कुण्डलिनी महाशक्ति और उसकी संसिद्धि

दिव्य शक्तियों का केन्द्र सहस्रार एवं ब्रह्मरंध्र

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पिण्ड को ब्रह्माण्ड का एक छोटा नमूना बताया गया है। वृक्ष का सारा कलेवर एक छोटे से बीज में समाया रहता है। नन्हे से क्षुद्र कीट में मनुष्य शरीर का सारा ढांचा विद्यमान् है। सौर-मण्डल के ग्रहों को पारस्परिक आकर्षण और क्रिया-कलाप जिस ढंग से चलता है, उसकी एक नन्हीं-सी प्रक्रिया परमाणु परिवार के इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन आदि प्रदर्शित करते हैं। इसी प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड मनुष्य देह—पिण्ड में—एक लघु कलेवर में दृष्टिगोचर होता है। हमारी इसी छोटी-सी देह में वह सब कुछ विद्यमान है, जो इस निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में उपस्थित दृश्य और अदृश्य इकाइयों में पाया जाता है। इस पृथ्वी की समस्त विशेषताओं को भी हम अपनी इस छोटी-सी देह में विद्यमान देख सकते हैं।

पृथ्वी की समस्त शक्तियों, विशेषताओं और विभूतियों के केन्द्र उसके सन्तुलन बिन्दु—उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं। यहीं से वह सूत्र संचालन होता है, जिसके कारण यह धरती एक सजीव पिण्ड एवं अगणित जीव-धारियों की क्रीड़ा-स्थली बनी हुई है। यदि ध्रुवों की स्थिति में किसी प्रकार आघात पहुंच जाय या परिवर्तन उपस्थित हो जाय तो फिर इस भू-मण्डल का स्वरूप बदल कर कुछ और ही तरह का हो जायेगा। कहा जाता है कि किसी ध्रुव के संतुलन केन्द्र-बिन्दु पर यदि एक घूंसा मार देने जितना आघात भी पहुंचा दिया जाय, तो यह पृथ्वी अपनी कक्षा से लाखों-करोड़ों मील इधर-उधर हट जायगी और तब दिन, रात्रि, ऋतु, वर्षा सर्दी, गर्मी आदि का सारा स्वरूप ही बदलकर किसी दूसरे क्रम में परिणत हो जायेगा। यह छोटा-सा घूंसा आघात भू-पिण्ड को किसी अन्य ग्रह-नक्षत्र से टकराकर चूर-चूर हो जाने की स्थिति में डाल सकता है। कारण स्पष्ट है—ध्रुव ही तो धरती का सारा नियन्त्रण करते हैं और उन्हीं के शक्ति संस्थान कठपुतली की तरह इस भू-मण्डल को विभिन्न क्रीड़ा-कलाप करने की प्रेरणा एवं क्षमता प्रदान करते हैं। दोनों ध्रुव ही तो उसकी क्रिया और चेतना के केन्द्र बिन्दु हैं।

जिस प्रकार पृथ्वी में चेतना एवं क्रिया उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों से प्राप्त होती है उसी प्रकार मानव पिण्ड देह के भी दो ही अति सूक्ष्म संस्थान हैं। उत्तरी ध्रुव है—ब्रह्मरन्ध्र मस्तिष्क सहस्रार कमल और दक्षिणी ध्रुव है। सुषुम्ना स्थान, कुण्डलिनी केन्द्र मूलाधार चक्र। पौराणिक गाथा के अनुसार क्षीर सागर में सहस्र फन वाले शेषनाग पर विष्णु भगवान शयन करते हैं। यह क्षीर सागर मस्तिष्क में भरा सघन श्वेत सघन स्नेह सरोवर ही है। सहस्रार कमल एक ऐसा परमाणु है, जो अन्य कोषों की तरह गोल न होकर आरी के दांतों की तरह कोण कलेवरों से आवेष्टित हैं। इन दांतों को स्वफल कहते हैं। चेतना के केन्द्र बिन्दु इसी ध्रुवकण में प्रतिष्ठित है। चेतन और अचेतन मस्तिष्कों के अगणित घटकों को जो इन्द्रियजन्य एवं अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होता है, उसका आधार यही ध्रुव विष्णु अथवा सहस्रार कमल है, ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्मा चिंतन से लेकर भक्ति योग तक की सारी आध्यात्मिक साधनायें तथा मनोबल, आत्मबल, एवं संकल्पजन्य सिद्धियों को केन्द्र बिन्दु इसी स्थान को माना गया है।

दक्षिणी ध्रुव, सहस्रार चक्र मस्तिष्क के मध्य में अवस्थित बताया गया है। सिर के मध्य में एक हजार पंखुड़ियों का कमल है उसे ही सहस्रार चक्र कहते हैं। उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है। यहीं आकर कुण्डलिनी शिव से मिल गयी है। यहीं से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है, जिस प्रकार पर्दे में बैठा हुआ कलाकार उंगलियों को गति दे देकर कठपुतलियों को नचाता है। इसे आत्मा का स्थान आदि कहते हैं। विराट् ब्रह्माण्ड में हलचल पैदा करने वाली सारी सूत्र शक्ति और विभाग इसी सहस्रार के आस-पास फैले पड़े हैं।

शास्त्रों में कुण्डलिनी को अनेक शक्तियों और सिद्धियों का प्राण कहा है। सुषुप्त पड़ी कुण्डलिनी को जागृत कर लेने वाला इस लोक के अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है। भारतवर्ष में इस विद्या की शोध की गई है। कुण्डलिनी शक्ति की कोई सीमा और थाह नहीं है।

किन्तु कुण्डलिनी जागृत कर लेना जीव का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। जीव का अन्तिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्त या ब्रह्म निर्वाण। अपने आपको ब्रह्म की सायुज्यता में पहुंचा देना ही मनुष्य देह धारण करने का उद्देश्य है। अनेक साधक और योग उसी के लिये बने हैं। कुण्डलिनी का भी वही उद्देश्य है उस पर अपनी टिप्पणी करते हुए हठ योग प्रदीपिका में लिखा है—

उद्घाट्येत्कपाटं तु यथा कुंचिकया हठात् ।।
कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्ष द्वारं विभेदयेत् ।।

(105)

अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने बल से द्वार पर लगी हुई ###अर्गला आदि को ताली से खोलता है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के अभ्यास द्वार सुषुम्ना के मार्ग का भेदन करता है और ब्रह्म-लोक में पहुंच कर मोक्ष को प्राप्त होता है।

इस सहस्रार चक्र तक पहुंचने पर ही साधक को अमृतपान का सुख, विश्वदर्शन, संचालन की शक्ति और समाधि का आनन्द मिलता है। उपरोक्त श्लोक में जिस स्थान को ब्रह्मलोक कहा गया है, वह यही सहस्रार चक्र है। यहां तक पहुंचना बहुत कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं और उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव, ऐश्वर्य और सौन्दर्य वती युवती पत्नियों का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छह चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानने, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियों पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।

सहस्रार चक्र में पहुंच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतर लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।

सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अंदर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में ‘‘महाविवर’’ नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुंज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे ‘‘दशम द्वार’’ या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। ध्यान विन्दु उपनिषद् में कहा है—

मस्तकेमणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित् ।
तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत् ।।

(46)

अर्थात्—मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है जो उसे जानते हैं वही योगी हैं। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेरु स्थान के नीचे है यह स्वाधिष्ठान चक्र के आश्रम में है और स्वयं नादयुक्त है।

इस स्थान पर पहुंचने की शक्तियों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है—‘‘तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति’’ अर्थात् वह परम् विज्ञानी, त्रिकालदर्शी और सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है वह चाहे जो कुछ करे उसे कोई पाप नहीं होता। उसे कोई जीत नहीं सकता।

ब्रह्मरंध्र एक प्रकार से जीवात्मा का कार्यालय है इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहां तक हमारी दृष्टि पहुंच नहीं सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्वदर्शन के अनुसार यहां 17 तत्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुंज विद्यमान है जो दृश्य में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते। समस्त ज्ञानवाहक सूत्र और वात नाड़ियां यहीं से निकल कर सारे शरीर में फैलती हैं। सूत्रात्मा इसी भास्वर श्वेत दल कमल में बैठा हुआ चाहे जिस नाड़ी के माध्यम से शरीर के किसी भी अंग को आदेश-निर्देश और संदेश भेजता और प्राप्त करता रहता है। वह किसी भी स्थान में हलचल पैदा कर सकता है किसी भी स्थान के बिना किसी वाह्य-उपकरण के सफाई और प्राण वर्षा आदि जो हम सब नहीं कर सकते वह सब कुछ कर सकता है। यह सब ज्योति पुंजों के स्फुरण, आकुंचन-प्रकुंचन आदि से होता है। नाक, जीभ, नेत्र, कर्ण, त्वचा इन सभी स्थूल इन्द्रियों को यह प्रकाश-गोलक ही काम कराते हैं और उन पर नियन्त्रण सहस्रार वासी परमात्मा का होता है। ध्यान की पूर्णावस्था में यह प्रकाश टिमटिमाते जुगनू, चमकते तारे, चमकीली कलियां, मोमबत्ती आधे या पूर्ण चन्द्रमा आदि के प्रकाश-सा झलकता है। धीरे-धीरे उनका दिव्य रूप प्रतिभासित होने लगता है उससे स्थूल इन्द्रियों की गतिविधियों में शिथिलता आने लगती है। और आत्मा का कार्य-क्षेत्र सारे विश्व में प्रकाशित होने लगता है। सामान्य व्यक्ति को केवल अपने शरीर और सम्बन्धियों तक की ही चिन्ता होती है उस पर योगी की व्यवस्था का क्षेत्र सारी पृथ्वी और दूसरे लोकों तक फेल जाता है उसे यह भी देखना पड़ता है कि ग्रह-नक्षत्रों की क्रियायें भी तो असंतुलित नहीं हो रहीं। स्थूल रूप से इन गतिविधियों से पृथ्वी वासी भी प्रभावित होते रहते हैं। इसलिए अनजाने में ही ऐसी ब्राह्मी स्थिति का साधक लोगों का केवल हित संपादित किया करता है। उसे जो अधिकार और सामर्थ्य मिली होती है वह इतने बड़े उत्तरदायित्व को संभालने की दृष्टि से ही होती है। वैसे वह भले ही शरीरधारी दिखाई दे पर उसे शरीर की सत्ता का बिलकुल ज्ञान नहीं होता। वह सब कुछ जानता, देखता, सुनता और आगे क्या होने वाला है यह वह सब पहचानता है।

विज्ञानमय कोष और मनोमय कोष के अध्यक्ष मन और बुद्धि यहीं रहते हैं और ज्ञानेन्द्रिय से परे दूर के या कहीं भी छिपे हुए पदार्थों के समाचार पहुंचाते रहते हैं। आत्म संकल्प जब चित्त वाले क्षेत्र से बुद्धि वाले क्षेत्र में पदार्पण करता है तब दिव्य दृष्टि बनती है और वह आज्ञाचक्र से निकल कर विश्वब्रह्माण्ड में जो अनेक प्रकार की रश्मियां फैली हैं; उनसे मिल कर किसी भी लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेती हैं। विद्युत तरंगों के माध्यम से जिस प्रकार दूर के अन्तरिक्षयानों को पृथ्वी से ही दाहिने-बायें (ट्रेवर्स) किया जा सकता है। जिस प्रकार टेलीविजन के द्वारा कहीं का भी दृश्य देखा जा सकता है इसी प्रकार बुद्धि और संकल्प की रश्मियों से कहीं के भी दृश्य देखे जाना या किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करना मनुष्य को भी सम्भव हो जाता है। मुण्डक और छान्दोग्य उपनिषदों में क्रमशः खण्ड 2 और 9 में इन साक्षात्कारों का विशद वर्णन है और कहा गया है—‘‘हिरण्यमये परेकोशे विरजं ब्रह्म निष्फलं, तच्दुभ्रं ज्योतिषां ज्योति तद् परात्मनो विदुः’’ अर्थात् आत्मज्ञ पुरुष इस हिरण्यमय कोष में शुभ्रतम ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं।

सहस्रार साधना के अनेकों स्वरूप, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के प्रयोग अभ्यासों के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। उनकी सफलताओं के फलस्वरूप मिलने वाले सत्परिणामों का आकर्षक वर्णन हुआ है उस क्षेत्र की सफलताओं का भौतिक और आत्मिक ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में माहात्म्य बताया गया है।

मस्तिष्क में विलक्षण शक्ति केन्द्रों की बात वर्तमान वैज्ञानिक भी मानते हैं। मस्तिष्क शास्त्र के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक स्मिथी की शोध के अनुसार शुद्ध बुद्धि प्योर इन्टेलीजेन्स मानवी मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों से नियन्त्रित होती है। यह सबकी साझेदारी का उत्पादन है। यही वह सार भाग है जिससे व्यक्तित्व का स्वरूप बनता और निखरता है। स्मृति (मैमोरी) विश्लेषण (एनालैसिस) संरचना (सिन्थैसिस) चयन निर्धारण (सिलैक्टिविटी) आदि की क्षमताएं मिलकर ही मानसिक स्तर बनती हैं। इनका सम्मिश्रण एवं उत्पादन कहां होता है वे परस्पर कहां गुंथती हैं, इसका ठीक से निर्धारण तो नहीं हो सका पर समझा गया है कि वह स्थान सैकिबेलमलघुमस्तिष्क में होना चाहिए। यही वह मर्मस्थल है, जिसका थोड़ा भी विकास परिष्कार सम्भव हो सके तो व्यक्तित्व का ढांचा समुन्नत हो सकता है। इसी केन्द्र स्थान को अध्यात्म शास्त्रियों ने बहुत समय पूर्व जाना और उसका नामकरण ‘सहस्रार’ किया है।

मस्तिष्क के गहन अनुसंधान में कितनी ही ऐसी परतें सामने आती हैं जो सोचने-विचारने में सहायता देने भर का नहीं समूचे व्यक्तित्व के निर्माण में भारी योगदान करती हैं। इस तरह की विशिष्ट क्षमताओं का क्षेत्र ‘फ्रन्टल लोब’ है इसमें मनुष्य के व्यक्तित्व (पर्सनालिटी कल्पना-इमैजिनेशन) आकांक्षाएं (एम्विशन्स) व्यवहार प्रक्रिया, अनुभूतियां, सम्वेदनाएं आदि अनेक महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों का निर्माण निर्धारण होता है। इस केन्द्र को प्रभावित कर सकना किसी औषधि उपचार या शल्य क्रिया से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए ध्यान धारणा जैसी वे साधनाएं ही उपयुक्त हो सकती हैं, जिन्हें कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रायः काम में लाया जाता है।

ऊपर मस्तिष्क के एकाध केन्द्र की सांकेतिक चर्चा भर करदी गयी है। मस्तिष्क क्षेत्र अगणित रहस्यमय शक्तियों से भरा हुआ माना जाता है। मस्तिष्क के सम्बन्ध में वर्तमान वैज्ञानिक मान्यताओं की संगति इस सम्बन्ध में भारतीय दार्शनिक मान्यताओं से भी बैठती है।

मोटे विभाजन की दृष्टि से मस्तिष्क को पांच भागों में विभक्त किया जाता है। (1) वृहद् मस्तिष्क (सेरिश्रम) (2) लघुमस्तिष्क (सेरिबेलम) (3) माध्यमिक मस्तिष्क (मिडब्रेन) (4) मस्तिष्क सेतु (पॉन्स) एवं (5) सुषुम्ना शीर्ष (मैडुला ऑबलांगेटा)। इनमें से अन्तिम तीन अर्थात् मिडब्रेन, पॉन्स एवं मैडुला को संयुक्त रूप से मस्तिष्क स्तम्भ (ब्रेनस्टेम) भी कहते हैं।

अध्यात्म शास्त्र के अनुसार मस्तिष्क रूपी स्वर्ग लोक में यों तो तेतीस कोटि देवता रहते हैं, पर उनमें से पांच मुख्य हैं। इन्हीं का समस्त देव संस्थान पर नियन्त्रण है। मस्तिष्कीय पांच क्षेत्रों को पांच देव परिधि कह सकते हैं। इन्हीं के द्वारा पांच कोशों की पांच शक्तियों का संचार संचालन होता है। गायत्री की पंचमुखी साधना में इन पांचों को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिलता है। तदनुसार इस ब्रह्मलोक में, देवलोक में निवास करने वाला जीवात्मा स्वर्गीय परिस्थितियों के बीच रहता हुआ अनुभव करता है।

यह एक प्रकार के विभाजन की बात हुई। अनेक विद्वान एक ही तथ्य के बारे में भिन्न भिन्न प्रकार की विवेचनायें प्राचीन काल से ही करते रहे हैं और आज भी करते हैं। मस्तिष्क के विभाजन तथा सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार एक ही तथ्य के भिन्न-भिन्न विवेचन मिलते हैं।

सहस्रार चक्र को अमृत कलश भी कहा गया है। उसमें से सोम रसस्रवित होने की चर्चा है। देवता इसी अमृत कलश से सुधापान करते और अमर बनते हैं।

वर्तमान वैज्ञानिक मान्यतानुसार मस्तिष्क में एक विशेष द्रव ‘‘सैरिव्रो स्पाइनल फ्ल्यूड’’ भरा रहता है। यही मस्तिष्क के भिन्न भिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है। मस्तिष्क की झिल्लियों से यह झरता रहना है और विभिन्न केन्द्रों तथा सुषुम्ना में सोखा जाता है।

अमृत कलश के सोलह पटल गिनाये गये हैं। इसी प्रकार कहीं कहीं सहस्रार की 16 पंखुरियों का भी वर्णन है। यह मस्तिष्क के ही 16 महत्वपूर्ण विभाग विभाजन हैं। शिव संहिता में भी सहस्रार की 16 कलाओं का वर्णन है—

शिरः कपाल विवरे ध्यायेत षौडसी कला ।
तत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्मेचन्द्र विचित्रयेत् ।।
—योग मंजूषा

कपाल के मध्य चन्द्रमा के समान प्रकाशवान् सोलह कला युक्त सहस्रार चक्र का ध्यान करें।

सहस्रार की यह सोलह कलाएं मस्तिष्क के ‘‘सैरिव्रोस्माइनल फ्ल्यूड’’ से सम्बन्धित मस्तिष्क के सोलह विभाग हैं। पूर्वोक्त पांच स्थूल विभागों को अधिक विस्तार से व्यक्त किया जाय तो उसके निम्नांकित 16 विभाग होते हैं—

(1) वृहद्मस्तिष्क (सैरिब्रम) (2) लघुमस्तिष्क (सैरिेबेलम) (3) सुषुम्ना शीर्ष (मैट्रुला ऑबलॉगेटा) (4) सेतु (पॉन्स) (5) मध्य मस्तिष्क (मिडब्रेन) (6) महासंयोजक (कॉर्पस कलोसम) (7) रखी पिण्ड (कॉपर्स स्ट्रेटम) (8) पीयूस ग्रन्थि (पिट्यूटरी ग्लैण्ड) (9) शीर्ष ग्रन्थि (पीनियल ग्लैण्ड (10) चेतक (थैलोमस) (11) अधःचेतक (हाइपो थैलेमस) (12) उपचेतक (सब थैलेमस) (13) अनुचेतक (मैटा थैलेमस) (14) ऊर्ध्व चेतक (एपी थैलेमस) (15) संचार जालिकाएं (कॉराडप्लैक्सैसेज) (16) प्रकोष्ठ (वैन्ट्रिक्लस)।

इन सभी विभागों में शरीर को संचालित करने वाले एवं अतीन्द्रिय क्षमताओं युक्त अनेक केन्द्र हैं। सहस्रार अमृत कलश को जागृत करके उन्हें अत्यधिक सक्रिय बना कर असाधारण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इस सन्दर्भ में स्पष्ट उल्लेख किया गया है—

इदं स्थानं ज्ञात्वा नियतनिजचितो नरवरो,
न भूयात् संसार पुनरपि न बद्धस्त्रिभुवने ।
समग्रा शक्रिः स्यान्नियतमनसस्तस्य कृतिनः,
सदा कर्तु हर्तु खगतिरपि वाणी सुविमला ।।
—षट्चक्र विरुपणम्

इस सहस्रार कमल की साधना से योगी चित्त को स्थिर आत्म भाव में लीन हो जाता है। भव-बन्धन से छूट जाता है। समग्र शक्तियों से सम्पन्न होता है। स्वच्छन्द विचरता है और उसकी वाणी विमल हो जाती है।

शिरः कपालविवरे ध्यायेद्दुग्धमहोदधिम् ।
तत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्मे चन्द्रं विचिन्तयेत् ।।
- शिव संहिता

कपाल की गुफा में क्षीर सागर समुद्र का तथा सहस्र दल कमल में चन्द्रमा जैसे प्रकाश का ध्यान करें।

तस्माद् गलित पीयूषं पिबेद्योगी निरन्तरम् ।
मृर्त्योर्मृत्युं विधायाशु कुलं जित्वा सरोरुहे ।।
अत्र कुण्डलिनी शक्तिर्लयं याति कुलभिधा ।
तदा चतुर्विधा सृष्टिर्लीयते परमात्मनि ।।

—शिव संहिता

जो योगी सहस्रार से स्रवित हो रहे पीयूष का निरन्तर पान करता है, वह मृत्यु की ही मृत्यु का विधान रचने में समर्थ होता है। अर्थात् मृत्यु उसे मृत्यु के समान नहीं प्रतीत होती, वह मृत्यु से परे का जीवन जीता है। यहीं इसी सहस्रार में कुण्डलिनी-शक्ति का लय होता है और तब चारों प्रकार की सृष्टि परमात्मा में ही लीन हो जाती है, सभी कुछ परमात्मामय हो जाता है।

येन पूता ऋचः सामानियजुर्ब्राह्मणं सह येन पूतम् ।
तेना सहस्रधारेण पवमानः पुनातु माम् ।।

—यजु.

जिससे ऋचायें, साम, यजु और ब्राह्मण पवित्र हुए उस सहस्र धारा वाले सोम से पवमान मुझे पवित्र करे।

सहस्रार क्या है? इसका उत्तर शरीर शास्त्र के अनुसार अब इतना मात्र जाना जा सका है कि मस्तिष्क के माध्यम से समस्त शरीर के संचालन के लिए जो विद्युत उन्मेष पैदा होते हैं, वे आहार से नहीं वरन् मस्तिष्क के एक विशेष संस्थान से उद्भूत होते हैं। वह मनुष्य का अपना उत्पादन नहीं वरन् दैवी अनुदान है। आमाशय, हृदय आदि अवयव तो उसी ऊर्जा से अपने काम कर सकने की क्षमता प्राप्त करते हैं। रक्त से शरीर के अवयवों को पोषण मिलता है यह सत्य है। फेफड़े सांस का और पाचन तन्त्र आहार का साधन जुटाते हैं यह भी सही है; पर देखना फिर भी शेष रह जाता है कि यह सारी मशीन निर्वाह की आवश्यकता पूरी करने में जुटी हुई है, वह अपने लिए मूल ऊर्जा कहां से पाती है? यह समाधान सही नहीं है कि आहार एवं सांस आदि से ही जीवन ऊर्जा मिलती है। यदि ऐसा रहा होता तो भूख या दम घुटने के बिना किसी की मृत्यु ही न होती।

मस्तिष्क के मध्य भाग से यह विद्युत उन्मेष रह रहकर सतत प्रस्फुटित होते रहते हैं। उसे एक विलक्षण विद्युतीय फव्वारा कहा जा सकता है। वहां से तनिक-तनिक रुक-रुककर एक फुलझड़ी सी जलती रहती है। हृदय की धड़कन में भी ऐसे ही मध्यवर्ती विराम रहते हैं। ताप ध्वनि आदि की प्रवाह मान तरंगों में भी उतार चढ़ाव होते हैं। मस्तिष्कीय मध्य बिन्दु में अवस्थित ऊर्जा उद्गम की गतिविधि भी ठीक उसी प्रकार की हैं। वैज्ञानिक इन उन्मेषों को मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों की सक्रियता-स्फुरण का मुख्य आधार मानते हैं। भारतीय योग ग्रन्थों में भी इसी बात को अपने ढंग से व्यक्त किया गया है।

मस्तिष्के मणिवद् भिन्न यो जानाति सयोगवित् ।
तप्तवामी कराकारं तर्डिल्लेखव विस्फुरत् ।।
—ध्यानविन्दु उपनिषद्

मस्तिष्क के मध्य मणिवत् प्रकाश है। उसमें से तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धाराओं का स्फुरण होता है। जो इस रहस्य को जानता है वह योगी है।

ब्रह्मज्योतिर्वसुधा मा ब्रह्मस्थानीय उच्यते ।
ततो यः पावको नाम्नायः सभ्दिर्योग उच्यते ।।
—मत्स्य पुराण

ब्रह्म ज्योति-अग्नि रूप से ब्रह्म रन्ध्र में निवास करती है। वह साधक को पवित्र करती है। यही योगाग्नि है।

इस मस्तिष्कीय ऊर्जा उद्गम को शरीर शास्त्र के अनुसार सहस्रार चक्र कहा जा सकता है। सहस्र का अर्थ यों ‘हजार’ होता है, पर यहां उसका तात्पर्य हजारों से अगणितों से है, परब्रह्म को ‘‘सहस्र शीर्षा पुरुष-सहस्राक्षसहस्र पाद’’ कहा गया है इसका तात्पर्य पूरे एक हजार आंख, हाथ, पैर वाला नहीं वरन् हजारों-अगणितों वाला समझा जाना चाहिए। मस्तिष्कीय उद्गम से उभरने वाली फुलझड़ी की पूरी एक हजार नहीं वरन् अगणित चिनगारियां उड़ती हैं। उस फव्वारे की बूंदों की संख्या पूरी एक हजार नहीं वरन् हजारों असंख्यों है। इस ‘सहस्र’ प्रतिपादन के आधार पर ही उस उद्गम को ‘सहस्रार’ कहा गया है।

मस्तिष्क में मस्तिष्कीय विद्युत की अगणित धारायें प्रवाहित होने की बात वर्तमान विज्ञान मानता है। आवश्यकतानुसार यह धारायें अगणित दिशाओं में अगणित विशिष्ट तन्तुओं द्वारा प्रवाहित होती हैं इन्हें वैज्ञानिकों ने उनकी प्रवृत्ति के अनुसार अनेक वर्गों में विभाजित कर रखा है। जैसे—ऊर्ध्वमुखी मस्तिष्कीय स्फुरण (एसैर्ब्डिग रैटिकुलर एक्टिबेटिंग सिस्टम) अधोमुखी म. स्फु. (डसैन्डिंग रैटि. एक्टि. सि.) विशिष्ट चेतक स्फुरण (स्पैसिफिक थैलैमिक प्रौजैक्शन) (प्रस्तुत चे. स्फु.) डिफ्यूज्ड थै. प्रो.) स्तम्भिक स्फुरण (ब्रेनस्टैम रैटि. फार्मेशन) आदि। इन स्फुरण संस्थानों का संयुक्त प्रभाव योग दृष्टि से मस्तिष्क में विद्युतीय उन्मेष की सहस्रार धाराओं के रूप में दीखना स्वाभाविक है।

सहस्र दल कमल तथा शेषनाग के सहस्र फन माने जाने की उक्ति का आधार भी यही है। ब्रह्मलोक एवं क्षीरसागर के मध्य विष्णु भगवान का कुंडलि भरे हुए शेष नाग पर शयन करना, यह आकृति भी सहस्रार की स्थिति समझने की दृष्टि से ही बनी है। क्षीरसागर अर्थात् मस्तिष्कीय मज्जा। कुण्डलाकार सहस्रमुख सर्प अर्थात् सहस्रार चीरने के आरे में दांते हैं। पहिये में भी आरे होते हैं। चक्र, सुदर्शन जैसे अस्त्र भी दांतेदार होते थे। ‘सहस्रार’ नामकरण की संगति इन्हीं सब बातों के साथ मिलती है।

सहस्रार की सूर्य (सहस्ररश्मि) की उपमा दी गई है। सूर्य की ऊर्जा से पूरा सौर मण्डल प्रकाशवान् एवं गतिशील है। मानवी सत्ता का प्रत्येक घटक मस्तिष्कीय ऊर्जा से अनुप्राणित होता है। अस्तु उसी पिण्ड रूपी भूलोक का अधिष्ठाता सूर्य कहा जाय तो यह रूपक सर्वथा उपयुक्त ही माना जायेगा। सहस्रार की ब्रह्म सत्ता को सूर्य की उपमा दी गई है—

सहस्रारे महापद्मे कर्णिकामुद्रितश्चरेत् ।
आत्मातत्रैव देवोशि केवलः पारदीपमः ।।
सूर्य कोटि प्रतीकाशः चन्द्रकोटि सुशीतलः ।
अतीव कमनीयश्च महाकुण्डलिनो युतः ।।

स्कन्द पुराण

‘‘हे देवेशि! सहस्र दल महापद्म में मुद्रित कर्णिका के अन्दर पारद की भांति आत्मा का निवास है। यद्यपि उसका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, परन्तु स्निग्धता में वह करोड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य है। यह परम पदार्थ अतिशय मनोहर तथा कुण्डलिनी शक्ति समन्वित है।’’

ब्रह्म सूर्यस्रम ज्योतिः ।
—यजु. 23, 48

यह सूर्य ब्रह्म तत्व ही है, जिसका भौतिक प्रतीक स्थूल सूर्य है।

‘य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीर य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याभ्यमृतः ।’
—वृहदारण्यक

‘जो सूर्य में रहने वाला सूर्य का अंतर्वर्ती है, जिसे सूर्य नहीं जानता, सूर्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर सूर्य का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।’

देवोऽयं भगवान् भानुरन्तर्यामी सनातनः ।

सूर्य पुराण

यह सूर्य देवता अन्तर्यामी सनातन भगवान ही है।

जिस प्रकार सूर्य से सौर मण्डल को ऊर्जा मिलती है, उसी प्रकार सहस्र धारा वाले ऊर्जा उद्गम से मस्तिष्कीय संयंत्र को गति शील बनने की क्षमता उपलब्ध होती है। मील, कारखानों में अनेकों मशीनें चलती हैं। उन्हें चलाने के लिए बिजली की मोटर लगी होती है। मोटर चलती है और उसकी ताकत से मशीनें सक्रिय होती हैं। किन्तु मोटर को चलाने वाली बिजली उसकी अपनी कमाई नहीं है। वह कहीं अन्यत्र से आती है। मस्तिष्क को मोटर और शरीर के अवयवों को छोटी-बड़ी मशीनें कहा जा सकता है। इस सारे मिल, कारखाने को चलाने के लिए आवश्यक शक्ति कहीं अन्यत्र से आती है। इसे ध्रुवीय क्षेत्र से पृथ्वी को मिलने वाले अनुदान प्रवाह के समतुल्य माना जा सकता है। यह अन्तर्ग्रही ऊर्जा का ही अनुदान है। व्यक्ति यों स्वतन्त्र है, स्वभाग्य निर्माता है; फिर भी व्यक्ति को व्यक्तित्व प्रदान करने वाली ऊर्जा को ब्राह्मी अनुदान ही माना जायेगा। यह धारा जिस क्षण रुकती है, तत्काल मरण सामने उपस्थित होता है। हृदय की धड़कन पूर्णतया बन्द हो जाने पर भी उसे कृत्रिम उपायों से पुनः क्रियाशील बनाया जा सकता है। किन्तु जब सहस्रार का विद्युत उभार अपना उछलना बन्द करदे तो समझना चाहिए कि अन्तिम मृत्यु हो गई। कनेक्शन कट जाने पर फिटिंग और बल्ब सही होने पर भी अन्धेरा छा जाता है। अवयवों के सही सलामत होने पर भी मस्तिष्कीय उत्पादन के बिना जीवित नहीं रहा जा सकता।

जीवन का आरम्भ और अन्त स्थूल विवेचना के अनुसार जिस भी तरह बताया जाय, सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार उसका समूचा आधार ‘सहस्रार’ की सक्रियता पर अवलम्बित है। इतना ही नहीं आगे की बात भी यहीं से चलती है। सहस्रार मात्र जीवन का ही उद्गम नहीं है, वरन् व्यक्तित्व का स्वरूप एवं स्तर की दिशा धारा भी यहीं से निर्धारित होती है। ढलान का तनिक-सा अन्तर होने पर वर्षा का जल अपने बहाव की दिशा बदलता है। एक स्थान की ढलान जिस वर्षा जल को किसी नदी में पहुंचाती है, तो उसके समीप की ढलान दूसरी ओर होने के कारण वर्षा जल को किसी अन्य नदी में ले जाकर पटकती है। ढलान के आरम्भ में कुछ इंचों का अन्तर था; पर बहते हुए वर्षा जल को भिन्न नदियों में जा पहुंचने का अन्तर सैकड़ों, हजारों मील का बन जाता है। जंक्शन स्टेशन पर एक ही लाइन में खड़ी गाड़ियां लीवर बदलने के आधार पर भिन्न भिन्न दिशाओं में चल पड़ती हैं। लीवर का अन्तर कुछ इंचों का ही होता है; पर चल पड़ने वाली गाड़ियों में दूरी का अन्तर निरन्तर बढ़ता जाता है। सहस्रार उद्गम में राई रत्ती अन्तर रहने से व्यक्तित्व के बाहरी और भीतरी ढांचे में आश्चर्य जनक अन्तर उपस्थित हो जाता है।

पृथ्वी के अन्तर्ग्रही अनुदानों में न्यूनाधिकता करने की बात सोचना भी वैज्ञानिकों के लिए डरावनी आशंकाएं और विभीषिकाएं सामने ला खड़ी करता है। वे उस दिशा में कदम बढ़ाने की कल्पना करते ही कांपने लगते हैं। तनिक भी उलटा-पुलटा होने पर सर्वनाश का अनर्थ खड़ा हो सकता है। यों अनुकूल उपाय बन पड़े तो पृथ्वी निवासियों को उसका असीम लाभ भी मिल सकता है। तब हम अकल्पनीय सुविधा साधनों के अधिपति बन सकते हैं आवश्यक ज्ञान के अभाव में वैज्ञानिक कोई बड़े कदम उठाने का साहस नहीं कर रहे हैं, केवल वे धीमे पैरों ध्रुवीय क्षेत्र की खोज कर रहे हैं। पृथ्वी की धुरी न तो अभी उन्हें मिली है और न उसके लिए गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न ही हुआ है।

मानवी सत्ता के ध्रुव केन्द्र मस्तिष्कीय धुरी संस्थान सहस्रार के सम्बन्ध में वैसा कोई जोखिम नहीं है। भौतिक शक्ति-दैत्य है। बिजली का, आग का तनिक भी असावधानी से प्रयोग करने पर प्राण संकट सामने आ उपस्थित होगा, किन्तु माता और बच्चे के बीच व्यवहार की कोई भूल-चूक बन पड़ने पर भी कोई बड़ा विग्रह उत्पन्न नहीं होता, मामूली ही अनबन भी देर तक नहीं टिकती। आत्म-चेतना और प्रकृति चेतना में यही भौतिक अन्तर है। सहस्रार में आत्मा और परमात्मा का मिलन संस्थान है। यह चेतनात्मक आदान-प्रदान है। इसमें उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाएं भरी पड़ी हैं। अध्यात्म, साधनाओं का स्वरूप सद्भाव सम्पन्नता के साथ जोड़कर बनाया गया है, अस्तु उनमें श्रेष्ठताओं के देव अनुदान ही मिलते हैं।

सहस्रार चक्र का सम्बन्ध रन्ध्र से है। ब्रह्म रन्ध्र को दशम द्वार कहा गया है। नौ द्वार तो दो नथुने, दो आंखें, दो कान, एक मुख, दो मल-मूत्र छिद्र सर्व विदित हैं। दशवां द्वार ब्रह्म रन्ध्र है। योगी जन इसी में होकर प्राण त्यागते हैं। मरणोपरान्त कपाल क्रिया करने का उद्देश्य यही है कि प्राण का कोई अंश शेष रह गया हो तो वह उसी में होकर निकले और ऊर्ध्व गति प्राप्त करे।

नवजात शिशु की खोपड़ी के मध्य भाग में थोड़ा-सा खाली स्थान होता है। जिसमें हड्डी न होकर झिल्ली होती है। यह स्थान पीरिटल और आस्सीविटल हड्डियों के बीच में है। शरीर वृद्धि के साथ साथ बगल की हड्डियां बढ़ती हैं और इस स्थान को ढक लेती हैं। योग शास्त्र का कथन है कि ब्रह्म सत्ता का—ब्रह्माण्डीय चेतना का—मानव शरीर में प्रवेश इसी मार्ग से होता है।

शरीर रचना की दृष्टि से इस स्थल पर केवल हड्डियों का जोड़ ही नहीं होता उसी सीध में नीचे अन्य संगतियां भी बैठती हैं। कपाल को हड्डियों के नीचे मस्तिष्क को आच्छादित किये हुए एक ब्राह्मक (सैरिब्रल कार्टेक्स) होते हैं। इसमें खेत में हल चलाने से बने हुए चिह्न जैसे होते हैं, जो उसे विभिन्न भागों में विभाजित करते हैं। इन्हें सीता (सल्कस) कहते हैं। ब्राह्मक (कार्टेक्स) को लम्बाई में बीच से विभाजित करने वाली धार के लाम्बिक सीता (लौंगी ट्यूडिनल फिसर) तथा चौड़ाई में बीस से विभाजित करने वाली को केन्द्रीय सोता (सैन्ट्रल सल्कस) कहते हैं। इन दोनों जोड़ों का केन्द्र (क्रासिंग) ठीक उसी स्थल पर होता है, जहां ब्रह्मरन्ध्र कहा गया है। इसी रन्ध्र की सीध में मस्तिष्क की सबसे ऊपरी रहस्यमय कही जाने वाली शीर्ष ग्रन्थि (पीमियल ग्लैण्ड) का स्थान है।

यह ब्रह्मरन्ध्र काय स्थित सत्ता को महत् चेतना से सम्बद्ध करने का विशिष्ट मार्ग द्वार है। योगी अन्त समय में इसी मार्ग से प्राण निष्कासन करके ब्रह्मलीन होते हैं। स्पष्ट है कि जीवन काल में यह ब्रह्मरन्ध्र मस्तिष्क के सहस्रार चक्र के माध्यम से दिव्य शक्तियों तथा दिव्य अनुभूतियों के आदान-प्रदान का कार्य करता है। सहस्रार चक्र और ब्रह्मरन्ध्र मिलकर एक संयुक्त इकाई-यूनिट के रूप में कार्य करते हैं। अतः योग साधना में भी इन्हें संयुक्त रूप से प्रयुक्त प्रभावित करने का विधान है।




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