनन्दी एवं उन्नतिशील बनने की क्षमता वाला रहे और मनोरंजन से चित्त हलका होकर उर्ध्वगति प्राप्ति करने की सामर्थ्य अपने अन्दर धारण किए रहे, इसलिए अन्तः चेतना स्वयंमेव ऐसा प्रयत्न कर रही है कि शरीर और मन की प्रसन्नता नष्ट न होने पावे।
पाठक! सब ओर भली प्रकार की दृष्टि दौड़ाकर देख ले, सत् अस्तित्व की उन्नति, चित्-ज्ञान की वृद्धि, आनन्द शरीर और मन की सुख साधना में ही सब लोग प्रवृत्त मिलेंगे, कोई भी व्यक्ति इस कार्यक्रम से पृथक्-सच्चिदानन्द की उपासना से विरक्त दिखाई न पड़ेगा। इसे जब हम गम्भीर दृष्टि से मनुष्य के स्वभाव-जन्य मूलभूत धर्म की खोज करते हैं, तो ‘सच्चिदानन्द की उपासना’ इसी तत्व को प्राप्त करते हैं।