ईश्वर कौन है कहाँ है कैसा है

अद्भुत शरीर और अद्भुत उसकी रचना

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ईश्वर के अस्तित्व की कल्पना किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में नहीं की जा सकती जो अपने अधीनस्थों को आदेश निर्देश देता हो, उन्हें किसी कार्य को सम्पन्न करने का तौर तरीका बताता हो अथवा किन्हीं क्रिया-कलापों में हस्तक्षेप करता हो। वस्तुतः ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। उसके अस्तित्व को व्यक्ति के रूप में प्रमाणित भी नहीं किया जा सकता। उसके अस्तित्व का दर्शन, सत्ता का अनुभव एक नियम व्यवस्था के रूप में ही किया जा सकता है जिसके अनुसार यह सारा जगत चल रहा है।

स्थूल से सूक्ष्म की ओर उतरते हुए उस नियम व्यवस्था को जीवंत और ज्वलंत रूप में देखा जा सकता है। स्थूल की व्यवस्था और क्रमबद्धता को भी गम्भीरता पूर्वक निरीक्षण करते हुए जाना समझा जा सकता है। किसी भी पदार्थ का गहरी दृष्टि से पर्यवेक्षण करने पर सहज ही उसके सौन्दर्य व वैभव को जाना समझा जा सकता है। दूर जाने की जरूरत नहीं। सबसे समीपवर्ती पदार्थ अपने शरीर पर ही दृष्टि डालें और उसकी ऊपरी परत चमड़ी को निहारें तो स्थूल और सूक्ष्म के अन्तर को समझ सकना सम्भव हो सकता है। चमड़ी ऊपर से देखने में एक भूरे प्लास्टिक की थैली जैसी लगती है जिसके भीतर सड़ा-गला, कूड़ा-कबाड़ा मात्र भरा हुआ है। किन्तु उसी को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि इसमें झिल्ली की पतली परत में कितने बड़े कल-कारखाने जैसी हलचलें हो रही हैं।

हमारी त्वचा के तीन हिस्से हैं—(1) ऊपरी चमड़ी (2) भीतरी चमड़ी (3) हड्डी के ऊपर के ऊतक। ऊतकों वाली परत में रक्त-वाहनियां, तन्त्रिकाएं और बसा के कण होते हैं। एक वर्ग इंच त्वचा में लगभग 72 फुट लम्बाई वाला तन्त्रिका जाल बिछा रहता है और इतने ही स्थान की रक्त-वाहिनी नलिकाएं 12 फुट से अधिक ही लम्बी होती है। ये रक्त-वाहनियां शीत-ताप नियन्त्रक होती हैं। ठण्ड में सिकुड़ जाती हैं, और गर्मी में फैल जाती हैं। सर्दी में सिकुड़ने से कम ताप खर्च होती है और शरीर का ताप सामान्य बना रहता है। गर्मी में फैलने पर ताप के अधिक व्यय से यही सन्तुलन बना रहता है। वाहनियों, तन्त्रिकाओं और वसा के कणों के ही कारण चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती हैं। आयु वृद्धि के साथ-साथ जब वसा-कण सूखने लगते हैं, तो चमड़ी झुर्रीदार होती जाती है। भीतरी चमड़ी में तन्त्रिकाओं, रक्त-वाहनियों के साथ ही पसीने की ग्रन्थियां, स्निग्धता की ग्रन्थियां और रोमकूप होते हैं। तन्त्रिकाएं त्वचा स्पर्श से उठी अनुभूति तरंगें, टेलीफोन के तार की तरह मस्तिष्क तक पहुंचती हैं और मस्तिष्कीय निर्देश—सन्देश विभिन्न अवयवों तक ले जाती है।

लगभग 2 लाख स्वेद ग्रन्थियां शरीर के हानिकारक पदार्थों को पसीने के रूप में निकालती रहती हैं। पसीना निरन्तर रिसता रहता है। भले वह दीखता बूंदों के रूप में बाहर जाने पर ही है। पसीने के रूप में सतत रिसती गन्दगी की परत चमड़ी पर जमने लगती है। स्नान द्वारा उसकी सफाई जरूरी है। सफाई न होने पर स्वेद बहाने वाले छेद बन्द हो जाते हैं और यही दाद, खाज, जुएं आदि विकारों का कारण बनता है।

चमड़ी के नीचे हैं मास-पेशियां। मांस-पेशियां सुदृढ़ व सन्तुलित रहीं तो स्वास्थ्य और सौन्दर्य झलकता है। फैली, सूखी, बेडौल हुई तो शरीर कुरूप हो जाता है। अनावश्यक आराम अथवा अत्यधिक श्रम, दोनों ही मांस-पेशियों को अशक्त और बेडौल बनाते हैं। शरीर के सभी अवयवों को समुचित श्रम का अवसर मिलने से वे सुडौल रहती हैं। श्रम-सन्तुलन ही व्यायाम है। मांस-पेशियों की बनावट और भार के आधार पर ही व्यक्ति पतला या मोटा दिखता है।

मांसपेशी बारीक तन्तुओं से मिलकर बनती हैं। ये बारीक तन्तु अपने से एक लाख गुना भार उठाने में समर्थ होते हैं। मांसपेशियों में तीन चौथाई पानी और एक चौथाई प्रोटीन होता है।

मांसपेशियां सीधे मस्तिष्क द्वारा नियन्त्रित होती हैं। कुछ मांसपेशियों की गतिविधियां हमें अनायास ही चल रही दीखती हैं, स्वयं संचालित-सी। जैसे फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, हृदय का धड़कना, रक्त का दौड़ना, पलकों का झपकना, भोजन का पचना और मल का बाहर निकलता आदि। ये क्रियाएं अनायास नहीं होतीं, बल्कि हमारे अचेतन मन के अधीन होती हैं। शेष मांसपेशियां सचेत मन के द्वारा नियन्त्रित—निर्देशित दिखती हैं।

मांसपेशियों को प्रशिक्षित अनुशासित किया जा सकता है। नृत्य, सर्कस आदि में यह प्रशिक्षण व अभ्यास ही काम आता है। उछलना, कूदना, मुड़ना आदि हरकत मांसपेशियों की लोच के कारण ही सम्भव होती हैं। इन्हीं लोचदार मांसपेशियों के कारण चोट लगने पर भी हमारी हड्डियां प्रायः बच जाती हैं। वरना वे चाहें जब टूट जाएं। पुरुषों की पेशियां स्त्रियों से अधिक कड़ी व दृढ़ होती हैं। शरीर में हाथों की पेशियां अधिक सशक्त होती हैं।

यह तो चमड़ी और उसके साथ चिपके हुए पेशी संस्थान की बात हुई, इससे नीचे के अवयव कितनी विचित्र हलचलों में अहर्निश लगे रहते हैं। गुर्दे और जिगर के दो अवयवों पर शरीर शास्त्रानुमोदित आरम्भिक ज्ञान स्तर की दृष्टि डालकर भी इसकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अवयवों में सबसे छोटे पुर्जे हैं—दो गुर्दे। वे रीढ़ की हड्डी से सटे, भूरे-कत्थई आकार के—मुट्ठी के बराबर, देखने में ऐसे लगते हैं मानो सेम के बड़े बीज हों। वजन डेढ़ सौ ग्राम—मुख्य काम मूत्र-निर्माण। अर्थात् रक्त का अनावश्यक एवं गन्दगी भरा जल छांट-छांटकर अलग करना और बाहर निकालना। बांई ओर का गुर्दा थोड़ा ऊपर होता है और दांई ओर का थोड़ा नीचे, ताकि सामान्य क्रियाकलाप में कोई कठिनाई न हो। प्रत्येक गुर्दा 4 इन्च के करीब लम्बा 2।। इन्च चौड़ा और दो इंच मोटा होता है। रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि की मात्रा बढ़े न क्योंकि इनके बढ़ने का शरीर पर गलत असर पड़ेगा, इसके लिए गुर्दे सदा सतर्क रहते हैं। ये रक्त में क्षारीय और अम्लीय अंश को भी सन्तुलित रखते हैं। एक घण्टे में दोनों गुर्दे इतना रक्त छानते हैं कि वजन लेने पर उसका भार शरीर से दुगुना निकले। इस तरह गुर्दे छलनी का काम करते हैं। छाने हुए रक्त का उपयोगी अंश गुर्दों की नलिकाएं रोक लेती हैं। इन नलिकाओं की संख्या 10 लाख से अधिक होती है, यदि इन्हें लम्बाई में एक कतार में फैलाया जाय तो ये 110 किलोमीटर लम्बी निकलेंगी। नलिकाएं रक्त से छाने हुए विटामिन, शर्करा, हारमोन्स और अमीनो अम्ल तो रक्त को वापस दे देती हैं और नमक तथा अन्य विजातीय द्रव्यों को गुर्दे शरीर के बाहर कर देते हैं। अनावश्यक नमक यदि शरीर में ही रुक जाय, तो सूजन शुरू हो जाए। प्रतिदिन दो लीटर मूत्र बनाकर गुर्दे नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्यूरिक एसिड, नाइट्रोजन आदि की अनावश्यक मात्रा शरीर के बाहर धकेलते रहते हैं। मूत्र सामान्यतः हल्का पीला होता है। दोनों गुर्दों में परस्पर सहयोग का क्या कहना? एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका भार स्वयं संभालकर पूरी तरह दायित्व का निर्वाह करता है।

इसी तरह का एक अन्य छोटा पुर्जा है—जिगर। स्त्रियों का जिगर पुरुषों से थोड़ा हल्का होता है। पुरुषों का जिगर सामान्यतः सवा से डेढ़ किलोग्राम रहता है। जिगर दाहिनी पसलियों के नीचे तनुपट से सटा रहता है और शरीर का एक चौथाई रक्त इसमें ही भरा होने से भूरे, लाल रंग का दीखता है तथा टटोलने में कठोर लगता है। इस जिगर की कोशिकाएं विलक्षण हैं। एक बार नष्ट होने पर वे दुबारा बन जाती हैं। इसी से जिगर का तीन चौथाई हिस्सा नष्ट भी हो जाय तो शेष एक चौथाई से काम चल सकता है। कुपोषण के कारण जिगर का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता और पाचन सम्बन्धी अनेक रोग हो जाते हैं। सन्तुलित आहार द्वारा इन्हें पर्याप्त प्रोटीन मिला तो ये स्वस्थ रहते हैं। प्रोटीन की कमी से कमजोर हो जाते हैं।

गुर्दे और जिगर की सामान्य हलचलें भी यों कम आश्चर्यजनक नहीं हैं, पर जब उनके सहयोग से चलने वाले शरीर सन्तुलन की बात सोचते हैं तो प्रतीत होता है उनका जीवन धारण में कितना अधिक महत्व है। समझने को तो हृदय और मस्तिष्क को जीवन का आधार कहा जाता है। किन्तु उसकी सत्यता को चुनौती दिये बिना यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त दो पुर्जों में तनिक भी खराबी आ जाय तो दुर्बलता, रुग्णता तथा मरण की परिस्थिति आ धमकने में तनिक भी देर न लगेगी। दोनों समूचे शरीर के आधार-भूत रक्त-संस्थान को स्वच्छ, स्वस्थ और सशक्त रखने की आधार-भूत भूमिका निबाहते हैं। पर सामान्यतया उनका क्रिया-कलाप कोई अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता।

बाल जैसी निर्जीव तथा जीवन में सैकड़ों बार काटकर फैंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में विशिष्ट और अनुपम है। रोम-कूपों से बाल निकलते हैं। ये रोमकूप खोपड़ी की ऊपरी चमड़ी से भीतर लगभग एक तिहाई इंच धंसे होते हैं। वहीं से बाल अपना पोषण करते हैं। सामान्यतः मनुष्य के सिर में 1 लाख 20 हजार बाल होते हैं। ये महीने में तीन चौथाई इंच बढ़ते हैं। पर क्रमशः इनकी वृद्धि-दर घटती ही जाती है। लगातार दो वर्ष तक बढ़ने के बाद सामान्यतः बालों का बढ़ना रुक जाता है। 1।। वर्ष से लेकर 6 वर्ष तक एक बाल की उम्र होती है। उम्र पूरी होने के बाद वह जड़ से टूट जाता है और उसकी जगह नया बाल निकल आता है।

बाल सदा तिरछे निकलते हैं। पर कड़ाके की ठण्ड में या डर के मारे अथवा रोमांच होने पर बाल खड़े हो जाते हैं। बालों की जड़ों में छेदों द्वारा चिकनाई पहुंचती है। रोमकूपों से जितनी स्निग्धता निकलेगी, बाल उतने ही कोमल और चिकने होंगे। पेट या दांत खराब होने पर यह स्निग्धता नहीं निकल पाती और बाल उम्र से पहले सफेद होने लगते हैं। वृद्धावस्था में रोमकूप शुष्क होने लगते हैं, तब बालों की श्यामलता सफेदी में बदलने लगती है।

बालों का मूल्यांकन यों शोभा, श्रृंगार के निमित्त ही किया जाता है और उनकी साज-संभाल में इसी तथ्य को प्रश्रय दिया जाता है कि चेहरे की सुन्दरता पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है? स्थूल दृष्टि से नीचे उतर कर उनके साथ जुड़े हुए वसा एवं प्रोटीन प्रक्रिया की परिस्थिति को समझा जा सके तो वे मीटरों की तरह मशीन की भीतरी स्थिति का परिचय देते पाये जायेंगे। इतना ही नहीं उनके सहारे मस्तिष्कीय स्तर तथा भावनाओं के उभार का भी पता चल सकता है। पंच केश रखाने तथा उनका मुण्डन करा डालने की आध्यात्मिक परम्पराओं के पीछे मनःसंस्थान को अमुक दिशा में मोड़ने-मरोड़ने के लिए सारगर्भित प्रयत्न किया जाता है।

बात चमड़ी, मांसपेशी, गुर्दे, जिगर या बालों की विवेचना करने की नहीं, वरन् यह बताने की है कि मोटी दृष्टि से इनका कोई महत्व प्रतीत नहीं होता, पर उनकी कार्यक्षमता और उपयोगिता कितनी अधिक है यह समझना तब सम्भव होता है जब उनके विकृत हो जाने पर उत्पन्न होने वाले विग्रहों की विभीषिका सामने आती है।

अवयवों की विवेचना तो बड़ी बात है उनकी सबसे छोटी इकाई ‘जीवाणु’ का यदि पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि जिस प्रकार जड़ ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व छोटा-सा परमाणु करता है ठीक उसी प्रकार चेतना जगत को समस्त हलचलें जीवाणु के भीतर मौजूद हैं। परमात्मा की प्रतीक प्रतिमा जीवात्मा है। समूचा मनुष्य अपने वंशजों की असंख्य परम्पराओं को समेटे हुए छोटे से शुक्राणु में बैठा रहता है। शुक्राणु भी बड़ी बात हुई उसके भीतर पाये जाने वाले अति सूक्ष्म गुण सूत्रों की स्थिति और भी अधिक चकित करने वाली है। उसमें व्यक्तित्व की असंख्य धाराओं का—स्तरों का ऐसा संगम है कि लगता है स्थूल जीव वृक्ष के मूल में इस बीज सत्ता का ही प्रभाव और कर्तृत्व परिलक्षित हो रहा है।

मनुष्य और जीवन क्या है?

मनुष्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान के पास बहुत ही साधारण है, उसे सही मान लेने पर मानवी सत्ता अत्यन्त तुच्छ और उपहासास्पद बन जाती है। रसायन शास्त्रियों की दृष्टि में मानव शरीर अनेक रासायनिक यौगिकों का सम्मिश्रण है। यह यौगिक प्रायः पन्द्रह तत्वों से बने हैं, ये हर दिन खर्च होते हैं और नये आधारों से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार आय-व्यय का सन्तुलन बना रहता है।

केमिस्ट्री आफ मेटिरियल्स के अनुसार शरीर को सौ इकाई का मानकर उसमें तत्वों का प्रतिशत अनुपात इस प्रकार बताया गया है। (1) ऑक्सीजन 65% वायु और जल से प्राप्त, (2) हाइड्रोजन 10% पानी से प्राप्त इस प्रकार 75% जीवन साधन वायु और जल से प्राप्त हो जाते हैं। भोजन से कुल मिलाकर 25% आवश्यकतायें पूरी होती हैं। इनका विवरण इस प्रकार है। (3) कार्बन 18%, (4) नाइट्रोजन 3%, (5) कैल्शियम 2%, (6) फास्फोरस 1%, (7) पोटेशियम 0.35%, (8) सल्फर 0.25%, (9) सोडियम 0.15, (10) क्लोरीन 0.15%, (11) मैग्नेशियम 0.5%, (12) लोहा 0.4, (13) आयोडीन, फ्रलेरिन, सिलीक्रम तीनों मिलाकर 0.46 प्रतिशत कुल योग सौ।

उपयुक्त तत्वों और योगिकों की आवश्यकता पूरी करने के लिये (1) प्रोटीन, (2) कार्बोहाइड्रेट-अन्न, (3) फैट-चिकनाई, (4) विटामिन, (5) साल्ट-लवण, (6) मिनरल-खनिज, (7) जल की जरूरत पड़ती है। यह पदार्थ किसी को मिलते रहें तो समझना चाहिये उसकी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इससे आगे जीवन निर्वाह के लिये और कुछ करना नहीं है।

आर्थिक विश्लेषण के अनुसार मनुष्य का मूल्य और भी कम है। 10 गैलन पानी, 7 साबुन की टिक्की बन सकें इतनी चर्बी, 900 पेन्सिलें बन सकने जितना कार्बन, 10 डिब्बी माचिस बन सकने जितना फास्फोरस, 1 छोटी सी कील बन सकने जितना लोहा, 1 कुत्ते के जूयें मर सकने जितना गन्धक, 1 मुर्गी का दरबा पोत सकने जितना चूना, 22 सेर बर्फ पिघला सकने जितनी गर्मी, 3 गुब्बारे उड़ाने के काम का हाइड्रोजन तथा ऐसी ही कुछ और स्वल्प मूल्य की वस्तुयें इस शरीर में हैं जिनकी बाजारू कीमत अधिक से अधिक पांच रुपया हो सकती है। उसकी ‘फेस वेल्यू’ बाजारू कीमत नहीं के बराबर है। वस्तुतः कीमती तो उसका यथार्थ मूल्य इट्रिंसिक वैल्यू ही है। यों नोट की फेस वैल्यू दो-चार पैसे और उसकी इट्रिंसिक वैल्यू छपे रुपये के बराबर होती है, पर मनुष्य के बारे में यह बात उलटी है उसका दृश्य मूल्य कुछ नहीं वास्तविक, आन्तरिक, चेतनात्मक मूल्य ही सब कुछ है।

जीवन क्या है? इसकी व्याख्या करते हुए रसायनशास्त्र हमें क्रोमोसोम-जीव, न्यूक्लियोटाइड, आक्सीराइवो न्यूक्लिक एसिड जैसे वृक्ष पादपों से घिरे सघन वन में ले जाकर खड़ा कर देता है, पर यह नहीं बताता कि वह मूल सत्ता क्या है? जो विभिन्न स्तर के डी.एन.ए. बनाती है और उन्हें एक दूसरे से नहीं बदलने देती।

जीवाणु विज्ञानी कहते हैं जिस प्रकार पदार्थ परमाणुओं का समुच्चय है, उसी प्रकार शरीर जीवाणुओं का सहकार मण्डल है। पर वे जीवाणु तो जादुई गति से जन्मते-बदलते और मरते हैं। इस परिवर्तन का प्रभाव जीव की रीति नीति बदलने के रूप में क्यों दृष्टिगोचर नहीं होता, इसका उत्तर जीव विज्ञानियों के पास भी नहीं है।

जीवशास्त्र के अनुसार प्रौढ़ावस्था के मनुष्य शरीर में प्रायः 60 खरब कोशिकायें होती हैं। इनमें से प्रति सैकिण्ड लगभग 5 करोड़ मर जाती हैं और उतनी ही नई उत्पन्न होती हैं। जब तक उत्पन्न होने का क्रम बढ़ा-चढ़ा और मरने का क्रम हलका रहता है तब तक शरीर विकसित होता है जब दोनों क्रम समान रहते हैं तो स्थिरता रहती है और जब नष्ट होने की गति तीव्र तथा उत्पन्न होने की मन्द हो तो फिर वृद्धता आ घेरती है और उसकी ओर अधिक बढ़ोत्तरी अशक्तता, रुग्णता को बढ़ाते-बढ़ाते मृत्यु के दरवाजे पर पहुंचा देती है।

परमाणु विज्ञान के अनुसार जड़-परमाणु विशेष स्थिति में जीवन जैसा आचरण करता है और पीढ़ी पर पीढ़ी अपनी रीति-नीति अक्षुण्ण बनाये रहता है।

परमाणु की संघटना से जड़ चेतन पदार्थों की रचना मानी जाती है, परमाणुओं को पदार्थ की सबसे छोटी दृश्यमान इकाई माना जाता है, पर अब विकसित विज्ञान ने इससे आगे के तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है। वस्तुतः इस विश्व में शक्ति की सत्ता ही ओत प्रोत हो रही है। उस शक्ति महासागर में हिलोरें उठती रहती हैं उन्हें तरंगों का स्वरूप मिलता है। इन तरंगों की विभिन्न आवृतियां —फ्रीक्वेन्सी होती हैं। तरंगों की हलचलें, प्रकाश एवं शब्द उत्पन्न करती हैं। वे दोनों परस्पर उलझते-सुलझते विविध विधि अणु परमाणुओं के रूप में, बादलों की बनती बिखरती आकृतियों के रूप में सामने आते हैं। वस्तुतः परमाणुओं को ‘कण’ नाम दिया जाना गलत है उन्हें शक्ति तरंग भर कहा जाना चाहिये। उनका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है किन्तु भ्रम ऐसा ही होता है कि अणु स्वतंत्र सत्ताधारी है।

डॉ. एच.एस. वर ने अपने साथियों सहित प्राणियों की जिस जैविक विद्युत् के शास्त्र की संरचना की है, उसमें प्राणिज विद्युत् का आधार एवं क्रिया-कलाप भौतिक बिजली से भिन्न है। वे प्राणिज विद्युत में इच्छा और बुद्धि का सम्मिश्रण भी मानते हैं भले ही वह कितना ही झीना क्यों न हो। इसी प्रवाह के कारण प्राणिज विद्युत अपने-अपने क्षेत्र में विशेष परिस्थितियों एवं साधनों की संरचना करती है। प्राण चुम्बकत्व पदार्थ में से अपने उपयोगी भाग को खींचता है—उसे अपने ढांचे में ढालता है और इस योग्य बनाता है कि चेतना के स्वर में अपना ताल बजा सके। किस प्राणी के डिम्ब से किस आकृति प्रकृति का जीव उत्पन्न हो इसका निर्धारित-मात्र रासायनिक संरचना के आधार पर नहीं हो जाता वरन् यह निर्धारित रज और शुक्र कीटों के भीतर भरी हुई चेतना के द्वारा होता है। उसी चुम्बकत्व से भ्रूण में विशिष्ट स्तर के प्राणियों की आकृति एवं प्रकृति ढलना शुरू हो जाती है। यदि ऐसा न होता तो संसार में पाये जाने वाले समस्त प्राणी प्रायः एक ही जैसी आकृति-प्रकृति के उत्पन्न होते क्योंकि अणुओं का स्तर प्रायः एक ही प्रकार का है। उनमें जो रासायनिक अन्तर है उसके आधार पर कोटि-कोटि वर्ग के प्राणी उत्पन्न होने और उनकी वंश परम्परा चलते रहने की गुंजाइश नहीं है। अधिक से अधिक इतना ही हो सकता था कि कुछ थोड़ी सी—कुछ थोड़े से अन्तर की जीव-जातियां इस संसार में दिखाई पड़तीं। वंश परम्परा और जीव विज्ञान का जो स्वरूप सामने है उनमें प्राणि चुम्बकत्व की अपनी विशिष्ट भूमिका है।

अणु विज्ञान के आचार्य नोबुल पुरस्कार विजेता डा. हैरल्ड सी. उरे का कथन है कि अकार्बनिक पदार्थों के कार्बनिक पदार्थ में बदल जाने का कारण एमीनो ऐसिड है। इस रसायन के परमाणुओं का निर्माण कार्बन ऑक्सीजन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन के विशिष्ट संयोग से हुआ है। इस विचित्र संयोग के कारण बना यह रसायन जड़ को चेतन में बदलने की भूमिका प्रस्तुत करता है।

डा. हैरल्ड के अनुसार पृथ्वी का आदिम वायु मण्डल अमोनिया, मीथम हाइड्रोजन से भरा था उसमें ऑक्सीजन की मात्र कम थी। जब स्थिति बदली और ऑक्सीजन की वृद्धि हुई तो एमीनो ऐसिड उत्पन्न हुआ और जड़ पदार्थों ने चेतन बनने की हलचलें आरम्भ कर दीं।

यह व्याख्याएं नितान्त अधूरी हैं। इनमें केवल जीव की प्राण प्रक्रिया का विद्युतीय हलचलों का विवरण मिलता है, पर मूल प्रश्न का उत्तर इनसे नहीं मिलता। पदार्थ की एक नियत निर्धारित गति होती है मानवी चेतना में जो रुचि, इच्छा, आकांक्षा, भावना की भिन्नता पाई जाती है और पल-पल पर बदलती रहती है, भावुकता के उभार उसे चित्र-विचित्र अनुभूतियों का रसास्वादन कराते हैं, यह सब क्या है? इसका उत्तर परमाणुशास्त्र दे नहीं पा रहा है।

ऊर्जा विज्ञान जीवन को शक्ति समुच्चय बताता है। ध्वनि, प्रकाश चुम्बक की तरह है, ताप भी एक प्रचण्ड शक्ति है। प्राण उस ताप का ही एक विशिष्ट परिपाक है। शरीर में जो गर्मी पाई जाती है वही जीवन है। ठण्डा होते ही प्राण मर जाता है। अस्तु ताप की एक विचित्र प्रक्रिया को जीवन धारा कहा जा सकता है। शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों के पीछे ऊर्जा विज्ञान नियत स्थानों पर, नियत धातुओं में नियत प्रकार की ऊर्जा को ही कारण मानते हैं।

उनके कथनानुसार स्वस्थ मनुष्य का सामान्य तापमान 36.6 अंश शतांश होता है। रक्त में शर्करा 0.1 प्रतिशत रहती है और सामान्य रक्तचाप 100, 140 मिलीमीटर (मक्युर कालम) तक होता है।

भीतरी तापमान 36.6 अंश रहता है किन्तु बाहरी त्वचा की गर्मी 33 अंश से अधिक नहीं होती। यदि बाहरी तापमान 33 से नीचे न गिरे और 45 से अधिक न बढ़े तो भीतरी तापमान की स्वाभाविक स्थिति से शरीर का सामान्य क्रिया-कलाप ठीक प्रकार चलता रहता है।

शरीर की मांसपेशियां आवश्यक ऊष्मा पैदा करती रहती हैं। शरीर 24 घन्टे में 160 से 180 लाख कैलोरी ऊष्मा बाहर फेंकता है। बिजली का सामान्य घरेलू हीटर भी प्रायः इतनी ही गर्मी पैदा करता है। रक्त की गर्मी शरीर की ऊष्मा का सन्तुलन बनाये रहती है। जब गर्मी की मात्रा बढ़ जाती है तो रक्त तेजी से शरीर में दौड़ने लगता है, और आवश्यक गर्मी बाहर फैंक देता है। किन्तु जब सर्दी होती है तो वह शरीर से ही ऊष्मा का संचय करने लगता है।

प्रातःकाल का तापमान प्रायः 36 डिग्री पाया जाता है जब कि सायंकाल का 37.5 डिग्री तक जा पहुंचता है। दिन की अपेक्षा रात को तापमान कुछ घटा हुआ रहता है। रीढ़ की हड्डी के ऊपर मस्तिष्क के नीचे शरीर का ताप नियन्त्रक केन्द्र है। वहां से शरीर की आवश्यकतानुसार ताप को न्यूनाधिक किया जाता है। यदि इस केन्द्र को कृत्रिम रूप से उलटा प्रभावित कर दिया जाय तो घोर गर्मी में भी सर्दी की कंपकंपी छूटेगी और घोर सर्दी में भी जेठ की दुपहरी जलती अनुभव होगी।

जीवन का अस्तित्व ह्रास

कुछ समय पूर्व जब वैज्ञानिक यह मानते थे कि जीवन या चेतना शरीर बनाने वाले कोशों (सेल्स—शरीर का वह छोटे-से छोटा टुकड़ा जिसमें जीवन के सभी लक्षण मौजूद हों। की रासायनिक चेतना के अतिरिक्त कुछ नहीं है, पर सजीव और निर्जीव कोशों (सेल्स) के विस्तृत अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों की उक्त धारणा भी नष्ट हो चुकी है और अब जो सिद्धांत सामने आये हैं वह इस बात के साक्षी हैं कि मनुष्य के शरीर में भरी हुई चेतनता को स्थिर रखने में कोशों की रासायनिक प्रक्रिया सहायक तो हो सकती है पर वही आत्म चेतना हो, यह नितान्त भ्रममूलक है।

जीवित कोश जिस रासायनिक पदार्थ से बने होते हैं उसे ‘प्रोटोप्लाज्मा’ कहते हैं। पर कोश का सम्पूर्ण भाग प्रोटोप्लाज्म ही नहीं होता। प्रोटोप्लाज्म एक प्रकार का तरल द्रव्य होता है, वह एक स्थान पर कुछ गाढ़ा और कुछ कड़ा-सा हो जाता है। इस स्थान से ही ‘प्रोटोप्लाज्म’ में रासायनिक हलचल के लिये स्पन्दन निकलते रहते हैं। यह कहना चाहिये कि प्रोटोप्लाज्म का जीवन इस केन्द्रक पर आधारित है। इस केन्द्रक (न्यूक्लियस) के बीच में एक और गोला होता है, उसे केन्द्रिका (न्यूक्लियस) कहते हैं। इसके अतिरिक्त कोश में आकर्षण मण्डल, आकर्षण बिन्दु, कोशिका आवरण और शून्य स्थान (वक्यूओल) भी होते हैं। पर मुख्य रूप से सम्पूर्ण कोश में यह केन्द्रक ही चेतना का मूल बिन्दु है। एक कोशीय जीव अमीबा के विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि 1. गति (मूवमेन्ट), 2. उत्तेजनशीलता (इर्रिटेबिलिटी), 3. पोषण (न्यूट्रिशन) और स्वांगीकरण (एस्सिमिलेशन), 4. वृद्धि (ग्रोथ), 5. उत्सर्जन (एक्स्क्रेशन), तथा 6. जनन (रिप्रोडक्शन)। यह 6 क्रियायें केन्द्रक की इच्छा और स्पन्दन के ही परिणाम हैं। सामान्यतः इन 6 क्रियाओं के आधार पर ही मनुष्य को भी जीवित माना जाता है। केन्द्रीय रूप से शरीर की यह क्रियायें समाप्त हो जाती हैं तो मनुष्य की मृत्यु हो गई मान ली जाती है।

इन क्रियाओं को समझ लेना आवश्यक है। पहली गति—अमीबा को देखने से पता चलता है (सूक्ष्मदर्शी से यह सब देख पाना सम्भव है) कि अमीबा (जीव के रूप में एक जीवित और स्वतन्त्र कोश) अपने प्रोटोप्लाज्म की थैली में से उंगली की तरह का कुछ हिस्सा बाहर निकलता रहता है और जिधर यह भाग निकल पड़ता है उधर ही अमीबा चल पड़ता है। मनुष्य शरीर रचना जिस पुरुष बीज कोश (स्पर्म) और नारी के रज (ओवम) से मिलकर होती है वह कोश अपना विस्तार यद्यपि एक निश्चित सिद्धान्त पर करता हुआ शरीर के निश्चित बनावट अंग-प्रत्यंग बनाता है पर उनकी विकास-गति भी ठीक इसी सिद्धान्त पर काम करती है।

उत्तेजनशीलता का अर्थ है—अनुभूति या तन्मात्रा। मनुष्य शरीर में यह काम नाड़ियां (एफरेन्ट एण्ड इफरेन्ट नर्व्स) करती हैं। पर यह नाड़ी-मण्डल शरीर के सम्पूर्ण कोशों में छाया हुआ है अर्थात् प्रत्येक कोश में अमीबा के समान ही उत्तेजनशीलता होती है। अमीबा से शरीर के निकट गर्म आग, ठण्डी बर्फ, विद्युत, अम्ल, कोई वस्तु लाई जाए तो वह तुरंत पीछे भागता है। इसी गुण का नाम उत्तेजनशीलता है। शरीर में यह क्रिया झटके से उस संकट से हाथ हटाने जैसी होती है। हमारे शरीर के किसी अंग में कांटा चुभ जाए तो इसी गुण के आधार पर मस्तिष्क को सूचना पहुंचती है। देखने में यह दर्द उंगली या शरीर के किसी भी हिस्से में होगा पर उसका अनुभव मस्तिष्क कर रहा होगा अर्थात् मस्तिष्क वाली चेतना सारे शरीर में प्रत्येक कोश के केन्द्रक की तरह स्थित होकर काम करती है।

पोषण और स्वांगीकरण का अर्थ है भोज्य पदार्थ को ग्रहण करना और उसे आत्मसात करके शरीर को शक्ति देना। अमीबा प्रोटोप्लाज्म से दो चोंच-सी निकाल कर करता है। शरीर में भी पाचन क्रिया यद्यपि पेट में होती सी प्रतीत होती है पर जिस तरह अमीबा ऑक्सीजन के सहयोग से भोजन किये हुए को प्रोटोप्लाज्म में बदलता है उसी प्रकार पाचन संस्थान की सहायता से वह अन्न ही क्रमशः रस, रक्त, वीर्य, ओज में परिवर्तित होकर सारे शरीर में आत्मसात होता रहता है।

उत्सर्जन पाचन की तरह मल-विसर्जन की क्रिया का नाम है। यह अमीबा भी करता है और मल-मूत्र, थूक, पेशाब, पसीने के रूप में मनुष्य का शरीर भी।

वृद्धि का गुण भी शरीर के कोषों में ठीक अमीबा की तरह ही होता है। जिस प्रकार भोजन से अमीबा का प्रोटोप्लाज्म बढ़ता है उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी।

जनन की क्रिया भी एक अमीबा से केन्द्रक (न्यूक्लियस) सहित प्रोटोप्लाज्म के दो हिस्सों में बंट जाने के रूप में 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 इस क्रम में होती रहती है। मनुष्य में भी कोश (सेल्स) ऐसे ही बढ़ते हैं और निश्चित आकार-प्रकार वाले अंग बनाते हैं।

जब तक कोशों में यह क्रिया चलती रहती है तब तक शरीर जीवित माना जाता है। किन्तु मृत्यु घोषित हो जाने के बाद भी यह क्रियायें कुछ देर तक चलती रहती हैं। शरीर की सड़न, दुर्गन्ध, बालों का बढ़ना जैसे लक्षण इस बात के प्रमाण हैं कि शरीर की रासायनिक प्रक्रिया मृत्यु के बाद तब तक चलती रहती है, जब तक शरीर पूर्णतया सड़-गल कर नष्ट नहीं हो जाता। इसलिये चेतना को रासायनिक प्रक्रिया न मानकर एक स्वतन्त्र सत्ता ही माना जा सकता है।

इसका प्रमाण जीवित और निर्जीव कोशिका में स्पष्ट अन्तर से व्यक्त होता है। जब तक मनुष्य जिन्दा रहता है, तब तक प्रोटोप्लाज्म अत्यन्त कोमल, लसदार और निरन्तर अपना रूप बदलता रहता है—कभी फेन की तरह दिखाई देता है कभी मरुस्थल की चमक के समान। किन्तु मृत अवस्था में उसकी वह चमक समाप्त हो जाती है और वह उबले हुए अण्डे की सफेदी के समान हो जाता है। इस अन्तर के कारण ही वैज्ञानिक भी असमंजस में हैं और वह भी पूर्णतया मानने को तैयार नहीं होते कि शरीर की रासायनिक क्रिया ही जीवन है।

इसके विपरीत सन्त हरिदास जैसे योगियों ने समाधि लगाकर यह सिद्ध कर दिया है कि चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व है और उसे ऐच्छिक ढंग से शरीर से निकाला और प्रविष्ट कराया जा सकता है। इसका एक और उदाहरण है—इंग्लैंड के कर्नल टाउनशेड। उन्होंने अपनी इच्छा-शक्ति पर इतना तीव्र नियन्त्रण प्राप्त किया था कि वे जब भी चाहते थे, अपने प्राण शरीर से निकाल लेते थे और कुछ देर बाहर रहकर फिर उसमें प्रवेश कर जाते थे। इसी आधार पर उन्होंने जीवन को शरीर की रासायनिक प्रक्रिया से भिन्न अस्तित्व प्रतिपादित किया था।

एक बार 3 सरकारी डाक्टरों के सम्मुख उन्होंने प्रयोग किया। अपने शरीर से उन्होंने सारी चेतना को समेट लिया। इसके बाद डाक्टरों ने सारी परीक्षायें कर लीं और शरीर को पूर्ण मृत पाया। हृदय, नाड़ी, रक्त-संचालन की सारी क्रियायें बन्द हो गई। शरीर बिल्कुल ठण्डा पड़ गया। थोड़ी देर बाद फिर अपने शरीर में आ गये और फिर शरीर अपनी सामान्य स्थिति में आ गया। यह डाक्टरों के सामने एक चुनौती थी। उन्हें मानना ही पड़ा कि जीवात्मा सचमुच ही शरीर से पृथक कोई अन्य तत्व है।

मनुष्य का शरीर जिन छोटे-छोटे कोशों (सेल्स अर्थात् मनुष्य शरीर जिस प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित पदार्थ से बना है, उसका सब से छोटा टुकड़ा) से बना है उसकी लघुता की कल्पना नहीं की जा सकती। उसके भीतर उससे भी सूक्ष्म कण विद्यमान हैं। उदाहरण के लिये परमाणु का व्यास .0000001 मिमी. है तो उसके केन्द्रक का व्यास .00000000001 मिमी. होगा। अब इस केन्द्रक में भी एक विशेष प्रकार की रासायनिक बनावट होती है, जिसे क्रोमोसोम या गुण सूत्र कहते हैं। रासायनिक भाषा में इसे ही डी.एन.ए. कहते हैं। उसकी आकृति मरोड़ी हुई सीढ़ी के समान होती है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस ‘डी.एन.ए.’ में सारे संसार भर का दृश्य श्रव्य और ज्ञान भरा हुआ है। एक केन्द्रक की डी.एन.ए. में जो भाषा अंकित होती है उसमें 1 अरब अक्षर होते हैं, जबकि सम्पूर्ण शरीर में 600 खरब कोशिकायें होती हैं। यदि 600 खरब कोशों में अक्षर खोदे जायें तो अकेले मनुष्य शरीर में ही 60 खरब×1 अरब अर्थात् 600 खरब अक्षर आ जायेंगे। फ्लशिंग मेडो (न्यूयार्क का वह स्थान जहां दोनों टाइम कैप्सूल जमीन में गाढ़े गये हैं) में गाड़ी गई इस पिटारी में जबकि कुल 1 करोड़ अक्षर ही थे। तब यह मानना चाहिये कि मनुष्य शरीर में तो ऐसी 60 खरब पिटारियों का ज्ञान भरा होना चाहिए।

कोश (सेल) जिस प्रकार ज्ञान, गुण और संस्कारों से मुक्त नहीं उसी प्रकार वह पदार्थ से रहित भी नहीं रह सकता जबकि पदार्थ कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं, ब्रह्माण्ड का गुण मात्र है। इसलिए यह समझने में कोई दिक्कत नहीं कि शरीर रूपी पिटारी में ज्ञान-विज्ञान के अनादि स्रोत ही नहीं, पदार्थ की स्थूल संस्कृतियां भी निश्चित रूप से बन्द हैं। जमीन में गाड़े गये टाइम कैप्सूल तो कभी खराब भी हो सकते हैं, मनुष्य शरीर जैसा कैप्सूल तो हर किसी के लिये हर समय उपलब्ध है। विज्ञान जहां आज ब्रह्माण्ड में पहुंच के अनेक रहस्य खोल रहा है, वहां उसकी उपलब्धियां और इस तरह के प्रमाण इस बात के साक्षी हैं कि मनुष्य पदार्थमय जगत् के विस्तार में जो कुछ पाना चाहता है वह सब बीज में उसके भीतर ही बन्द है, इसके लिये अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं।

यह सब एक सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में क्यों नहीं आता, विज्ञान अथवा योगियों की दृष्टि में ही यह सब क्यों है? यह एक प्रश्न है, इसका उत्तर और योग दोनों का एक ही है। वह यह कि सूक्ष्मतर अवस्था में पहुंचने के लिये अपनी इन्द्रियों को भी सूक्ष्म बनाना होगा। टाइम कैप्सूल में वह सब यन्त्र रखे गये हैं, जिनकी मदद से पिटारी में बंद सभी वस्तुओं को कभी भी खोलकर जानकारी प्राप्त की जा सकती है, उसी प्रकार अपनी चेतना को सूक्ष्मावस्था में प्रवेश कराकर हम भी समय, गति और ब्रह्माण्ड से परे उस सभी वस्तुओं को समझने, जानने और प्राप्त करने में समर्थ हैं—जो स्थूल दृष्टि से देखने में लाखों करोड़ों मील दूर, अब नहीं भविष्य में होने वाली हैं या पहले कभी हो चुकी हैं।
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