कुण्डलिनी महाशक्ति और उसकी संसिद्धि

मानवी सत्ता का दक्षिणी ध्रुव मूलाधार

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मानवी सत्ता के जिन दो ध्रुव केन्द्रों की चर्चा पिछले पृष्ठों में की गई है, उनमें दूसरा दक्षिणी ध्रुव है मूलाधार चक्र, सुमेरु संस्थान सुषुम्ना केन्द्र जो मल-मूत्र के स्थानों के बीचों बीच अवस्थित है, कुण्डलिनी, महासर्पिणी, प्रचण्ड क्रिया शक्ति इसी स्थान पर सोई पड़ी है। उत्तरी ध्रुव का महासर्प अपनी सहचरी सर्पिणी के बिना और दक्षिणी ध्रुव की महासर्पिणी अपने सहचर महासर्प के बिना निरानन्द मूर्छित जीवन व्यतीत करते हैं और परिणाम स्वरूप विश्व की समस्त विशेषताओं का प्रतीक होते हुए भी मनुष्य तुच्छ-सा जीवनयापन करते हुए—कीट-पतंगों की मौत मर जाता है, कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाता, इसका एक मात्र कारण यही है कि हमारे पिण्ड के, देह के दोनों ध्रुव मूर्छित पड़े हैं। यदि वे सजग हो गये होते तो ब्रह्माण्ड जैसी महान चेतना अपने पिंड में भी परिलक्षित होती।

मूत्र स्थान यों एक प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान है। पर तत्त्वतः उसकी सामर्थ्य मस्तिष्क में अवस्थित ब्रह्मरन्ध्र जितनी ही है वह हमारी सक्रियता का केन्द्र है। यों नाक, कान आदि छिद्र भी मल विसर्जन के लिए प्रयुक्त होते हैं, पर उन्हें कोई ढकता नहीं। मूत्र यन्त्र को ढकने की अनादि एवं आदिम परिपाटी के पीछे वह सतर्कता है, जिसमें यह निर्देश है कि इस संस्थान से जो अजस्र शक्ति प्रवाह बहता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिये। शरीर के अन्य अंगों की तरह यों प्रजनन अवयव भी मांस-मज्जा मात्र से ही बने हैं, पर उनके दर्शन मात्र से मन विचलित हो उठता है। अश्लील चित्र अथवा अश्लील चिन्तन जब मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा कर देता है, तब उन अवयवों का दर्शन यदि भावनात्मक हलचल को उच्छृंखल बनादे तो आश्चर्य ही क्या? यहां यह रहस्य जान लेना ही चाहिए। मूत्र संस्थान के मूल में बैठी हुई कुण्डलिनी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में भी इतनी तीव्र है कि उसकी प्रचण्ड धाराएं खुली प्रवाहित नहीं रहने दी जा सकती हैं। उन्हें आवरण में रखने से उनका अपव्यय बचता है और अन्यों के मानसिक सन्तुलन को क्षति नहीं पहुंचती। छोटे बच्चों को भी कटिबंध इसीलिये पहनाते हैं। ब्रह्मचारियों को धोती के अतिरिक्त लंगोट भी बांधे रहना पड़ता है। पहलवान भी ऐसा ही करते हैं। संन्यास और वानप्रस्थ में भी यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

ब्रह्मरन्ध्र मस्तिष्क की सामर्थ्य से हम सभी परिचित हैं। पर कुण्डलिनी क्रिया-शक्ति के केन्द्र-बिन्दु मूलाधार का रहस्य बहुत कम लोगों को मालूम है। उसी संस्थान का जादू है कि मनुष्य अपने समान एक नये मनुष्य को बना कर तैयार कर देता है, जबकि भगवान् भी अपने जैसा नया भगवान् बना सकने का साहस न कर सका। इन अवयवों का पारस्परिक स्पर्श होने से नर नारी के बीच एक असाधारण भावना प्रवाह बहने लगता है। साथी के दुश्चरित्र और अविश्वस्त होने की बात मानते हुए भी परस्पर इतना आकर्षण हो जाता है कि व्यभिचार परायण नर-नारी भी एक दूसरे के लिए सभी मर्यादायें तोड़ कर रोग, कलंक, पाप, परिवार-विग्रह एवं धन हानि की क्षति उठाते देखे गये हैं। विशुद्ध दाम्पत्य जीवन जीने वाले पति-पत्नी के पारस्परिक आकर्षण का केन्द्र जहां उनकी धर्म भावना हैं, वहां वह शारीरिक क्रिया-कलाप भी हैं, जिनके कारण कुण्डलिनी बिन्दुओं का स्पर्श एक दूसरे के शरीर एवं मन पर जादुई प्रभाव डालता है और एक दूसरे को अपना वशवर्ती कर लेता है।

शिव लिंग के पूजा प्रचलन में एक महान् आध्यात्मिक तत्वज्ञान का संकेत है, जिसमें व्यक्ति को सचेत किया गया है कि वह शरीर के इस अवयव में ईश्वरीय दिव्य-शक्ति का अति उत्कृष्ट अंश समाविष्ट समझे और इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर की क्रिया शक्ति—कुण्डलिनी का प्रतीक प्रतिनिधि माने। शिव लिंग का जल अभिषेक करने का एक तात्पर्य यह भी है कि इस शक्ति के महान् आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे शीतल रखा जाय, उद्दीप्त न होने दिया जाय। योगी-यती अपनी साधनाओं में यह तत्वज्ञान संजोये ही रहते हैं कि उन्हें ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना चाहिये ताकि पिण्ड की—देह की—मूलाधार क्रिया-शक्ति कुण्डलिनी की अपव्यय न हो और वह बहिर्मुखी होकर अस्त-व्यस्त बनने, उच्छृंखल होने की अपेक्षा लौटकर ऊर्ध्वगामी दिशा पकड़ती हुई ब्रह्मरन्ध्र अवस्थित महासर्प के साथ तादात्म्य होकर परमानन्द—ब्रह्मानन्द का लक्ष्य प्राप्त कर सके।

कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार को योनि और सहस्रार को लिंग कहा गया है। यह सूक्ष्म तत्वों की गहन चर्चा है। इस वर्णन में काम क्रीड़ा एवं शृंगारिकता का काव्यमय वर्णन तो किया गया है, पर क्रिया प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। तन्त्र ग्रन्थों में उलट भाषियों की तरह मद्य, मांस मीन, मुद्रा और पांचवा ‘मैथुन’ भी साधना प्रयोजनों में सम्मिलित किया गया है। यह दो मूल सत्ताओं के सम्भोग का संकेत है। शारीरिक रति कर्म से इसका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। यों यह सूक्ष्म अध्यात्म सिद्धान्त रति कर्म पर भी प्रयुक्त होते, दाम्पत्य स्थिति पर भी लागू होते हैं। दोनों के मध्य समता की, आदान-प्रदान की स्थिति जितनी ही सन्तुलित होगी उतना ही युग्म को अधिक सुखी, सन्तुष्ट समुन्नत पाया जायेगा।

मूलाधार में कुण्डलिनी शक्ति शिव लिंग के साथ लिपटी हुई प्रसुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी रहती है। समुन्नत स्थिति में इसी मूल स्थिति का विकास हो जाता है। मूलाधार मल-मूत्र स्थानों के निकृष्ट स्थान से ऊंचा उठकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजता है। छोटा-सा शिवलिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है। छोटे-से कुण्ड को मानसरोवर रूप धारण करने का अवसर मिलता है। प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिव कण्ठ से जा लिपटती है और शेषनाग के पराक्रमी रूप में दृष्टिगोचर होती है। मुंह बन्द कली खिलती है और खिले हुए शतदल कमल के सहस्रार के रूप में उसका विकास होता है। मूलाधार में तनिक-सा स्थान था, पर ब्रह्मरन्ध्र का विस्तार तो उससे सौगुना अधिक है।

सहस्रार को स्वर्ग लोक का कल्पवृक्ष—प्रलय काल में बचा रहने वाला अक्षय वट गीता का ऊर्ध्व मूल अधः शाखा वाला अश्वत्थ—भगवान् बुद्ध को महान बनाने वाला बोधि वृक्ष कहा जा सकता है। यह समस्त उपमाएं ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज की ही हैं। वह अविकसित स्थिति में मन, बुद्धि के छोटे-मोटे प्रयोजन पूरे करता है, पर जब जागृत स्थिति में जा पहुंचता है तो सूर्य के समान दिव्य सत्ता सम्पन्न बनता है। उसके प्रभाव से व्यक्ति और उसका सम्पर्क क्षेत्र दिव्य आलोक से भरा पूरा बन जाता है।

ऊपर उठना पदार्थ और प्राणियों का धर्म है। ऊर्जा का ऊष्मा का स्वभाव ऊपर उठना और आगे बढना है। प्रगति का द्वार बन्द रहे तो कुण्डलिनी शक्ति कामुकता के छिद्रों से रास्ता बनाती और पतनोन्मुख रहती है। किन्तु यदि ऊर्ध्व गमन का मार्ग मिल सके तो उसका प्रभाव परिणाम प्रयत्नकर्ता को परम तेजस्वी बनने और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकने की क्षमता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

कुण्डलिनी की प्रचण्ड क्षमता स्थूल शरीर में ओजस् सूक्ष्म शरीर में तेजस् और कारण शरीर में वर्चस् के रूप में प्रकट एवं परिलक्षित होती है। समग्र तेजस्विता को इन तीन भागों से दृष्टिगोचर होते देखा जा सकता है। इस अन्तःक्षमता का एक भोंडा-सा उभार और कार्य कामवासना के रूप में देखा जा सकता है। कामुकता अपने सहयोगी के प्रति कितना आकर्षण, आत्म-भाव उत्पन्न करती है। सम्भोग कर्म में सरसता अनुभव होती है। सन्तानोत्पादन जैसी आश्चर्यजनक उपलब्धि सामने आती है। यह एक छोटी-सी इन्द्रिय है, पर इस अन्तःक्षमता का आवेश छा जाने पर उसका प्रभाव कितना अद्भुत होता है यह आंख पसार कर हर दिशा में देखा जा सकता है। मनुष्य का चित्त, श्रम, समय एवं उपार्जन का अधिकांश भाग इसी उभार को तृप्त करने का ताना-बाना बुनने में बीतता है। उपभोग की प्रतिक्रिया सन्तानोत्पादन के उत्तरदायित्व निभाने के रूप में कितनी महंगी और भारी पड़ती है यह प्रकट तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यदि इसी सामर्थ्य को ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके तो उसका प्रभाव देवोपम परिस्थितियां सामने लाकर खड़ी कर सकता है।

सामान्यतः जननेन्द्रिय को कामवासना एवं रति प्रवृत्ति के लिए उत्तरदायी माना जाता है। पर वैज्ञानिक गहन अन्वेषण से यह तथ्य सामने आता है कि नर-नारी के प्रजनन केन्द्रों का सूत्र संचालन मेरुदण्ड के सुषुम्ना केन्द्र से होता है। यह केन्द्र नाभि की सीध में है। हैनरी आस्ले कृत ‘नोट्स आन फिजयालोजी’ ग्रन्थ में इस सन्दर्भ में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। उसमें उल्लेख है कि नर-नारियों के प्रजनन अंगों के संकोच एवं उत्तेजना का नियन्त्रण मेरुदण्ड के ‘लम्बर रीजन’ (निचले क्षेत्र) में स्थित केन्द्रों से होता है। इस दृष्टि से कामोत्तेजना के प्रकटीकरण का उपकरण मात्र जननेन्द्रिय रह जाती है। उसका उद्गम तथा उद्भव केन्द्र सुषुम्ना संस्थान में होने से वह कुण्डलिनी की ही एक लहर सिद्ध होती है। यह प्रवाह जननेन्द्रिय की ओर उच्च केन्द्रों को मोड़ देने की प्रक्रिया ही इस महाशक्ति की साधना के रूप में प्रयुक्त होती है।

नेपोलियन हिल ने अपनी पुस्तक ‘थिंक एन्ड ग्रो रिच’ में काम शक्ति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। वे सैक्स एनर्जी को मस्तिष्क और शरीर दोनों को समान रूप से प्रभावित करने वाली एक विशेष शक्ति मानते हैं यह मनुष्य को प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के लिए प्रेरणा देती है।

सामान्यतया उसका उभार इन्द्रिय मनोरंजन मात्र बनकर समाप्त होता रहता है। जमीन पर फैले हुए पानी की भाप भी ऐसे ही उड़ती और बिखरती, भटकती रहती है, पर यदि उसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सके तो भाप द्वारा भोजन पकाने से लेकर रेल का इंजन चलाने जैसे असंख्यों उपयोगी काम लिये जा सकते हैं। काम शक्ति के उच्चस्तरीय सृजनात्मक प्रयोजन अनेकों हैं। कलात्मक गतिविधियों में—काव्य जैसी कल्पना सम्वेदनाओं में—दया, करुणा एवं उदार आत्मीयता को साकार बनाने वाली सेवा साधना में—एकाग्र तन्मयता से सम्भव होने वाले शोध प्रयत्नों में प्रचण्ड पराक्रम के रूप में प्रकट होने वाले शौर्य, साहस में गहन आध्यात्मिक क्षेत्र से उद्भूत श्रद्धा भक्ति में उसे नियोजित किया जा सकता है।

कामेच्छा एक आध्यात्मिक भूख है। वह मिटाई नहीं जा सकती। निरोध करने पर वह और भी उग्र होती है। बहते हुए पानी को रोकने से वह धक्का मारने की नई सामर्थ्य उत्पन्न करता है। आकाश में उड़ती हुई बन्दूक की गोली स्वयमेव शान्त होने की स्थिति तक पहुंचने से पहले जहां भी रोकी जायगी वहीं आघात लगावेगी और छेद कर देगी। काम शक्ति को बलपूर्वक रोकने से कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं इस तथ्य पर फ्रायड से लेकर आधुनिक मनोविज्ञानियों तक ने अपने-अपने ढंग से प्रकाश डाला है और उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने का परामर्श दिया है। एक ओर से मन हटकर दूसरी ओर चला जाय। एक का महत्व गिरा कर दूसरे की गरिमा पर विश्वास कर लिया जाय, आकांक्षा एवं अभिरुचि का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक स्वरूप यही है। अतृप्ति-जन्य अशान्ति से बचने तथा क्षमता का सदुपयोग करके सत्परिणामों का लाभ लेने का एक ही उपाय है कि कामेच्छा प्रवृत्ति को सृजनात्मक दिशा में मोड़ा जाय।

कलात्मक प्रयोजनों में संलग्न होने से उसके भौतिक लाभ मिल सकते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में उसे भाव सम्वेदना के लिए ‘भक्ति भावना’ के रूप में तथा प्रबल पुरुषार्थ की तरह तपोमयी योग साधना में लगाया जा सकता है। दोनों का समन्वय कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में समन्वित पद्धति के रूप में किया जा सकता है। सहस्रार चक्र भक्ति भावना का और मूलाधार चक्र प्राण सन्धान का केन्द्र है। दोनों की प्रसुप्त स्थिति को समाप्त कर साहसिक सम्वेदना उभारना कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया अपनाने से सहज सम्भव हो सकता है।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह जीवन के चार परम प्रयोजन हैं। काम का अर्थ सामान्यतया रति कर्म समझा जाता है, पर परम प्रयोजनों में उसका अर्थ विनोद, उल्लास, आनन्द माना जाता है। यह रसानुभूति दो पूरक तत्वों के मिलन द्वारा उपलब्ध होती है। ऋण और धन विद्युत प्रवाह मिलने से गति उत्पन्न होती है। रयि और प्राण तत्व के मिलन से सृष्टि के प्राणि उत्पादनों की सृष्टि होती है। प्रकृति पुरुष की तरह नर और नारी को भी परस्पर पूरक माना गया है। मानवी सत्ता में भी दो पूरक सत्ताएं काम करती हैं इन्हें नर और नारी का प्रतिनिधि मानते हैं। नारी सत्ता मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी है और नर तत्व सहस्रार स्थित परब्रह्म है। इन्हीं को शक्ति और शिव भी कहते हैं। इनका मिलन ही कुण्डलिनी जागरण का लक्ष्य है। इस संयोग से उत्पन्न दिव्य धारा को भौतिक क्षेत्र में ऋषि सिद्धि और आत्मिक क्षेत्र में स्वर्ग मुक्ति कहते हैं। आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्माण का लक्ष्य भी यही है।

अथर्व वेद में भगवान के काम रूप से जीवन में अवतरित होने की प्रार्थना की गई है।

यास्ते शिवास्तन्वः काम भद्रायाभिः सत्यं भवति
यद्वृगीषे ताभिष्ट्वमस्मां अभि संविशस्वान्यत्रापापी
रपवेशया धियः ।
—अथर्व

हे परमेश्वर तेरा काम रूप भी श्रेष्ठ और कल्याण कारक है उसका चयन असत्य नहीं है। आप काम रूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें।

कुण्डलिनी महाशक्ति की प्रकृति का निरूपण करते हुए शास्त्रकारों ने इसे ‘कामबीज’ एवं ‘काम कला’ दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों का अर्थ कामुकता, काम क्रीड़ा या काम शास्त्र जैसा तुच्छ अर्थ यहां नहीं लिया गया है। इस शक्ति की प्रकृति उत्साह एवं उल्लास उत्पन्न करना है। यह शरीर और मन की उभय-पक्षीय अग्रगामी स्फुरणाएं हैं। यह एक मूल प्रकृति हुई। दूसरी पूरक प्रकृति। मूलाधार को काम बीज कहा गया है और सहस्रार को ‘ज्ञान बीज’। दोनों के समन्वय से विवेक युक्त क्रिया बनती है। इसी पर जीवन का सर्वतोमुखी विकास निर्भर है। कुण्डलिनी साधना से इसी सुयोग संयोग की व्यवस्था बनाई जाती है।

प्रत्येक शरीर में नर और मादा दोनों ही तत्व विद्यमान हैं। शरीर शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक प्राणी में उभय-पक्षीय सत्ताएं मौजूद हैं। इनमें से जो उभरी रहती हैं उसी के अनुसार शरीर की लिंग प्रकृति बनती है। संकल्प पूर्वक इस प्रकृति को बदला भी जा सकता है। छोटे प्राणियों में उभय लिंगी क्षमता रहती है। वह एक ही शरीर से समयानुसार दोनों प्रकार की आवश्यकताएं पूरी कर लेते हैं।

मनुष्यों में ऐसे कितने ही पाये जाते हैं जिनकी आकृति जिस वर्ग की है, प्रकृति उससे भिन्न वर्ग की होती है। नर को नारी की और नारी को नर की भूमिका निवाहते हुए बहुत बार देखा जाता है। इसके अतिरिक्त लिंग परिवर्तन की घटनाएं भी होती रहती हैं। शल्य क्रिया के विकास के साथ-साथ अब इस प्रकार के उलट-पुलट होने के समाचार संसार के कोने-कोने से मिलते रहते हैं। अमुक नर नारी बन गया और अमुक नारी ने नर के रूप में अपना गृहस्थ नये ढंग से चलाना आरम्भ कर दिया।

दोनों में एक तत्व प्रधान रहने से ढर्रा तो चलता रहता है, पर एकांगी पन बना रहता है। नारी कोमलता, सहृदयता, कलाकारिता जैसे भावनात्मक तत्व का नर से जितना अभाव होगा उतना ही वह कठोर, नीरस, निष्ठुर रहेगा और अपनी बलिष्ठता, मनस्विता के पक्ष के सहारे क्रूर कर्कश बन कर अपने और दूसरों के लिए अशान्ति ही उत्पन्न करता रहेगा। नारी में पौरुष का अभाव रहा तो वह आत्म हीनता की ग्रंथियों से ग्रसित अनावश्यक संकोच में डूबी, कठपुतली या गुड़िया बन कर रह जायगी। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्षों में सन्तुलित मात्रा में रयि और प्राण के तत्व बने रहें। कोई पूर्णतः एकांगी बन कर न रह जाय। जिस प्रकार बाह्य जीवन में नर-नारी सहयोग की आवश्यकता रहती है। उसी प्रकार अन्तःक्षेत्र में भी दोनों तत्वों का समुचित विकास होना चाहिए। तभी एक पूर्ण व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो सकेगा। कुण्डलिनी जागरण से उभयपक्षीय विकास की पृष्ठभूमि बनती है।

कुण्डलिनी महाशक्ति को ‘काम कला’ कहा गया है। उसका वर्णन कतिपय स्थलों में ऐसा प्रतीत होता है मानो यह कोई सामान्य काम सेवन की चर्चा की जा रही हो। कुण्डलिनी का स्थान जननेन्द्रिय मूल में रहने से भी उसकी परिणति काम शक्ति के उभार के लिए प्रयुक्त होती प्रतीत होती है।

इस तत्व को समझने के लिए हमें अधिक गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और अधिक सूक्ष्म दृष्टि से देखना पड़ेगा। नर-नारी के बीच चलने वाली ‘काम क्रीड़ा’ और कुण्डलिनी साधना में सन्निहित काम कला में भारी अन्तर है। मानवीय अन्तराल में उभय लिंग विद्यमान है। हर व्यक्ति अपने आप में आधा नर और आधा नारी है। अर्ध नारी नटेश्वर भगवान् शंकर को चित्रित किया गया है। कृष्ण और राधा का भी ऐसा ही एक समन्वित रूप चित्रों में दृष्टि गोचर होता है। पति पत्नी दो शरीर एक प्राण होते हैं। यह इस चित्रण का स्थूल वर्णन है। सूक्ष्म संकेत यह है कि हर व्यक्ति के भीतर उभय लिंग सत्ता विद्यमान है। जिसमें जो अंश अधिक होता है उसका रुझान उसी ओर ढुलकने लगता है। उसकी चेष्टाएं उसी तरह की बन जाती हैं। कितने ही पुरुषों में नारी जैसा स्वभाव पाया जाता है और कई नारियों में पुरुषों जैसी प्रवृत्ति, मनोवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति बढ़ चले तो इसी जन्म में शारीरिक दृष्टि से भी लिंग परिवर्तन हो सकता है। अगले जन्म में लिंग बदल सकता है अथवा मध्य सन्तुलन होने से नपुंसक जैसी स्थिति बन सकती है।

नारी लिंग का सूक्ष्म स्थल जननेन्द्रिय मूल है। इसे योनि कहते हैं। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु ब्रह्मरंध्र—‘लिंग’ है इसका प्रतीक प्रतिनिधि सुमेरु—मूलाधार चक्र के योनिगह्वर में ही ‘काम बीज के रूप में अवस्थित है।’ अर्थात् एक ही स्थान पर वे दोनों विद्यमान हैं। पर प्रसुप्त पड़े हैं। उनके जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। इन दोनों के संयोग की साधना ‘काम कला’ कही जाती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण की भूमिका कह सकते हैं। शारीरिक काम सेवन—इसी आध्यात्मिक संयोग प्रयास की छाया है।

आन्तरिक कामशक्ति को दूसरे शब्दों में महाशक्ति—महाकाली कह सकते हैं। एकाकी नर या नारी भौतिक जीवन में अस्त-व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभय-पक्षी विद्युत-शक्ति का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता दिखाई पड़ती है। इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिए कुण्डलिनी साधना की जाती है। इसी संदर्भ में शास्त्रों में साधना विज्ञान का जहां उल्लेख किया है वहां काम क्रीड़ा जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः यह आध्यात्मिक काल कला की ही चर्चा है। योनिलिंग, काम बीज, रज, वीर्य संयोग आदि शब्दों में उसी अन्तःशक्ति के जागरण की विधिव्यवस्था सन्निहित है—

स्वयंभु लिंग तन्मध्ये सरन्ध्रं यश्चिमावलम् ।
ध्यायेञ्च परमेशानि शिवं श्यामल सुन्दरम् ।।
—शाक्तानन्द तरंगिणी

उसके मध्य रन्ध्र सहित महालिंग है। वह स्वयंभु और अधोमुख, श्यामल और सुन्दर है। उसका ध्यान करे।

तत्रस्थितो महालिंग स्वयंभुः सर्वदा सुखी ।
अधोमुखः क्रियावांक्ष्य काम बीजे न चालितः ।।
—काली कुलामृत

वहां ब्रह्मरन्ध्र में—वह महालिंग अवस्थित है। वह स्वयंभु और सुख स्वरूप है। इसका मुख नीचे की ओर है। यह निरन्तर क्रियाशील है। काम बीज द्वारा चालित है।

आत्मसंस्थं शिवं त्यक्त्वा बहिःस्थं यः समर्चयेत् ।
हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया ।।
आत्मलिंगार्चनं कुर्यादनालस्यं दिने दिने ।
तस्य स्यात्सकला सिद्धिर्नात्र कार्या विचरणा ।।
—शिव संहिता

अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर-बाहर पूजते फिरते हैं। वे हाथ के भोजन को छोड़ कर इधर-उधर से प्राप्त करने के लिए भटकने वाले लोगों में से हैं।

आलस्य त्याग कर ‘आत्म-लिंग’—शिव—की पूजा करे। इसी से समस्त सफलताएं मिलती हैं।

नमो महाविनदुमुखी चन्द्र सूर्य स्तन द्वया ।
सुमेरुद्दार्घ कलया शोभमाना मही पदा ।।
काम राज कला रूपा जागर्ति स चराचरा ।
एतत काम कला व्याप्तं गुह्याद गुह्यतरं महत् ।।
—रुद्रयामल तन्त्र

महाबिन्दु उसका मुख है। सूर्य चन्द्र दोनों स्तन हैं, सुमेरु उसकी अर्ध कला है, पृथ्वी उसकी शोभा है। चर-अचर में सब में काम कला के रूप में जगती है। सबमें काम कला होकर व्याप्त है। यह गुह्य से भी गुह्य है।

जननेन्द्रिय मूल—मूलाधार चक्र में योनि स्थान बताया गया है।

मूलाधारे हि यत् पद्मं चतुष्पत्रं व्यवस्थितम् ।
तत्र कन्देऽस्ति या योनिस्तस्यां सूर्यो व्यवस्थितः ।।
—शिव संहिता

चार पंखुरियों वाले मूलाधार चक्र के कन्द भाग में जो प्रकाश वान् योनि है।

तस्मिन्नाधार पद्मे च कर्णिकायां सुशोभना ।
त्रिकोणा वर्तते यानिः सर्वतं मेषु गोपिका ।।
—शिव संहिता

उस आधार पद्म की कर्णिका में अर्थात् दण्डी में त्रिकोण योनि है। यह योनि सब तन्त्रों करके गोपित है।

यत्तद्गुह्यमिति प्रोक्तं देवयानिस्तु सोच्यते ।
अस्यां यो जायते वह्निः स कल्याणपदुच्यते ।।

कात्यायन स्मृति

यह गुह्म नामक स्थान देव योनि है। उसी में जो वह्रि उत्पन्न होती है वह परम कल्याणकारिणी है।

आधार प्रथ्ज्ञमं चक्रं स्वधिष्ठानं द्वितीयकम् ।
योनि स्थानं द्वयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यहे ।।
—गोरक्ष पद्धति

पहले मूलाधार एवं दूसरे स्वाधिष्ठान चक्र के बीच में योनि स्थान है, यही काम रूप पीठ है।

आधाराख्ये गुदस्थाने पंकज च चतुर्दलम् ।
तन्मध्ये प्रीच्यते योनिः कामाख्या सिद्ध वंदिता ।।
—गोरक्ष पद्धति

गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल विख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्धजन करते हैं, पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामाख्या पीठ कहलाती है।

यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो मुखम् ।
तिस्मन दृष्टे महायोगे याता यातात्र विन्दते ।।
गोरक्ष पद्धति

इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है जब योगी ध्यान, धारणा समाधि—द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म मरण नहीं होता।

इन दोनों का परस्पर अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध जब मिला रहता है तो आत्म-बल समुन्नत होता चला जाता है और आत्मशक्ति सिद्धियों के रूप में विकसित होती चलती है जब उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य दीन-दुर्बल, असहाय असमर्थ एवं असफल जीवन जीता है। कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को पूर्ण करता है। साधना का उद्देश्य इसी महान प्रयोजन की पूर्ति करना है। इसी को शिव शक्ति का संयोग तथा आत्मा से परमात्मा का मिलन कहते हैं। इस संयोग का वर्णन साधना क्षेत्र में इस प्रकार किया गया है।

भगः शक्तिर्भगवान् काम ईश उया दातार विंह सौभमानाम् । सम प्रधानौ समसत्वौ समोजौ तयो शक्तिरजरा विश्व योनिः ।।
—त्रिपुरोपनिषद्

भग शक्ति है। काम रूप ईश्वर भगवान है। दोनों सौभाग्य देने वाले हैं। दोनों की प्रधानता समान है। दोनों की सत्ता समान है। दोनों समान ओजस्वी हैं। उनकी अजरा शक्ति विश्व का निमित्त कारण है।

काम बीज और ज्ञान बीज के मिलने से जो आनन्दमयी परम कल्याणकारी भूमिका बनती हैं उसमें मूलाधार और सहस्रार का मिलन संयोग ही आधार माना गया है। इसी मिलाप को साधना की सिद्धि कहा गया है। इस स्थिति को दिव्य मैथुन की संज्ञा भी दी गई है।

सहस्रारो परिविन्दौ कुण्डल्या मेलनं शिवे ।
मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनां परिकीर्तितम् ।।
—योगिनी तन्त्र

पार्वती, सहस्रार में जो कुल और कुण्डलिनी का मिलन होता है उसी को यतियों ने दिव्य मैथुन कहा है।

पर शक्त्यात्म मिथुन संयोगानंद निर्गराः ।
मुक्तात्म मिथुनंतत् स्त्यादितर स्त्री निवेषकः ।।
तन्त्र सार

आत्मा को—परमात्मा को प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध करके परम रस का आस्वादन करना यही यतियों का मैथुन है।

सुषम्नाशक्ति सुद्दिष्टा जीवोऽयं परः शवः ।
तयीस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीर्तितम् ।।
तन्त्र सार

सुषुम्ना शक्ति और ब्रह्मरंध्र शिव है। दोनों के समागम को मैथुन कहते हैं।

यह संयोग आत्मा और परमात्मा के मिलन एकाकार की स्थिति भी उत्पन्न करता है। जीव को योनि और ब्रह्म को वीर्य संज्ञा देकर उनका संयोग भी परमानन्द दायक कहा गया है—

एष वीजी भवान् बीज महं योनिः सनायनः ।
वायु पुराण

जीव ने ब्रह्म से कहा—आप बीज हैं। मैं योनि हूं। यही क्रम सनातन से चला आ रहा है।

शिव और शक्ति के संयोग का रूपक भी इस सन्दर्भ में दिया जाता है। शक्ति को रज और शिव को बिन्दु की उपमा दी गई है। दोनों के मिलन के महत्वपूर्ण सत्परिणाम बताये गये हैं।

विन्दुः शिवो रजः शक्ति श्चन्द्रोविन्दु रजोरविः ।
अनयोः संगमा देव प्राप्यते परमं पद्म ।।
गोरख पद्धति

बिन्दु शिव और रज शक्ति। यही सूर्य, चन्द्र है। इनका संयोग होने पर परम पद प्राप्त होता है।

बिन्दुः शिवो रजः शक्तिरुभयोर्मिलनात् स्वयम् ।
—शिव संहिता 1।100

बिन्दु शिव रूप और रज शक्ति रूप है। दोनों का मिलन स्वयं महाशक्ति का सृजन है।

योनि वेदी उमादेवी लिंग पीठ महेश्वर ।
लिंग पुराण

योनि वेदी उमा है और लंग पीठ महेश्वर ।
जातवेदाः स्वयं रुद्रयः स्वाहा शर्वार्धकायिनी ।
पुरुषाख्यो मनुः शंभुः शतरूपा शिवप्रिया ।।
—लिंग पुराण

जातवेदा अग्नि स्वयं रुद्र है और स्वाहा अग्नि वे महाशक्ति हैं उत्पादक परम पुरुष शिव है और श्रेष्ठ उत्पादनकर्त्री शतरूपा एवं शिवा हैं।

अहं बिन्दू रजः शक्तिरुभयोर्मेलनं यदा ।
योगिनां साधना वस्था भवेद्दिव्यं वपुस्तदा ।।
—शिव संहिता 4।87

शिव रूपी बिन्दु शक्ति रूपी रज इन दोनों का मिलन होने से योग साधक को दिव्यता प्राप्त होती है।

ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप प्रकृति और अप्रत्यक्ष भाग पुरुष है। दोनों के मिलने से ही द्वैत का अद्वैत में विलय होता है। शरीरगत दो चेतन धाराएं रयि और प्राण कहलाती हैं। इनके मिलन संयोग से सामान्य प्राणियों को उस विषयानन्द की प्राप्ति होती है जिसे प्रत्यक्ष जगत की सर्वोपरि सुखद अनुभूति कहा जाता है। ऋण और धन विद्युत घटकों के मिलन से चिनगारियां निकलती और शक्ति धारा बहती है। पूरक घटकों की दूरी समाप्त होने पर सरसता और सफलता की अनुभूति प्रायः होती रहती है। चेतना के उच्चस्तरीय घटक मूलाधार और सहस्रार के रूप में विलग पड़े रहें तभी तक अन्धकार की—नीरस गति हीनता की स्थिति रहेगी। मिलन का प्रतिफल सम्पदाओं और विभूतियों के—ऋद्धि और सिद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है। इन उपलब्धियों की अनुभूति में आत्मा-परमात्मा का मिलन होता है और उसकी सम्वेदना ब्रह्मानन्द के रूप में होती है, इस आनन्द को विषयानन्द से असंख्य गुने उच्चस्तर का माना गया है।

शिव पार्वती विवाह का प्रतिफल दो पुत्रों के रूप में उपस्थित हुआ था। एक का नाम गणेश, दूसरे का कार्तिकेय। गणेश को ‘प्रज्ञा’ का देवता माना गया है और स्कन्द को शक्ति का। दुर्दान्त, दस्यु असुरों को निरस्त करने के लिए कार्तिकेय का अवतरण हुआ था। उनके इस पराक्रम ने संत्रस्त देव समाज का परित्राण किया। गणेश ने मांस पिण्ड मनुष्य को सद्ज्ञान, अनुदान देकर उसे सृष्टि का मुकटमणि बनाया। दोनों ब्रह्मकुमार शिव शक्ति के समन्वय के प्रतिफल हैं। शक्ति कुण्डलिनी—शिव सहस्रार दोनों का संयोग कुण्डलिनी जागरण कहलाता है। यह युण्य-प्रक्रिया सम्पन्न होने पर अन्तरंग ऋतम्भरा प्रज्ञा से और बहिरंग प्रखरता से भर जाता है। प्रगति के पथ पर इन्हीं दो चरणों के सहारे जीवन यात्रा पूरी होती है और चरम लक्ष्य की पूर्ति सम्भव बनती है।

गणेश जन्म के समय शिव जी ने उनका परिचय पार्वती को कराया और उसे उन्हीं हाथों में सौंप दिया। इसका विवरण वामन पुराण में इस प्रकार आया है—

यस्माज्जातस्ततो नाम्ना भविष्यति विनायकः ।
एष विघ्नसहस्राणि देवादीनां हनिष्यति ।।
पूजयिष्यन्ति देवाश्च देवि लोकाश्चराचराः ।
इत्येवमुक्त्वा देव्यास्तु दत्तवांस्तनय स हि ।।
—वामन पुराण

इस पुत्र ज्ञान पुत्र का नाम विनायक गणेश ही होगा यह देवों के सहस्रों विघ्नों का हनन करेगा। हे देवि! सब चर-अचर, लोक और देवगण इसकी पूजा करेंगे। इतना कह कर शिव ने वह पुत्र देवी को दें दिया था।

स्कन्दोऽथवदनाद्वह्नेः शुभ्रात्षड्वदनोऽरिहा ।
निश्चक्रामोद्भुतो बालो रोकशोक विनाशनः ।।
—पद्मपुराण

तब छै मुख वाले कुमार स्कन्द उत्पन्न हुए। वे अद्भुत और शोक-सन्ताप विनाशक थे।

आद्य शंकराचार्य कृत ‘सौंदर्य लहरी’ में षट्चक्रों एवं सातवें सहस्रार का वर्णन है और उस परिकर को कुण्डलिनी क्षेत्र बताया है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत और विशुद्ध चक्रों को पांच तत्वों का प्रतीक माना है और आज्ञाचक्र तथा सहस्रार को ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधि बताया है। पांच तत्वों का वेधन करने पर किस प्रकार कुण्डलिनी शक्ति की पहुंच ब्रह्मलोक तक होती है और परब्रह्म के साथ ‘बिहार’ करती है इसका वर्णन 9 वें श्लोक में इस प्रकार है—

महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वधिष्ठाने हृदति मरुत माकांशमुषरि ।
मनोअपि भ्रूमध्ये सकलमपिभित्वा कुल पथं,
सहस्रारे पद्मे सहरहसि पत्या विहरसि ।।

अर्थात्—हे कुण्डलिनी, तुम मूलाधार में पृथ्वी को, स्वाधिष्ठान में अग्नि को, मणिपूर में जल को अनाहत में वायु को विशुद्ध में आकाश को वेधन करती हुई आज्ञाचक्र में मन को प्रकाश देती हो तदुपरान्त सहस्रार कमल में परब्रह्म के साथ बिहार करती हो।

अवाप्य स्वां भूमि, भुजगनिभमध्युष्ट बलयं ।
स्वमात्मानं कृत्वा, स्वपिषि कुल कुण्डे कुहरिणि ।।
—सौन्दर्य लहरी 10

सर्पिणी की तरह कुण्डली मार कर तुम्हीं मूलाधार चक्र के ‘कुल कुण्ड’ में शयन करती हो।

अविद्या नामत्त, स्तिमिरमिहिरोद्दीपन करी ।
जडानां चैतन्य, स्तवक मकरन्द स्रुति शिरा ।।
दरिद्राणां चिन्ता, मणि गुणानिका जन्यं जलधौ ।
निमग्नानां दष्ट्रा मुररि पुवराहस्य भवती ।।
—सौन्दर्य लहरी

अज्ञानियों के अन्धकार का नाश करने के लिए तुम सूर्य रूप हो, तुम्हीं बुद्धि हीनों में चैतन्यता का अमृत बहाने वाली निर्झरिणी हो, तुम दरिद्री के लिए चिन्तामणि माला और भव-सागर में डूबने वालों को सहारा देने वाली नाव हो, दुष्टों के संहार करने में तुम वाराह भगवान् के पैने दांतों जैसी हो।

सौन्दर्य लहरी के 36 से 42 वें श्लोकों में षट्चक्रों के जागरण और कुण्डलिनी उत्थान की प्रतिक्रिया का वर्णन है। इन श्लोकों में कहा गया है कि मूलाधार में विश्व वैभव-स्वाधिष्ठान में ‘शान्ति शीतलता’—मणिपूर में अमृत वर्षा, अनाहत में ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा और अठारहों विद्या’—विशुद्ध में आनन्ददायिनी दिव्य-ज्योति की सिद्धियां भरी हैं। आज्ञाचक्र में शिवत्व और सहस्रार में महामिलन का संकेत है। इन उपलब्धियों का समन्वय इतना महान् है जिसे ऋषित्व एवं देवत्व भी कहा जा सकता है। अपूर्णता से आगे चलकर पूर्णता प्राप्त कर सकना इसी मार्ग का आश्रय लेने से सम्भव होने की बात इन श्लोकों में कही गई है।

कुण्डलिनी महाशक्ति के अनुग्रह से स्वयं आद्य शंकराचार्य किस प्रकार सामान्य द्रविड़ बालक से महामानव बन सके इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने स्वानुभूति इस प्रकार व्यक्त की है—

तवस्तन्यं मन्ये धराणि धरकन्ये हृदयतः ।
पथःपारावारः परिवहति सारस्वतमिव ।।
दयावत्या दत्तं द्रविड शिशुरास्वाद्य तवयत ।
कवीनां प्रौढ़ानामजनि कमनीयः कवयिता ।।
—सौन्दर्य लहरी

तेरे स्तनों में बहने वाले ज्ञानामृत रूपी पय-पान करके यह द्रविड़ शिशु (शंकराचार्य) प्रौढ़ कवियों जैसी कमनीय काव्य रचना में समर्थ हो गया।






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