ईश्वर कौन है कहाँ है कैसा है

मनुष्य से कम नहीं मनुष्येत्तर प्राणी

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पक्षी देखने में तुच्छ लगते हैं। मनुष्य की तुलना में उन्हें बुद्धि नहीं मिली और न उतनी विकसित इन्द्रियां ही। फिर भी यह नहीं मान बैठना चाहिये कि भगवान ने उनकी उपेक्षा ही की है। बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उनमें ऐसी कितनी ही विशेषतायें हैं जिनमें मनुष्य काफी पिछड़ा हुआ है यदि वे क्षमतायें मनुष्य को मिली होतीं जो तुच्छ समझे जाने वाले पक्षियों को प्राप्त हैं तो वह तथाकथित देवताओं के वैभव से कहीं अधिक ऊंची स्थिति में रहा होता।

भगवान को अपनी पक्षी सन्तानें प्यारी हैं। उनने किसी को कोई खिलाने खेलने के लिए दिया है तो किसी को कोई। इस सृष्टि में न तो कोई सर्वथा साधन विहीन है और न सर्व सम्पन्न। हर प्राणी को उसकी आवश्यकता के अनुरूप इतने और ऐसे साधन प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं जिनसे वह अपनी जीवनचर्या सन्तोष और प्रसन्नता के साथ चला सकें। पक्षियों की दुनिया पर नजर डालते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि वे भी भगवान के कृपापात्र हैं और अपनी आवश्यकता के अनुरूप उतने साधन सम्पन्न हैं कि किन्हीं-किन्हीं उपलब्धियों में मनुष्य को छोटा और पिछड़ा हुआ सिद्ध कर सकें।

गरुड़ की चाल साधारणतया 65 से 110 मील प्रति घन्टे होती है। पर जब वह शिकार पर झपटता है तो वह चालें 200 मील की हो जाती हैं। यों गरुड़ का वजन 5 से 10 किलो तक का होता है पर वह अपने से ड्यौढ़े वजन के शिकार को पंजों में दबा कर घोंसले की ओर लम्बी उड़ान जाता है। गरुड़ की तीव्र दृष्टि अपनी जाति के पक्षियों में सबसे आगे होती है।

शुतुरमुर्ग अब सिर्फ अफ्रीका में ही पाया जाता है। ऊंचाई प्रायः 6 फुट, वजन 300 पौंड, रफ्तार 40 मील। बीज में वह 15-15 फुट की ऐसी छलांगें लगाता है कि घुड़सवारों को भी हार माननी पड़े। इसकी लात से घोड़े की टांग टूट सकती है। इसे पालतू भी बनाया जाता है। अफ्रीका में इसकी दोस्ती जंगली गधे, जेबरे के साथ रहती है। दोनों एक दूसरे को प्यार करते हैं और विपत्ति के समय एक दूसरे की सहायता भी करते हैं। उन्हें साथ-साथ घूमते और सोते देखा जा सकता है। ध्रुव प्रदेशों में पाया जाने वाला 6 फुट ऊंचा 200 पौंड भारी पेनगुई, मनुष्य की तरह खड़ा होकर दो पैरों से चलता है। समुद्र जल में तैरने और शीत सहन करने की उसकी अपनी विशेषता है। तेज ठण्ड के दिनों में वह 3-4 महीने बिना खाये ही गुजर कर लेता है। बर्फ पर फिसलने का खेल इसे बहुत भाता है। इस जाति के सभी पक्षी प्रायः पति पत्नी का जोड़ा बना कर रहते हैं। नर को विशेषतया घर की जिम्मेदारी सम्भालनी पड़ती है।

केकड़ा कभी-कभी भारी शंखों के खोल में घुस जाता है और उनके वजन को ढोता हुआ समुद्र में इधर-उधर यात्रा करता है। हर वर्ष वह दस मील की यात्रा कर लेता है और अपने वजन से दस बारह गुने तक वजन ढो लेता है। कुछ कीड़े तथा पौधे भी इस शंख कलेवरों पर जा बैठते हैं और केकड़े पर लदा वजन बढ़ता ही जाता है। मजा तो यह है कि इतने लदान से लदा हुआ केकड़ा समुद्र तट के पेड़ों पर चढ़कर घोंसलों से चिड़ियों के अंडे चुराने में भी नहीं चूकता।

वृक्षों पर रहने वाला आस्ट्रेलिया का टेडीवियर अपनी पीठ पर आधे दर्जन बच्चे लादे फिरता है और चढ़ने-उतरने में ऐसी सावधानी बरतता है कि कोई बच्चा गिरने न पाये। अमेरिका के ओपासय चूहों के 8-10 बच्चे अपनी मां के पीठ पर लदे फिरते हैं। यह बच्चे इतने चतुर होते हैं कि अपनी पूंछ माता की पूंछ से लपेटकर जंजीर-सी बना लेते हैं और गिरने के खतरे से बचकर सवारी का आनन्द लेते हैं।

शरीर के अनुपात से संसार में सर्वाधिक शक्तिशाली चिड़िया ‘हमिंग बर्ड’ मेक्सिको खाड़ी और पनामा नहर के तटों पर पाई जाती हैं। इसकी जिजविषकाय परायणता देखते ही बनती है। शरीर की लम्बाई 3 इन्च किन्तु चोंच 5 इन्च की। यह इतनी पेटू होती हैं कि निरन्तर खाते रहते बिना उसे चैन ही नहीं पड़ता। अपने शरीर के वजन से वह तीन गुना आहार एक दिन में करती हैं। इस आहार को जुटाने में इसे अत्यन्त व्यस्त और सक्रिय रहना पड़ता है। इसी अनुपात से यदि मनुष्य को तत्पर रहना पड़े तो उसे सामान्य शक्ति व्यय की अपेक्षा 450 गुनी शक्ति खर्च करनी पड़े। एक साथ बहुत बहुत सा आहार पकड़ और निगल सके इसी सुविधा के लिए प्रकृति ने उसे इतनी लम्बी चोंच दी है। ‘हमिंग बर्ड’ जब सोती है तब उसकी नींद इतनी गहरी होती है कि कोई चाहे तो ढेले की तरह उसे उठाले। शरीर मुर्दे जैसा निःचेष्ट हो जाता है। करवट तो वह बदलती ही नहीं।

हैलिकॉप्टर सिद्धान्त पर उसके पंख अन्य चिड़ियों की अपेक्षा कुछ अलग ही ढंग के बने हैं। वह आगे-पीछे, तिरछी जमीन से सीधी आकाश को, आकाश से सीधी जमीन पर, उड़ सकती है और हवा में स्थिर भी रह सकती है। फूलों की डालियों पेड़ों की शाखों पर जब वह आहार ले रही होती है तब भी बैठती नहीं वरन् उड़ती ही रहती। उस समय भी उसके पंख एक सैकिंड में 5 बार की आश्चर्यजनक गति से हरकत कर रहे होते हैं। इसके कारण एक फुट इर्द गिर्द तक की पत्तियां हवा के तेज झोंके के समय जैसी हिलती रहती हैं और तेजी से उड़ते समय इसके पर एक सेकिंड पीछे 200 बार हिलते हैं। प्रणय क्रीड़ा भी वह उड़ते-उड़ते घड़ी के पेंडुलम की तरह आगे पीछे हिलते हुए पूरी कर लेती हैं। अंडे देते समय घोंसला पेड़ की छाल और कपास के धागे से एक सुन्दर और मजबूत बनाती हैं कि देखने वाले उसे पेड़ की एक गांठ ही समझ सकते हैं। यह लड़ाकू भी कम नहीं होती। नर हमिंगबर्ड जब आपस में लड़ते हैं तो उनकी तलवार जैसी चोंच प्रतिद्वन्दी का सफाया कर देती हैं। मादा को जब किसी शिकारी पक्षी से खतरा होता है तो अपनी छुरे जैसी चोंच से निर्भय आक्रमण करती हैं और बड़ी आकृति वाले बाज, कौए, गिद्ध भी उनकी मार से घबड़ाकर सिर पांव रखकर भागते हैं। लम्बी उड़ान में उसकी अपनी शान है बिना खाये और ठहरे वह लगातार 12 घण्टे उड़कर 600 मील की यात्रा कर सकती है।

भवन निर्माण और कपड़ा बुनने, टोकरी बनाने जैसे अनेक कला शिल्पों का सम्मिश्रण करने से ही घोंसला बनाने की विद्या बनी मालूम देती है। बिना किसी कालेज में सैद्धान्तिक और कारखाने में व्यावहारिक शिक्षा पाये अधिकांश पक्षी जन्मजात रूप से जानते हैं। यों ऋतु प्रभाव से बचने और अंडे बच्चों को सुरक्षा व्यवस्था के उपयुक्त सभी पक्षी घोंसले बनाते हैं पर उनमें से कुछ की प्रवीणता तो देखते ही बनती है।

वया का लटकता हुआ घोंसला हर किसी को आश्चर्य में डाल देता है वह कितनी सुन्दरता और सुघड़ता के साथ बनाया गया है इसे देखकर उसके निर्माता की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ती है। दक्षिण अफ्रीका की वया ने तो एक कदम और भी आगे बढ़ाया है वह घोंसले के तिनकों को न केवल मजबूती से सटाती है वरन् बालों का फन्दा लगाकर इस तरह कस देती है कि फिर आंधी तूफान उसका कुछ भी बिगाड़ न सकें। यों इस तकनीक में वह भेड़ों की ऊन भी काम में लाती हैं पर अधिकतर प्रयोग वे अधिक लम्बे और मजबूत बालों का ही करती हैं। इस दृष्टि से घोड़े और गधे की पूंछ के बाल उसे अधिक उपयुक्त लगते हैं। कभी-कभी तो हाथी और सुअर के बाल भी उसमें कसे होते हैं इन जानवरों की पूंछ पर बैठकर बाल उखाड़ना भी तो अपने ढंग का एक अलग ही कौशल है। तिनकों के बीच बालों का जो फन्दा लगाता है उसे देखते हुए स्काउटिंग में तरह-तरह की गांठें लगाने की जो शिक्षा दी जाती है स्वेटर आदि बुनने में लड़कियां जो हस्त लाघव बरतती हैं वह सभी पीछे पड़ जाता है।

परिपक्व पक्षियों की बात तो दूर, अण्डे में रहने वाले अविकसित पक्षी भी जब समर्थता के निकट पहुंचते हैं तो अपने पुरुषार्थ से अण्डे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते हैं और उन्मुक्त जगत के स्वच्छन्द वातावरण में प्रवेश करते हैं।

जब अण्डा पक जाता है और फूटकर बच्चा निकलने का समय समीप होता है तो उसमें थरथराहट होती है। छूकर या कान लगाकर यह देखा समझा जा सकता है कि उसके भीतर खिचड़ी सी पक रही है। यह सब कुछ क्या है? यह बच्चे द्वारा अण्डा तोड़कर बाहर निकलने के लिये किया जाने वाला संघर्ष है। चूजा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप पूरा-पूरा प्रयत्न यह करता है कि उसे बन्धन से मुक्ति मिले और स्वतन्त्र जीवन यापन कर सकने का अवसर उपलब्ध हो। इसके लिए वह अण्डे की दीवार से पूरी तरह टकराता है और उस संघर्ष को तब तक जारी रखता है जब तक कि ऊपर का मजबूत खोल टूटकर बिखर नहीं जाता।

कई बार यह पक्षी मनुष्यों को चुनौती देने खड़े हो जाते हैं तो उनका होश-हवास गुम कर देते हैं।

कुछ समय पहले बोस्टन अमेरिका के लोगन अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक जेट विमान से आकाश में उड़ता हुआ पक्षियों का झुण्ड टकरा गया। फलस्वरूप इंजन में खराबी आने से जहाज टूट गया और 63 यात्री कालकवलित हो गये।

पक्षियों में से कितनों में ही बुद्धिमत्ता ही नहीं उनकी स्नेहिल सद्भावना भी देखते ही बनती है। उनमें वह मृदुल सौजन्य पाया जाता है जिसे अभी बहुत दिन तक मनुष्य को सीखना होगा।

कबूतर, पण्डुक, सारस आदि पक्षी पतिव्रत और पत्नीव्रत पालन करते हैं वे एक बार प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लेने के बाद उसे वफादारी के साथ आजीवन निवाहते हैं। टिटहरी समुद्र के निर्जन तटों पर अण्डे देती है वे मिलजुल कर अण्डे सेती हैं। अपने विराने का भेदभाव किये बिना सेती हैं। कोई मादा चारे की तलाश में उड़ जाये तो कोई दूसरी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी। इसी प्रकार मिलजुल कर अण्डे-बच्चों की साज सम्भाल में उन्हें बहुत सुविधा रहती है।

घोंसला बनाने अण्डे सेने से लेकर बच्चों के पालन पोषण तक का सारा काम नर-मादा मिलजुल कर पूरा करते हैं प्रणय की परिणित दाम्पत्य सहयोग और शिशु पालन में भागीदार रहने तक के उत्तरदायित्व को नर भली प्रकार समझता है और उसे भली प्रकार निवाहता भी है। बच्चे पानी में तैरने से डरते हैं—इस भय से छुटकारा दिलाने के लिये पेन्गुइन उन्हें बलपूर्वक पानी में धकेलती है और तैरने की कला सिखाती है प्रायः दो तीन महीने में बच्चे तैरने की ट्रेनिंग पूरी कर पाते हैं।

गरुड़ शावक भारी होता है इसलिये उसे घोंसले से नीचे उतरने और उड़ने का साहस करने में डर लगता है। माता उसे खतरे का सामना करने की शिक्षा देती है और धकेलकर घोंसले से नीचे गिरा देती है। साथ ही यह ध्यान भी रखती है कि कहीं विपत्ति में न फंस जाय। इसलिये नीचे गिर कर जमीन से टकराने से पूर्व ही वह उसे अपनी पीठ पर ले लेती है और उड़कर उसे फिर घोंसले में ले आती है। यह शिक्षण क्रम तब तक चलता ही रहता है जब तक बच्चा स्वावलम्बी होकर स्वतन्त्र रूप से उड़ना नहीं सीख जाता। शिकार पकड़ने के लिए मादा को ही शिक्षा देनी पड़ती है। घायल शिकार को वह बच्चों से कुछ दूर छोड़ देती है और फिर अलग बैठकर बच्चों को आखेट कौशल विकसित करने का अवसर देती है।

कर्तव्य, उत्तरदायित्व, सहयोग और सद्भाव की दृष्टि से भी पक्षियों की दुनिया मनुष्य से पीछे नहीं है, उन्हें अपनी आवश्यकतानुसार ऐसी समर्थता तो उपलब्ध ही है जिसके लिये मनुष्य उनसे ईर्ष्या ही करता है।

गरब न कीजौं कोय

घर की दादी और पिता—दादा का काम छोटे बच्चों को खिलाना होता है। इस बंटवारे का कारण उनकी बेकारी नहीं वात्सल्य भाव की प्रबलता मानी जाती है। अपने बच्चे बहुत प्यारे लगते हैं। पर बच्चे का बच्चा तो और भी प्रियतरः होता है यदि यह बात मनुष्य जाति की एक विशेषता है तो जंगल में पाये जाने वाले खरगोश को भी मनुष्य से कम नहीं माना जाना चाहिये क्योंकि वह भी अपने बच्चों को मनुष्य से अधिक ही प्यार करता है।

प्रसिद्ध जीव-विशेषज्ञ डा. डी टरिच. डी. विकेल ने लम्बे समय तक खरगोशों के सामाजिक जीवन का अध्ययन किया और लिखा है कि खरगोशों में बहुत अधिक मानवीय गुण होते हैं उनमें कुछ तो थोड़ी-सी बात पर नाराज हो जाने वाले दम्भी प्रकृति के होते हैं तो कुछ शान्त और सहनशील। उनमें परस्पर मैत्री का आधार गुणों की समानता होती है और इसका परिचय वे कुछ ही समय साथ-साथ रहने में पा लेते हैं। बूढ़े खरगोश बच्चों को बड़े प्यार से रखते हैं उनकी देखभाल से लेकर खेल में प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होती है। खेलना खरगोशों के लिये अनिवार्य होता है। वे कई बार खेलते समय इतने मस्त हो जाते हैं कि लोमड़ियों को भी सजातीय खरगोश मानकर उन्हीं के साथ क्रीड़ा करने लगते हैं। सम्भवतः उनकी इसी प्रकृति का वरदान उन्हें आजीवन आरोग्य के रूप में मिला है। खरगोशों के इस नैसर्गिक गुण से मनुष्य जाति भी शिक्षा ले सकती है क्रियाशील और क्रीड़ाशील जीवन का। आज जो धन रोगों की रोकथाम चिकित्सा में फूंका जा रहा है उसका आधा भाग भी देश में गांव-गांव खेल की अनिवार्य व्यवस्था में लगा दिया जाता तो वह सौ अस्पतालों से बढ़कर काम करता।

मनुष्य को अपनी बुद्धिमत्ता का बड़ा अहंकार है पर सच बात यह है कि उसने इसी अहंकार वश अपने को अप्राकृतिक बनाया और रोग-शोक में जकड़ता चला आया। स्वस्थ और सन्तुलित जीवन की शिक्षायें वह आज भी प्रकृति से, अपने इन छोटे-छोटे जीवधारियों से प्राप्त कर सकता है। कौवे जैसे उपेक्षित पक्षी में भी जातीय हित और स्वाधीनता के भाव पाये जाते हैं। एक बार उसके स्वभाव का विस्तृत अध्ययन करने के लिये सैडम जीन जार्ज और उनके पति डा. जान ने एक कौवे का अण्डा सेया। कौवों की साहसिकता और निर्भय आक्रमण के फलस्वरूप सामान्यतः उसका बच्चा पकड़ में नहीं आता इसीलिये ऐसा करना पड़ा। अण्डे से बच्चा निकला। बच्चा बड़ा हुआ। मानवीय संसर्ग पाकर उसे मनुष्य से स्नेह हो गया यह बात अलग है पर यह बात अन्य कौवों को कदापि पसन्द न आई और अध्ययन करने से पता चलता था कि वह कौवे का बच्चा भी अपनी भूल स्वीकारता है निश्चित। वह खिचड़ी के समीप बैठा रहता अपने मालिक के साथ खेलता भी पर जब एक विशेष प्रकार की ध्वनि से अन्य कौवे उसे धिक्कारते और उसे अपनी भाषा में मनुष्य जाति की बुराइयों से सावधान कर उसे भागने का संकेत करते तो वह बच्चा मालिक की भी परवाह न करे उड़ जाता। अपने भाइयों के साथ देर तक खेलता रहता पर जिस तरह पाप, अन्याय और हीन भावनाओं के कारण मनुष्य अन्य मनुष्यों से मेल-जोल रखने में आत्महीनता अनुभव करता है उसी प्रकार यह कौवा भी उन्मुक्त प्रकृति में जन्में अपनी जाति भाइयों के बीच कुछ छोटापन सा अनुभव करता इसलिये वह बार-बार लौटकर घर आ जाता।

कौवा बड़ा बुद्धिमान पक्षी है। मनुष्य समझता है बुद्धि मेरी विरासत है पर सच बात यह है कि अपने सीमित क्षेत्र और क्षमताओं में ही सृष्टि के अन्यान्य जीवों में भी विलक्षण बौद्धिक और आत्मिक क्षमतायें होती हैं। जब सब कौवे उपाय कर हार गये तब उनके एक मुखिया ने एक चाल चली। उन्होंने एक भोज आयोजित किया और ठीक ऐसे स्थान पर जहां से उस पालतू कौवे को उनकी हरकतें दिखाई देती रहें। कौवे को ललचाकर अपने पास बुलाने का यह उपाय कितना बुद्धि प्रेरित हो सकता है। इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। इस प्रकार वे इस पराधीन कौवे को भी बन्धन मुक्त करने में सफल हो गये।

कौवों की ही जाति का रैवेन (एक प्रकार का काला कौवा) की बुद्धिमत्ता और सामाजिकता को देखकर तो यही लगता है कि इस जन्म के कुछ मनुष्य ही अपनी किन्हीं बुराइयों के कारण इस योनि में जाने को विवश होते हैं क्योंकि उसमें और मनुष्यों के रहन-सहन, विचार-व्यवहार में असाधारण समानतायें पाई जाती हैं।

भारतवर्ष, साइबेरिया, ग्रीनलैंड, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका तथा योरोप में पाये जाने वाले इस 2 फुट की लम्बाई वाले पक्षी की विलक्षणतायें जितनी अध्ययन की गई नहीं विलक्षणताओं के अन्यान्य रहस्य उतने ही गम्भीर होते जा रहे हैं। बहुत सम्भव है कि एक दिन वह आये जबकि दुनिया में पुनर्जन्म सिद्धान्त को सार्वभौमिक मान्यता मिल जाये, विज्ञान उसकी पुष्टि कर दे और फिर नई खोजें हों तो पता चले कि यह रैवेन नटों की जाति के मनुष्य हैं जो मरने के बाद अपने स्वभाव और संस्कारवश इस कौवे की योनि में आ पड़ते हैं।

जर्मनी के ‘मैक्सप्लोंक इन्स्टीट्यूट फार दि फिजियोलाजी आफ बिहैवियर इन सी विजन’ स्थान में जो कि जीव-जन्तुओं की प्रकृति के अध्ययन का बहुत ही उपयुक्त स्थान, जर्मन वैज्ञानिक डा. एवरहार्ड ग्विनर ने ‘रैवेन’ पक्षी का विस्तृत अध्ययन किया और यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि उसके रक्त में ऐसे लक्षण (ट्रेट्स) पाये जाते हैं जो मनुष्यों से बहुत अधिक मिलते-जुलते हैं। इनके स्वभाव की विचित्रतायें, नट जाति की मानवीय विशेषताओं से ओत-प्रोत होती हैं।

विवाह से पूर्व नर और मादा रैवेन एक वर्ष तक लगातार साथ-साथ रहते हैं। मादा अपने लिये ऐसे नर का चुनाव करती है जिसमें नेतृत्व के गुण हों, जो साहसी हो, निर्भय हो, आलसी, दुर्बल, मूर्ख आदमियों की कौन पूछ करे, प्रकृति उद्योगी, साहसी और हिम्मत वालों का वरण करती है मादा रैवेन इस मामले में पूरी छान-बीन करके अपना फैसला देती है। आजकल का युवक समुदाय बड़ा चालाक हो गया है वह यह समझते हैं कि नारी में बुद्धि नहीं होती, उसे गुणी होने का धोखा देकर फुसलाया जा सकता है, मूर्ख लड़कियां युवकों की इस धोखेबाजी में आ सकती हैं पर रैवेन मादा जानती है कि एकाएक विश्वास करने धोखा हो सकता है इसलिये वह एक वर्ष तक नर के साथ रहकर उसका समीप से अध्ययन करती है। वह नर की कामुकता को अच्छी तरह पहचानती है इसलिये एक वर्षीय परीक्षाकाल में उस की इस दुर्बलता को धमका कर रखती है। यदि वह देखती है कि नर में नरोचित गुणों का अभाव है तो वह उसे छोड़कर किसी अन्य का वरण करती है। दहेज और कृत्रिम गुणों पर जिस तरह लड़कियां ठग ली जाती हैं और रैवेन को ठगा जाना नितान्त असम्भव होता है।

बेशक परीक्षणकाल में भी वे एक दूसरे के सहायक होने का प्रमाण दे सकते हैं। कई बार नर और मादा भूल भटक जाते हैं। इन परिस्थितियों के लिए वे पहले से ही कुछ खास ध्वनियां निर्धारित कर लेते हैं जो उनकी जाति के किसी भी अन्य रैवेन को मालूम नहीं होती। उन्हीं के सहारे वे एक दूसरे को ढूंढ़ लेते हैं। एक बार परीक्षण के दौरान डा. ग्विनर एक कुत्ते की आवाज सुनकर चौंके उन्होंने देखा पास में कोई कुत्ता नहीं है फिर भौंकने की आवाज कहां से आ रही है। थोड़ी ही देर में पता चल गया कि एक रैवेन जिसका कि ‘सगाई काल’ चल रहा था संकेत देकर अपने बिछड़े मंगेतर को बुला रहा था। थोड़ी ही देर में दोनों फिर मिल गये।

विवाह के बाद भी मादा अपने दाम्पत्य अधिकार और स्वाभिमान के भाव को सुरक्षित रखती है। नारी होने के कारण अपना वर्चस्व खो दिया जाय यह बात कोई महिला स्वीकार भले ही करले रैवेन को स्वीकार नहीं। सम्बन्ध निश्चित कर लेने के बाद वह अपने रहने के उपयुक्त स्थान ढूंढ़ती है नर मकान बनाता है यदि इस बीच मादा को वहां की परिस्थितियां अनुकूल न जान पड़ीं तो वह अन्य स्थान ढूंढ़ेगी। कई बार इस खोज में नर को कई अधूरे बने मकान छोड़कर बार-बार नये मकान बनाने पड़ते हैं। यह मादा की इच्छा पर है कि वह इनमें से किसी भी स्थान को चुने और उसमें रहने का अन्तिम फैसला करे।

ग्विनर लिखते हैं कि पति और पत्नी के सम्बन्ध कैसे हैं, पारिवारिक जीवन में प्रेम, शान्ति, सुख और सुव्यवस्था है या नहीं इस बात का पता लगाना हो तो घर की, बच्चों की स्थिति देखकर लगाया जा सकता है। जिन घरों में प्रेम, मैत्री एवं सद्भाव होता है वे घर साफ-सुथरे सजे हुए। उसके बच्चे और सदस्य हंसते-खेलते हुए होते हैं यही बात रैवेन के बारे में भी है उसका घोंसला देखकर बताया जा सकता है कि उनके पारिवारिक जीवन में प्रेम और सौहार्द्र है अथवा नहीं।

पति रैवेन अपनी मादा के प्रति समर्पित और ‘एक नारीव्रत’ का पालन करके मनुष्य जाति को शिक्षा देता है और एक प्रकार से उसकी कामुकता को धिक्कार कर कर्तव्य भाव की प्रेरणा देता है। अण्डे सेने के 18-19 दिन मादा लगातार घोंसले में बैठी रहती है उस अवधि में दाना लाकर पत्नी की चोंच में डालकर खिलाने का काम नर बड़ी भावना के साथ पूरा करता है। एक डच जूलाजिस्ट ने लिखा है कि एक बार अण्डा सेने की अवधि में एक मादा रैवेन मर गई उस समय पति ने लगातार भूखे रहकर सन्तति पालन का बोझ उठाया और बच्चों को सेकर बड़ा करने से लेकर उन्हें उड़ना सिखाने तक का सारा उत्तरदायित्व अकेले निभाया।

खेलना इनमें अनिवार्य होता है। अपने गांवों में पहले पहलवानों के गुरु हुआ करते थे। गांव के बच्चों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती थी, वे सवेरे-शाम उन्हें अखाड़े पर ले जाकर उन्हें दांव पेंच मल्ल-विद्या और अस्त्र संचालन सिखाकर शक्तिशाली, स्वस्थ और समर्थ बनाते थे अपने देश में जब से यह प्रथा टूट चली स्वास्थ्य और समर्थता का स्थान रोग-शोक, बीमारी और निर्बलता ने ले लिया पर इन पक्षियों में यह अनुकरणीय परम्परा इस कलियुग में भी दृढ़तापूर्वक चल रही है और वह इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य मानवोचित गुणों से गिरकर चाहे किसी युग को सतयुग बनाले या कलियुग, जीव-जन्तु अपने प्राकृतिक सन्तुलन को कभी नहीं खोते इसीलिए वे चिरंतर काल से अपने अस्तित्व को बचाते चले आ रहे हैं।

हर रैवेन—उपनिवेश में कुछ रिंगलीडर होते हैं उनका काम होता है बच्चों को खेल-रत रखना। कोई आलसी बच्चा होगा तो उसे चोंच मार-मारकर खेलने को विवश करेंगे। इनके खेल पूरी नट-विद्या होते हैं उसमें इनको इतना अधिक परिश्रम करना पड़ता है कि शरीर का सारा विजातीय द्रव्य निकल जाता है। इसके नेता इन्साफ पसन्द और नैतिक गुणों वाले होते हैं। एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रखते हैं। उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है आज के मनुष्य ने बुद्धिमान् न होकर इन्हीं के गुणों को धारण कर लिया होता तो वह कहीं अधिक स्वस्थ सुखी और समुन्नत हो सकता था।

कर्तव्य परायण जीव-जन्तु

अफ्रीका के घने जंगलों में एक पौधा पाया जाता है। जिससे अनेक जीव-जन्तुओं को खाद्य मिलता है। यह पौधा जमीन के अन्दर से उग तो आता है किन्तु धरती से ऊपर आते ही किसी अज्ञात आवश्यकता आकांक्षा के कारण पौधा आगे बढ़ने से इन्कार कर देता है। उस पौधे का विकास रुके इसके पूर्व ही गिलहरी कहीं से कुछ बीज इकट्ठा करती है और उस पौधे की जड़ के पास गड्ढा खोदकर उन्हें गाड़ आती है जिस प्रकार समुचित शिक्षा और संस्कार पाने से छोटे-छोटे बच्चों का बौद्धिक और आत्मिक विकास होने लगता है उसी प्रकार यह बीज उस पौधे के लिये खाद, पानी हो जाते हैं और वह पूरे उत्साह के साथ बढ़ने, फलने-फूलने लगता है। गिलहरी जब तक अपना पार्ट अदा नहीं करती तब तक पौधा सूखा-सा प्रेम के अभाव में अविकसित मनुष्य-जीवन की तरह ठूंठ खड़ा रहता है।

ईल चिड़िया भोजन और भ्रमण के लिये हजारों मील दूर चली जाती है पर अण्डा देना होता है तब वह अपने जन्म स्थान पर लौट आती है, चिड़िया का मरणकाल आ जाता है तब वह चाहे जहां भी हो जन्म स्थान को लौट पड़ेगी मृत्यु के लिये वह हर स्थिति में अपने घर ही पहुंचेगी। सालमन पक्षी भी जीवन भर कहीं रहे मृत्यु के समय वह वहीं आ पहुंचता है जहां उसका जन्म होता है मानो वह सारे जीवन यह याद रखता हो कि किन परिस्थितियों के कारण उसे इस योनि में जन्म लेना पड़ा और जन्म लेने के बाद फिर न वैसी निकृष्ट जीवन मिले वह अपने मूल स्थान पर लौटकर जीवन दशा बदल देता है।

मुर्गी बच्चा देती है, 15 मिनट होने के बाद बच्चा अपने दाने चारे के लिये चल देता है और कोई खतरा देखता है तो अपने आप ही खतरे की सूचक ध्वनि निकालने लगता है जबकि इससे पहले वह ध्वनि न अपनी माता से सुनी होती है न पिता से या बन्धु-बांधवों से। बर्र के बच्चे छोटे होते हैं और उसका मरणकाल आ धमकता है घर में छोटे-छोटे बच्चे जो अपना खाद्य नहीं जुटा सकते उनकी रक्षा का कर्तव्यभाव अलग सताता है तब बर्र आंख फुट्टे (ग्रास हापर्स) को पकड़ कर टुकड़े-टुकड़े करके रख देती है, स्वयं मरने के लिये चल देती है पीछे बच्चे मांस खा-खाकर बड़े हो जाते हैं।

गिलहरी का बीज छुपाना, सालमन और ईल पक्षियों द्वारा अपनी मृत्यु के समय हजारों मील दूर से घर लौट आना, चूजे का वंश परिपाटी के आधार का बिना शिक्षक ज्ञान और मरते दम तक छोटी सी बर्र में कर्तव्यपालन की भावना। प्रश्न उठता है कि जीवों में इस तरह की गणितीय बुद्धि का रहस्य क्या है? आज का बुद्धिवादी व्यक्ति आज का जीवशास्त्री उजार देगा यह सब प्रकृति की प्रेरणा से होता रहता है?
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