क्या धर्म ? क्या अधर्म

धर्म संकट

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अनेक बार मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर उपस्थित होते हैं, जब वह धर्म संकट में पड़ जाता है। सामने दो ऐसे मार्ग आ जाते हैं जो दोनों ही अरुचिकर होते हैं, उनमें से किसी को भी करने की इच्छा नहीं होती, फिर भी ऐसी परिस्थिति सामने होती है कि एक को किए बिना गुजारा नहीं (1) एक ओर खाई दूसरी ओर खन्दक, (2) भई गति सांप छछूंदर केरी, (3) मुंह में भरा गरम दूध न पीते बने न उगलते, (4) मूसल निगलो या वृत्ति छोड़ो आदि अनेक कहावतें जन समाज में प्रचलित हैं जो यह सूचित करती हैं कि ऐसी द्विविधायें अक्सर सामने उपस्थित होती हैं और उनके हल ढूंढ़ने में बुद्धि विचलित हो जाती है।

धर्म ग्रन्थ, लोक मत, उदाहरण, अभिवचन और भावुकता के आधार पर कुछ निर्णय करते हुए मस्तिष्क चकरा जाता है। मान लीजिए एक सिंह गांव में घुस आये और ग्रामवासियों को खाने लगे, ऐसे समय में धर्म ग्रन्थ टटोलने पर परस्पर विरोधी मन्तव्य प्राप्त होते हैं। एक स्थान पर लिखा होगा कि—‘‘किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। सभी जीव ईश्वर के हैं, जिस प्राणी को हम बना नहीं सकते उसे मारने का हक नहीं है।’’ दूसरे स्थान पर ऐसा लिखा होगा कि—‘‘आततायी को मार डालना चाहिए।’’ दोनों ही व्यवस्थाएं एक-दूसरे के विरोध में हैं, धर्मग्रन्थ के अवलम्बन करने पर जो धर्म संकट उपस्थित हुआ उसका निराकरण हो सकना बहुत कठिन है। मित्रों से पूछा जाय तो वे भी अपनी विचार मर्यादा के अनुसार उत्तर देंगे। जैसी मित्र से पूछें तो कहेगा—‘चाहे जो होता रहे सिंह पर हाथ नहीं छोड़ना चाहिए।’ वेदान्ती कहेगा—‘संसार मिथ्या है, स्वप्न समान है, तुम तो देखते मात्र रहो।’ गीता धर्म वाला कहेगा—‘कर्तव्य पालन करो, आततायी को मारो, सिंह है या गाय इसकी विवेचना मत करो।’ पीड़ित गांववासी सिंह को अविलम्ब मार डालने की पुकार करेंगे। इस प्रकार लोक मत भी एक नहीं मिल सकता, कबूतरखाने में तरह-तरह की चिड़ियां अपनी-अपनी बोली बोलती हैं, किसकी बात बुरी कही जाय, किसकी अच्छी? कोई वस्तु चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, उसके सब लोक समर्थक नहीं हो सकते। स्वराज्य जैसे सर्वोपयोगी जीवन तत्व के भी विरोधी आज अनेक भारतीय दृष्टिगोचर हो सकते हैं। कसाई के कुत्ते अपने टुकड़े से अधिक उत्तमता और किसी वस्तु में नहीं देख सकते। इस प्रकार लोक मत भी किसी बात का सर्व सम्मति से समर्थन नहीं कर सकता, चाहे वह कितनी ही उत्तम हो, वैसे ही बुरी से बुरी बात का पक्ष लेने वाले लोग मिल जाते हैं। उदाहरण तो किसी भी बात के अनुकूल मिल सकते हैं। साधारण मनुष्यों की बात छोड़िए। बड़े से बड़े में बुराइयां ढूंढ़ी जा सकती हैं। ब्रह्माजी अपनी पुत्री पर आसक्त होकर उसके साथ बलात्कार करने को तैयार हो गये, चन्द्रमा गुरु पत्नी पर डिग गया। इन्द्र का अहिल्या के साथ कुकर्म करना प्रसिद्ध है। विष्णु ने जालन्धर की स्त्री का छलपूर्वक पतिव्रत नष्ट किया, व्यासजी का मछुए की लड़की पर, विश्वामित्र का मेनका वेश्या पर आसक्त होने का वर्णन मिलता है। रामायण पढ़ने वालों ने नारद मोह की कथा पढ़ी होगी कि वे भक्ति भाव छोड़कर किस प्रकार विवाह के लिए व्याकुल फिरे थे। राक्षसों का पक्ष, समर्थन करने वाले एवं सहायक शुक्राचार्य और कौरवों के सहायक द्रोणाचार्य जैसे विद्वान् थे। बलि को वामन भगवान ने छला, बालि को राम ने आड़ में छिपकर अनीतिपूर्वक मारा, इस प्रकार बड़े-बड़ों में जहां दोष हैं, वहां अत्यन्त छोटी श्रेणी के व्यक्ति भी उच्च चरित्र का पालन करते देखे जाते हैं। इतिहास एक समुद्र है। इसमें हर बुरे-भले कार्य के पक्ष में तगड़े उदाहरण मिल सकते हैं, फिर इनमें से किसका अनुकरण किया जाय? दुर्भिक्ष में अन्न न मिलने पर प्राण जाने का संकट उपस्थित होने पर विश्वामित्र ने चाण्डाल के घर से मांस चुराकर खाया था और उषस्ति ने अन्त्यज के झूंठे उड़द खोकर प्राण रक्षा की थी, किन्तु विलोचन का ऐसा उदाहरण भी मौजूद है कि अभक्ष खाने का अवसर आने पर उसने प्राणों का परित्याग कर दिया था। इनमें से किसका पक्ष ठीक माना जाय किसका गलत? यह निर्णय करना साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है। अभिवचनों का भी यही हाल है कि विद्वान् एक सिद्धान्त का प्रतिपादन बड़े प्रचण्ड तर्कों से करता है किन्तु दूसरा उसे भी उग्र प्रमाणों द्वारा उस सिद्धान्त का खण्डन कर देता है। प्रजातंत्र, कम्यूनिज्म, फासिज्म, पूंजीवाद आदि के प्रतिपादन में जो तर्क आधार उपस्थित किए जाते हैं, उनके बीच में से सच्चाई निकालना साधारण प्रज्ञा का काम नहीं है। फिर भावुकता का तो कहना ही क्या? आंखों के सामने जो असाधारण अनुभूति करने वाले प्रसंग आते हैं, उनसे तरंगित होकर हृदय एक प्रवाह में बह जाता है और छोटी घटना को भी अत्यन्त महान् समझकर उसके निराकरण में बड़े से बड़ा कार्य करने को तैयार हो जाता है फिर चाहे उतने ही कार्य में अनेक गुने महत्वपूर्ण कार्य छूट जावें। साम्प्रदायिक दंगे हमारे देश में आये दिन होते हैं, इनकी तह में कोई बड़ी भारी जटिल पेचीदगी नहीं होती किन्तु भावुकता का प्रवाह होता है। मुसलमान सोचता है कि नमाज के समय बाजा बजाने से खुदाबन्द करीम की तौहीन होती है। हिन्दू सोचता है कि रामचन्द्रजी की बारात का बाजा बन्द हो जाना ईश्वर का अपमान है। दोनों पक्ष खुदा की तौहीन और ईश्वर का अपमान न होने देने के लिए छुरी कटार लेकर निकल पड़ते हैं और खून से पृथ्वी लाल कर देते हैं। तत्वतः बाजे के कारण न तो ईश्वर का अपमान होता था और न खुदा की तौहीन, पर दोनों पक्ष अपनी-अपनी भावुकता के प्रवाह में बह गये और छोटी घटना को ऐसा बड़ा समझने लगे मानो यही जीवन-मरण का प्रश्न है। यदि भावुकता की उड़ान पर विवेक का नियन्त्रण होता तो वह रक्तपात होने से बच जाता। मुहम्मद गोरी अपनी सेना के आगे गायों का झुण्ड करके बढ़ा। पृथ्वीराज ने गौओं पर हथियार चलाने की अपेक्षा पराजय होने की भावुकता अपना ली। चन्द गायें उस समय बच गईं, पर आज उसी के फलस्वरूप मिनट-मिनट पर सहस्रों गायों की गर्दन पर छुरी साफ हो रही है। ईद की कुर्बानी पर एक गाय को लेकर दंगा हो जाता है, पर सूखे मांस के व्यापार में जो अगणित गौ-वध होता है उसकी ओर किसी की दृष्ट नहीं जाती। इस प्रकार भावुकता के प्रवाह में सामने वाली छोटी बातों को तूल मिल जाता है और पीछे-पीछे रहने वाली जीवन-मरण की समस्या जहां की तहां उपेक्षित पड़ी रहती हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि धर्म ग्रन्थ, लोक मत, उदाहरण, अभिवचन और भावुकता के आधार पर धर्म संकट का सही हल निकालने में बहुत ही कम सहायता मिलती है और गड़बड़ में पड़ जाने की आशंका अधिक रहती है। हो सकता है कि सामने वाले दो मार्गों में से छोटी बात बड़ी मालूम पड़े और बड़ी का महत्व छोटा नजर आये। जैसे बालक के फोड़ा निकल रहा है उसे चिरवाना आवश्यक है। आपरेशन के चाकू को देखकर बालक भयभीत होकर करुण-क्रन्दन करता है, पिता की भावुकता उमड़ पड़ती है, वह बालक को उठाकर यह कहकर चल देता है—‘‘इतना करुण रुदन मैं नहीं देख सकता।’’ घर आने पर फोड़ा बढ़ता है, सड़ने पर पैर गल कर नष्ट हो जाता है, बालक का जीवन निरर्थक हो जाता है। यहां तत्वज्ञानी की दृष्टि से पिता की वह भावुकता अनुचित ठहरती है, जिसके प्रवाह में वह आपरेशन के समय बह गया था। यदि उस समय उसने धैर्य, विवेक और दूरदर्शिता से काम लिया होता तो बालक की जिन्दगी क्यों बर्बाद होती? पिता की सहृदयता पर किसी को आक्षेप नहीं, उसने जो किया था अच्छी भावना से किया था पर भावुकता की मात्रा विवेक से अधिक बढ़ जाने के कारण वह उचित मार्ग से भटक गया और अनिष्टकर परिणाम उपस्थित करने का हेतु बन गया। जब पिता अस्पताल से बच्चे को उठाकर लाया था तब चाहता तो अनेक ऐसे सूत्र, लोकोक्ति, उदाहरण, तर्क इकट्ठे कर सकता था जो उसके कार्य का औचित्य सिद्ध करने ही के पक्ष में होते।

सामने एक भला मार्ग हो और दूसरा बुरा तो यह निर्णय आसान है कि इस मार्ग पर चलना उचित है। पर जब दोनों ही मार्ग बुरे हैं तो क्या किया जाय? यह निश्चित करना कठिन है। इसी प्रकार अच्छे दो मार्गों में से किसे चुना जाय यह भी पेचीदा प्रश्न है। इन पेचीदा मार्गों को धर्म-संकट कहते हैं।

अब उन धर्म संकटों के बारे में विचार करना है जो स्वयं अपनी निज की समस्याओं के सम्बन्ध में उपस्थित होते हैं। हम बड़े परिश्रम से पैसा कमाते हैं फिर उस पैसे से कपड़े बनवा लेते हैं क्योंकि पैसे से कपड़ा अधिक लाभदायक है। शरीर को शीत-धूप से बचाने के लिए कपड़े पहनते हैं क्योंकि कपड़ों से शरीर रक्षा अधिक मूल्यवान है। शरीर सुख के लिए अन्य मूल्यवान पदार्थों को खर्च कर देते हैं कारण यही है कि वे मूल्यवान पदार्थ शरीर सुख के मुकाबले में हेटे जंचते हैं। लोग शरीर सुख की आराधना में लगे हुए हैं परन्तु एक बात भूल जाते हैं कि शरीर से भी ऊंची कोई वस्तु है। वस्तुतः आत्मा शरीर से ऊंची है। आत्मा के आनन्द के लिए शरीर या उसे प्राप्त होने वाले सभी सुख तुच्छ हैं। अपने दैनिक जीवन में पग-पग पर मनुष्य ‘बहुत के लिए थोड़े का त्याग’ की नीति को अपनाता है परन्तु अन्तिम स्थान पर आकर वह सारी चौकड़ी भूल जाता है। जैसे शरीर सुख के लिए पैसे का त्याग किया जाता है, वैसे ही आत्म-सुख के लिए शरीर सुख का त्याग करने में लोग हिचकिचाते हैं। यही माया है।

पाठक इस बात को भली-भांति जानते हैं कि अन्याय, अनीति, स्वार्थ, अत्याचार, व्यभिचार, चोरी, हिंसा, छल, दम्भ, पाखण्ड, असत्य, अहंकार आदि से कोई व्यक्ति धन इकट्ठा कर सकता है, भोग पदार्थों का संचय कर सकता है, इन्द्रियों को कुछ क्षणों तक गुदगुदा सकता है, परन्तु आत्म-सन्तोष प्राप्त नहीं कर सकता। इन पाप कर्मों की आध्यात्मिक प्रतिक्रिया से जो असह्य भार अन्तःकरण से ऊपर जमा होता है उसमें बनी हुई आत्मा हर घड़ी कराहती रहती है और वेदना, उद्विग्नता एवं अशान्ति का अनुभव करती रहती है। पापी मनुष्य बाहर वालों को सुखी एवं भाग्यवान भले ही दिखाई पड़े परन्तु उसकी भीतरी स्थिति से परिचय करने वाले जानते हैं कि वह गरीब और अभावग्रस्त लोगों की अपेक्षा बहुत ही नीची श्रेणी का जीवन व्यतीत कर रहा है। सोते-जागते उसे घड़ी भर भी चैन नहीं, पाप वृत्तियां, पिशाचिनियां उनके मन मरघट में खून भरे खप्पर पी-पीकर नाचती हैं और उस ताण्डव नृत्य को देख-देखकर पाप पीड़ित व्यक्ति की घिग्घी बंध जाती है। अपने रचे हुए कुम्भीपाक नरक में वह स्वयं ही बिलबिलाता है। अपनी खोदी हुई बैतरणी में वह स्वयं ही डूबता-उतराता रहता है। अशान्ति, हाहाकार, चिन्ता, व्याकुलता, उद्विग्नता बस यही उसका परिवार होता है। उन्हीं के बीच में वह जीवन को घुला देता है। आत्म-सन्तोष, आत्म-आनन्द को वह अभागा जान भी नहीं पाता।

एक चरित्रवान व्यक्ति को देखिए, वह ईमानदारी, सच्चाई, परोपकार, दया, उदारता, नम्रता, सहानुभूति, सेवा, सहायता, प्रेम, प्रसन्नता आदि उत्तमोत्तम पुण्य की भावनाओं को अपने में धारण किए हुए हैं। सच्चाई से भरा हुआ खरा आचरण करता है, उसके चरित्र पर उंगली उठाने का किसी को साहस नहीं होता। दूध के समान धवल, हिम के समान स्वच्छ, आचार और विचार रखने वाले मनुष्य की आत्मिक शान्ति का मुकाबला क्या कोई चक्रवर्ती सम्राट कर सकता है? शरीर को उसकी स्वाभाविक वस्तुएं दाल, रोटी, दूध, तरकारी खाने को न दी जावें और अन्य जीवों के खाद्य पदार्थ घास, मिट्टी, कीड़े-मकोड़े खाने को सामने रख दिए जावें तो वह दुःख अनुभव करेगा एवं दिन-दिन दुर्बल होता जायगा। पाप कर्म मनुष्य योनि के उपयुक्त नहीं वरन् श्वान, सिंह, सर्प आदि नीच योनि वाले जीवों का आहार है। मानव का अन्तःकरण पाप कर्मों से प्रफुल्लित नहीं होता वरन् दिन-दिन दुःखी-दुर्बल होता जाता है। उसका स्वाभाविक भोजन वे आचार-विचार हैं जिन्हें सात्विक, पुण्यमय, निष्पाप, पवित्र एवं परमार्थ कहते हैं। इसी आहार से आत्मा की भूख बुझती है और बल प्राप्त करके वह अपनी महान यात्रा को आगे बढ़ाता है।

एक ओर पाप कर्मों द्वारा शरीर सुखों की प्राप्त होती है, दूसरी ओर पुण्य कर्मों द्वारा आत्म-सुख का लाभ होता है। विवेक बुद्धि कहती है ‘बहुत के लिए थोड़े का त्याग करो।’ नाशवान शरीर की क्षणिक लालसाओं को तृप्त करने की अपेक्षा स्थाई, अनन्त, सच्चे आत्म-सुख को प्राप्त करो। शरीर को भले ही कष्टों की स्थिति में रहना पड़े परन्तु सद्वृत्तियों द्वारा प्राप्त होने वाले सच्चे सुख को हाथ से मत जाने दो। ठीकरी को छोड़ो और अशर्फी को ग्रहण करो ‘‘बहुत के लिए थोड़े का त्याग करो।’’

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