आमतौर पर मनुष्य और विलक्षण उसे कहा जाता है जो सामान्य औसत से कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा हो। उदाहरण के लिये औसतन एक व्यक्ति पचास किलो तक वजन आसानी से उठा लेता है। कोई सौ किलो वजन भी उठा सकता है और किसी से पच्चीस किलो भी नहीं उठ पाता। सौ किलो वजन उठाने की सामर्थ्य रखने वाले व्यक्ति को बलिष्ठ कहा जायगा किन्तु कोई व्यक्ति उससे भी पांच दस गुना अधिक उठाने की सामर्थ्य रखता हो तो उसे अद्भुत और विलक्षण ही कहना पड़ेगा।
इस तरह की अद्भुतता, विलक्षणता कहीं कहीं और कभी-कभी देखने में आती है जब व्यक्ति औरों की तुलना में बहुत ज्यादा, कई गुना अधिक कुछ भी कर गुजरने में समर्थ होता है। यदा कदा देखने पर भी अद्भुत और विलक्षण का अस्तित्व तो है ही। वह अस्तित्व ही इस बात का द्योतक है कि मनुष्य में अद्भुत विलक्षण सम्भावनायें विद्यमान हैं।
‘‘साहिब अल्लाह शाह’’ नामक लाहौर का एक मुसलमान फकीर 600 पौण्ड से भी अधिक वजन की मोटी लोहे की सांकलें पहने रहता था। वृद्ध हो जाने पर भी अपने अभ्यास के कारण इतना वजन भार नहीं बना। पंजाब में वह ‘‘सांकलवाला’’ और जिंगलिंग के नाम से आज भी याद किया जाता है। उसकी मृत्यु के बाद सांकलों की तौल की गई तो वह 670 पौण्ड निकलीं।
यह तो भारतवर्ष के हठयोगियों की बातें हैं अन्य देशों में भी अभ्यास द्वारा अर्जित ऐसी विचित्रतायें देखने को मिल जाती हैं जो इस बात की प्रतीक हैं कि मनुष्य कुछ विशेष परिस्थितियों में पैदा अवश्य किया गया है किन्तु यदि वह चाहे तो अपनी आपको बिलकुल बदल सकता है।
सिख सम्राट सरदार रणजीतसिंह के दरबार में प्रसिद्ध भारतीय योगी सन्त हरदास ने जनरल वेन्टूरा के सम्मुख अपनी जीभ को निकाल कर माथे का वह हिस्सा जीभ से छूकर दिखा दिया जो दोनों भौंहों के बीच होता है। सन्त हरदास बता रहे थे कि जीभ को मोड़कर गरदन के भीतर जहां चिड़िया होती है उस छेद को बन्द कर लेने से योगी मस्तिष्क में अमृत का पान करता है ऐसा योगी अपनी मृत्यु को जीत लेता है अंग्रेजों का कहना था कि जीभ द्वारा ऐसा हो ही नहीं सकता। इस पर सन्त हरदास ने अपनी जीभ को आगे निकाल दिखा दिया उन्होंने बताया कि कुछ औषधियों द्वारा जीभ को सूत कर इस योग्य बनाया जाता है।
मनुष्य के अन्दर इतना कुछ असाधारण छिपा दबा पड़ा है कि उसे ढूंढ़ने उभारने में संलग्न होने वाला ऐसी असाधारण विभूतियां करतलगत कर लेता है जैसी कि बाहरी उपार्जन से किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकतीं।
सिद्धियों की चर्चा जहां-तहां होती रहती हैं और ऐसे विवरण सामने आते रहते हैं जिनसे प्रकट होता है कि बाहरी दौड़-धूप तक सीमित रहने की अपेक्षा अधिक सुखी समुन्नत बनने के लिए अपने अन्तरंग में छिपी हुई शक्तियों को ढूंढ़ना—जगाना कम लाभदायक नहीं है।
बुद्ध धर्म की योग साधनाओं में एक जेन साधना थी। जिसके ध्वंसावशेष जापान आदि देशों में भी पिछले दिनों तक पाये जाते रहे हैं।
एक कोरियाई नाटा दुर्बल पहलवान अमेरिका गया और उसने वहां के नामी गिरामी पहलवानों को चुनौतियां देनी आरम्भ कर दी। आखिरकार एक दंगल आयोजित किया गया। जिसमें अमेरिका के तत्कालीन चैंपियन पहलवान डिकारियल के साथ कुश्ती का जोड़ लिखाया गया। दोनों जब अखाड़े में उतरे तो जनता ठठाकर हंस पड़ी। कोरियाई पहलवान मास देखने में डिकरियल से दो फीट छोटा ही न था वरन् आकार में भी बच्चा जैसा लगता था। कहां 6 फुट 7 इंच का डिकरियल और कहां चार फुट एक इंच का बौने लड़के जैसा दीखने वाला मास। दर्शकों का उत्साह ठंडा हो गया और वे इस बेजोड़ बेतुकी कुश्ती का सहज परिणाम समझ कर समय से पहले ही उठ कर जाने लगे। किन्तु तब चमत्कार ही हो गया जब कुछ ही दांव-पेचों के बाद मास ने डिकरियल को चित्त कर दिया और एक हजार डालर का इनाम जीत लिया।
अमेरिकी जनता इस पराजय को अपना राष्ट्रीय अपमान समझने लगी और मास पर धोखा-धड़ी की लड़ाई लड़ने का आरोप लगाया गया और अखबारों में इस सम्बन्ध में कटु आलोचनाएं छपीं। खिन्न मास ने इन आरोपों का उत्तर एक नई चुनौती के रूप में दिया। उसने विज्ञापन छपाया कि कोई भी अमेरिकी यदि उसे हरा दे तो वह मिली हुई उपहार की रकम—एक हजार डालर—उसी को खुशी-खुशी वापस लौटा देगा। निदान दूसरे दंगल का आयोजन हुआ, इसमें एक पुलिस अफसर से कुश्ती लिखी गई। यह अफसर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का पहलवान था। वह बहुत ही आवेश में लड़ने आया था। किन्तु इस बार भी अचरज की मास ने उसी ऐसी पटक दी कि बेचारे की दो हड्डियों ही टूट गईं। इस पर अमेरिकी और भी खीजें और मारने पर उतारू हो गये। किसी प्रकार भाग कर वह अपने होटल पहुंचा और जान बचाई।
यह तो अमेरिका की बात हुई। इससे पहले मास ने जापान में भी अपने पराक्रम की धूम मचा दी थी। यों वह जन्म से कोरियाई था पर वहां से वह बचपन में ही अपने बाप के साथ जापान आ गया था और वहां का नागरिक बन गया था। उसने एक विशेष प्रकार की व्यायाम कला—जेन साधना—सीखी और उसी के बल पर वह चमत्कारी योद्धा बन गया।
अक्सर चुनौती प्रदर्शन में उसके सामने अत्यन्त मजबूत पत्थर जैसी कठोर पकी हुई दो ईंटें दी जातीं। ईंटों की मजबूती को विशेषज्ञ परखते। इसके बाद दोनों हथेलियों के बीच वह इन ईंटों को रखता और उंगलियों के खांचे भिड़ाकर इस तरह दबाता कि ईंटों का चूरा हो जाता। दर्शक अवाक् रह जाते।
एक बार जापान में उसे विचित्र प्रकार की कुश्ती का सामना करना पड़ा। हारे हुए पहलवानों ने मिल-जुलकर उसे चुनौती दी कि वह सांड़ से कुश्ती लड़ने को तैयार हो। पहले तो वह आनाकानी करता रहा पर पीछे जब चिढ़ाया जाने लगा तो वह तैयार हो गया। इसके लिए एक अत्यन्त क्रोधी और तेरह मन भारी सांड़ विशेष रूप से तैयार किया गया और नशा पिलाकर प्राणघातक आक्रमण करने में प्रवीण बनाया गया। इस दंगल को देखने के लिए जापान के कौने-कौने से लोग आये। डाक्टरों और पुलिस वालों का एक विशेष कैंप लगाया गया कि यदि मास सांड़ की चपेट में आ जाय तो कम से कम उसकी मरणासन्न स्थिति में कुछ तो उपचार किया जा सके और लाश को यथा स्थान पहुंचाया जा सके। तब क्रुद्ध सांड़ को काबू करने का भी सवाल था। यह काम पुलिस ही संभाल सकती थी। सो भी सभी आवश्यक प्रबन्ध पहले से ही नियोजित कर लिए गये।
मास पूरी तरह निहत्था था। मुट्ठियां ही एक मात्र उसकी ढाल तलवार थीं। लड़ाई आरम्भ हुई। आक्रमण को पहले करने का अवसर प्रशिक्षित सांड़ को दिया गया। मास अपनी जगह चट्टान की तरह खड़ा रहा। टक्कर खाकर वह उखड़ा नहीं वरन् घूंसे से प्रत्याक्रमण किया। घूंसा ऐसा करारा बैठा कि वह एक में ही चक्कर खाकर गिर पड़ा और वहीं ढेर हो गया। 13 मन भारी उस महादैत्य सांड़ को एक ठिगना-सा दो मन से भी कम वजन का मनुष्य इस तरह गिरा सकता है। यह दृश्य लोगों के लिए आश्चर्यचकित करने वाला था। कई तो इसे भूत-प्रेत की सिद्धि या जादू मन्त्र का चमत्कार तक कहने लगे।
अपनी शक्ति का रहस्य बताते हुए मास अपनी योग साधना का वर्णन विस्तार पूर्वक किया करता था और उस प्रक्रिया का इतिहास बताया करता था।
जापान में ‘जेन साधना’ भूतकाल में भी बहुत प्रख्यात और सम्मानित रही है। बौद्ध धर्मानुयायी सन्त इसे अपने शिष्यों को बताते सिखाते रहे थे। इस आधार पर मनुष्य न केवल आध्यात्मिक वरन् भौतिक शक्तियां भी प्राप्त कर सकता है। जेन साधना को नट विद्या नहीं वरन् विशुद्ध योगाभ्यास ही समझा जाना चाहिए। जापान की ‘जुजुत्सु’ विद्या संसार भर में प्रसिद्ध थी। इसके आधार पर मनुष्य अपने से कहीं अधिक बलवान प्रतिद्वन्दी को बात की बात में धराशायी कर सकता था। इसकी पुष्टि करने वाली न केवल दन्त कथाएं ही वहां प्रसिद्ध थीं वरन् जापानी उसमें निष्ठानि भी होते थे।
मास को बचपन से ही योग विद्या का शौक था। उसने जेन साधना में निष्ठानि महाभिक्षु फुनाकोशी से दीक्षा ली और उन्हीं के पास रहकर यह विद्या सीखने गया। उस प्रयोजन के लिए उसने पर्वतों की निर्जन गुफाओं में डेरा डाला और बर्फ से ढकी कन्दराओं में वनस्पतियां खाकर साधना जारी रखी। कई वर्ष बाद वापिस लौटा तो उसकी जटाएं और दाढ़ी बढ़ी हुई थी। लोगों ने उसे पागल समझा, पर इससे क्या वह धुन का धनी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही रहा और आखिर उसने अपने को जेन साधना का सिद्ध पुरुष ही बना लिया।
योग साधनाओं का उद्देश्य मनुष्य की अन्तःचेतना की विलक्षण क्षमताओं, शक्तियों और सम्भावनाओं के स्रोत ईश्वरीय सत्ता के साथ जोड़ना ही होता है। धर्म दर्शन के आस्तिकवाद के सिद्धान्तों के अनुसार परमात्मा समान विलक्षणताओं और सभी सम्भावनाओं का केन्द्र है। उससे सम्बन्ध स्थापित कर लेने पर मनुष्य इच्छित दिशा में विकास कर सकता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि ईश्वर प्रसन्न होकर कोई इस तरह के वरदान अनुदान देता है बल्कि ये शक्तियां तो प्रत्येक मनुष्य में बीज रूप से विद्यमान रहती हैं। साधनाओं द्वारा उन सम्भावनाओं शक्तियों का विकास भर किया जाता है। इन सिद्धियों के अलावा भी कई बार ऐसी विलक्षण घटनायें देखने में आती हैं, जिनसे किसी मानवेत्तर सत्ता की उपस्थिति विद्यमानता के संकेत मिलते हैं।
दि माडर्न रिव्यू कलकत्ता के जुलाई 1936 अंक में सर ए.एस. एडिगृन ने लिखा है—‘‘हम नहीं जानते वह क्या है पर कुछ अज्ञात शक्ति काम कर रही है। मैं चेतना को मुख्य मानता हूं, भौतिक पदार्थ को गौण। पुराना नास्तिकवाद चला गया। धर्म, आत्मा और मन का विषय है, वह किसी प्रकार हिलाया नहीं जा सकता।’’
इन सब उक्तियों के बाद भी आज का अर्द्धराध और पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित समाज चेतना को मानने के लिये तैयार नहीं। क्योंकि वह वस्तुस्थिति से अपरिचित है। आइन्स्टाइन जो विज्ञान का पारंगत पण्डित था मानता है कि सृष्टि में कोई चेतना काम कर रही है पर तो भी विज्ञानवादी उसे मानने के लिये तैयार नहीं होते, तब यह कहना पड़ता है कि क्या यह घटनायें भी आत्मा की उस मान्यताओं को पुष्ट नहीं करतीं जिनका विवरण ऊपर दिया गया है।
लन्दन के एक निवासी के सम्बन्ध में कुछ वर्ष पूर्व समाचार आया था कि 76 वर्षीय एक व्यक्ति की निद्रा 18 वर्ष की आयु में किसी रोग के कारण भंग हो गई थी और उसके बाद सारे जीवन अर्थात् अगले 58 वर्षों तक उसे निद्रा नहीं आई। उस व्यक्ति के शरीर या मस्तिष्क में कोई रोग या असाधारण जैसा कोई चिह्न भी परिलक्षित नहीं हुआ अर्थात् वह इतने वर्ष लगभग न सोने पर भी पूर्ण स्वस्थ था।
स्पेन के बैलेन्टिन मेडिना नामक एक और सज्जन हैं, जिन्होंने पिछले 62 वर्षों से सोना तो क्या झपकी भी नहीं ली। उन्हें यह भी याद नहीं है कि उन्होंने कभी जम्हाई ली भी थी या नहीं। वे चौबीसों घण्टे काम करते हैं। अर्नेस्टो मेडार्ज के कृषि फार्म में वे पहले 16 घण्टे हल चलाते, निकाई करते हैं। शेष 8 घण्टे चौकीदारी करते हैं। जहां एक मजदूर कुल आठ घण्टे की मजदूरी कमाता है, वहां श्री वैलेन्टिन तीन पाली काम की मजदूरी प्राप्त करते हैं। वे प्रतिदिन दो बार नाश्ता और चार बार भोजन करते हैं। थक जाते हैं तो उनके लिये बैठकर थोड़ा आराम करना काफी है, सोते तो वे हैं ही नहीं। उनके पास आज तक सोने का कोई बिस्तर भी नहीं है।
इस असाधारण स्थिति की जांच दुनिया भर के डॉक्टर कर चुके हैं। गोलियां, इन्जेक्शन और औषधियां भी दी गईं पर कोई अन्तर न पड़ा। डाक्टरों ने उनकी मृत्यु के बाद की परीक्षा के लिये अनुमति भी मांगी है और स्पेन के मेडिकल स्कूल को यह अधिकार दे भी दिया गया है। किन्तु मस्तिष्क की अहर्निश इस जागृत अवस्था का कोई निश्चित निष्कर्ष वैज्ञानिक और डॉक्टर न निकाल पाये।
स्टाक होम (स्वीडन) के पास मोस्टेरीज नामक एक शहर है। घनी बस्ती के बीच में एक कन्या पाठशाला। नगर के एम सम्भ्रान्त व्यक्ति की 13 वर्षीय कन्या कारोफ्लाइन कार्ल्सडाटर इस स्कूल में पढ़ने जाया करती थी। एक दिन की बात है कि रात्रि में पूर्ण नींद लेने के बाद भी उसे निद्रा का आवेश सा आता रहा। अपने आपको जागृत रखने का बहुतेरा प्रयत्न करने पर भी बेचारी रोक न सकी अकस्मात् पढ़ते-पढ़ते डेस्क पर खी अपनी पुस्तकों में सिर रखकर सो गई। कारोफ्लाइन जब सो गई तो उसके अध्यापकों ने उसे जगाने का बहुतेरा प्रयत्न किया पर वह प्रगाढ़ निद्रा में जा चुकी थी जगना असम्भव है यह जानकर उसे घर भेज दिया गया। एक दिन, दो दिन, तीन सप्ताह, माह, वर्ष बीत गया पर लड़की की नींद न टूटी। उसे दूध, फलों का रस और इन्जेक्शन किये जाते रहे जिससे शरीर की गतिविधियां सामान्य ढंग से चलती रहीं पर पर कारोफलाइन की एक बार लगी नींद फिर टूटी ही नहीं।
निरन्तर सुरक्षा और प्रतीक्षा के 23 वर्ष बाद जब नींद टूटी तब वह 39 वर्ष की अधेड़ हो गई थी। युवावस्था नींद में चली गई का वह प्रत्यक्ष उदाहरण थी। जागते ही उसने पुस्तकें मांगी जहां से पढ़ाई का क्रम छोड़ा था वहीं से फिर प्रारम्भ कर दिया।
यह घटनायें आत्मा के चिर जागृत तत्व होने का प्रमाण है। जिसका न कोई डॉक्टर खंडन कर सका है और न ही वैज्ञानिक। न उनके पास इसका कोई निश्चित उत्तर ही है?
अभी कुछ समय पूर्व ग्रीक में एक व्यक्ति ऐसा हुआ है जो प्रतिदिन 100 पौंड से भी अधिक भोजन ग्रहण कर जाता। पेय और नाश्ता उससे अतिरिक्त। ग्रीक निवासियों ने ‘‘मिलो आफ क्रोटोना’’ नामक इस व्यक्ति की स्मृति में एक यादगार खड़ी की है जैसा कि मुमताज महल की स्मृति में ताजमहल।
वास्तव में यह यादगार (मानू मेन्ट) मिलो क्रोटोना की नहीं उसके विशाल शक्ति वाले पाचन संस्थान की यादगार है जो बताती है कि प्रकृति के दिये हुए साधन इतने समक्ष और समर्थ हैं कि यदि मनुष्य उनका दुरुपयोग न करे तो दुनिया की मशीनें मनुष्य शरीर का क्या मुकाबला कर सकती हैं।
क्रोटोना तो वास्तव में अपनी इस यादगार के कारण मशहूर हो गया वरना उससे भी अधिक सक्षम पाचन शक्ति वाले लोग हुये हैं। भारतवर्ष में बुजुर्गों के बारे में ऐसी सच्ची कहानियां गांव-गांव सुनने को मिल जाती हैं और उनके साथ यह उपदेश भी कि यदि मनुष्य गलत आहार-विहार के कारण शरीर की अग्नि को नष्ट न करे तो पेट खराब होने का कोई कारण नहीं। प्रो. पी.जी. ग्रे के अनुसार जब मिट्टी के 200 से अधिक कीटाणु कार्बोलिक एसिड जैसा जहरीला रसायन पीकर पचा जाते हैं, पचा ही नहीं जाते वरन् उसी से अपना शारीरिक विकास भी करते हैं तब यदि मनुष्य पेट की गड़बड़ी और मन्दाग्नि का रोना रोये तो यही कहना पड़ेगा कि उन्होंने शरीर को परमात्मा की देन जैसा मानकर उसे पवित्र और सुरक्षित नहीं रखा वरन् उसे चमड़े की मशीन मानकर उसकी शक्ति निचोड़ने भर में आनन्द अनुभव किया।
शरीर की गर्मी नष्ट न की जाये तो मनुष्य कितना खा सकता है उसकी एक दूसरी घटना है डेट्रायट—मिचगन (अमरीका) की जिसके आगे मिलो क्रोटोना का भोजन तो बच्चे की खुराक कही जानी चाहिए। रेलवे विभाग में काम करने वाला—एडिको साढ़े 6 फुट लम्बा और 210 पौंड वजन का था और एक दिन में 150 पौंड अर्थात्—डेढ़ मन से भी ज्यादा खाना खा जाता। 5 व्यक्तियों के सामान्य परिवार के लिये जो भोजन एक सप्ताह के लिये पर्याप्त होता एडिको का उससे मुश्किल से ही एकबार पेट भरता।
यदि वह किसी होटल में खाने के लिये बैठ जाता तो फिर कुछ देर के लिये दूसरे सभी लोगों का खाना बन्द हो जाता फिर उन्हें खाने की आवश्यकता भी नहीं होती थी, एडिको का चारा देखकर ही उनकी भूख मर जाती थी। बड़े सुअर के मास से बनी 60 टिकिया और आड़ू तथा जामुन से बनी 25 कचौड़ियां वह एक ही बैठक में साफ कर जाता था फिर इस पेट में पहुंचे कोयले को जलाने के लिये जल की आवश्यकता होती थी। उसके लिये बोतलें रखी जातीं और तब एक बार में गिनकर पूरी पचास बोतलें पानी भी पी जाता था।
रविवार के दिन वह विशेष खाना खाता था। उस दिन वह सुअर का मांस न लेकर 15 मुर्गे खाता था। एक बार उसने पेटभर भोजन करने के बाद लोगों की जिद रखने के लिये 3 पेरु पक्षी भी उदरस्थ कर लिये जिनका वजन 60 पौंड था। 24 पौंड पनीर और 300 अण्डे उसका हलका-फुलका नाश्ता था। वैसे वह दिन भर में दो-तीन बार खाता था और प्रतिदिन बड़े सुअर की भुनी हुई 45 बोटियां 60 टिकिया, भुना हुआ आलू दो गैलन, 10 कप काफी, 50 बोतल बियर तथा शराब 50 बोतल अन्य जल या कोकाकोला जैसा पेय ओर 50 कचौड़ियां उसका होते थे। उसके सामने विवाह का प्रस्ताव आया तो उसने कहा—मुझे पूरा भोजन मिलता रहे, इसी में आनन्द है विवाह किया ही नहीं।
यह घटना बताती है कि यदि नष्ट न करें तो पेट में पूरे एक मालगाड़ी को खींचने में इंजिन को जितनी गर्मी और आग चाहिये वह कुदरत ने आदमी के पेट में भरी है भले ही लोग उसे पहचान व समझ न पायें।
सन् 1968 में फ्यूजी टेलीविजन कम्पनी जापान के डाइरेक्टर्स भारत आये दिल्ली में उन्हें पता चला कि भारत में एक ऐसा व्यक्ति है जो कांच, लोहा, तांबा, पिन, कंकड़, पत्थर चाहे जो कुछ खा सकता है तो भी उसकी शारीरिक क्रियाओं में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने उस व्यक्ति को दिल्ली बुलवाया स्वागत में जहां अन्य अतिथि स्वाद युक्त भोजन पाते हैं चाय नाश्ता करते हैं वहां इन बेचारों को कीलें, पिनें, टूटे फ्लाक्स और कांच के गिलास खाने को दिये गये। उन्होंने वही बड़े प्रेम से खाये और जापानियों को दंग कर के रख दिया। जापानी उन्हें साड़े तीन माह के लिये जापान ले गये उन पर तरह-तरह के प्रयोग किये पर कोई रहस्य न जान सके आखिर इस मनुष्य दैत्य के पेट में क्या है जो मोटर ठेले खा जाने तक की क्षमता रखता है।
साधारण तौर पर मनुष्य का पेट फल-फूल, अन्न और रस पचाने की जितनी अग्नि वाला माना जाता है यदि लोहा शीशा पचाने की बात आये तो भारी शक्ति वाली अणु भट्टी की आवश्यकता होगी। कोई व्यक्ति बिना किसी बाह्य रसायन अथवा यन्त्र की मदद से यदि इस्पात जैसी पत्थर जैसी कठोर और साइनाइड जैसे मारक विष खाकर पचा जाय तो प्रमाणित होगा कि उसके पेट उसकी नाभि में वस्तुतः कोई अग्निकुण्ड होगा, यह विश्वास दिलाना इसलिये आवश्यक है ताकि लोग जठराग्नि प्रदीप्त करने वाले प्राणायाम, योगासनों की महत्ता समझें। ताकि लोग शरीर और शरीर के लक्ष्य का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें और मनुष्य जीवन में आने का उद्देश्य भी सार्थक कर सकें।
डा. अलखमोहन माथुर नामक इस भारतीय आश्चर्य का जन्म अलीगढ़ में हुआ। वे जन्मे भी समय से पहले और उल्टा तथा जुड़वां जन्मजात आश्चर्य पिण्ड भी माथुर मानव आश्चर्यों के प्रतीक हैं। एक दिन, जबकि वे चण्डीगढ़ में डाक्टरी करते थे, उन्होंने सुना कि एक बालिका धोखे से सुई खा गई। सुई खाते ही लड़की की स्थिति मरणासन्न हो गई। डाक्टरों ने किसी तरह आपरेशन करके बालिका के प्राण बचाये। इस घटना ने श्री माथुर को बहुत विचलित कर दिया। वे सोचने लगे क्या सचमुच मनुष्य इतना गया—बीता निर्माण है कि एक नन्ही-सी सुई उसकी जान ले ले। कौतूहलवश उन्होंने उसी शाम ब्लेड का छोटा-सा टुकड़ा खाकर देखा। प्रातःकाल पाखाने के साथ वह टुकड़ा निकल गया पर साथ में रक्त भी गया जिससे पता लगता था कि ब्लेड की खरोंच लगी हैं। दूसरे दिन उन्होंने फिर ब्लेड खाया और कई दिन तक उसके निकलने की प्रतीक्षा करते रहे पर न ब्लेड के टुकड़े निकले और न ही रक्त। हैरानी बढ़ने पर उन्होंने एक्स-रे कराया तो उन टुकड़ों का कहीं पता ही नहीं चला।
फिर एक-एक करके वे धीरे-धीरे आलपिनें लोहे के टुकड़े, शीशा, पारा, प्लास्टिक, तांबा चाहे कोई भी धातु चबाने और पचाने लग गये। यह कोई चमत्कार नहीं था एक तथ्य था जो इस शरीर रूपी अद्भुत मशीन से सम्बन्ध रखता इसलिए उसकी छान-बीन प्रारंभ हुई। दिल्ली के गोविन्द बल्लभ पन्त हास्पिटल में बम्बई, कलकत्ता, लखनऊ, चण्डीगढ़, अलीगढ़, गाजियाबाद में परीक्षण हुए डाक्टरी जांच की गई पर कोई नहीं बता सका कि कौन-सा तत्व है जो इन अभक्ष भक्ष्यों को भी पचा सकता है।
जापानी डाक्टरों ने तो उन्हें कई-कई दिन तक एकांत में रखा। खाने के तुरन्त बार से लेकर दिन में वैसे कई-कई बार तक एक्स-रे और अन्य प्रयोग किये पर कुछ भी जान न पाये आखिर यह कौन-सा बला विज्ञान है। उन्होंने श्री माथुर को एक सार्टीफिकेट दिया ‘विश्व भर में अद्भुत भारतीय’ (वर्ल्ड सरप्राइट मैन आफ इण्डिया) की उपाधि ही वे दे सके श्री माथुरजी को।
‘निराहार भी रहा जा सकता है’
जापान के मूर्धन्य दैनिक पत्र ‘जापान टाइम्स’ के 20 अप्रैल अंक में एक समाचार प्रकाशित हुआ कि भारतवर्ष में पटना शहर के समीप एक ऐसे सज्जन निवास करते हैं जो कि पिछले दो वर्ष से सर्वथा निराहार रहते हैं। उनका जीवन निर्वाह जल और वायु पर ही हो जाता है।
समाचार अद्भुत और आश्चर्यजनक ही नहीं अविश्वसनीय भी था। क्योंकि इन दिनों जबकि आहार को ही जीवन का आधार माना जा रहा है और स्वास्थ्य के लिये विभिन्न प्रकार के खनिज, लवण, प्रोटीन, चिकनाई, कार्बन आदि की तालिकाएं प्रकाशित करके आहार को ही सब कुछ बताया जा रहा है, तब यह कैसे सम्भव है कि कोई व्यक्ति बिना आहार के जीवित रह सके और दो वर्ष जैसी लम्बी अवधि तक जीवित भी रहे तो स्वस्थ भी बना रहे? आहार के बिना अनशन करने वाले कई व्यक्ति मृत्यु के मुख में जा चुके हैं फिर बिना भोजन किये कोई व्यक्ति इतने समय तक जी ले। जीवित ही नहीं, स्वस्थ भी बना रहे और स्वस्थ ही नहीं, इसी बिना आहार वाली पद्धति को अपनाकर भविष्य में लम्बा जीवन जी सकने की घोषणा करे तो यह बात साधारणतया न तो समझ में आती है और न उस पर भरोसा करने को जी करता है।
इस समाचार ने अनेकों आश्चर्यान्वित किया। उन्हीं दिनों कनाडा के एक पाल स्टेट बैक नामक सज्जन विश्व भ्रमण के लिए निकले हुए थे। वे जिन दिनों यह समाचार छपा तब तक अमेरिका, मेक्सिको, हनोई, जापान, कोरिया, ताइवान, बैंकाक आदि की यात्रा कर चुके थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम रद्द करके इन निराहार जीवन यापन करने वाले सज्जन से भेंट करने और तथ्यों का पता लगाने का निश्चय किया और वे भारतवर्ष आकर सीधे पटना जा पहुंचे स्थान का पता लगा और उन सज्जन के समीप जा पहुंचे जिनके बारे में समाचार छपा था।
पाया गया कि पटना जंकशन से कुछ आगे चिड़िया रोड़ पर ओवर ब्रिज के दक्षिण में कंकड़ बाग की तरफ जाने वाले रास्ते पर एक प्राकृतिक चिकित्सालय बना हुआ है वहां श्री भगवान आर्य नामक एक सज्जन निवास करते हैं, वे प्राकृतिक चिकित्सा प्रेमी हैं। केवल वे स्वयं ही प्राकृतिक जीवन पर विश्वास नहीं करते वरन् अपने परिवार को भी वैसी ही जीवन पद्धति अपनाने पर सहमत किये हुए हैं। वे रोगियों की प्राकृतिक विधि से चिकित्सा भी करते हैं और स्वस्थ रहने के लिए किस प्रकार का जीवनयापन करना चाहिये यह भी समझाते हैं।
कनाडा के विश्व यात्री श्री स्टेटबैक को तब और भी आश्चर्य हुआ जब उन्हें पता लगा कि न केवल उपरोक्त सज्जन 2 वर्ष से स्वयं ही निराहार रहते हैं वरन् उनके परिवार के सभी लोग—जिसमें उनकी पत्नी, दो लड़कियां और एक लड़का है। यह सब भी करीब एक वर्ष से इसी प्रकार बिना आहार का जीवनयापन कर रहे हैं और सभी सकुशल हैं।
इस सन्दर्भ में दिल्ली के साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 25 जुलाई 1971 के अंक में श्री कृष्णनन्दन ठाकुर की उपरोक्त सज्ज से एक भेंट वार्ता छपी है जिसमें प्रश्नों के उत्तर देते हुए डा. भगवान आर्य ने बताया कि—
‘हर मनुष्य चाहे वह कुर्सी पर बैठकर काम करने वाला हो चाहे कृषक हो, चाहे पहलवान हो, सभी को पूरा-पूरा पोषण मिलता है, हवा और पानी से—न कि अन्य खाद्य पदार्थों से। हवा पानी के अलावा सभी खाद्य पदार्थ ताकत पैदा करने में रुकावट डालते हैं। रोग पैदा करते हैं। बुढ़ापा लाते हैं, स्वास्थ्य खराब करते हैं। मन को विकारमय बनाते हैं।’
‘निराहार जीवन पर्यन्त रहा जा सकता है। इससे मनुष्य कभी बुढ़ापा महसूस भी नहीं करेगा। जितनी लम्बी अवधि तक मनुष्य हवा पानी पर रहेगा उसके शरीर में सभी तरह की ताकत और अच्छाइयां आने लगेंगी। बुढ़ापा ऐसे व्यक्ति के दरवाजे पर आवेगा ही नहीं। मानव प्राणी को प्रथम श्रेणी का इंजन मिला है। जिसमें खाने की कोई आवश्यकता नहीं पशु-पक्षियों को द्वितीय श्रेणी की मशीन मिली है इसलिए उन्हें खाने की आवश्यकता पड़ती है।’
श्री भगवानजी का प्रयोग अधिक गहराई तक समझा जाने योग्य है। इस सन्दर्भ में अधिक खोज होनी चाहिए। यह कोई सिद्धि चमत्कार जैसी बात नहीं वरन् मनुष्य शरीर का निर्वाह किन मूलभूत आधारों पर अवलम्बित है उसकी जड़ तक पहुंचने के लिये एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचने वाली बात है। यदि आहार को गौण और जलवायु को जीवन निर्वाह का प्रधान आधार सिद्ध किया जा सके तो इस प्रतिपादन के दूरगामी परिणाम होंगे। फिर आहार से स्वास्थ्य संरक्षण के नाम पर इन दिनों जो भक्ष्य अभक्ष्य, ईंट पत्थर, आग-अंगार सब कुछ खाया जा रहा है और खाद्य उत्पादन के लिए इतना कुहराम मच रहा है उस सन्दर्भ में नई दिशा मिलती है। यह पूर्ण निराहार सर्वसाधारण के लिए सम्भव न हो तो भी यदि स्वल्पाहार से काम चल सकता हो और उसके लिए शाकाहार जैसी सरल सात्विक वस्तुओं को पर्याप्त माना जा सकता हो तो उस प्रतिपादन का मानव जीवन की एक मुख्य समस्या ‘आहार’ का आशाजनक समाधान निकल सकता है। विशेषतया प्रोटीन के नाम पर जिन करोड़ों निरीह पशु-पक्षियों के मांस के नाम पर वध किया जाता है उनकी निरर्थकता समझने में सुविधा मिल सकती है।
स्वामी विवेकानन्द ने ‘पौहारी बाबा’ नामक एक योगी का ऐसा ही वर्णन किया था कि वे बिना आहार के रहते थे। वह विवरण उनकी एक ‘पौहारी बाबा’ नामक पुस्तक में भी है पर तब उस का कारण योगाभ्यास बताया गया था। तब लोगों को उस कठिन कार्य का अनुकरण करने का साहस नहीं हुआ। पर श्री भगवानजी का प्रयोग तो प्राकृतिक विज्ञान के अनुरूप होने से सभी के लिये सरल एवं उपयोगी हो सकता है। आवश्यकता इस सन्दर्भ में अधिक गहरे अन्वेषण और विस्तृत प्रयोग किये जाने की है ताकि सर्वसाधारण के लिये किन्हीं सर्वमान्य निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके।
योग विद्या के अंतर्गत ऐसे विधान हैं जिनमें अन्न की आवश्यकता प्राण वायु से पूरी हो सकती है। जल पर भी निर्वाह हो सकता है। तपस्वियों की कितनी ही तपश्चर्या इस आधार पर सम्पन्न हुई है। पार्वतीजी की शिव विवाह के लिये की गई तपश्चर्या की बात तो देवताओं के वर्ग में चली जाती है। ऋषियों की बातें भी पुरानी हो गईं पर अभी भी ऐसे उदाहरण विद्यमान हैं जो प्राण तत्व के माध्यम से इस निखिल जगत में संव्याप्त शक्ति को खींचने और उससे शारीरिक, मानसिक स्तर की व्यक्तिगत सशक्तता उत्पन्न करने से ले कर—दूसरों की सहायतायें करने तथा लोकमंगल के अगणित प्रयोजन पूरे करने की व्यवस्था है। वह मार्ग कठिन है और सबके लिए संभव नहीं। पर उपरोक्त प्रयोग तो सर्वसाधारण के लिए एक नई दिशा प्रस्तुत करता है इसलिये इसका महत्व विशेष है।
अनन्त संभावनाओं से युक्त ईश्वर पुत्र
तत्कालीन प्रधान जज सर जान वुडरफ ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, वे ताजमहल होटल के लाउण्ज पर बैठे थे उनके साथ एक भारतीय मित्र थे। संकल्प शक्ति की चर्चा चल रही थी। उन मित्र ने इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए कहा, ‘इतना तो मैं भी कर सकता हूं कि सामने जो बीस के लगभग मनुष्यों का झुण्ड बैठा है उस में से आप जिसे कहें उठा देने और बिठा सकने का जादू दिखा सकूं। वुडरफ ने उनमें से एक व्यक्ति को चुन दिया। मित्र ने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। फलतः ठीक वही व्यक्ति अकारण उठ उड़ा हुआ चला फिर अपने स्थान पर वापिस बैठ गया।
फ्रांस की एक लड़की एनेटफ्रेलन की विचित्रता भी अपने समय में बहुत प्रख्यात रही। जब वह बारह वर्ष की थी तभी वह अविज्ञात प्रश्नों के उत्तर देती थी। यह उत्तर उसकी चमड़ी पर इस तरह उभरते थे, मानो किसी ने कागज पर स्याही से लिखे जाने की तरह उन्हें लिख दिया हो। यह अक्षर अपने आप ही उभरते थे, और कुछ ही मिनट में गायब हो जाते थे।
28 जुलाई 1969 को दक्षिण अफ्रीका के न्यूकेसिल नगर में असंख्य जन-समूह के सम्मुख योगविद्या का चमत्कार प्रदर्शन अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना रहा।
बात यह थी कि एक चाय का होटल चलाने वाला साधारण सा युवक—पीटरयान डेनवर्ग योगविद्या के चमत्कारों के बारे में बहुत कुछ सुनता, पढ़ता रहा था। उसने भारय को योगियों के नाम से जाना था। अस्तु अपनी सारी जमा पूंजी समेटकर भारत चल पड़ा और तिब्बत हिमालय क्षेत्र में भ्रमण करके चमत्कारी विद्यायें बहुत समय तक सीखता रहा।
जब वह अपने देश वापस लौटा तो लोगों ने उसे चमत्कार दिखाने के लिए विवश कर दिया। अन्ततः वैसे प्रदर्शन की व्यवस्था की गई। एक लम्बे-चौड़े चबूतरे पर पत्थर के दहकते कोयलों की लपटों में डेनवर्ग को देर तक चहलकदमी करनी थी। प्रदर्शन के लिये जोरदार विज्ञापन किया गया। अस्तु उसे देखने के लिए दूर-दूर से भारी संख्या में एकत्रित हुए लोगों से प्रदर्शन का विस्तृत मैदान खचाखच भर गया। नियत समय पर प्रदर्शन हुआ और ज्वालाओं के बीच युवक नंगे पैरों बहुत समय तक टहलता रहा। निकला तो उसके शरीर पर कहीं एक छाला भी नहीं था।
मन्त्र साधना के मना पर चल रही ठगी भी कम नहीं है। उस आड़ में धूर्तों का काला बाजार भी खूब पनपता है, इतने पर भी यह नहीं मान बैठना चाहिये कि इस क्षेत्र में तथ्य कुछ भी नहीं है। यदि गहराई में उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि साधना विज्ञान की भी अपनी उपलब्धियां हैं और उनके सहारे दिव्य क्षमताओं के अभिवर्धन की दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है।
ऐंजलोफेटीफोमी नामक 72 वर्षीय वृद्ध आदमी कार्क का कहा जाता था। कार्क की लकड़ी सबसे हल्की होती है और वह सबसे अधिक सरलतापूर्वक पानी पर तैरती रहती है। कहते हैं कि ऐंजलों में भी कुछ ऐसी ही विशेषता थी। यद्यपि उसके द्वारा दिखाये गये करतबों के अवसर पर बार-बार डाक्टरों द्वारा उसके शरीर की परीक्षा की जाती रही कि आखिर उसमें ऐसी क्या अलौकिकता है जिसके कारण वह पानी पर इतने अनोखे ढंग से तैर सकता है।
कार्क का आदमी
ऐजली इटली के मोची का लड़का था। उसे पानी पर तैरने का भारी शौक था। उसके बाप ने इसके लिए उसे रोका, न मानने पर एक दिन तो उसकी बुरी तरह पिटाई भी करदी। लड़का भाग खड़ा हुआ। तब वह दस वर्ष का था। उसने पानी के जहाज पर एक छोटी-सी नौकरी प्राप्त करली और बाप से छिपकर अमेरिका के लिए रवाना हो गया।
जहाज अपने रास्ते चला जा रहा था कि एक तट पर कोई व्यक्ति डूबता-उतराता अपनी प्राणरक्षा की गुहार कर रहा था। ऐजली से यह न देखा गया और वह अपने जहाज पर से धमाक से अथाह समुद्र में कूदा और देखते-देखते उस डूबते व्यक्ति तक तीर की तरह तैरता हुआ पहुंचा और 200 पौंड भारी उस आदमी को घसीट कर यथास्थान पहुंचा दिया। जहाज के नाविक लड़के के इस दुस्साहस पर क्षुब्ध थे। उन्होंने नाव खोली और उसे बचाने के लिए तैयारी की तब तक अपना काम निपटाकर ऐटली वापिस आ गया और रस्से के सहारे चढ़कर अपनी जगह पर पहुंच गया। नाविक स्तब्ध थे कि यह लड़का क्या है कमाल है।
आगे चलकर उसकी जल तरण सिद्धि अमेरिका भर में एक जादू-चमत्कार की तरह देखी जाती रही उसने ही दुस्साहस भरे सार्वजनिक प्रदर्शन किये, जिनकी चर्चा उन दिनों प्रायः सभी अखबारों में भरी रहती थी। जल की सतह पर बिना हाथ-पैर हिलायें घंटों आराम से तैरते रहना इसके लिए साधारण काम था। कुर्सी के साथ रस्सों से बांधकर गहरे पानी में फेंका जाना, हाथ पैरों से मनों लोहे का वजन बांधकर पानी में डाल दिया जाना, इस पर भी लगातार 15 घन्टे तैरते रहना बोरे में सीकर भारी वजन बांधकर नदी में प्रवाहित कर दिया जाना ऐसे कृत्य थे जिसे देखने वाले यही सोचते थे कि अब उस का बच सकना असम्भव है, फिर भी जल से वह गेंद की तरह उछलता कूदता बाहर निकला तो उसे कार्क का बना आदमी कहा जाने लगा और न्यूयार्क वर्ल्ड जैसे अखबारों ने उसके करतबों को दांतों तले उंगली दबाने जैसे आश्चर्य बताया।
इस तरह के सभी उपलब्ध उदाहरणों को प्रकाशित करने के लिए दस हजार पृष्ठों का ग्रन्थ भी अपर्याप्त रहा होगा। प्रश्न यह है कि इन विलक्षणताओं, अद्भुत उदाहरणों का मूल कारण क्या है? उत्तर एक ही है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा का पुत्र अनन्त संभावनाओं और अटूट शक्तियों का भण्डार है। ये उदाहरण जहां उसकी शक्तिमान सम्भावनाओं के द्योतक हैं, वहीं यह भी सिद्ध करते हैं कि मानवी काया में इतनी विलक्षणताओं को भरने वाली व्यवस्था सत्ता कितनी महान और विराट होगी।