कुण्डलिनी महाशक्ति और उसकी संसिद्धि

गायत्री साधना और कुण्डलिनी जागरण

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पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्माजी के दो पत्नियां थीं। प्रथम गायत्री दूसरी सावित्री। इसे अलंकारिक प्रतिपादन में ज्ञान चेतना और पदार्थ सम्पदा कहा जा सकता है। इनमें एक परा प्रकृति है, दूसरी अपरा। परा प्रकृति के अन्तर्गत मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार—अहंकार चतुष्टय, ऋतम्भरा प्रज्ञा आदि का ज्ञान क्षेत्र आता है। दूसरी पत्नी सावित्री। इसे अपरा प्रकृति, पदार्थ चेतना, जड़ प्रकृति कहा जाता है। पदार्थों की समस्त हलचलें—गतिविधियां—उसी पर निर्भर हैं। परमाणुओं की भ्रमणशीलता, रसायनों की प्रभावशीलता, विद्युत ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, ईथर आदि उसी के भाग हैं। पदार्थ विज्ञान इन्हीं साधनों को काम में लाकर अगणित आविष्कार करने और सुविधा साधन उत्पन्न करने में लगा हुआ है। इसी अपरा प्रकृति को सावित्री कहते हैं। कुण्डलिनी इसी दूसरी शक्ति का नाम है।

दूसरी शक्ति सावित्री—पदार्थ शक्ति, क्रियाशीलता इस अपरा प्रकृति से ही प्राणियों का शरीर संचालन होता है और संसार का प्रगति चक्र चलता है। शरीर में श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, निद्रा-जागृति, पाचन-विसर्जन, ऊष्मा-ऊर्जा, विद्युत प्रवाह अगणित क्रिया-कलाप काया के क्षेत्र में चलते हैं। संसार का हर आदि पदार्थ क्रियाशील है। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन का गतिचक्र इस सृष्टि में अनवरत गति से चलता है। प्राणी और पदार्थ सभी अपने-अपने ढंग से प्रगति पथ पर द्रुतगति से दौड़ रहे हैं। विकास की दिशा में कण-कण को धकेला जा रहा है। निष्क्रियता को सक्रियता के रूप में बदलने का प्रेरणा केन्द्र जिस महत्तत्व में सन्निहित है, उसे अपरा प्रकृति कहते हैं। सत, रज, तम—पंचतत्व तन्मात्राएं आदि का सूत्र संचालन यही शक्ति करती है। सिद्धियां और वरदान इसी के अनुग्रह से मिलते हैं। ब्रह्माजी की द्वितीय पत्नी सावित्री इसी को कहते हैं। मनुष्य शरीर में आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति, साहसिकता, सौन्दर्य आदि अगणित विशेषताएं इसी पर निर्भर हैं। यों इसका विस्तार तो सर्वत्र है, पर पृथ्वी में ध्रुव केन्द्र में और शरीर के मूलाधार चक्र में इसका विशेष केन्द्र है। साधना प्रयोजन में इसी को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं।

गायत्री और सावित्री दोनों परस्पर पूरक हैं। इनके मध्य कोई प्रतिद्वन्दिता नहीं। गंगा-यमुना की तरह ब्रह्म हिमालय की इन्हें दो निर्झरिणी कह सकते हैं। सच तो यह है कि दोनों अविच्छिन्न रूप से एक-दूसरे के साथ गुंथी हुई हैं। इन्हें एक प्राण दो शरीर कहना चाहिए। ब्रह्मज्ञानी को भी रक्त-मांस का शरीर और उसके निर्वाह का साधन चाहिए। पदार्थों का सूत्र संचालन चेतना के बिना सम्भव नहीं। इस प्रकार यह सृष्टि क्रम दोनों के संयुक्त प्रयास से चल रहा है। जड़-चेतन का संयोग बिखर जाय। तो फिर दोनों में से एक का भी अस्तित्व शेष न रहेगा। दोनों अपने मूल कारण में विलीन हो जायेंगे। इसे सृष्टि के, प्रगति रथ के, दो पहिये कहना चाहिए। एक के बिना दूसरा निरर्थक है। अपंग तत्वज्ञानी और मूढ़ मति नर-पशु दोनों ही अधूरे हैं। शरीर में दो भुजाएं, दो पैर, दो आंखें, दो फेफड़े, दो गुर्दे आदि हैं। ब्रह्म शरीर भी अपनी दो शक्ति धाराओं के सहारे यह सृष्टि प्रपंच संजोये हुए है, इन्हें उसकी दो पत्नियां, दो धाराएं आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे ठीक तरह वस्तुस्थिति को समझने का प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। पत्नी शब्द अलंकार मात्र है। चेतन सत्ता का कुटुम्ब परिवार मनुष्यों जैसा कहां है? अग्नि तत्व की दो विशेषताएं हैं—गर्मी और रोशनी। कोई चाहे तो इन्हें अग्नि की दो पत्नियां कह सकते हैं। यह शब्द अरुचिकर लगे तो पुत्रियां कह सकते हैं। सरस्वती को कहीं ब्रह्मा की पत्नी कहीं पुत्री कहा गया है। इसे स्थूल मनुष्य व्यवहार जैसा नहीं समझना चाहिए। यह अलंकारिक वर्णन मात्र उपमा भर के लिए है। आत्म-शक्ति को गायत्री और वस्तु-शक्ति को सावित्री कहते हैं। सावित्री साधना को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। उसमें शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रसुप्ति, विकृति के निवारण का प्रयास होता है। बिजली की ऋण और धन दो धाराएं होती हैं। गायत्री और सावित्री के समन्वय से साधना की समग्र आवश्यकता पूरी होती है।

नित्यकर्म में—संध्यावन्दन में की जाने वाली गायत्री उपासना सामान्य है। कुण्डलिनी जागरण के लिए गायत्री की उच्चस्तरीय उपासना का क्रम अपनाना पड़ता है। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बांधे रहने वाली सूत्र श्रृंखला कह सकते हैं। प्रकारान्तर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुम्बकीय शक्ति काम करती रहती है। इसे के दबाव से युग्मों का बनना और प्रजनन क्रम चलना सम्भव होता है। उदाहरण के लिये इन नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुम्बकीय धारा प्रवाह को कुण्डलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं। प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का सरंजाम खड़ा करा लेना इसी ब्रह्माण्ड व्यापी कुण्डलिनी का काम है। व्यक्ति सत्ता में भी काया और चेतना की घनिष्ठता बनाये रहना और शरीर में लिप्सा मन में ललक और अन्तःकरण में निष्ठा उभारना इसी कुण्डलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें, आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन उत्पादन कुण्डलिनी ही करती है। अन्यथा जड़ पंच तत्वों में पुलकन कहां—निर्लिप्त आत्मा में उद्विग्न आतुरता कैसी? दृष्टि जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में ‘माया’ कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का, मानवी गतिविधियों का, उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। यह प्रमुख कुंजी मास्टर के हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बन्द किये रहने वाले सभी ताले खुलते चले जाते हैं।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतम्भरा प्रज्ञा उभारने के लिए, प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुण्डलिनी साधना की कार्य-पद्धति काम में लाई जाती है। गायत्री साधना का उद्देश्य मानसिक चेतनाओं का जागरण और कुण्डलिनी साधना का प्रयोजन पदार्थ गत सक्रियताओं का अभिवर्धन है।

मस्तिष्क मार्ग से प्रकट होने वाली चेतनात्मक शक्तियों की सिद्धियों का वारापार नहीं। योगी, तत्वज्ञानी, पारदर्शी, मनीषी, विज्ञानी, कलाकार, आत्मवेत्ता, महामानव इसी शक्ति का उपयोग करके अपने वर्चस्व को प्रखर बनाते हैं। ज्ञान शक्ति के चमत्कारों से कौन अपरिचित है? मस्तिष्क का महत्व किसे मालूम नहीं? उसके विकास के लिये स्कूली प्रशिक्षण से लेकर स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन और साधना समाधि तक के अगणित प्रयोग किये जाते रहते हैं। इस व्यावहारिक क्षेत्र को गायत्री उपासना—परा प्रकृति की साधना ही कहना।

दूसरी क्षमता है, क्रिया शक्ति। अपरा प्रकृति। शरीरगत अवयवों का सारा क्रिया-कलाप इसी से चलता है। श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, निद्रा, जागृति, मलों का विसर्जन, ऊष्मा, ज्ञान तत्व, विद्युत प्रवाह आदि अगणित प्रकार के क्रिया-कलाप शरीर में चलते रहते हैं। उन्हें अपरा प्रकृति का कर्तृत्व कहना चाहिए, इसे जड़ पदार्थों को गतिशील रखने वाली ‘क्रिया शक्ति’ कहना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में इसका महत्व भी कम नहीं। आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति, साहसिकता, सौन्दर्य आदि कितनी ही शरीरगत विशेषताएं इसी पर निर्भर हैं। इसे व्यावहारिक रूप से कुण्डलिनी शक्ति कहना चाहिए। आहर, व्यायाम, विश्राम आदि द्वारा साधारणतया इसी शक्ति की साधना, उपासना की जाती है।

यों प्रधान तो मस्तिष्क स्थित दिव्य-चेतना ही है। वह बिखर जाय तो तत्काल मृत्यु आ खड़ी होगी। पर कम उपयोगिता शरीरगत पदार्थ चेतना की भी नहीं है। उसकी कमी होने से मनुष्य दुर्बल, रुग्ण, अकर्मण्य, निस्तेज, कुरूप और कायर बनकर रह जायेगा। निरर्थक, निरुपयोगी—भार भूत जिन्दगी की लाश ही ढोता रहेगा।

गायत्री का केन्द्र सहस्रार-मस्तिष्क का मस्तिष्क, ब्रह्मरन्ध्र है। कुण्डलिनी का केन्द्र काम बीज—मूलाधार चक्र। गायत्री ब्रह्म चेतना की और सावित्री ब्रह्म तेज की प्रतीक हैं। दोनों में परस्पर सघन एकता और अविच्छिन्न घनिष्ठता है। गायत्री से दिव्य आध्यात्मिक विभूतियां उपलब्ध होती हैं और सावित्री से भौतिक ऋद्धि-सिद्धियां। गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना पंचकोशों की, पंचयोगों की साधना बन जाती है। सावित्री कुण्डलिनी है और उसे पांच तप साधनों द्वारा जगाया जाता है। योग और तप के समन्वय से ही सम्पूर्ण आत्म-साधना का स्वरूप बनता और समग्र प्रतिफल मिलता है। इसलिये पंचकोशों की गायत्री और कुण्डलिनी जागरण की सावित्री विद्या का समन्वित अवलम्बन अपनाना ही हितकर है। बिजली की दो धाराएं मिलने पर ही शक्ति प्रवाह में परिणत होती है। आत्मिक प्रगति का रथ भी इन्हीं दो पहियों के सहारे महान् लक्ष्य की दिशा में गतिशील होता है।

मोटे तौर पर मनुष्य शरीर पंच तत्वों का—सप्त धातुओं का बना परिलक्षित होता है। अन्न, जल पर उसका निर्वाह चलता प्रतीत होता है, पर यदि तात्विक सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उसमें विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त समस्त जड़ चेतन शक्तियों के बीज विद्यमान दिखाई देंगे। जो कुछ इस विराट् विश्व में है उसका छोटा रूप अपने भीतर बहुत ही सुव्यवस्थित रीति से संजोया हुआ है। यदि उन बीजों का ठीक तरह सिंचन पोषण किया जा सके तो उसका विस्तार इतने बड़े विशाल वृक्ष के रूप में हो सकता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़े।

अपने भीतर सभी देवता, सभी दिव्य लोक, सभी सिद्ध पुरुष, सभी ऋषि, सभी तीर्थ, सभी सिद्धियां तथा जो कुछ श्रेष्ठ उत्कृष्ट है उसके अंकुर यथास्थान बोये उगाये हुए मौजूद हैं। आवश्यक केवल उनमें खाद पानी देने की अनुकूलता प्रस्तुत करने की है। देखते-देखते वे विकसित, पल्लवित और फल-फूलों से सुसज्जित हो सकते हैं।

साधना का प्रयोजन अपने भीतर की महानता को विकसित करना ही है। बाहर व्यापक क्षेत्र में भी देवशक्तियां विद्यमान हैं, पर उनके लिए समष्टि विश्व की देखभाल का विस्तृत कार्य क्षेत्र नियत रहता है। व्यक्ति की भूमिका के अनुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न करने—सफलता और वरदान देने का कार्य उनके वे अंश ही पूरा करते हैं जो बीज रूप में हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान हैं। सूर्य का अंश आंख में मौजूद है। यदि आंखें सही हों तो ही विराट् सूर्य के प्रकार से लाभ उठाया जा सकता है। अपने कान ठीक हो तो ही बाहर के ध्वनि प्रवाह की कुछ उपयोगिता है इसी प्रकार अपने भीतर के देव बीज यदि विकसित परिष्कृत हों तो उनके माध्यम से विश्वव्यापी देवतत्वों के साथ सम्बन्ध जोड़ना आकर्षित करना और उनका सहयोग अनुग्रह प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

कुण्डलिनी जागरण की साधना पद्धति का प्रयोजन अपने भीतर के देव अंशों को विकसित और परिपुष्ट बनाना है। कैलाश पर्वत पर सर्पों का यज्ञोपवीत धारण करके विराजमान शिव और क्षीर सागर में शेष नाग पर सोये हुए विष्णु का बीजांश हमारे मस्तिष्क मध्य केन्द्र—ब्रह्मरन्ध्र में यथावत् विद्यमान है। इस स्थान को ‘सहस्रार’ कहते हैं। महाकाली—अग्नि जिह्वा चामुण्डा का बीजांश जननेन्द्रिय गह्वर—‘मूलाधार’—में विद्यमान है। इन दो शक्तियों के असंबद्ध बने रहने पर केवल उनकी उपस्थिति का आभास मात्र ही होता है, पर जब उन दोनों का संगम समागम हो जाता है तो अजस्र शक्ति की एक ऐसी धारा प्रवाहित हो उठती है जिसे अनुपम या अद्भुत ही कहा जा सकता है।

जब वर्षा ऋतु आती है तो सूखे बीहड़ भी हरियाली से भर जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में जिनका कोई अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता था, ऐसे दबे हुए बीज भी उपज पड़ते हैं और ऐसा लगता है कि मानो किसी चतुर माली ने विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां, पुष्प गुल्म, लता बल्लरियां विधिवत् आरोपित की हैं। कुण्डलिनी साधना की सफलता को पावस का आगमन कह सकते हैं। मनुष्य शरीर एक विशाल उर्वर भूखण्ड कहा जा सकता है। इसमें एक से एक बहुमूल्य बीज दबे पड़े हैं। वर्षा न होने तक उनका अस्तित्व छिपा रहता है, पर जैसे ही पानी बरसा कि वे सभी प्रकट होकर अपनी शोभा सुषमा दिखाने लगते हैं। साधारणतया जिन विशेषताओं और विभूतियों का किसी को भान भी नहीं होता वे इस पावस में अनायास ही अंकुरित और पल्लवित होने लगती हैं।

आत्म वेत्ताओं ने मानव काया के तीन परतों में—स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में एक से एक अद्भुत देवांश खोजा है। शक्ति बीजों की प्रचुर मात्रा उन्हें दृष्टिगोचर हुई है। विराट् में सन्निहित सब कुछ उन्होंने इसी छोटे से कलेवर में सारभूत विद्यमान पाया है। इसलिए उन्होंने अपने अन्तरंग में ही देव साधना का विधान अधिक महत्वपूर्ण माना है। यों देव मन्दिरों में तथा लोक-लोकान्तरों में भी देव शक्तियां संव्याप्त हैं, पर जितनी समीप और जितनी सजीव अपने अन्तरंग में हैं—उतनी अन्यत्र नहीं। जितनी सुविधा पूर्वक उन्हें अपने भीतर पाया जा सकता है—उतनी सरलता और सफलता अन्यत्र नहीं मिल सकती। कुण्डलिनी विद्या की साधना अन्तरंग क्षेत्र में ही करनी पड़ती है और उसकी सफलता जब मेघ मालाओं की तरह बरसती है तो अगणित दिव्य विभूतियां स्वयमेव प्रस्फुटित और पल्लवित होती हैं। अन्तरंग में कहां क्या है इसका वर्णन देखिए—

देहेऽस्विन् वर्तने मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः ।
सरितः सागराः शैला क्षेत्राथि क्षेत्रपालकाः ।।
ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ।
पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठदेवता ।।
—शिव संहिता 2।1।2

इसी शरीर में सुमेरु, सप्तद्वीप तथा समस्त सरिताएं, सागर, पर्वत, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि, मुनि नक्षत्र, ग्रह, तीर्थ, पीठ, देवता निवास करते हैं।

अस्थिस्थाते महेशानि जम्बुद्वीपो व्यवस्थितः ।
मांसेषु च कुशद्वीपः क्रोञ्चद्वीपः शिरासु च ।।
शाकद्वीपः स्मृतो रक्ते प्राणिनां सर्वसन्धिषु ।
तदूर्ध्वं शाल्मलीद्वीपः प्लक्षश्च लोमसञ्चये ।।
नाभौ च पुष्करद्वीपः सागरस्तदनन्तरम् ।
लवणोदस्तथा मूत्रे शुक्रे क्षीरोदसागरः ।।
मञजा दधिसमुद्रश्च तदूर्ध्व घृतसागरः ।
वसापः सागरः प्रोक्त इक्षु स्यात्कटिशोणितम् ।।
शोणिते च सुरासि घुः कथिताः सप्तसागराः ।
—महायोग विज्ञान

अस्थि स्थान में जम्बूद्वीप, मांस में केश द्वीष, शिराओं में क्रोञ्च द्वीप, रक्त में शाक द्वीप, त्वचा में शाल्मिली द्वीप, लोम समूह में प्लक्ष द्वीप, नाभि में पुष्कर यह सातों द्वीप इस शरीर में ही विद्यमान हैं।

इसी प्रकार इस काया में सात समुद्र भी हैं। मूत्र में लवण सागर, शुक्र में क्षीर सागर, मञ्जा में दधि सागर, भेद में घृत सागर, नाभि में इक्षु सागर, रक्त में सुरा सागर अवस्थित हैं।

श्री पर्वतं शिरःस्थाने केदारं तु ललाटके ।
वाराणसी महाप्राज्ञ भ्रुवोर्घ्राणस्य मध्यमे ।।
कुरुक्षेत्रं कुचन्थाने प्रयागं हृत्सरोरुहे ।
चिदम्बरं तु हृन्मध्ये आधारे कमलालयन् ।।
आत्मतीर्थ समुत्सृज्य बहिस्तीर्थानि यो ब्रजेत् ।
करस्थं स महारत्नं त्वक्त्वा काचं विमार्गते ।।
भावतीर्थ परं तीर्थ प्रमाणं सर्वकर्मसु ।
—जाबाल दर्शनोपनिषद् 4।48

इसी मनुष्य देह में सात तीर्थ हैं मस्तक में श्री शैल, ललाट में केदार नासिका और भौंहों के बीच काशी, स्तनों में कुरुक्षेत्र, हृदय में प्रयाग, मूलाधार में कमलालय, तीर्थ विद्यमान है। जो इन आत्म तीर्थों को छोड़कर बाह्य तीर्थों में भटकता है। वह रत्न छोड़कर कांच ढूंढ़ते फिरने वालों की तरह है।

गंगा सरस्वती गोदा नर्मदा यमुना तथा ।
कावेरी चन्द्र भागा च वितस्ता च इरावती ।।
द्विसप्तति सहस्रेषु नदी नद परिस्रवाः ।
इतस्ततो देह मध्ये ऋक्षाश्च पेज विंशतिः ।।
योगाश्च राशयश्चैव ग्रहाश्च तिथयस्तथा ।
करणानि च वाराश्च सर्वेषां स्थापनं तथा।
सर्वाङ्गेषु च देवेशि समग्रमृक्षमण्डलम् ।
त्रयास्त्रशत्कोटयस्तु निवसन्ति च देवताः ।।
—महायोग विज्ञान

इसी शरीर में समस्त तीर्थ और देवताओं का निवास है। गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी, चन्द्रभागा, वितस्ता, इरावती, यह प्रमुख नदियां तथा बहत्तर हजार छोटी नदियां यह बड़ी और छोटी नदियों के रूप में प्रवाहित हो रही हैं।

ऐसे ही इस शरीर में पन्द्रह तिथियां सात बार, सत्ताईस नक्षत्र बाहर राशि, अट्ठाईस योग, सात करण, नवग्रह उनके उपग्रह, नक्षत्र मण्डल तथा तेतीस कोटि देवता इसी शरीर में विराजमान हैं।

चक्रमध्ये स्थिता देवा कम्पन्ति वायुताडनात् ।
कुण्डल्यपि महामाया कैलासे सा विलीयते ।।
—शिव संहिता 4।46

प्राण वायु की ताड़ना से चक्रों के मध्य में अवस्थित देवता जागृत होते हैं और माया कुण्डलिनी कैलाश मस्तक में जा पहुंचती है।

ब्रह्मणो हृदयस्थानं कण्ठे विष्णुः समाश्रितः ।
तालुमध्ये स्थितो रुद्रो ललाटस्थो महेश्वरः ।।
—ब्रह्मविद्योपनिषद 41

ब्रह्मा का स्थान हृदय, विष्णु का कण्ठ और रुद्र का तालु में और ललाट में सर्वेश्वर का स्थान है।

मनुष्य के भीतर ही समस्त तीर्थ विद्यमान हैं। यदि कुण्डलिनी विद्या द्वारा आत्म साधना करली जाय तो यह काया ही समस्त तीर्थों का संगम बन सकती है और तीर्थयात्रा का जो माहात्म्य बताया है वह अनायास ही मिल सकता है। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना को तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना सरस्वती के संगम की उपमा दी है और पुण्य फल अनन्त बताया है।

इड़ायां यमुना देवी पिंगलायां सरस्वती ।
सुषुम्णायां वसद् गंगा तास्तं योगस्त्रिधा भवेत् ।।
संगता ध्वज भूले च विमुक्ता भ्रू वियोगतः ।
त्रिवेणी योगः सप्रोक्ता तत्र स्नानं महाफलम् ।।
—षट्चक्र निरूपणम्

इड़ा नाड़ी यमुना, पिंगला सरस्वती और सुषुम्ना गंगा है। यही योग त्रिवेणी है। उनका मूलाधार से और वियोजन मध्य में होता है। इस योग त्रिवेणी के संगम का महा फल है।

इड़ा भागीरथी गङ्गा पिंगला यमुना नदी ।
इड़ापिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
त्रिवेणी सङ्गमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तासां तु सङ्गमे स्नात्वा धन्यो याति परां गतिम् ।।
इड़ासुषुम्णे शुभतीर्थकेऽस्मिन्,
ज्ञानाम्बुपूर्णा बहतः शरीरे ।
ब्रह्माम्बुभिः स्नातितयोः सदा,
यः किन्तस्य गाङ्गैरपि पुष्करैर्वा ।।
—महायोग विज्ञान

इड़ा गंगा और पिंगला यमुना के बीच सरस्वती रूपी जो सुषुम्ना बहती है, उनके संगम में स्नान करने वाला धन्य हो जाता है और परमगति पाता है।

इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना इनका संगम शिव तीर्थ है। इनके ज्ञान रूपी ब्रह्म जल में जो स्नान करते हैं। उनके लिए वाह्य नदी सरोवरों तथा तीर्थों का क्या प्रयोजन?

इड़ा हि पिङ्गला ख्याता वरणासीति होच्यते ।
वाराणसी तयोर्मध्ये विश्वनाथोऽत्र भाषितः ।।
एतत् क्षेत्रस्य माहाम्यमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
शास्त्रेषु बहुधा प्रोक्तं परं तत्त्वं सुभाषितम् ।।
—शिव संहिता 5।126-127

इड़ा नाड़ी को वरणा और पिंगला को असी कहते हैं। इन दोनों के बीच स्वयं विश्वनाथ विराजमान हैं। यही वाराणसी है।

इसी वाराणसी का माहात्म्य तत्वदर्शी ऋषियों तथा शास्त्रों ने गाया है और उसे ही परम तत्व कहा है।

आज्ञापङ्कजदक्षांसाद्वामनासपुटं गता ।
उदग्वहेति तत्रेडा गङ्गेति समुदाहृता ।।
—शिव संहिता 5।132

आज्ञा चक्र के दाहिने भाग में बांई ओर को जाने वाली इड़ा नाड़ी को ही गंगा कहते हैं।

‘कारण शरीर’ का देवता ब्रह्मा—‘सूक्ष्म शरीर’ का अधिपति विष्णु और ‘स्थूल शरीर’ का अधिष्ठाता शिव है। यह अधिष्ठता देव सामान्य व्यक्तियों के जीवन में गांठ की तरह बंधे हुए एक कोने में पड़े रहते हैं। पर जब कुण्डलिनी जागरण की तीन अग्नियां प्रज्वलित होती हैं तो उनका प्रभाव तीनों शरीरों पर पहुंचता है और उनके प्रसुप्त तीनों देवता सजग सक्षम सक्रिय होकर अपना प्रकाश एवं प्रभाव प्रदर्शित करने लगते हैं। जिन तीन शरीरों का साधारणतया आभास अनुभव नहीं होता वे अपने अधिष्ठाता देवताओं के जागृत होने पर स्थूल शरीर से भी अधिक प्रत्यक्ष एवं समर्थ दिखाई देने लगते हैं। ब्रह्म ग्रन्थि—विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि के खुल जाने से समस्त अभावों और शोक सन्तापों के भव बन्धनों से भी छुटकारा मिल जाता है और साधक की प्रतिभा में देवत्व का प्रकाश स्पष्ट परिलक्षित होता है।

गायत्री के तीन चरण इन तीन ग्रन्थियों—तीन शरीरों की ओर इंगित करते हैं। गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना चेतना पर चढ़े कषाय कल्मषों का निवारण करती है परिणाम स्वरूप उससे आत्मसत्ता के दिव्य स्वरूप में और निखार आता है। भौतिक क्षेत्र में आत्म चेतना का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए सावित्री साधना का उपयोग करना पड़ता है। आत्मा को संसारी वर्चस्व बनाने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है। गायत्री रूपी आत्मा को संसारी कर्तव्यों की पूर्ति के लिए जिस सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ती है उसे सावित्री साधना से उत्पन्न किया जाता है।

गायत्री साधना द्वारा कुण्डलिनी शक्ति के जागरण की महिमा पर प्रकाश डालने वाले अनेकों शास्त्र वचन मिलते हैं। यथा—

या देवता भोग करीसा मोक्षायन कल्पते ।
मोक्षदा नहि भोगाय त्रिपुरा तु द्वय प्रदा ।।
—त्रिपुरा तन्त्र

जो देवता भोग देते हैं, वे मोक्ष नहीं देते। जो मोक्ष देते हैं वे भोग नहीं देते। पर कुंडलिनी दोनों प्रदान करती हैं।

उद्घाट्येत्कपाटं तु यथा कुंचिंकया हठात् ।
कुंडलिन्या तथा योगी मोक्ष द्वारं विभेदयेत् ।।
—शांभवी तन्त्र

जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने बल से द्वार पर लगी हुई अर्गला आदि को ताली से खोलता है, उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के अभ्यास द्वारा सुषुम्ना के मार्ग का भेदन करता है और ब्रह्म-लोक में पहुंचकर मोक्ष को प्राप्त होता है।

मूलाधारे आत्मशक्तिः कुण्डलिनी परदेवता ।
शायिता भुजगाकारा सार्द्धत्रय बलयान्विता ।।
यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवः पशुर्यथा ।
ज्ञानं न जायते तावत् कोटियोग विधेरपि ।।
आधार शक्ति निद्रायां विश्वं भवति निद्रया ।
तस्यां शक्तिप्रबोधेन त्रैलोक्यं प्रति बुघ्यते ।।
—महायोग विज्ञान

आत्म-शक्ति कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में साड़े तीन कुण्डली लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। जब तक वह सोती रहती है तब तक जीव पशुवत् बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा है। पर जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार ही जाग पड़ता है—

यदा भवति सा संविद्विगुणीकृतविग्रहा ।
सा प्रसूते कुण्डलिनी शब्द ब्रह्मी विभुः ।।
शक्ति ततो ध्वनितस्मान्नादस्तस्मान्निबोधिका ।
ततोऽर्धेन्दुस्ततो बिन्दुमतस्मादसीत्परा ततः ।।
पश्यन्ती मध्यमा वाणी वैखरी सर्ग जन्मभूः ।
इच्छा ज्ञान-क्रियात्मासौ तेजोरूपा गुणात्मिका ।।
क्रमेणानेन सृजति कुण्डली वर्णमालिकाम ।।
—महा तन्त्र

जागृत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है। उससे नाद जागृत होता है फिर बिन्दु। परा, पशन्ती, मध्यमा और वैखिरी यह चारों वाणियां प्रखर होती हैं। इच्छा-शक्ति, ज्ञान-शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है और वर्ण मालिका की श्रृंखला से सम्बद्ध अनेक शारीरिक मानसिक शक्तियों का विकास होता है।

शक्ति कुण्डलिनोति विश्वजननव्यापारगद्धोद्यमा ।
ज्ञात्वे थं तुनर्विशन्ति जननागर्भेऽर्भकत्वनराः ।।
—शक्ति तन्त्र

कुण्डलिनी महाशक्ति के प्रयत्न से ही संसार का सारा व्यापार चल रहा है जो इस तथ्य को जान लेता है वह शोक-सन्ताप भरे बन्धनों में नहीं बंधा रहता।

कूजन्ती कुलकुण्डली च मधुरं मत्तालिमालास्फुटं,
वाचः कोमलकाव्यबन्धरचनाभेदातिभेदक्रमैः ।
श्वासोच्छवास विभञ्जनेन जगतां जीवो यया धार्यते ।
सा मूलाम्बुजगह्वरे विलसति प्रोद्दामदीप्त्यावलिः ।।
—षट्चक्र निरूपणम्

कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर वाणी में मधुरता आ जाती है। काव्य कला और साहित्य में प्रगति होती है यह मूलाधार चक्र में दीप शिखा जैसी, चन्द्र ज्योति जैसी प्रकाशित है, प्राण वायु द्वारा यह धारण की जाती है।

कुण्डलिनी जागरण से इस प्रकार की अनेकों शक्तियों, सिद्धियों और क्षमताओं का जागरण होता है, यह सच है, क्योंकि इस साधना द्वारा साधक की अन्तर्निहित बीज रूप शक्ति जागृत होकर उर्ध्वगामी बनती है। यह साधनाएं आत्मसत्ता को परमात्म सत्ता से जोड़ने, उस स्तर पर पहुंचाने में समर्थ हैं। इनके लिए सामान्य साधना क्रम से ऊपर उठ कर कुछ विशिष्ट साधना प्रक्रियायें अपनानी पड़ती है। प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप उनका अलग-अलग विधान है; इसलिए उनका सार्वजनिक प्रकाशन करना न आवश्यक है और न उचित।





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