ईश्वर कौन है कहाँ है कैसा है

प्रकृति प्रेरणाओं का अनुगमन

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जब पृथ्वी के अन्य जीव-जन्तुओं से ही हम मनुष्यों की तुलना करते हैं तो स्पष्ट जान पड़ता है कि ज्ञान-विज्ञान का अहंकार रखने वाला मनुष्य अभी अपने सामाजिक संगठन और व्यवहार में उस स्तर तक भी नहीं पहुंचा है, जहां तक कि कितने ही छोटे जीव-जन्तु—कीड़े-मकोड़े लाखों वर्ष पहले पहुंच चुके हैं। चींटियों, मधु-मक्खियों, दीमकों, बर्रों का आन्तरिक संगठन, अनुशासन प्रियता और नागरिकता की भावना मनुष्यों की अपेक्षा बहुत उच्चकोटि की होती है और उसी के आधार पर वे इतने लम्बे काल से अपनी रक्षा करते आये हैं।

अभी तक प्राणि-शास्त्र की खोजों से जहां तक जाना जा सका है, मनुष्य की उत्पत्ति को दस लाख वर्ष से अधिक समय नहीं हुआ। जैसी स्थिति में आजकल घोर जंगली मनुष्य रहते हैं, उसको प्राप्त किये हुये तो लाख-दो-लाख वर्ष का समय ही गुजरा होगा।

इसके विपरीत चींटी और मधुमक्खी आदि के विषय में बहुत जांच-पड़ताल करके जगत् प्रसिद्ध वैज्ञानिक जूलियन हक्सले और ह्वीलर आदि ने यह निर्णय किया है कि उनका विकास 25 लाख वर्ष पूर्व हो चुका था और तब से उनमें कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। इनके संगठन का वर्णन करते हुए एक विद्वान् डा. स्टाकर्ड हेथम ने लिखा है— ‘‘समस्त सामाजिक कीड़ों में चींटियां सबसे अधिक सफल और कदाचित सबसे ज्यादा विचित्र हैं। उनकी समस्त जातियों की संख्या लगभग तीन हजार हैं। कुछ जातियां ऐसी होती हैं, जिनके बिलों में रहने वाले कुल जीवों की संख्या एक-सौ के आस-पास ही होती है और किसी-किसी जाति के बिल में पांच लाख तक प्राणी रहते हैं। अण्डा देने वाली थोड़ी-सी ‘रानियों’ को छोड़कर सभी कोई चींटी बहुत बड़ी नहीं होती। सबसे बड़ी ‘नपुंसक’ चींटी की तोल भी कभी एक ग्राम (तीस रत्ती) से अधिक नहीं होती। दूसरे शब्दों में एक मामूली आदमी के वजन के बराबर होने के लिये एक लाख से अधिक चींटियां तराजू के पल्ले में चढ़ानी पड़ेंगी। यह तो सबसे बड़ी चींटी की बात हुई। जिनको आहार ढोने और शत्रुओं से युद्ध करने के लिये अपने शरीर को विशेष रूप से बड़ा और मजबूत बनाना पड़ता है। छोटी चींटियां तो इससे बहुत हल्की होती हैं।’’

इन चींटियों में जो अनेक रहस्यपूर्ण प्रवृत्तियां देखने में आती हैं, उनमें सर्वाधिक महत्व की बात उनकी भोजन-व्यवस्था है। भोजन इकट्ठा करने का काम प्रायः श्रमिक-चींटियां करती हैं। पर प्रत्येक समुदाय में अथवा एक ‘बस्ती’ में रहने वाली समस्त चींटियों का ‘पेट’ एक ही माना जाता है। इसलिये श्रमिक चींटियां जितनी आहार-सामग्री पाती हैं, उसे अपने गले के नीचे के थैले में भर लेती हैं। उसमें से वे अपने हिस्से का थोड़ा सा अंश अपनी पाकस्थली में पहुंचा देती हैं और शेष में से एक-एक बूंद अन्य सबको बांट देती हैं। इसकी जांच करने के लिये वैज्ञानिकों ने आहार ढूंढ़ने वाली चींटियों के मार्ग में चीनी का गाढ़ा शर्बत रख दिया और उसमें कोई रासायनिक नीले रंग का पदार्थ मिला दिया। श्रमजीवी चींटियों ने शर्बत को खा लिया और बिल में पहुंचकर उसके समस्त निवासियों, बच्चों तक को वही खाया हुआ शर्बत बांट दिया। फल यह हुआ कि बस्ती में रहने वाले समस्त प्राणियों के पेट में से थोड़ी नीलिमा झलकने लगी। इस प्रकार समस्त समुदाय का पेट पालन हो जाता है। यदि मनुष्य समाज ने इस सिद्धान्त को समझकर व्यवहार रूप से पालन करना आरम्भ कर दिया होता तो आज कहीं भी इतने चोर, डाकू, उठाईगीर, ठग, लुटेरे आदि नहीं मिलते।

यह तो स्पष्ट ही है कि व्यक्ति जब तक जीवित रहेगा, अपनी भूख-प्यास की पूर्ति करने की समस्या तो उसे सुलझानी ही पड़ेगी। यदि उसका पेट सीधी तरह नहीं भरेगा तो असदाचरण का आश्रय लेगा। समाज के भले-बुरे का ख्याल छोड़कर जैसे बनेगा, वैसे अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रयत्न करेगा। इससे समाज का और उसका—दोनों का ही अकल्याण होगा। समाज के सब सज्जन, परिश्रमी और साधन-सम्पन्न लोगों को शंकाकुल रहना पड़ेगा। और उन कुमार्गगामी अपराधियों का सदैव शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना करना पड़ेगा। समाज उनको चाहे बाहर रखकर खिलाये और चाहे जेल में रखकर, बिना खाये तो वे कभी रहेंगे नहीं। इसलिये यदि मनुष्य चींटी और मधु मक्खियों के समतुल्य भी समझदारी से काम लेता तो आज उसकी अवस्था कहीं अधिक सुरक्षित होती।

चींटी की कुछ इन्द्रिय जन्य शक्तियां भी मनुष्य से कहीं उच्च कोटि की होती हैं। वे अपने मुख के सामने के बालों से स्पर्श और घृणा का काम लेती हैं। हमको जो गन्ध आती है, उसके द्वारा किसी वस्तु के रूप का ज्ञान कदापि नहीं हो सकता, पर चींटियां गन्ध से पदार्थ के रूप को भी समझ लेती हैं। जब चींटियों की विभिन्न ‘बस्तियों’ के बीच लड़ाई हो जाती है, तो भी वे गन्ध के सहारे मित्र और शत्रु की पहिचान कर लेती हैं, अन्यथा न तो उनकी वेषभूषा भिन्न प्रकार की होती है और न वे अपने दल का कोई विशेष 'रणघोष’ की करती हैं। इसलिये यही मालूम पड़ता है कि इस मसले को वे अपने मुंह के बालों द्वारा स्पर्श करके ही हल करती हैं। वे जिस रास्ते पर होकर एक बार निकल जाती हैं, उसे अपने पैरों की गन्ध के द्वारा ही फिर पहिचान लेती हैं और इसी उपाय से दूर तक इधर-उधर घूमकर फिर अपने घर वापस आ सकती हैं।

कई प्रकार की चींटियों में ‘समझ’ के भी कुछ लक्षण दीख पड़ते हैं। ‘ड्राइवर’ श्रेणी की चींटी रास्ते में कोई छोटा नाला नाली आ जाने पर उसका पुल बांधकर शेष समस्त दल को पार पहुंचा देती हैं। वह इस प्रकार कि प्रत्येक श्रमिक चींटियां एक छोटा तिनका मुंह में पकड़ लेती है और तब वे एक दूसरे के तिनके को पकड़ती हुई नाले के आर-पार एक जीवित लड़ी बन्द पुल बना लेती हैं। बेट नामक वैज्ञानिक ने अपने निरीक्षण के आधार पर लिखा है कि ‘‘दक्षिण अमरीका के एक नगर में चींटियों ने ट्राम की पटरी को पार करने के लिये ऐसा ही पुल बनाया था। पर जब उनमें से बहुत सी ट्राम से कुचल गईं तो उन्होंने बजाय पुल बनाने के पटरी नीचे से खोदकर सुरंग बनाई। जब श्री बेट ने इन सुरंगों को बन्द कर दिया तो उन्होंने पटरी के पार जाना बन्द कर दिया और नई सुरंगें खोदकर ही उस पार गईं। इसी प्रकार एक वृक्ष पर चींटियों का चढ़ना रोकने के लिये उसमें तने के चारों तरफ दो-चार इंच चौड़ा चिपकाने वाला ‘लासा’ लगा दिया गया। चींटियों ने इधर-उधर से मिट्टी, पत्थर के छोटे कण लाकर लासे पर डालकर उसे पाट दिया और उस पार पहुंच गईं।

चींटियों की स्वच्छता-भावना भी बहुत ऊंचे दर्जे की होती है। वे अपने शरीर की बहुत अधिक सफाई करती हैं। श्री मेककुक ने चींटियों के एक जोड़े का निरीक्षण करके बतलाया कि उनमें से एक तो पृथ्वी पर लेट गई और दूसरे ने उसे चाटकर साफ करना आरम्भ किया। पहले उसने चेहरे को साफ किया, फिर छाती को खूब चाटा। इसी प्रकार कूल्हा, उदर और टांगों को भी चाट कर पूरी तरह साफ किया, इस तमाम समय में सफाई कराने वाली चींटी ऐसी शान्ति और संतोष के साथ पड़ी रही, जिससे विदित होता था कि वह अपने साथी के काम से बहुत संतुष्ट और प्रसन्न है।

चींटियां अपने भरण-पोषण के लिये अनेक प्रकार की विधियों से काम लिया करती हैं। दक्षिण अमरीका की ‘अटूटा’ जाति की चींटी पेड़ों से पत्तियां तोड़कर उनके छोटे-छोटे टुकड़े करती हैं और फिर उनको अपने बिल के भीतर क्यारियों में फैला देती हैं। कुछ ही समय में उनसे कुकुरमुत्ता के तुल्य वनस्पति पैदा हो जाती है। बिल के भीतर रहने वाले सभी चींटियां मुख्य रूप से इन्हीं को खाकर गुजारा करती हैं। इनको ‘बागवान-चींटियां’ कहा जाता है।

दूसरी ‘फसल जमा करने वाली चींटियां’ होती हैं, जो अपने बिलों में खेती से अनाज या घास आदि के बीज इकट्ठा करती हैं। ये अक्सर शुष्क अथवा मरुभूमि के प्रदेशों में रहती हैं। इन प्रदेशों में अक्सर बहुत समय सूखा पड़ जाता है और खाद्य सामग्री का अभाव हो जाता है। इसलिये ये चींटियां अपने बिलों के भीतर अधिक से अधिक तरह-तरह के बीज जमा कर लेती हैं और अभाव के दिनों में उन्हीं को खाकर गुजर करती हैं। हमारे देश में पुराने समय में अकाल के दिनों में अनेक बाद लोगों ने इन चींटियों के बिलों को खोदकर एक-एक, दो-दो मन अनाज निकाला था।

‘लेसियन्स’ नाम की अमरीका की चींटी एक अन्य छोटे कीड़ों को पालती है और उन्हें अनाज तथा पौधों की जड़ों के पास ले जाकर छोड़ देती है, जहां वे रस को चूस लेते हैं। कुछ समय बाद चींटी उस कीड़े को अपने बालों से थपथपाती है, जिससे वे रस को उगल देते हैं और चींटियां उसे चाट लेती हैं। इस प्रकार वे इन जीवों से वही काम लेती हैं, जैसा मनुष्य गायों और भैंसों को पाल कर उनका दूध दुहकर लेते हैं।

इस प्रकार चींटियां, मधुमक्खियां और दीमक आदि जीव बहुत छोटे और नगण्य जान पड़ने पर भी सामूहिक शक्ति का इतना अधिक विकास कर चुके हैं कि बड़े-बड़े जीव भी उन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, वरन् जैसा मशहूर हैं सांप और हाथी जैसे जोरदार जीवों को भी अपनी सामूहिकता के बल पर ‘भगा देते हैं या मार देते हैं।’ वे सदा अपने सामुदायिक नियमों का पूरी तरह पालन करते हैं और फलस्वरूप किसी को भूखा-नंगा नहीं रहना पड़ता। यदि मनुष्य इन जीवों से इस विषय में प्रेरणा ले सका होता तो आज उसकी बहुत-सी समस्यायें हल हो गई होतीं।

चींटियों का जीवन व्यापार

सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री बेल्ट एक बार चींटियों के सामाजिक जीवन का अध्ययन कर रहे थे। एकाएक मस्तिष्क में एक कौतूहल जागृत हुआ यदि इन चींटियों को मकान छोड़ने को विवश किया जाये तब यह क्या करेंगी। बेट्स चींटियों की बुद्धि की गहराई और उसकी सूक्ष्मता की माप करना चाहते थे अतएव चींटियों के एक बिल के पास ऐसा वातावरण उपस्थित किया जिससे चींटियां आतंकित हों। पास की जमीन थपथपाना, पानी छिड़कना विचित्र शोर करना आदि। चींटियों ने उसी तरह परिस्थिति को गम्भीर माना जिस तरह अतिवृष्टि, अनावृष्टि, तूफान, समुद्री उफान जैसे प्राकृतिक कौतुक मनुष्य को डराने धमकाने और ठीक ठिकाने लाने के लिये बड़ी शक्तियां करती हैं और मनुष्य उनसे डर जाता है।

जिस स्थान पर बिल था आधा फुट पास ही वहां एक छोटी सी ढाल थी। सर्वेयर चींटियां चटपट बाहर निकलीं और उसे क्षेत्र में घूमकर तय किया कि ढलान के नीचे का स्थान सुरक्षित है। उनके लौटकर भीतर बिल में जाते ही मजदूर गण सामान लेकर भीतर से निकलने लगे। बाहर आकर चींटियों ने दो दल बनाये एक दल अपनी महारानी को लेकर नीचे उतर गया और खोजे हुए नये स्थान पर पहुंच कर बिल के बाहर पंक्तिबद्ध खड़ा हो गया मानों वे सब किसी विशेष काम की तैयारी करने वाले हों।

सामान ज्यादा हो और दूरी की यात्रा हो तो मनुष्य बैलगाड़ी, रेल, मोटर और हवाई जहाज का सहारा लेते हैं। माना कि चींटियों के पास इस तरह के वाहन नहीं हों यह भी सम्भव है कि वे आदिम युग के पुरुषों की तरह समझदार हों और यान्त्रिक जीवन की अपेक्षा प्राकृतिक जीवन बेहतर मानती हों अतएव उन्होंने वाहन न रचे हों पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें परिस्थितियों के विश्लेषण और तदनुरूप क्रिया की क्षमता होती है। चींटियों का जो दूसरा दल ऊपर था समय और बोझ से बचने के लिये ऊपर से सामान लुढ़काना आरम्भ किया। नीचे वाली चींटियां उसे संभालती जा रही थीं और बिल के अन्दर पहुंचा रही थीं। ऐसा लगता था जैसे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में हैलिकॉप्टर से अन्न के बोरे गिराये जा रहे हों।

यह घटना यह बताती है कि बौद्धिक दृष्टि से नन्हीं से चींटी मनुष्य से कम नहीं। कन्हें-नन्हें जीवों से सूक्ष्म ज्ञान की यह क्षमता जहां यह बताती है कि आत्म-तत्व वह चाहे कितना ही लघु और चाहे कितना ही विराट क्यों न हो आत्मिक गुणों की दृष्टि से एक ही है फिर मनुष्य को अपने आपको संसार के सबसे बुद्धिमान होने का अहंकार नहीं करना चाहिये।

मनुष्य जाति जैसे आचार-विचार और रहन-सहन छोटी-छोटी पिपीलिकाओं में देखकर स्वभावतः आश्चर्य होता है। जीव-जन्तुओं की ‘‘हीमेनोटेरा’’ शाखा में जिसमें बर्र ततैया, और मक्खियां भी पाई जाती हैं चींटी सबसे ज्यादा समझदार है। संगठन सूझ-बूझ विचार शक्ति और अन्तःप्रेरणा के साथ-साथ कर्तव्य पालन की मर्यादा परस्पर हित अहित का ध्यान जितना यह चींटियां रखती हैं उतना ही मनुष्य भी रखता होता तो वह दुनिया का सबसे अधिक सुखी प्राणी होता। माना कि चींटियों को भगवान ने ‘‘वाक्’’ नहीं दिया तथापि उनके सिर में पाये जाने वाले ज्ञान तन्तु इतने सजग होते हैं कि एक दूसरे के सिर का स्पर्श करते ही उसके विचार वे आसानी से ग्रहण कर लेती हैं परावाणी का ज्ञान भारतीयों ने सम्भवतः चींटियों से ही प्राप्त किया और ऐसी योग साधनायें विकसित कर डालीं जो मस्तिष्क के ज्ञान तन्तुओं को इतना सजग कर देती हैं कि किसी के भी मन की, अन्तःकरण की भाव-लहरियों को आकाश के माध्यम से ही पकड़ा जा सके, भले ही कोई मुंह से कुछ बताये या नहीं।

यह तो है कि स्वार्थ और अहंकार वश यह चींटियां भी लूटमार करती हैं पड़ोसी चींटियों की कालोनियों पर आक्रमण करके सामान छीन ले जाती हैं पर उसमें भी उनका अनुशासन और नैतिकता मनुष्यों से बढ़कर होती है। जीव शास्त्री डा. डगलस ने अफ्रीका के जंगलों में हुये चींटियों के युद्ध का बड़ा रोचक वर्णन किया है और लिखा है कि महायुद्ध जैसा यह हमला चींटियों के दो दलों में 17 दिन तक चला। प्रतिदिन प्रातःकाल से आक्रमण प्रारम्भ होता और सायंकाल को जाकर युद्ध विराम होता। जिस तरह मनुष्यों के युद्ध में संचार, निर्माण, सप्लाई, एम्युनिशन आदि अलग-अलग विभाव काम करते हैं उसी प्रकार चींटियों के दोनों दलों में रसद पहुंचाने वाले अलग, निर्माण कार्य वाले अलग, सन्देश लाने ले जाने वाले अलग विभाग काम कर रहे थे। लड़ने वाली चींटियां सेंग्विन कहलाती हैं। और तो और रात में उनका जासूसी विभाग भी सक्रिय रहता। अनेक दुश्मन चींटियां बन्दी बनाई जातीं और उनके साथ ठीक कैदियों जैसा व्यवहार होता। लूट में एक दूसरे का माल मिलता वह जमा किया जाता। जब तक एक दल की चींटियां और उनकी रानी मार नहीं डाली गईं तब तक युद्ध अविराम चलता रहा और फिर जीते पक्ष की चींटियों का विजयोल्लास देखते ही बनता था। खूब शराब पी गई, दुम हिला-हिलाकर चींटियां नाची कूदती। यह उत्सव कई दिन तक चलता रहा। विजित चींटियां जो बचीं दास बनाकर रखी गईं और उन्हें मजदूरी का काम सौंपा गया। ऊपर ‘‘शराब’’ शब्द का प्रयोग किया गया है सो यों ही व्यर्थ में नहीं। मनुष्य जाति अपने मद्यपान की बुराई को सम्भव है यों समझ न पाती हो कि उसकी बुद्धि अपने दोष का दोष नहीं विशेषण मानती है सम्भवतः इसीलिये आज शराब सभ्यता का प्रतीक मानी जाने लगी है किन्तु उससे होने वाली बीमारियां जातीय समर्थता का विनाश, आर्थिक अपव्यय, बौद्धिक क्षमता का नाश और फिर वंशानुगत कुसंस्कारों की जड़ें आदि ऐसी भयंकर हानियां हैं जिन पर लोग गौर नहीं करते। चींटियां भी कई बार ऐसी बेवकूफी करती हैं उनका मूल्य कितना भयंकर चुकाना पड़ता है यह कभी मनुष्य को पता चले तो एक बार तो वह भी शराब पीने से डरे बिना रहे नहीं।

चींटियों के लिये शराब की ठेकेदारी एक प्रकार का ‘‘भुनगा’’ करता है। इसके शरीर में सुनहरे बालों के गुच्छे होते हैं उनमें से एक विशेष प्रकार का खुशबूदार द्रव्य निकलता है। भुनगा पहले तो एक विशेष प्रकार की मनमोहक संगीत ध्वनि करता है। कर्णेन्द्रिय की तृष्णा चींटियों को उधर खींच ले जाती है झुण्ड चींटियां उसके पीछे चल देती हैं भुनगा बीन बजाता आगे बढ़ता है सम्मोहित चींटियां पीछे-पीछे। अब भुनगा अपने शरीर से वह ‘मादक’ पदार्थ निकालता है जिसे अपनी प्यारी शराब मानकर चींटियां पीने लगती और पी पी कर झूमने लगती हैं। सिर पर सवार शैतान उचित अनुचित सोचने नहीं देता उसी प्रकार चींटियां भी होश-हवास खोकर पीती हैं और इतना अधिक पी लेती हैं कि बेहोश तक हो जाती हैं अब भुनगा उसको इस प्रकार शिकार बनाता है जैसे बीमारियां शराबी मनुष्य के शरीर को। इस दृष्टि से मनुष्य भी चींटियों जैसा मूर्ख प्राणी कहा जाये तो कुछ अत्युक्ति नहीं। चींटियों में तो भी ऐसा होता है उनकी समझदार रानी शराबी चींटियों को उस शरारती भुनगे के इन्द्रजाल में न फंसने की चेतावनी देती रहती हैं। पर मनुष्य-समाज में ऐसे समझदार और सेवा-भावी लोग कहां जो मनुष्य को इस बुरी लत से बचा लें।

कई भुनगे शिकारी नहीं होते वे चींटियों को ऐसे ही शराब पिलाते रहते हैं पर उससे भी चींटियों में उच्छृंखलता, कर्तव्य विमुखता, क्रूरता ऐसी ही पैदा होती है जैसे किसी भी शराबी मनुष्य में। ऐसी शराबी चींटियां तक जब अपने दल में बुरी मानी जाती हैं तो शराबी मनुष्य को यदि बुरा कहा जाये तो उसमें क्या आश्चर्य?

मनुष्यों की दुनिया बड़ी विचित्र है चींटियों की भी उससे कम नहीं। मनुष्य के हर काम में समझदारी दिखाई देती है किन्तु यदि ध्यान से देखा जाय तो चींटियों का रहन-सहन उनसे भी अधिक समझदारी का दिखेगा। यह विधिवत् घर बनाकर रहती हैं। स्थापत्य कला में चींटियां मनुष्य से थोड़ा ही पीछे हैं। पानी निकालने और वर्षा के दिनों में बिल के अन्दर पानी से सुरक्षित रहने के लिए यह बढ़िया घर बनाती हैं।

मनुष्य को पशुपालन-कुशलता पर गर्व हो सकता है। पर चींटियों में और मनुष्यों में इस दृष्टि से ज्यादा अन्तर नहीं। दूध (हनीड्यू) देने वाली चींटियां गायों की तरह सफेद होती हैं उनकी सुरक्षा और विकास के लिये चींटियां विशेष व्यवस्था रखती हैं, उन पर सन्तरी तैनात होते हैं जो बिलकुल चरवाहों जैसा काम करते हैं। कृषक चींटियां खेती करती हैं, भंगी सफाई, सिपाही रक्षा और चौकीदारी का काम करते हैं तो शिल्पकार चींटियां घर बनाने का। इतना होने पर भी वे एक कुटुम्ब के सदस्यों की भांति ऊंच-नीच और छूत-अछूत का भेदभाव किये बिना संगठित जीवन यापन करती हैं आलसी और अकर्मण्य तो अपने बच्चे भी अच्छे नहीं लगते सो चींटियों के यहां भी आलसी नर अधिकांश मार ही डाले जाते हैं। मनुष्य समाज में ऐसे लोग अपनी अभावजन्य स्थिति के कारण नष्ट होते हैं।

चींटियां ही नहीं किसी भी पशु-पक्षी के जीवन व्यापार को एक साथ लिखकर उससे मनुष्य जीवन की तुलना करते हैं तो लगता है कि प्रत्येक प्राणी के शरीरों में आकार-प्रकार का अन्तर होने पर भी मानसिक और बौद्धिक क्षमतायें एक ही तत्व के गुण प्रतीत होते हैं।

शास्त्रकार का कथन है कि जीवमात्र विराट् आत्मा के अलग अलग टुकड़े नहीं प्रत्युत एक ही सूर्य की अनेक किरणें हैं। यदि मनुष्येत्तर दुनिया का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि आत्म चेतना ही है जो कहीं तो विराट् सूर्य के रूप में अपनी सृष्टि के साथ क्रीड़ा करती है। वही कहीं मनुष्य बन जाती हैं तो कहीं चींटी और दीमक।

प्राणिजगत् में विद्यमान मर्यादा परायणता, प्रकृति प्रेरणाओं के प्रति आस्था निष्ठा देखकर सहज ही यह विश्वास हो जाना चाहिए कि इस सृष्टि में सभी जीव जन्तु एक निश्चित नियम मर्यादा के अनुसार आचरण करते और अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इस कारण उन्हें सुखी शान्त तथा अनुद्विग्न भी देखा जा सकता है। सुख शान्ति और अनुद्विग्न जीवन व्यतीत करने का एकमात्र यही राजमार्ग है कि जीवन को मर्यादाओं नैतिक नियमों और आदर्शों के अनुरूप जिया जाय। इन्हीं नियमों मर्यादाओं को धार्मिकता, आस्तिकता कहा गया है। ईश्वरीय विधान का, नीति नियमों का ही नाम ईश्वरीय निर्देश है। उसे सुनकर, समझकर अपने जीवन आचरण में उतारने से ही ईश्वर के अस्तित्व से, उसके सम्पर्क सान्निध्य का लाभ उठाया जा सकता है, उठाया जाना चाहिए।
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