क्या धर्म ? क्या अधर्म

धर्म का मर्म

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सृष्टि का निर्माण होने पर जीवों में जब चेतना शक्ति उत्पन्न हुई और वे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य के सम्बन्ध में सोचने विचारने लगे तो उनके सामने धर्म-अधर्म का प्रश्न उपस्थित हुआ। उस समय भाषा और लिपि का सुव्यवस्थित प्रचलन नहीं था और न कोई धर्म पुस्तक ही मौजूद थी। शिक्षा देने वाले धर्म गुरु भी दृष्टिगोचर नहीं होते थे, ऐसी दशा में अपने अन्दर से पथ प्रदर्शन करने वाली आध्यात्मिक प्रेरणा जागृत होती थी, मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते थे। ‘वेद अनादि, ईश्वर कृत हैं।’ इसका अर्थ यह है कि धर्म का आदि स्रोत मनुष्यों द्वारा निर्मित नहीं है वरन् सृष्टि के साथ ही अन्तरात्मा द्वारा ईश्वर ने उसे मानव जाति के निमित्त भेजा था। वेद की भाषा या मन्त्र रचना ईश्वर निर्मित है यह मान्यता ठीक नहीं, वास्तविकता यह है कि प्रबुद्ध आत्माओं वाले ऋषियों के अन्तःकरण में ईश्वरीय सन्देश आये और उन्होंने उन संदेशों को मन्त्रों की तरह रच दिया। प्रायः सभी धर्मों की मान्यता यह है कि ‘उनका धर्म अनादि है, पैगम्बरों और अवतारों ने तो उनका पुनरुद्धार मात्र किया है।’

तत्वतः सभी धर्म अनादि हैं। अर्थात् एक ही अनादि धर्म की शाखाएं हैं। उनका पोषण जिस वस्तु से होता है, वह ‘सत्’ तत्व है यही धर्म सच्चे ठहर सकते हैं, वह अल्पस्थाई होता है और बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है। कोई भी सम्प्रदाय यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि हमारा धर्म ‘सत्’ पर अवलम्बित नहीं है। इसलिए यह स्वीकार करना ही होगा कि अनादि सत्य का आश्रय लेकर अनेक धर्म सम्प्रदाय उत्पन्न हुए हैं। यह आदि सत्य हमारी अन्तरात्मा में ईश्वर द्वारा भली प्रकार पिरो दिया गया है। न्याय बुद्धि का आश्रय लेकर जब हम कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करना चाहते हैं तो अन्तरात्मा उसका सही-सही निर्णय कर देती है। विभिन्न सम्प्रदायों के अपने-अपने स्वतंत्र धर्म ग्रन्थ हैं। वेद, कुरान, बाइबिल, जिन्दाबस्ता, धम्मपद आदि असंख्य धर्म शास्त्रों में उसी महान् ‘सत्’ की व्याख्या की गई है। अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार इन महान् शास्त्रों ने सत् की व्याख्या की है फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ और अपने कथन की अपूर्णता को स्वीकार करते हुए ‘नेति-नेति’ ही कहते रहे। सभी धर्मों में नये सुधारक होते रहे और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बताकर अपनी रुचि के अनुसार सुधार किए। इन सुधारकों का कथन था कि उन्हें ईश्वर ने ऐसा ही सुधार करने के निमित्त भेजा है। इन सुधारकों में भी सुधार करने वाले होते आये हैं और वे सब भी धर्माचार्य ही थे। सत्य एक है तो भी उसके प्रयोग करने की विधियां बदलती रहती हैं। शरीर की ऋतु प्रभावों से रक्षा करनी चाहिए यह एक सचाई है पर इसका व्यावहारिक रूप समय-समय पर बदलता रहता है। जाड़े के दिनों में जिन कपड़ों की आवश्यकता थी उनका गर्मी के दिनों में कोई उपयोग नहीं है। इसलिए पोशाक में परिवर्तन करना जरूरी है। यह आक्षेप करना उचित न होगा कि पैगम्बरों ने अपनी बात को ईश्वर की वाणी क्यों कहा? यदि उनके संदेश ही ईश्वर वाणी थे तो अनेक धर्मों के पैगम्बर मतभेद क्यों रखते हैं? इनमें से एक को सच्चा माना जाय तो बाकी सब झूठ ठहरते हैं। तथ्य की बात यह है कि सभी पैगम्बरों की वाणी में ईश्वरीय सन्देश था। उन्होंने जो कुछ कहा अन्तरात्मा की पुकार के आधार पर, ईश्वर की आकाशवाणी के संकेत पर कहा। समयानुसार प्रथाएं बदलती हैं जैसे कि ऋतुओं के अनुसार पोशाक बदलती हैं। एक व्यक्ति दिसम्बर के महीने में यह शिक्षा देता है कि ऊनी कोट और स्वेटर पहनो तो उसकी शिक्षा सत्य से, धर्म तत्व से परिपूर्ण है। किन्तु यदि दूसरा व्यक्ति जून के महीने में यह कहता है—अब ऊनी कोट की, रुई की लिहाफ की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि पतले कपड़े पहनने चाहिए, तो वह भी झूठा नहीं है।

कई बार साम्प्रदायिक और सामाजिक रीति-रिवाजों और अन्य मान्यताओं के सम्बन्ध में आपके सामने बड़ी पेचीदा गुत्थी उपस्थित हो सकती है। विभिन्न धर्मों के पूज्यनीय अवतार और धर्म ग्रन्थ एक-दूसरे से विपरीत उपदेश देते हैं। ऐसी दशा में बड़ा मतिभ्रम होता है। किसे मानें और किसे न मानें। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए आपको यह बात हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि अवतारों का आगमन और धर्म ग्रन्थों का निर्माण समय की आवश्यकता को पूरी करने के लिए होता है। कोई पुराने नियम जब समय से पीछे के हो जाने के कारण अनुपयोगी हो जाते हैं, तो उनमें सुधार करने के लिए नये-नये सुधारक, नये अवतार प्रकट होते हैं। देश, काल और व्यक्तियों की विभिन्नता के कारण उनके उपदेश भी अलग-अलग होते हैं। देश, काल और पात्र के अनुसार वेद एक से चार हुए, कुरान में संशोधन हुआ, बाइबिल तो अनेक अवतारों की उक्तियों का संग्रह है। जब वैदिकी ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ी तो भौतिकवादी वाम-मार्ग की आवश्यकता हुई। जब वाममार्गी हिंसा की अति हुई तो भगवान बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया, जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शंकराचार्य ने उस का खण्डन करके वेदान्त का प्रतिपादन किया—इसी प्रकार समस्त विश्व में धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। साम्प्रदायिक नियम और व्यवस्थाओं का अस्तित्व समयानुसार परिवर्तन की धुरी पर घूम रहा है। देश, काल और पात्र के भेद से इनमें परिवर्तन होता है और होना चाहिए। एक नियम एक समय के लिए उत्तम है तो वही कालान्तर में हानिप्रद हो सकता है। गर्मी की रातों में लोग नंगे बदन सोते हैं पर वही नियम सर्दी की रातों में पालन किया जायगा तो उसका बड़ा घातक परिणाम होगा।

संसार के अनेक धर्मों के आदेशों को सामने रखें, उनके सिद्धान्त और आदेशों पर दृष्टिपात करें तो वे बहुत बातों में एक-दूसरे से विपरीत जाते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें विरोधाभास भी दिखाई देता है परन्तु वास्तव में भ्रम में पड़ने की कोई बात नहीं है। अन्धों ने एक बात एक हाथी को छूकर देखा और वे उसका वर्णन करने लगे। जिसने पैर छुआ था उसने हाथी को खम्भा जैसा, जिसने पूंछ छुई थी उसने बांस जैसा, जिसने कान छुआ था उसने पंखे जैसा, जिसने पेट छुआ था उसने चबूतरे जैसा बताया। वास्तव में वे सभी सत्य वक्ता हैं क्योंकि अपने ज्ञान के अनुसार सभी ठीक कह रहे हैं। उनका कहना उनकी परिस्थिति के अनुसार ठीक है। परन्तु उसे पूरा नहीं माना जा सकता है। देश, काल और पात्र की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए अवतारी आत्माओं ने विभिन्न समयों पर विभिन्न धर्मों का उपदेश दिया है। भगवान महावीर को एक मांस भोजी निषाद मिला। उन्होंने उसे मांस भोजन त्याग देने के लिए बहुत समझाया पर कुछ भी असर नहीं हुआ। तब उन्होंने सोचा कि इसकी मनोभूमि इतनी निर्मल नहीं है जो अपने चिरकाल के संस्कारों को एकदम त्याग दे, इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे उसे बढ़ने का उपदेश देना उचित समझा सोच-विचार के बाद भगवान महावीर ने उस निषाद से कहा अच्छा भाई! कौवे का मांस खाना तो छोड़ दोगे, यह भी बड़ा धर्म है। निषाद इसके लिए तैयार हो गया क्योंकि कौवे का मांस खाने का उसे अवसर ही नहीं आता था। जब त्याग का संकल्प कर लिया तो उसके मन में धर्म की भावना जागृत हुई और धीरे-धीरे अन्य त्यागो को अपनाता हुआ कुछ दिन बाद बड़ा भारी धर्मात्मा, अहिंसा का पुजारी और महावीर का प्रधान शिष्य बन गया। अवतारी महापुरुष जिस जमाने में हुए हैं उन्होंने उस समय की परिस्थितियों का, देश, काल, पात्र का बहुत ध्यान रखा है। अरब में जिस समय हजरत मुहम्मद साहब हुए थे उस समय वहां के निवासी अनेक स्त्रियां रखते थे, उन्हें चाहे जब रखते और चाहे जब निकाल देते थे, जब सन्तान बढ़तीं और उनका पालन-पोषण न कर पाते थे तो निर्दयतापूर्वक बच्चों को मार-मार कर फेंक देते, उपयोगी और अनुपयोगी पशुओं की अन्धाधुन्ध हत्या करते थे। उन्हें धीरे-धीरे सुधारने के लिए हजरत ने चार स्त्रियां रखने की, बालकों को न मारने की, जीव हत्या एक नियत संख्या में करने की शिक्षा दी। समय बीत जाने पर अब एक व्यक्ति को चार स्त्रियां रखने की आवश्यकता नहीं रही, देखने में वह शिक्षा आवश्यक हो गई, पर इसके मूल में छिपा हुआ सत्य ज्यों का त्यों आवश्यक है—‘अपनी आवश्यकताओं को घटाओ, भोगों को कम करो।’ प्रेम का यह संदेश उस शिक्षा के मूल में था वह उद्देश्य करोड़ों वर्षों में भी परिवर्तित न होगा।

आप गम्भीरतापूर्वक धर्म तत्व पर दृष्टिपात कीजिए और धर्म की उन नियम व्यवस्थाओं में कौन-सी पवित्र और शाश्वत भावना काम कर रही है, उसे ढूंढ़ निकालिए। सत्य शाश्वत है और कायदे, कानून, विचार, व्यवस्था परिवर्तनशील हैं। इस ध्रुव सत्य का हृदयंगम करते ही धर्मों का आपसी विरोध, वैमनस्य दूर हो जाता है और धर्म सत्य हैं और एक ही नींव पर रखे हुए हैं, यह दृष्टिगोचर होने लगता है।

आप जिस सम्प्रदाय से निकट सम्पर्क रखते हैं, उसका सूक्ष्म दृष्टि से, निष्पक्ष परीक्षक की भांति, खरे आलोचक की भांति निरीक्षण कीजिए। निस्सन्देह उसमें बहुत-सी बात बहुत ही उत्तम होंगी क्योंकि हर सम्प्रदाय सत्य का सहारा लेकर खड़ा हुआ है, उसमें कुछ अच्छाई अवश्य ही होनी चाहिए। किन्तु यह भी निश्चय है कि समय की प्रगति के साथ उसमें कुछ न कुछ निरुपयोगिता भी अवश्य आई होगी। यदि उस निरुपयोगिता को भी मोहवश छाती से चिपटाये फिरेंगे तो आप अपना बहुत बड़ा अहित करेंगे। दो दिन पूर्व जो भोजन तैयार किया था वह बहु ही पवित्र, उत्तम, स्वास्थ्यकारक था, पर दो दिन पुराना हो जाने के कारण आज वह बासी हो गया, उसमें बदबू आने लगी, स्वाद रहित एवं हानिकर हो गया। उस बासी भोजन को मोहवश यदि ग्रहण करेंगे तो अपने को रोगी बना लेंगे। साम्प्रदायिक अनुपयोगी रीति-रिवाजों की परीक्षा कीजिए और उनका वैसे ही परित्याग कर दीजिए जैसे मरे हुए कुत्ते की लाश को घर से विदा कर देते हैं। पिछला कल बीत गया। अपनी बहुत-सी आवश्यकता-अनावश्यकताओं को वह अपने साथ समेटकर ले गया। आज तो आज की समस्याओं पर विचार करना है। आज के लिए उपयोगी नई व्यवस्था का निर्माण करना है। एक समय में एक रिवाज उत्तम थी, केवल इसीलिए वह सदा उत्तम रहेगी, यह कोई तर्क नहीं है। हो सकता है कि एक समय ‘नरमेध यज्ञ’ होते हों, परन्तु आज उनकी पुनरावृत्ति कौन करेगा? आदिम युग में मनुष्य के पूर्वज दिगम्बर रहते थे, पर आज तो सभी को कपड़ों की आवश्यकता होती है। पहले लोहे और पत्थर से आग पैदा की जाती थी इसीलिए कोई दियासलाई का बहिष्कार नहीं कर देता। अमुक नगर से अमुक नगर को पहले पक्की सड़क नहीं थी, पर आज बन गई है तो उस पर चलना पाप थोड़े ही कहा जायगा। आप बुद्धि बेचकर पिछले कल की हर बात के अन्धविश्वासी मत बन जाइए अन्यथा अपने जीवन को दारुण दुःखों में फंसा लेंगे। बन्द गड्ढे का पानी सड़ जाता है। कहीं ऐसा न हो कि रूढ़ियों के पौंगा पन्थी के गड्ढे में बन्द पड़ी हुई आपकी बुद्धि सड़ जाय और उसकी दुर्गन्धि से पास-पड़ौसियों का सिर फटने लगे। सदैव अपनी चेतना को स्वच्छता की ओर रखिए। घर के कूड़े को जैसे रोज-रोज साफ किया जाता है वैसे ही धर्म-साधना के लिए अनुपयोगी रीति-रिवाजों की सदैव सफाई करते रहा कीजिए। उनके स्थान पर वर्तमान समय के लिए जिन प्रथाओं की आवश्यकता है उनकी आधारशिला आरोपित करने के लिए साहसपूर्वक आगे कदम बढ़ाया कीजिए।

आपको नाना जंजालों से भरे हुए मत-मतान्तरों की ओर मुड़कर देखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उनमें से बहुत-सी वस्तुएं समय से पीछे की हो जाने के कारण निरुपयोगी हो गई हैं, उनसे चिपके रहने का अर्थ यह होगा कि अपने हाथ-पांव बांधकर अपने को अंधेरी कोठरी में पटक लिया जाय। आप किसी भी धर्म ग्रन्थ, सम्प्रदाय या अवतार का अनादर मत करिए, क्योंकि भले ही आज उनके कई अंश अनुपयोगी हो गये हैं, पर एक समय उन्होंने सामाजिक सन्तुलन ठीक रखने के लिए सराहनीय कार्य किए थे। आप सभी धर्म ग्रन्थों, सम्प्रदायों और अवतारों का आदर करिए और उनमें जो बातें ऐसी प्रतीत हों जिनकी उपयोगिता अब भी बनी हुई है उन्हें ग्रहण करके शेष को अस्वीकार कीजिए। हंस की वृत्ति ग्रहण करके दूध को ले लेना और पानी को छोड़ देना चाहिए।

सत् धर्म का सन्देश है कि ईश्वर के प्राणप्रिय राजकुमारों! हे सच्चिदानन्द आत्माओ! हे नवीन युग के निष्कलंक अग्रदूतो! अपने अन्तःकरण में ज्योति पैदा करो। अपने हृदयों के कषाय-कल्मषों को मथकर निरन्तर धोते रहो। अपने अन्दर पवित्रता, निर्मलता और स्वच्छता को प्रतिक्षण स्थान देते रहो, इससे तुम्हारे अन्दर ब्रह्मत्व जागृत होगा, ऋषित्व उदय होगा, ईश्वर की वाणी तुम्हारी अन्तरात्मा का स्वयं पथ-प्रदर्शन करेगी और बतावेगी कि इस युग का क्या धर्म है? जब आप अनादि सत् धर्म को स्वीकार करते हैं तो इस नाना प्रकार के जंजालों से भरी हुई पुस्तकों की ओर क्यों ताकें? सृष्टि के आदि में सत् धर्म का उदय हुआ था तो जीवों का पथ-प्रदर्शन उनकी अन्तरात्मा में बैठे हुए परमात्मा ने किया था। इसी को ‘वेद’ या आकाशवाणी कहा जाता है। आप पुस्तकों की गुलामी छोड़िए और आकाशवाणी की ओर दृष्टिपात कीजिए, आपकी अन्तरात्मा स्वतन्त्र है, ज्ञानवान है और प्रकाश स्वरूप है। वह आपको आपकी स्थिति के अनुकूल ठीक-ठीक मार्ग बता सकती है। यह मत सोचिए कि आप तुच्छ, अल्प और असहाय प्राणी हैं और आपको अन्धे की तरह किसी उंगली पकड़कर ले चलने वाले की जरूरत है। ऐसा विचार करना आत्मा के ईश्वरीय अंश का तिरस्कार करना होगा।

धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिए सद्बुद्धि आपको प्राप्त है। उसका निष्पक्ष होकर, निर्भय उपयोग किया कीजिए। मत कहिए कि हमारी बुद्धि अल्प है, हमारा ज्ञान थोड़ा है। हो सकता है कि अक्षर ज्ञान की दृष्टि से आप पीछे हों, परन्तु सद्बुद्धि तो ईश्वर ने सबको दी है। वह आपके पास भी कम नहीं है। दीनता की भावना को आश्रय देकर आत्मा का तिरस्कार मत कीजिए। अपनी सद्बुद्धि पर विश्वास करिए और उसी की सहायता से आज के लिए उपयोगी रीति-रिवाजों को स्वीकार कीजिए, यही सच्चा धर्म का मार्ग है।

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