कुण्डलिनी महाशक्ति और उसकी संसिद्धि

कुण्डलिनी महाशक्ति का स्वरूप और आधार

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भारतीय योग साधन का मुख्य उद्देश्य जीवन्मुक्त स्थिति को प्राप्त करना है। अभी तक प्राणियों के विकास को देखते हुए सबसे ऊंची श्रेणी मनुष्य की है, क्योंकि उसको विवेक और ज्ञान के रूप में ऐसी शक्तियां प्राप्त हुई हैं, जिनसे वह जितना चाहे ऊंचा उठ सकता है और कैसा भी कठिन कार्य हो उसे अपनी अन्तरंग शक्ति से पूरा कर सकता है। संसार के अधिकांश मनुष्य जीवन के बाह्य पक्ष को ही साधने का प्रयत्न करते हैं और प्रत्येक कार्य को सम्पन्न करने के लिए धन बल, शरीर बल तथा बुद्धिबल का प्रयोग करने के मार्ग को ही आवश्यक मानते हैं। इन तीन बलों के अतिरिक्त संसार में महान कार्यों को करने लिए जिस आत्मबल की आवश्यकता होती है, उसके विषय में शायद ही कोई कुछ जानता हो, पर वास्तविकता यही है कि संसार में आत्मबल ही सर्वोपरि है और उसके सामने कोई और ‘बल’ कुछ विशेष महत्व नहीं रखता तथा न ही इस बल के आगे टिक ही सकता है। इस बल को अर्जित करने के लिए योग साधन द्वारा आत्मोत्कर्ष का पथ अपनाना पड़ता है।

जो लोग अपने जीवन ध्येय की प्राप्त करने के लिए अपनी निर्बलताओं अथवा त्रुटियों को समझ कर, उनको दूर करने के लिए योग मार्ग का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे धीरे-धीरे अपनी निर्बलता को सबलता में बदल देते हैं, और न केवल सांसारिक विषयों में ही अपने मनोरथों को सफल करते, वरन् आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ऊंचे उठते हैं। वे स्वयं अपना कल्याण साधन करने के साथ-साथ अन्य सैकड़ों व्यक्तियों के लिए भी उद्धार का मार्ग प्राप्त करने के योग्य बना देते हैं।

योग-शास्त्र में साधन के जो सर्वमान्य नियम दिये गये हैं, उनके सिवाय अध्यात्म-विद्या के ज्ञाताओं ने, इस मार्ग में शीघ्र प्रगति करके कुछ बहुत महत्वपूर्ण शक्तियां प्राप्त कर लेने की जो विधियां अथवा योग-शाखायें निकाली हैं, उनमें ‘कुण्डलिनी-योग’ का विशेष स्थान है। इससे शरीर में एक ऐसी शक्ति का आविर्भाव होता है, जिससे मनुष्य की चैतन्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है और वह जब चाहे तब स्थूल-संसार के बजाय सूक्ष्म-जगत् की स्थिति का अनुभव कर सकता है और एक संकीर्ण क्षेत्र में रहने के बजाय विशाल-विश्व की गतिविधि को देखने लगता है। ‘हठ योग प्रदीपिका’ में ‘कुण्डलिनी शक्ति’ के महत्त्व का वर्णन करते हुए कहा है—

षशैलवनधात्रीणां यथाधारोऽहिनायकः ।
सर्वेषां योगतंत्राणां तथाधारो हि कुंडली ।।
सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागति कुंडली ।
तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यंते ग्रंथयोऽपि च ।।
प्राणस्य शून्यपदवी तथा राजपथायते ।
तदापि चित्तं निरालबं तदा कालस्य वंचनम् ।।

(हठयोग पु. 3-1, 2,3,)

‘‘जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है, उसका आधार सर्पों का नायक (शेषनाग) हैं, उसी प्रकार समस्त योग साधनाओं का आधार भी कुण्डली ही है, जब गुरु की कृपा से सोयी हुई कुण्डली जागती है, तब सम्पूर्ण पद्म (षट्चक्र) और ग्रन्थियां खुल जाती हैं। और उसी समय प्राण की शून्य पदवी (सुषम्ना), राजपथ (सड़क) के समान हो जाती है, चित्त विषयों से रहित हो जाता है और मृत्यु का भय मिट जाता है।’’

अन्य शास्त्रों तथा विशेषकर तन्त्र ग्रन्थों में कुण्डलिनी के स्वरूप तथा उसके उत्थान का विवेचन करते हुए कहा है कि ‘‘कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में शक्ति रूप में स्थित होकर मनुष्य को सब प्रकार की शक्तियां, विद्या और अन्त में मुक्ति प्राप्त कराने का साधन होती हैं।’’ इस कुण्डलिनी को ‘परमा-प्रकृति’ कहा गया है। देव, दानव, मानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंग—सभी प्राणियों के शरीर में यह कुण्डलिनी शक्ति विराजमान रहती है।

कमल-पुष्प में जिस प्रकार भ्रमर अवस्थित होता है, उसी प्रकार यह भी देह में रहती है। इसी कुण्डलिनी में चित्—शक्ति (चैतन्यता) निहित रहती है। इतनी महत्त्वपूर्ण होने पर भी लोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते, यह आश्चर्य का विषय है। यह अत्यन्त सूक्ष्म शक्ति है। इसकी सूक्ष्मता की कल्पना करके योग-शास्त्र में कहा है—

योगिनां हृदयाम्बुजे मृत्यन्ती मृत्यमञ्जसा ।
आधारे सर्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युताकृति ।।

अर्थात्—‘‘योगियों के हृदय देश में वह नृत्य करती रहती है। यही सर्वदा प्रस्फुटित होने वाली विद्युत रूप महाशक्ति सब प्राणियों का आधार है।’’ इसका आशय यही है कि कुण्डलिनी शक्ति के न्यूनाधिक परिणाम में चैतन्य हुये बिना मनुष्य की प्रतिभा का विकास नहीं होता।

कुण्डलिनी आत्म शक्ति की प्रकट और प्रखर स्फुरणा है। यह जीव की ईश्वर प्रदत्त मौलिक शक्ति है। प्रसुप्त स्थिति में वह अविज्ञात बनी और मृत तुल्य पड़ी रहती है। वैसी स्थिति में उससे कोई लाभ उठाना सम्भव नहीं हो पाता। यदि उसकी स्थिति को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि अपने ही भीतर वह भण्डार भरा पड़ा है जिसकी तलाश में जहां-तहां भटकना पड़ता है। वह ब्राह्मी शक्ति अपने ही अन्तराल में छिपी पड़ी है, जिसे कामधेनु कहा गया है। आत्मसत्ता में सन्निहित इस महाशक्ति का परिचय कराते हुए साधना शास्त्रों ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि अपने ही भीतर विद्यमान इस महती क्षमता का ज्ञान प्राप्त किया जाय और उससे सम्पर्क साधने का प्रयत्न किया जाय। कुण्डलिनी परिचय के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं—

मल-मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी का निवास माना गया है। उसे प्रचण्ड शक्ति स्वरूप समझा जाय। यह विद्युतीय प्रकृति की है। ध्यान से वह कौंधती बिजली के समान प्रकाशवान दृष्टिगोचर होती है। कुण्डलाकार है उसका स्वरूप प्रसुप्त सर्पिणी के समान है।

यह उसका स्थानीय परिचय हुआ। अब उसका आधार, कारण, स्वरूप एवं प्रभाव समझने की आवश्यकता पड़ेगी। बताया गया है कि यह ब्राह्मी शक्ति है। स्वर्ग से गंगा अवतरित होकर पृथ्वी पर आई थी और इस लोक को धन्य बनाया था। इसी प्रकार यह ब्राह्मी शक्ति सत्पात्र साधकों की आत्म सत्ता पर अवतरित होती है और उसे हर दृष्टि से सुसम्पन्न बनाती है। कहा गया है कि—

ज्ञेयाशक्तिरियं विष्णोर्निर्भया स्वर्णभास्वरा ।
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रय प्रसूतिका ।।
मूलाधारस्थ वन्ह्यात्मते जो मध्ये व्यवस्थता ।
जीवशक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाराण तेजसी ।।
महाकुण्डलिनीप्रोक्ता पर ब्रह्मस्वरूपिणी ।
शब्दब्रह्ममयी देवी एकानेकाक्षराकृतिः ।।
शक्ति कुण्डलिनी नाम विसतन्तु निभा शुभा ।

—महायोग विज्ञान

यह स्वर्ग समान आभा वाली महाशक्ति कुण्डलिनी निर्भयता प्रदान करने वाली है। वही वैष्णवी है। सत, रज, तम तत्वों को उत्पन्न करने वाली है। मूलाधार के मध्य में आत्म तेज रूपी अग्नि पुंज होकर विराजमान है जीवनी शक्ति वही है। तेजस्वी प्राण ही उसका आकार है। परब्रह्म मय है। इसकी अनेक आकृतियां हैं। इन शुभ कामनाओं को पूर्ण करने वाली शक्ति का नाम कुण्डलिनी है।

योग साधनाओं के अन्तर्गत कुण्डलिनी जागरण की फल श्रुतियों के सम्बन्ध में-समस्त संसार में लगभग एक जैसी ही मान्यताएं प्रचलित हैं। इस साधना की सफलता से साधक में अनेकों दिव्य क्षमताएं विकसित होने का विश्वास किया जाता है। समझा जाता है कि ऐसा व्यक्ति सामान्य स्थिति से ऊंचा उठकर विशिष्ट सिद्ध पुरुषों की स्थिति में जा पहुंचता है। योगशास्त्रों में कुण्डलिनी जागरण के महत्त्वों की जितनी चर्चा हुई है उतनी और किसी साधना के सम्बन्ध में सार्वभौम स्तर पर नहीं मिलती। उसके विधानों और विवरणों में तो थोड़ा बहुत अन्तर है, पर यह मान्यता सर्वविदित है कि आन्तरिक आत्मिक शक्तियों को प्रसुप्ति से जागृति में बदलने—जागृति प्रचण्ड बनाने में कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया से असाधारण सहायता मिलती है।

कुण्डलिनी साधक की जागृति होती है पर यह नहीं कहा जाता कि वह साधक की अपनी उपार्जित पूंजी है। वह एक प्रचण्ड विश्वव्यापी शक्ति है जिसे उपयुक्त सत्पात्र अपनी साधना प्रक्रिया द्वारा आकर्षित करके अपनी आत्मिक सम्पदा सशक्तता बढ़ाते हैं। इस उपार्जित सम्पदा के आधार पर सांसारिक वैभव और आत्मिक वर्चस्व का दुहरा लाभ मिलता है।

कुण्डलिनी क्या है? इसके सम्बन्ध में शास्त्रों और तत्वदर्शियों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर कई अभिमत व्यक्ति किये हैं। ज्ञानर्णव तन्त्र में कुण्डलिनी को विश्व जननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है—‘‘शक्तिः कुण्डलिनी विश्व जननी व्यापार वद्धोद्यता।’’ विश्व व्यापार एक घुमावदार उपक्रम के साथ चलता है। परमाणु से लेकर ग्रह-नक्षत्रों और आकाश गंगाओं तक की गति परिभ्रमण परक है। हमारे विचार और शब्द जिस स्थान से उद्भूत होते हैं—व्यापक परिभ्रमण करके वे अपने उद्गम केन्द्र पर ही लौट आते हैं। यही गति चक्र भगवान के चार आयुधों में से एक है। महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया इसी को कहा जा सकता है। जीव को चक्रारूढ़ मृतिका पिण्ड की तरह यही घुमाती है और कुम्हार जैसे अपनी मिट्टी से तरह-तरह के पात्र उपकरण बनाता है, उसी प्रकार आत्मा की स्थिति को उठाने गिराने की भूमिका भी वही निभाती है। कुण्डलिनी सृष्टि सन्दर्भ में समष्टि और जीव सन्दर्भ में—व्यष्टि शक्ति संचार करती है।

अध्यात्म ग्रन्थों में—विशेषतः उपनिषदों में कुण्डलिनी शक्ति की चर्चा हुई है। पर उतने को ही पूर्ण पक्ष नहीं मान लेना चाहिए। उतने से आगे एवं अधिक भी बहुत कुछ कहने, जानने और खोजने योग्य शेष रह जाता है। इन अपूर्ण घटकों को मिलाकर हमें वस्तु स्थिति समझने—अधिक जानने के लिए अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए।

कठोपनिषद् के यम नचिकेता सम्वाद में जिस पंचाग्नि विद्या की चर्चा हुई है। उसे कुण्डलिनी शक्ति की पंच विधि विवेचना कहा जा सकता है। श्वेताश्वर उपनिषद में उसे ‘योगाग्नि’ कहा गया है—

नतस्य रोगो न जरा न मृत्युः
प्राप्तस्य योगाग्नि मयं शरीरम् ।

चैनिक योग प्रदीपिका में उसे ‘स्पिरिट फायर’ नाम दिया गया है। जानवुडरफ सरीखे तन्त्रान्वेषी उसे सर्पवत् बलयान्विता स्पेन्ट नाम देते रहे हैं।

ऋषि शिष्या मैडम ब्लैशेटस्की ने उसे विश्व-व्यापी विद्युत शक्ति—‘कास्मिकी इलेक्ट्रिसिटी’ नाम दिया है। वे उसकी विवेचना विश्व विद्युत के समतुल्य चेतनात्मक प्रचण्ड प्रवाह के रूप में करती थीं। उन्होंने ‘वाथस आव दि साइलेन्स’ ग्रन्थ में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है—सर्पवत् या बलयान्विता गति अपनाने के कारण इस दिव्य शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। इस सामान्य गति को योग साधक अपने शरीर में चक्राकार बना लेता है इस अभ्यास से उसकी वैयक्तिक शक्ति बढ़ती है। कुण्डलिनी विद्युतीय अग्नियुक्त गुप्त शक्ति है यह वह प्राकृत शक्ति है जो सेन्द्विय निन्द्रय प्राणियों एवं पदार्थों के मूल में विद्यमान है।

ब्रह्माण्ड में दो प्रकार की शक्तियां काम करती हैं—एक लौकिक सेकुलर, दूसरी आध्यात्मिक स्प्रिचुअल इन्हें फिजीकल और मैटाफिजीकल भी कहते हैं। लोग प्रत्यक्ष शक्तियों का प्रमाण प्रत्यक्ष उपकरणों से प्राप्त कर लेते हैं, अस्तु उन्हीं की सत्ता स्वीकार करते हैं। जो उपकरणों की पकड़ में नहीं आती उनकी सत्ता अस्वीकार करना अतिवाद है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य का—प्रकृति से बहुत ही स्वल्प काम चलाऊ परिचय था। वन्य पशु जितने ज्ञान और जितने साधनों से शरीर यात्रा चलाते हैं प्रायः उतना ही मनुष्य को भी उपलब्ध था। प्रकृति के रहस्यों का परिचय और उस जानकारी का लाभदायक उपयोग क्रमशः ही सम्भव हुआ है। अग्नि को प्रकट करना और उसका उपयोग जानना, मनुष्य की उससे भी बड़ी उपलब्धि है जो आज बिजली जैसी शक्तियों के सहारे सम्भव हुई है। ज्ञान और विज्ञान का क्षेत्र क्रमशः ही बढ़ा है। आदिम मनुष्य अपनी उन दिनों की जानकारियों को ही समग्र मानता और कहता कि जो कुछ उसने जान पाया है उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसका वह दुराग्रह आज की स्थिति में उपहासास्पद ही माना जाता है। ठीक इसी प्रकार प्रत्यक्ष भर को अन्तिम मान लेने से शोध और प्रगति का मार्ग ही बन्द हो जायेगा। दुराग्रह के कारण ही सब कुछ भौतिक ही मानकर चेतना की सत्ता को भी भौतिक स्फुरण मात्र कहने लगते हैं। विकास पर आगे बढ़ते हुए अब यह अनुभव किया जा रहा है कि चेतना की स्वतन्त्र सत्ता है और उसकी क्षमता एवं सम्भावना भौतिक पदार्थों और सामर्थ्यों से न्यून नहीं अधिक ही है।

पिछले दिनों कुण्डलिनी दिव्य शक्ति की सत्ता तो स्वीकार की गई, पर वैज्ञानिक क्षेत्रों में उसे किन्हीं शारीरिक क्षमताओं का एक रूप देने का प्रयत्न किया है शरीर विज्ञानियों ने उसे नाड़ी संस्थान से उद्भूत-नर्वस् फोर्स कहा है। डा. रेले ने अपने बहुचर्चित ग्रन्थ ‘मिस्ट्रीरियस कुण्डलिनी’ में उसकी वेगस नर्व के रूप में व्याख्या की है। मांस-पेशियों और नाड़ी संस्थान के संचालन में काम आने वाली सामर्थ्य को ही अध्यात्म प्रयोजनों में काम करने पर कुण्डलिनी संरक्षक बनने का वे प्रतिपादन करते हैं। उनके मतानुसार यह शक्ति जब नियन्त्रण में आ जाती है तो उसके सहारे शरीर की ऐच्छिक और अनैच्छिक गतिविधियों पर इच्छानुसार नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है। यह आत्म-नियन्त्रण बहुत बड़ी बात है। इसे प्रकारान्तर से व्यक्तित्व के अभीष्ट निर्माण की तद्नुसार भाग्य निर्माण की सामर्थ्य कह सकते हैं। वे इसी रूप में कुण्डलिनी का गुण-गान करते और उसकी उपयोगिता बताते हुए उसके जागरण का परामर्श देते हैं।

डॉक्टर रेले की उपरोक्त पुस्तक ‘रहस्यमयी कुण्डलिनी’ की भूमिका तन्त्र मर्मज्ञ सर जान वुडरफ ने लिखी है। जिसमें उन्होंने रेले के इस अभिमत से असहमति प्रकट की है कि वह शरीर संस्थान की विद्युतधारा मात्र है। उन्होंने लिखा है—‘‘वह एक चेतन और महान सामर्थ्यवान शक्ति—‘ग्रान्ड पोटेन्शियल’ है जिसकी तुलना अन्य किसी पदार्थ या प्रवाह से नहीं की जा सकती। मेरी राय में नाड़ी शक्ति कुण्डलिनी का एक स्थूल रूप ही है, वह मूलतः नाड़ी संस्थान या उसका उत्पादन नहीं है। वह न कोई भौतिक पदार्थ है और न मानसिक शक्ति। वह स्वयं ही इन दोनों प्रवाहों को उत्पन्न करती है। स्थिर सत्य (स्टेटिक-रियल) गतिशील सत्य (फैनामिक रियल) एवं अवशेष शक्ति (रैजीहुअल पावर) के समन्वित प्रवाह की तरह इस सृष्टि में काम करती है। व्यक्ति की चेतना में वह प्रसुप्त पड़ी रहती है। इसे प्रयत्नपूर्वक जगाने वाला विशिष्ट सामर्थ्यवान बन सकता है।’’

विज्ञान की भाषा में कुण्डलिनी को जीवन शक्ति अथवा चुम्बकीय विद्युत कहते हैं। इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है तो भी यह रहस्य अभी स्पष्ट नहीं हुआ कि मस्तिष्क को अपनी गतिविधियों के संचालन की क्षमता कहां से मिलती है। योगशास्त्र इसका उत्तर उस काम शक्ति की ओर संकेत करते हुए देता है और बताता है कि अव्यक्त मानवी सत्ता को व्यक्त होने का अवसर इसी केन्द्र से मिलता है। वही कामतन्त्र के विभिन्न क्रिया-कलापों के लिए आवश्यक प्रेरणा भी देती है। यही वह चुम्बकीय ‘क्रिस्टल’ है जो काया के ‘ट्रांजिस्टर’ को चलाने वाले आधार खड़े करता है। काम-शक्ति के प्रकटीकरण का अवसर जननेन्द्रिय के माध्यम से मिलता है। काम-शक्ति के प्रकटीकरण का अवसर जननेन्द्रिय के माध्यम से मिलता है, अस्तु उस स्थान पर अवस्थित मूलाधार चक्र को कुण्डलिनी केन्द्र एवं संक्षेप में ‘कुण्ड’ कहते हैं।

हठयोग के व्याख्याकारों ने वस्ति क्षेत्र के गह्वर में अण्डे की आकृति वाले ‘कन्द’ के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ा है। कइयों ने उसे मांस-पेशी, कुछ ने जननेन्द्रिय और कुछ ने उसे पौरुष ग्रन्थियों के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। रीढ़ की हड्डी के निचले तिकोने भाग को ढकने वाले आवरण को भी किसी-किसी ने कुण्डलिनी का स्थान एवं उद्गम कहा है। एक व्याख्याकार ने ‘गैंग्लियन इम्पार’ को कुण्डलिनी का स्थान माना है। ऐसी ही भ्रांतियों के कारण कतिपय शारीरिक व्यायाम, आसन, बन्ध, मुद्रा आदि को कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया के साथ जोड़ा गया है। नाड़ी संस्थान के उत्तेजित होने पर जो शक्ति उत्पन्न होती है वह सामयिक एवं क्षणिक ही अपने प्रभाव का परिचय दे सकती है। किन्तु कुण्डलिनी चिरस्थायी है। ऐसी दशा में उसे स्नायविक या नाड़ी शक्ति की संज्ञा देना उपयुक्त नहीं हो सकता।

कुण्डलिनी चेतनात्मक शक्ति है। उसे जीवनी शक्ति के—जिजीविषा के रूप में, शरीर में, अन्तःकरण चतुष्टय के रूप में सामान्य काम करने में संलग्न देखा जा सकता है। उससे आगे के स्तर प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। यह विद्युत शक्ति तो है, पर जनरेटर, डायनेमो, बैटरी, चुम्बक आदि के सहारे काम करने वाली भौतिक बिजली से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। जिसके कारण आत्म-स्वरूप के सम्बन्ध में आस्था-आकांक्षाओं का केन्द्र-लोक-व्यवहार का दृष्टिकोण काया-कल्प की तरह बदल जाता है उसे भौतिक सामर्थ्य नहीं कह सकते। आत्मा और परमात्मा के एकीकरण—आनन्द, उल्लास के अभिवर्धन एवं चमत्कारी दिव्य-क्षमताओं के उत्पादन में जिसकी असाधारण भूमिका प्रस्तुत होती है वह कुण्डलिनी भौतिकी नहीं, आत्मिकी ही मानी जायगी।

कुण्डलिनी शक्ति का एक नाम जीवन अग्नि है, (फायर आफ लाइफ) भी है। जो कुछ भी चमक, तेजस्विता, आशा, उत्साह, उमंग, उल्लास दिखाई पड़ता है उसे उस अग्नि का ही प्रभाव कहा जा सकता है। यह जीवन अग्नि समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। जड़-पदार्थों में जब यह काम करती है तो उसे अध्यात्म भाषा में अपरा प्रकृति कहते हैं। पदार्थों का उद्भव, अभिवर्धन एवं परिवर्तन इसी की प्रक्रिया से होता है, जीवन अग्नि का दूसरा रूप है परा प्रकृति। इसे प्राणियों की अनुभूति कह सकते हैं। बुद्धि, विवेक, इच्छा, ज्ञान, भावना आदि इसी के अंग हैं। अचेतन मस्तिष्क को केन्द्र बना कर यही परा प्रकृति उनकी शारीरिक, मानसिक एवं स्वभावगत गतिविधियों का संचालन करती रहती है।

अध्यात्म और साधन विज्ञान का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति की भावनात्मक ‘जीवन अग्नि’—आत्मा उस विश्व व्यापी भाव चेतना के साथ अपना सम्बन्ध जोड़े और समीपता से उत्पन्न होने वाले लाभों से लाभान्वित हो। विश्व बिजली के उत्पादन केन्द्र से अपना तार जोड़कर ही छोटे यन्त्र अपने को सामर्थ्यवान बनाते हैं। अग्नि के समीप जाकर ही तो गीली और ठण्डी लकड़ी ज्वलन्त अग्नि का रूप धारण करती है।

व्यक्तिगत जीवन अग्नि—आत्मा का परमात्मा के साथ समन्वय सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया जितनी अग्रगामी होती है उतना ही मनुष्य में देवत्व का उदय अवतरण दीखता है। उसकी इस जन-साधारण के सामान्य जीवन क्रम से अतिरिक्त जो विशेषताएं इस ब्रह्म सम्बन्ध से—साधनात्मक—पुरुषार्थ से मिलती हैं उन्हें ब्रह्म वर्चस् अथवा आत्म-बल कहते हैं। यह आत्म-बल व्यक्तित्व की प्रखरता समर्थता और महानता के रूप में देखा जा सकता है। कर्तृत्व में यह ब्रह्म वर्चस् जब समन्वित रहता है तो मनुष्य तत्व वेत्ता, दृष्टा, ऋषि मनीषी, महामानव के रूप में दीखता है। लौकिक कर्तृत्व भी कई बार उसका ऐसा होता है जो साधारणतया घटित न होते रहने के कारण चमत्कार जैसा कौतूहलवर्धक और आश्चर्यजनक लगता है।

जीवन अग्नि के—समष्टि रूप को अध्यात्म भाषा में ब्रह्माग्नि परमात्मा और व्यष्टि रूप से उसे जीवाग्नि—आत्मा कहा गया है। ब्रह्म तत्व का विवेचन ब्रह्म विद्या के रूप में और जीव विद्या का विवेचन आत्म विद्या के रूप में किया गया है। यह दोनों शक्तियां मूलतः एक ही प्रवाह के अविच्छिन्न अंग हैं, पर उनका स्वरूप समझने के लिए विश्लेषण और अनुभव की दृष्टि से दो हिस्सों में बांटना पड़ता है। विद्युत एक ही तत्व है। उसका शक्ति संचार संयोग और वियोग के विश्व नियम के आधार पर होना ही चाहिए सो उसे ऋण और धन निगेटिव और पॉजिटिव कहकर समझा-समझाया जस सकता है। इसी प्रकार जीवन अग्नि को समष्टि रूप से परा और अपरा तथा व्यष्टि रूप से परमात्मा और आत्मा कहा जा सकता है। जो कुछ यहां हो रहा है, हो चुका या होने वाला है वह सब उसी परिधि के अन्तर्गत आता है।

व्यक्तिगत जीवन में—मनुष्य कलेवर में—परा प्रकृति के—चेतन प्रवाह का केन्द्र स्थान मस्तिष्क के मध्य अवस्थित ब्रह्मरंध्र—सहस्रार कमल है। इसी को कैलाशवासी शिव या शेष शायी विष्णु एवं कालाग्नि कहते हैं। दूसरा केन्द्र जननेन्द्रिय के मूल गह्वर में है। उसे अपरा प्रकृति का केन्द्र कहना चाहिए। इसे शक्ति पार्वती—एवं कुण्डलिनी जीवाग्नि कहते हैं।

इन दोनों को धन और ऋण विद्युत भी कहा जा सकता है। मानवीय शरीर को—पिण्ड को इस दृश्य ब्रह्माण्ड का—विश्व विराट् का एक छोटा नमूना ही कह सकते हैं। जितनी भी शक्तियां इस विश्व ब्रह्माण्ड में कहीं भी विद्यमान हैं उन सबका अस्तित्व इस शरीर में भी मौजूद है। जिस प्रकार वैज्ञानिक जानकारी प्रयोग विधि और यन्त्र व्यवस्था के आधार पर विद्युत ईथर आदि शक्तियों से प्रत्यक्ष लाभ उठाया जाता है, ठीक उसी प्रकार योग साधना के वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा शरीरगत अपरा प्रकृति की प्रचण्ड शक्तियों के उद्भव किया जा सकता इसी को योगियों के दिव्य कर्तृत्व के रूप में देखा जा सकता है। अलौकिकतायें—सिद्धियां चमत्कार एवं असाधारण क्रिया कृत्यों की जो क्षमता साधना विज्ञान द्वारा विकसित की जाती है उसे शरीरगत अपरा प्रकृति का विकास ही समझना चाहिए और उस निर्झर का मूल उद्गम-जननेन्द्रिय मूल-कुण्डलिनी को ही जानना चाहिए।

इसी प्रकार व्यक्तित्व में गुण, कर्म, स्वभाव, सुसंस्कार, दृष्टिकोण, विवेक प्रभाव, प्रतिभा, मनोबल, आत्मबल आदि की जो विशेषतायें दृष्टिगोचर होती हैं उन्हें चेतना तत्व से—भाव संवेदन की उपलब्धि माननी चाहिए। इसका केन्द्र मस्तिष्क स्थिति ज्ञान केन्द्र सहस्रार कमल है। कालाग्नि यहीं शिव स्वरूप विद्यमान है। आत्म विद्या के दो लाभ बताये जा चुके हैं (1) व्यक्तित्व की भावनात्मक चेतनात्मक प्रखरता (2) शरीर की असामान्य क्रियाशीलता। इन्हीं को विभूतियां और सिद्धियां कहते हैं। विभूतियां मस्तिष्क केन्द्र से—ज्ञान संस्थान से—भाव ब्रह्म से प्रसृत होती हैं और सिद्धियां काम केन्द्र से—शक्ति निर्झर से—कुण्ड कुण्डलिनी से प्रादुर्भूत होती हैं। इन दोनों शक्ति केन्द्रों को मानवीय अस्तित्व के दो ध्रुव मानना चाहिए। पृथ्वी के दो सिरों पर उत्तरी दक्षिणी दो ध्रुव हैं ठीक इसी प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क केन्द्र उत्तरी ध्रुव और काम केन्द्र दक्षिणी ध्रुव कहा जा सकता है। उन दोनों की असीम एवं अनन्त जानकारी प्राप्त करने और उन सामर्थ्यों को जीवन विकास के अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों में ठीक तरह प्रयोग कर सकने की विद्या का नाम ही कुण्डलिनी विज्ञान है। साधना के अनेक स्वरूप, साधन और मार्ग हो सकते हैं पर उन्हें बाह्य प्रतीकों का अन्तर ही समझना चाहिए। समस्त साधनाओं का उद्देश्य वही है जो कुण्डलिनी में देखा जाता है। शरीर को ऋतु प्रभाव से बचाना वस्त्र धारण का उद्देश्य है। संसार में विभिन्न डिजाइनों आकार के कपड़े इसी प्रयोजन के लिए बनाये और सिये जाते हैं। विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित अनेक आध्यात्मिक मान्यताओं को और साधनाओं को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उनमें बाह्य भिन्नता दीखने पड़ने पर भी मूल प्रयोजन में कुछ विशेष अन्तर नहीं है। भारतीय अध्यात्म विद्या में इस विज्ञान को बिना अकंटक लाग लपेट के सीधे-सीधे यथावत् मूल स्वरूप में प्रस्तुत कर दिया गया है। इससे समझने में सुविधा होती है और मंजिल को पार करना—लक्ष्य तक पहुंचना अपेक्षाकृत अधिक सरल हो जाता है।

आत्मशक्ति की अधिष्ठात्री—जीव को ब्रह्म के समान विराट् जीर शक्ति सम्पन्न बनाने में समर्थ कुंडलिनी के सम्बन्ध में कहा गया है—

मूलाधारे अत्मियशक्ति कुण्डलिनी परदेवता ।
शायिता भुजगाकारा सार्द्धत्रय बलयात्विता ।।
यावक्ता निद्रिता दहै तावज्जीव पशुर्ययः ।
ज्ञान न जायते तावत् कोटियेगा विधेरवि ।।
आधार शक्ति निद्रांयां विश्वं भवति निद्रया ।
तस्यां शक्ति प्रवोधेन भैलोक्यं प्रति बुध्यते ।।

—महायोग विज्ञान

अर्थात्—शक्ति की अधिष्ठात्री कुंडलिनी मूलाधार चक्र में सादे तीन लपेटे लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। जब तक वह सोती है तब जीव पशुवत्  बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी यह आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा है, पर जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार ही जाग पड़ता है,

विद्युल्लता पर जाता पंचानांमातृ रूपिती ।
अभ्यासां मार्ग योगात् सैका षोढा प्रजायते ।
पराचेत्तथा ज्ञानाक्रिया कुण्डलिनी नीति च ।

बिजली जैसी चमक वाली, पंचतत्वों एवं प्राणों की माता, परम चेतना ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति कुण्डलिनी, योग साधना से उपलब्ध होती है।

मूलाधारे कुण्डलिनी भुजंगाकार रूपिणी ।
जीवात्मा तिष्ठति तत्र प्रदीप कलिकाकृतिः ।
बहुभाग्यवशाद्यस्य कुण्डली जागृता भवेत् ।।

घरेण्ड संहिता 6।16।18

मूलाधार चक्र में सर्पिणी आकार की कुण्डलिनी शक्ति है जो दीपक की लौ जैसी दीप्तिमान है। वहीं जीवात्मा का निवास है।

हे चण्ड, जिसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाए उसे बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए।

सुप्ता नागोमाह्येष स्फुरन्ती प्रभावा स्वया ।
अहिवत् संधि संस्थाना वागदेवी बीज संज्ञका ।
ज्ञेया शक्त्रिंय विष्णोर्निभा स्वर्ण भास्करा ।।

—शिव संहिता

यह कुण्डलिनी शक्ति सुप्त सर्पिणी के समान है। वही स्फुरणा, गति, ज्योति एवं वाक् है। यह विष्णु शक्ति है। स्वर्णिम सूर्य के समान दीप्तिवान है।

स्वयंभू शिवलिंग में तीन लपेटे लगाकर सुहा सर्पिणी की तरह पड़े होने की उपमा में यह संकेत है कि उसमें वे तीनों ही क्षमताएं विद्यमान हैं, जो मानव अस्तित्व को विकसित करने के लिए मूलभूत कारण समझी जाती हैं। आकांक्षा, विचारणा, क्रिया एवं साधना सामग्री के आधार पर हर मनुष्य आगे बढ़ता, सफलता पाता और प्रसन्न होता है। इन तीनों के बीज अंतरंग में कुंडलिनी शक्ति में विद्यमान है। इन्हें विकसित करने पर यह तीनों क्षमताएं भीतर से उमंगती हैं तो बाहर के स्वरूप साधन मिलने पर भी उनको समुन्नत बनने का सहज अवसर मिल जाता है और अन्तःक्षमता प्रसुप्त हो तो भी बहार के विकास उपचार सफल नहीं होते किन्तु भीतर के स्रोत उमंगों का बाह्य क्षेत्र में उभरना कठिन नहीं है। गायत्री के तीन चरण कुंडलिनी के तीन लपेटे हैं और उन्हें मानव जीवन की मूलभूत क्षमताओं के रूप में माना गया है—

प्रकृतिः निश्चला परावासूपिणी पर प्रमाणात्यि कुण्डलिनी शक्ति ।

—प्रयंत्रसरा तंत्र

अर्थात्—

यह कुण्डलिनी महाशक्ति अविचल प्रकृति और परावाणी है। यह परब्रह्म है।

इच्छा शक्तिश्य भू कारः क्रिया शक्ति मुविस्तथा ।
स्वः कमः ज्ञानशक्तिश्च भूर्भवः स्व, स्वरूपयम् ।।

अर्थात्—

भूः—इच्छाशक्ति, भुवः क्रियाशक्ति, स्वः ज्ञान शक्ति यह तीन व्याहृतियों का स्वरूप है।

संवित्तिः सेव यात्यङ्ग रसाद्यन्तं यथाक्रमम् ।
रसेनापूर्णतामेति तंत्रीभार इवाम्बुना ।।
रसपूर्णा यमाकारं भावयत्याशु तत्तथा ।
धत्ते चित्रकृतो बुद्धो रेखा राम यथा कृतिम् ।।
—योग वाशिष्ठ

यह कुण्डलिनी शक्ति रस भावना से ओत प्रोत है। उसके जागृत होने पर मनुष्य रस भावनाओं से ऐसे भर जाता है जैसे पानी भरने से चमड़े का चरस। यह रसिकता अनेक कलाओं के रूप में विकसित होते हुए जीवन को रसासिक्त बना देती है।

इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मासौ तेजोरूपा गुणात्मिका ।
क्रमेणानेन सृजति कुण्डली वर्णमालिकाम् ।।
गुणिता सर्वगात्रेषु कुण्डली पर देवता ।
विश्वात्मना प्रबुद्धा सा सूते मंत्रमयं जगत् ।।
एकधा गुणिता शक्तिः सर्व विश्वप्रवर्तिनी ।
—महायोग विज्ञान

तेजस्वरूप कुण्डलिनी जागृत होने पर इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति को प्रखर बनाती है। सम्पूर्ण शरीर पर उसका प्रभाव दीखने लगता है। प्रसुप्त मन्त्रमय जगत जागृत हो उठता है। विश्वात्मा ज्ञान जागृत होता है। विश्व का प्रवर्तन करने वाली कुण्डलिनी साधक को अनेक गुण शक्ति सम्पन्न बना देती है।

सात्विकस्य ज्ञान शक्ति राजहस्य क्रियात्मिका ।
द्रव्य शक्तिस्तामसस् तिस्रश्चामाथिताभव
—देवी भागवत

सात्विक ज्ञान शक्ति, राजस क्रिया शक्ति और तामस द्रव्य शक्ति यह तीन शक्तियां कही गई हैं।

ज्ञानेच्छाक्रियाणां तिमृणां व्यष्टीनां महासरस्वती महाकाली महालक्ष्मीरित ।

ज्ञान शक्ति इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति यह तीन ही शक्ति की प्रतीक हैं इन्हें ही महा सरस्वती, महा काली और महा लक्ष्मी कहते हैं।

केचित्तां तप इत्याहुस्तमः केचिज्जडंपरे । ज्ञानं मायां प्रधानं च प्रकृति शक्तिमप्ययजाम् । आनन्दरूपता चास्याः परप्रेमास्पदत्वत्तः ।
—देवी भागवत्

कोई मुझे तपः—शक्ति कहते हैं। कोई जड़। कोई ज्ञान कहते हैं कोई माया कोई प्रकृति। मैं ही परम प्रेमास्पद तथा आनन्द रूपा हूं।

अहमेव स्वयमिदं वदामि, जुष्टं देवेभिरूत सुनुर्षभिः । य यं कामये तं तमुग्रं कृणोभि, तं ब्रह्माणं तमृषि त सुमेधाम्

ऋ. 10।125।5

देवताओं और मनुष्यों को अभीष्ट-प्राप्ति का मार्ग मैं ही बतलाती हूं। जो मेरी (विवेक-शक्ति, की) उपासना कर मुझे प्रसन्न करता है, उसे ही मैं प्रखर बनाती हूं। ब्राह्मण, ऋषी तथा मेधावी बनाती हूं।

अपने ही विद्यमान परम वैभव के सम्बन्ध में अपरिचित रहना यही अध्यात्म की भाषा में अज्ञान या अन्धकार है। इसकी निवृत्ति को ही आत्म ज्ञान की आत्म साक्षात्कार की महान उपलब्धि कहा गया है। प्रसुप्ति को जागृति में बदल देना, खोये को तलाश कर लेना यही परम पुरुषार्थ है। आत्म साधनाओं को परम पुरुषार्थ कहा गया है। सामान्य पुरुषार्थों से धन, बल, थोड़ी सी भौतिक उपलब्धियां स्वल्प मात्रा में उपार्जित की जा सकती हैं। वे भी अस्थिर होती हैं और मिलने के बाद उलटी अतृप्ति, भड़काती चलती हैं। किन्तु आत्मिक विभूतियों को उपार्जित करने की दिशा में बढ़ने पर प्रत्येक चरण क्रमशः अधिक उच्चस्तरीय प्रस्तुत करता चलता है। वे स्थायी भी होते हैं और तृप्ति कारक भी। उनसे अपना भी कल्याण होता है और दूसरों का भी। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आत्म साधना को परम पुरुषार्थ कहा गया है।

सोता हुआ मनुष्य मृत तुल्य निष्क्रिय पड़ा रहता है। जागृति होते ही उसकी समस्त क्षमतायें जाग पड़ती हैं प्राण शक्ति कुण्डलिनी शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात है। जिसकी अन्तः शक्ति मूर्छित है समझना चाहिए कि वह तत्वतः सोया हुआ ही है। जिसका अन्तराल जग पड़ा उसकी महान सक्रियता को कार्यान्वित होते हुए देखा जा सकता है। सोने और जागृति की, स्थिति में जितना अन्तर होता है उतना ही आत्म शक्ति के प्रसुप्त और जागृत होने की स्थिति में समझा जा सकता है। इसी प्रसुप्ति और जागृति के अन्तर की चर्चा पाण्ड्य ब्राह्मण में इस प्रकार हुई है।

कुण्डलिनी की प्रसुप्ति को जागृति में बदलने के लिए ‘साधना’ का उपाय अपनाना पड़ता है। इस जागरण प्रयास में लगने के लिए जो साहस करते हैं वे भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में समुन्नत स्थिति प्राप्त करते चले जाते हैं।







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