ईश्वर कौन है कहाँ है कैसा है

संसार से भी विचित्र उसके प्राणी

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इस संसार का निर्माण करने वाली समर्थ सत्ता ने अपने सृजन कार्य में कितनी पैनी और सूक्ष्म ‘बुद्धि’ से काम लिया है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रकृति के आंगन में रहने वाले सूक्ष्म जीवियों से लेकर विशालकाय प्राणियों का जीवनक्रम, उनके क्रियाकलापों का अध्ययन करते हैं तो उन्हें देखकर विस्मय विमुग्ध रह जाना पड़ता है और यह मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि इतने विलक्षण, विचित्र और जटिल जीवनक्रम का कोई रचयिता नियन्ता है अवश्य।

एक से एक विचित्र और विलक्षण मनुष्य, किन्हीं भी दो व्यक्तियों की आकृति-प्रकृति में कोई साम्य नहीं, प्रत्येक जीव भिन्न-भिन्न विशेषताओं-सामर्थ्यों से युक्त और फिर उनकी अगणित संख्या निश्चित ही किसी नियामक समर्थ सत्त का आभास देती है। उदाहरण के लिये सूक्ष्म जीवियों को ही लें, जिनकी शरीर रचना को जीवविज्ञान के द्वारा एक कोशीय से लेकर कई कोशीय जीवों की श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इन जीवों की विविध जातियां होती हैं। सूक्ष्म जीवियों की ही तरह सरलतम जीवधारियों ‘वायरस’ (विषाणु) होता है। वायरस अपने आप में एक कोशिका नहीं होता। इसमें केवल एक न्यूक्लिक अम्ल होता है, कभी डी.एन.ए. और कभी आर.एन.ए. वायरस भी अपने से, अपने जैसी अनन्त प्रतिकृतियां पैदा कर सकते हैं, पर वे यह कार्य परपोषी कोशिका के अन्दर ही कर सकते हैं। जीवाणुओं की किस्मों की विविधताओं तथा व्यवहार की भिन्नताओं के कारण ही सूक्ष्म जीवविज्ञान की आज अनेक शाखायें हैं। ‘वायरोलोजी’ संक्रामक रोगों के जीवाणुओं का अध्ययन करती है। निरोग विज्ञान के अन्तर्गत संक्रामक रोग के जीवाणु जिन जीवों पर आक्रमण करते हैं, उनकी प्रतिक्रिया का अध्ययन किया जाता है, जानपादित रोग विज्ञान के अन्तर्गत रोगोत्पादक सूक्ष्म जीवों के जीवन विकास, विस्तार और बिहार तथा इसके सम्भावित नियन्त्रण के उपायों का अध्ययन होता है और चेमोथेरेपी में सूक्ष्म जीवों के विनाश के साधनों का अध्ययन होता है आदि। प्रयोगशाला में सूक्ष्मजीवियों की विभिन्न नस्लें जिस पदार्थ में पैदा की जाती हैं, उस पदार्थ को ‘संवर्धन माध्यम’ कहा जाता है। संवर्धन-माध्यम में सम्भागी जीवाणु-समूह पैदा कर जीव रासायनिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन होता है। जीवाणु खाद्य के रूप में जिस पदार्थ का उपयोग करते हैं, वह पचकर रूपांतरित हो जाता है, इसे ही ‘चयापचित’ होना कहते हैं।

जीवाणुओं की प्रत्येक नस्ल एक दूसरे से भिन्न होती है। इस भिन्नता का कारण जिस खाद्य का जीवाणु प्रयोग करते हैं, जिन पदार्थों का वे विच्छेदन करने में समर्थ होते हैं और रासायनिक ऊर्जा स्रोत अथवा सूर्य से वे जो ऊर्जा प्राप्त करते हैं, उनकी मात्राओं की भिन्नतायें होती हैं। क्योंकि खाद्य-पदार्थ व ऊर्जा की मात्रा का संयोग हर बार भिन्न-भिन्न सम्भव है, इसीलिये जीवाणुओं की नस्लें भी परस्पर भिन्न होती हैं।

दाल-रोटी, साग आदि का स्वाद बिगड़ जाना, दूध का खराब हो जाना, रोटी में फफूंदी आ जाना, अचार वगैरह को फफूंदी लग जाना इन सबका कारण सूक्ष्म जीव ही होते हैं। ताजे सन्तरे का रस निकालकर खुली हवा में रख दें तो दो दिन में खराब हो जाएगा। कृपा इन्हीं सूक्ष्मजीवियों की। यदि वही रस बोतल में इस युक्ति के साथ रख दिया जाय कि वहां सूक्ष्मजीवी हवा के साथ पहुंच न पायें, तो वह महीनों बाद भी वैसा ही ताजा निकलेगा।

गठिया तथा अन्य सूजन वाले रोगों के इलाज के लिए एड्रेनल हारमोन की जरूरत पड़ती है। वृद्धावस्था में विशेषकर और विशिष्ट परिस्थितियों में किसी भी उम्र में प्रतिस्थापन-चिकित्सा में पुरुष तथा स्त्री को नव-शक्ति देने के लिए हारमोन जरूरी होते हैं।

मनुष्यों तथा पशुओं में शारीरिक ऊतकों के विकास के लिए भी हारमोन जरूरी होता है। शल्य-चिकित्सा के समय ऊतकों को जो क्षति पहुंचती है, उन्हें पुनर्लाभ के लिए प्रेरित करने हेतु मनुष्य को इन हारमोनों की जरूरत पड़ती है। जब कि पशुओं में मांस उत्पादन की वृद्धि हेतु हारमोन दिये जाते हैं। परिवार नियोजन हेतु निरोधक गोलियां बनाने के लिए भी हारमोन जरूरी होते हैं।

इन हारमोनों का प्राप्त करना अब तक बहुत ही कठिन था। हाल ही में सूक्ष्म जीवविज्ञान के क्षेत्र में हुई खोज ने इसे सरल बना दिया। है। एक ऐसे जीवाणु-समूह तथा रासायनिक की खोज की गई है, जिनके गुणों के कारण एन्ड्रोस्टान नामक पदार्थ का उत्पादन संभव हो सका है। इस एन्ड्रोस्टान को आसानी से रूढ़ हारमोनों में बदला जा सकता है। इस प्रक्रिया के औद्योगीकरण से ऊपर लिखे सभी हारमोन सुलभ हो सकेंगे।

इसी तरह अभी तक भेड़ की ऊन की वसा में से कोलेस्टेरोल नामक एक पदार्थ प्राप्त कर उसे रूढ़ हारमोनों में बदला जाता था। पर परम्परागत रासायनिक विधियों से इस कोलेस्टेरोल को हारमोनों में बदलना बहुत कठिन होता था। कुछ समय पूर्व ऐसे सूक्ष्मजीवी खोज निकाले गये हैं, जो कोलेस्टेरोल को हारमोनों में बदलने में मददगार सिद्ध होंगे। इससे एक बड़ा फायदा होगा। परिवार नियोजन की निरोधक गोलियों के सुलभ होने तथा उनकी अन्धाधुन्ध मूल्य-वृद्धि रुकने का। ये गोलियां मेक्सिको तथा मध्य अमरीका के पहाड़ी इलाकों में उगने वाले अरबी से निकाले जाने वाले एक रासायनिक पदार्थ से बनने वाली दो रूढ़ हारमोनों से बनती हैं। इस पदार्थ का वार्षिक उत्पादन लगभग 700 टन प्रतिवर्ष होता है, किन्तु जिन जंगली पौधों से ये निकाला जाता है, वे बड़ी मात्रा में चुन लिये गये हैं, जब कि उनकी पैदावार देर से तथा कठिनाई से होती है। इससे इनका मूल्य लगातार बढ़ रहा था। अब कोलेस्ट्रॉल के रासायनिक परिवर्तन हेतु सहायक सूक्ष्म जीवियों की खोज से यह समस्या सुलझी है।

इसी तरह विश्व-खाद्य समस्या के समाधान में भी सूक्ष्मजीवी सहायक सिद्ध हो सकते हैं। प्रतिवर्ष बढ़ने वाली 7 करोड़ की आबादी को 20 लाख टन अतिरिक्त प्रोटीन चाहिये। इसके लिये 4 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त जमीन पर सोयाबीन की खेती की जरूरत पड़ेगी। जबकि एक कोशिकीय प्रोटीन के व्यापक पैमाने पर उपयोग करने पर 200 घन मीटर धारिता वाले 2000 टैंक 20 लाख टन अतिरिक्त प्रोटीन सूक्ष्म जीवियों की सहायता से तैयार करने के लिए काफी होंगे। इस विधि से इस 20 लाख टन अतिरिक्त प्रोटीन के लिये सिर्फ एक हेक्टेयर जमीन पर्याप्त होगी। सोयाबीन उत्पादन की वर्तमान विधि द्वारा इतने ही प्रोटीन के उत्पादन हेतु वांछित भूमि का यह 4 करोड़वां भाग है। इसी तरह औद्योगिक प्रक्रिया से काफी मात्रा में बनने वाले कूड़े का उपयोग प्रोटीन बनाने तथा बढ़ाने में किया जा सकता है—सूक्ष्मजीवियों की सहायता से। यदि विश्व के वर्तमान तेल उत्पादन से उपलब्ध सम्पूर्ण पैराफिन को प्रोटीन में बदल दिया जाए, तो लगभग 70 करोड़ टन प्रतिवर्ष का उत्पादन होगा।

दुनिया का 10 प्रतिशत दूध प्रतिवर्ष पनीर बनाने के काम आता है। इस प्रक्रिया में प्रोटीन जमाने के लिए दुधमुंहे बछड़े के पेट से प्राप्त होने वाले एक किण्वाणु को जिसका नाम है—रेन्नेट, मिलाना जरूरी होता है।

इस रेन्नेट के लिए प्रतिवर्ष 4 करोड़ बछड़ों का वध किया जाता था। पिछले 15 वर्षों में तो पनीर उत्पादन खूब बढ़ा। पर फिर रेन्नेट की कमी का सामना करना पड़ गया। सूक्ष्म जीव विज्ञानियों ने फफूंदी के विलगन से रेन्नेट की ही तरह के किण्वाणुओं के उत्पादन की विधि खोजी। इससे केवल एक ग्राम तैयार पदार्थ 700 किलोग्राम पनीर बनाने को पर्याप्त होता है।

विभिन्न प्रकार के दूषणों के लिए सूक्ष्मजीवी जिम्मेदार माने जाते रहे हैं किन पर्यावरण की सफाई में भी सूक्ष्म जीवों की उतनी ही प्रमुख भूमिका है। गन्दे द्रव की सफाई की मोटे तौर पर तीन विधियां हैं—क्रियाशील, कीचड़-विधि, निस्पन्दन तथा किण्वीकरण। तीन विधियों में सूक्ष्मजीवियों की भूमिका प्रमुख है। तीसरी विधि मीथेन-किण्वीकरण में एक विशेष प्रकार के जीवाणु कार्बनिक गन्दगी को कार्बनिक अम्ल में बदल देते हैं। उसके बाद मीथेन-जीवाणु कार्बनिक अम्लों को मिथेन तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में बदल देते हैं। इस विधि में गति मन्द होती है। पर लाभ यह है कि गन्दगी की ऊर्जा का 80 प्रतिशत से अधिक मीथेन के रूप में मिल सकता है। मीथेन का एक स्वच्छ ईंधन की तरह प्रयोग सम्भव है। इस तरह सूक्ष्म जीव दुनिया की एक और बड़ी समस्या के समाधान में सहायक हो सकते हैं।

लाइसीन उन तीन अनिवार्य अमीनो अम्लों में से एक है, जो अनाज में नहीं होते। गेहूं या मक्का में मात्र 1।4 यानी 0.25 प्रतिशत लाइसीन मिलाने पर आटे का जैवीयमान बढ़कर दूध के बराबर हो जाता है। पशुओं को भी चारे के साथ दिये जाने पर लाइसीन बहुत लाभ पहुंचाता है।

सूक्ष्म जीवों की सहायता से अनाज के खाद्यमान को भी बढ़ाया जा सकता है। मनुष्य के लिए 20 में से 9 अमीनो अम्ल आवश्यक हैं। अन्न प्रोटीन पशु प्रोटीनों से घटिया होते हैं, अतः इनमें कुछ अमीनो-अम्लों की कमी होती है।

व्यावसायिक पैमाने पर सूक्ष्मजीवों की सहायता से अमीनो अम्लों का उत्पादन किया जा रहा है। साथ ही जापानी सूक्ष्मजीव विज्ञानियों ने ग्लूनेटिक अम्ल तैयार करने वाला जीवाणु ढूंढ़ निकाला है। प्रदीपन से यही जीवाणु एक उत्परिवर्ती पैदा करता है, जो लाइसीन नामक पदार्थ के बड़े पैमाने पर उत्पादन में सहायक होता है।

ऐसे स्वादहीन विभिन्न खाद्य-पदार्थ जो विश्व में उपलब्ध हैं, पर अभी खाद्य प्रयोग में नहीं आते, उन्हें स्वादिष्ट बनाने में भी सूक्ष्म जीवियों की मदद जरूरी है।

इस तरह पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या और विश्व खाद्य समस्या, विश्व की इन दो सबसे बड़ी समस्याओं के समाधान में सूक्ष्मजीवियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। आबादी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या के क्षेत्र में भी परिवार नियोजन-निरोधक गोलियों के निर्माण में इनका विशिष्ट योगदान है। मनुष्य को निरोग बनाने हेतु उपचारों औषधियों के निर्माण में भी उनकी अनिवार्यता है। ऊर्जा की समस्या में भी उनकी सहायता समाधान कारक सिद्ध होगी।

विकास तथा प्रौद्योगिक प्रगति में प्रायोगिक सूक्ष्म जीवविज्ञान की विशिष्ट भूमिका है। कृषि, कोशिकीय, आण्विक, आनुवंशिक तथा विकिरण जीव वैज्ञानिक अनुसंधान इसकी शाखाएं हैं। उद्योग, अभियान्त्रिकी एवं औषध क्षेत्रों में इसके प्रभावी परिणाम सामने आये हैं।

एक पूर्ण-पोषित मनुष्य अपने जीवन में पानी और ऑक्सीजन के साथ-साथ बड़ी तादाद में कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन ग्रहण करता है। इनका उत्पादन सूक्ष्मजीवों पर ही निर्भर करता है। पानी को प्राकृतिक रूप से शुद्ध कौन करता है? सूक्ष्मजीव।

जन्तुओं और पौधों के मरने के बाद सूक्ष्मजीव इन्हें अपघटित करते हैं। अन्यथा इनसे पर्यावरण से दूषण ही फैले। एक आदमी अपने सम्पूर्ण जीवन में जितना कूड़ा बनाता है, उसी से एक पहाड़ बन जाए, यदि सूक्ष्मजीव उन्हें अपघटित करके प्रकृति-चक्र में दुबारा न डाल दें।

इसके साथ ही सूक्ष्म जीव विज्ञानी नाइट्रेटों को वायुमण्डलीय नाइट्रोजन में बदलने की क्षमता को विकास की भी कोशिश कर रहे हैं जिससे गन्दे पानी के पौधों और खेती के नाइट्रेट द्वारा नदियों-झीलों में फैल रही सड़न समाप्त की जा सकेगी।

यह आशा भी है कि कई सूक्ष्मजीवों का उच्चजीवों में आनुवंशिक रूपान्तरण सम्भव होगा, इससे कुछ मानवीय किण्वाणु कमियां पूरी की जा सकेंगी। दालों की जड़ों में रहने वाले नाइट्रोजन-उत्पादक सूक्ष्मजीवों को यदि सामान्य अनाज की जड़ों में संयुक्त किया जा सका तो इससे भी आर्थिक एवं सामाजिक लाभ होगा, क्योंकि इन अनाजों का खाद्यमान इससे बढ़ जाएगा।

सूक्ष्मजीवियों से सम्भावित सहयोग के अलावा प्रकृति ने विभिन्न जीव-जन्तुओं को इतनी सामर्थ्य दे रखी है कि वह स्वयं भी परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल सके अथवा प्रस्तुत प्रतिकूलताओं से मुकाबला करने की सामर्थ्य जुटा सके।

समर्थ सशक्त जीवनी-शक्ति

उदाहरण के लिए बीमारियों का निदान करने के रक्त, मल, मूत्र, थूक आदि की परीक्षा की जाती है और देखा जाता है कि प्रस्तुत रोग के कारण कौन से विषाणु हैं? रोगी के शरीर में जो विषाणु पाये जाते हैं, उन्हें मारने के लिए औषधि कारगर होती है, उसको उपचार के रूप में सेवन कराया जाता है।

समझा यह जा रहा है कि उन कीटाणुओं की आकृति प्रकृति समझ ली जाय और उन्हें मार डालना किस रसायन के उपयोग से संभव हो सकता है—इसका पता लगा लिया जाय तो रोगों से—उनके उत्पादक विषाणुओं से—छुटकारा प्राप्त कर लिया जायगा।

पूना की विषाणु अनुसन्धानशाला ने मनुष्यों की तरह समय-समय पर पशु-पक्षियों में भी फैलने वाली महामारियों का लेखा-जोखा तैयार किया है। रानीखेत में एक बार कोयलों पर विपत्ति टूटी थी, मैसूर के क्यासानूर वनों में बन्दरों का सफाया हुआ था। नागपुर की मस्तिष्क-शोथ बीमारी, कलकत्ता का रक्त-स्रावी ज्वर, दिल्ली का पीलिया सभी को याद है। महामारियों के ऐसे आग्रमण अक्सर होते रहे हैं। प्रथम-महायुद्ध के बाद—हैजा, प्लेग और इन्फ्लुऐञ्जा की जैसी बाढ़ आई थी, वह सिकी से छिपी नहीं है। अब तक प्रायः 200 से अधिक प्रकार के विषाणु—‘आर्थोपोंड-वोर्नवाइरस’—ढूंढ़े जा चुके हैं। ये मक्खी, मच्छर, पिस्सू, खटमल जैसे छोटे कीड़ों के शरीर पर कब्जा जमाते हैं और फिर उनके सम्पर्क में आने पर मनुष्य भी प्रभावित होते हैं।

राकफैलर फाउण्डेशन तथा इण्डियन काउन्सिल आफ मेडीशन रिसर्च ने पिछले दिनों विषाणुओं की आकृति-प्रकृति के सम्बन्ध में तो सुविस्तृत लेखा-जोखा तैयार किया है, पर वे भी ऐसा कुछ ठोस उपाय नहीं निकाल सके कि किस प्रकार इन रक्त-बीजों से छुटकारा पाया जाय। क्योंकि उनके आक्रमण ऐसे छद्म और इतने तीव्र हैं कि जब तक रोकथाम का अवसर आवे—तब तक तो वे अपना तीन चौथाई काम पूरा कर लेते हैं।

विषाणुओं की खोजबीन न केवल भारत में, वरन् समस्त संसार में हो रही है। किन्तु अब तक जो परिणाम निकले हैं, वे बहुत उत्साहवर्धक नहीं हैं। क्योंकि मारण प्रयोग की सार्थकता पूर्णतया संदिग्ध होती चली जा रही है। इसका एक कारण तो यह है कि रोग-कीटकों के साथ-साथ जीवन-रक्षक स्वस्थ कीटाणु भी मरते हैं, क्योंकि दवा तो रक्त में मिलकर मार-काट मचाती है, वह रोग को मारने और निरोग को बचा देने की समझ वाली नहीं होती। इसलिए जहां रोग-कीटकों को मारने में आंशिक सफलता मिलती है, वहां शरीर की जीवनी शक्ति इतनी दुर्बल हो जाती है कि इसके फलस्वरूप किसी रोग की सामयिक निवृत्ति भले ही हो जाय, पर पीछे-पीछे अनेक विकृति-विद्रोह उठ खड़े होने की सम्भावना बन जाती है। दूसरी एक बात यह है कि विषाणु-मारक औषधि प्रयोग के पहले झोंके में तो कुछ न कुछ मरते हैं, पर जो बच जाते हैं, वे ऐसे ढीठ बन जाते हैं कि दवाएं उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर पातीं।

विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने रोग-वाहक कीटों की आनुवंशिकता पर एक अन्वेषण रिपोर्ट प्रकाशित करके बताया है कि कीट-नाशक दवाएं आरम्भ में तो मार-काट करने में सफल होती हैं, पर जो जीवित बच जाते हैं, उनमें इन कीट-नाशक दवाओं से लड़ने की क्षमता भी तेजी से विकसित हो जाती है। इस वातावरण में रहते रहते वह कीट निर्भय हो जाते हैं और फिर डी.डी.टी—डाएल्ड्रिन—जैसी दवाएं भी उन्हें नष्ट करने असमर्थ हो जाती हैं। अभ्यस्त कीड़े इन विषैली दवाओं पर निर्भय होकर बैठे रहते हैं—इतना ही नहीं, कितने ही तो इन विषों के रसास्वादन का भी प्रेमपूर्वक आनन्द लेते हैं। जो बात फसल-नाशक कीटाणुओं पर लागू होती है, ठीक वही मानव-शरीर में भीतर अड्डा जमाये बैठे विषाणुओं पर लागू होती है। कुछ दिन के अभ्यास के बाद वे भी दवाओं को अंगूठा दिखाने लगते हैं।

इन परिस्थितियों में यही सोचना पड़ रहा है कि कीटाणुनाशक दवाओं पर लगने वाले प्रयत्न को एकांगी न रहने दिया जाय, वरन् शरीरों में उस जीवनी-शक्ति के उद्भव का प्रयास किया जाय, जिसके रहते न विषाणु बाहर से आक्रमण कर सकें और न मलों व सड़ने के कारण भीतर ही उत्पन्न हो सकें। स्वास्थ्य-सम्बन्धी सामान्य नियमों का पालन करना, आहार-विहार में प्रकृति के अनुरूप सामंजस्य उत्पन्न करना ही वह वास्तविक उपाय है, जिससे विषाणु की विभीषिका से निपटने का स्थायी उपाय निकल सकता है। एक और भी चिन्ताजनक पक्ष यह है कि यह मारक औषधियां भी विषाणुओं से कम घातक नहीं हैं। यदि उनका मारक-तत्व किसी प्रकार प्रबल हो सके तो फिर उसकी भयंकरता किसी महामारी से कम न रहेगी। लाभ सोचने के स्थान पर रोग और रोगियों के ही नहीं, स्वस्थ मनुष्यों के सफाया होने की सम्भावना भी सामने आ खड़ी होगी। खरगोशों की बहुलता से निपटने के लिये उनमें एक मारक-तत्व की सुई लगाने का ऐसा ही प्रयोग हुआ है, जिसने विषाणु-नाशक दवाओं के सेवन के साथ जुड़ी हुई विभीषिका को सामने लाकर खड़ा कर दिया है। फ्रांस में एक डॉक्टर ने अपने बगीचे के खरगोश मारने के लिए उन्हें एक जहरीला इन्जेक्शन लगाया, उसका अनुमान था कि इन खरगोशों के सम्पर्क में आने वाले बगीचे के कुछ और खरगोश भी मर जायेंगे। पर परिणाम अप्रत्याशित हुआ, वह मारक दूत इस प्रकार अनियन्त्रित होकर फैली कि योरोप में खरगोशों के वंश नाश का ही संकट उत्पन्न कर दिया। घटना इस प्रकार घटी कि—

फ्रांसीसी डा. पाल अमर्दाडिलाइल के बगीचे में खरगोशों का बाहुल्य था, वे आये दिन नये पौधे नष्ट कर देते। इससे वे खरगोशों पर बे-तरह झल्लाये हुए थे। खरगोश मारने की दवा का विज्ञापन पढ़ा तो उनकी बांछें खिल गईं और दूसरे ही दिन उसे मंगाने का आर्डर दे दिया और वह कुछ ही दिनों में आ भी गई। उनका विचार अपने बगीचे के खरगोशों को खत्म करने का था। सो बताई हुई तरकीब के अनुसार उन्होंने दो खरगोश पकड़े, उन्हें दवा के इन्जेक्शन लगाये और बगीचे में छोड़ दिया। खरगोश बीमार पड़े, उनकी छूत बगीचे के अन्य खरगोशों को लगी और वे उसी छूत की बीमारी से सब के सब मर गये। डॉक्टर को अपनी इस सफलता पर बहुत प्रसन्नता हुई।

पर बात एक ही बगीचे तक समाप्त नहीं हुई। छूत फैली और उसने पहले फ्रांस भर के खरगोशों का सफाया किया और पीछे सारे योरोप में उन पर कहर बरसा दिया। फ्रांस में मांस के लिए खरगोश पाले जाते थे। किसानों ने पशु पालन के घरेलू उद्योग में खरगोशों को भी शामिल कर रखा था। सरकारी शिकारगाह में शिकारियों के लिए लाइसेंस लेकर खरगोशों के शिकार की अनुमति मिलती थी। इससे सरकारी खजाने में करोड़ों रुपया लाइसेंस-फीस का जमा होता था। अनुमान किया जाता है कि प्रायः 20 लाख खरगोशों का मांस उस देश के निवासियों को मिलता था। उनकी खालें काफी कीमती जाती थीं और उससे किसानों तथा शिकारियों को काफी पैसा मिलता था। चमड़े के उद्योग में इस चमड़े की बड़ी भूमिका थी। इस उद्योग से सरकार को 20 लाख करोड़ फ्रेंक का टैक्स मिलता था और चमड़े के कारखानों में प्रायः एक लाख कर्मचारी काम करते थे। द्वितीय महायुद्ध के समय तो भुखमरी से खरगोशों ने ही फ्रांसीसियों को बचाया था। उन दिनों प्रायः 85 लाख खरगोश हर साल मारे जाने लगे थे।

योरोप भर में इन उपयोगी खरगोशों का इतनी तेजी से सर्वनाश होने से सर्वत्र हा-हाकार मच गया। उन दिनों एक तीन वर्गमील के इलाके में 20 हजार खरगोश जमीन पर मरे हुए पड़े पाये गये। जंगलों और झाड़ियों में मरने-सड़ने वालों की संख्या तो और भी बढ़ी-चढ़ी थी। बीमार खरगोशों से गांवों की गलियां भरने लगीं और सड़कों पर पहुंचकर वे तेज दौड़ती मोटरों से कुचलने लगे। सड़कें इस रक्त-मांस से घिनौनी हो गईं। यह समस्या उन दिनों योरोप की एक बड़ी समस्या बन गई।

खरगोशों का वंश-नाश करने वाली इस दवा का नाम था—‘भिकजा मेटोसिस’ उसे आस्ट्रेलिया की सरकारी प्रयोगशाला में बढ़े हुए खरगोशों को नष्ट करने के लिए बनाया था। इस दवा के इंजेक्शन लगाकर कुछ खरगोश जंगलों में छोड़े गये, फलस्वरूप छूत की बीमारी उन्हें लगी और बड़ी संख्या में वे मर गये। इससे वे मरे तो, पर वैसा सफाया नहीं हुआ—जैसा कि योरोप की जलवायु ने उन पर कहर बरसाया।

इस संकट के निवारण का—खरगोशों की नस्ल बचाने के लिये फैली हुई महामारी पर नियन्त्रण करने का काम पाश्चर इन्स्टीट्यूट ने अनेक सरकारों के अनुरोध पर अपने हाथ में लिया। डा. प्येरलेपें के नेतृत्व में एक वेक्सीन निकाला गया और उससे उस महामारी पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सका।

रोकथाम के लिए जो ‘एन्टीभिक्जामेटोसिस’ इन्जेक्शन बनाया जा सका, उससे इतना ही हो सका कि खरगोशों की नस्ल मिटने से बचाई जा सके। पाश्चर इन्स्टीट्यूट के कर्मचारी ने बड़ी मेहनत करके दो वर्ष में 4 लाख स्वस्थ खरगोश पकड़े और उन्हें टीका लगाकर जंगलों में छोड़ दिया, ताकि वे उस महामारी के प्रभाव से अपने को बचा सकें और भविष्य में नस्ल पैदा कर सकने योग्य बने रह सकें। जिन्हें टीका नहीं लगाया जा सका, वे तो बेचारे तेजी से मौत के ग्रास बनते ही चले गये।

बेलजियम, लग्जेम्वर्ग, जर्मनी आदि देशों में भी खरगोशों का इसी प्रकार इस महामारी ने सफाया किया। डा. पाल डिलाइल ने कुछ खरगोशों पर ही मारक प्रयोग किया था, पर इसकी विष-बेल फैली तो उसने करोड़ों के ही प्राण ले लिये।

विषाणुओं की भयंकरता और उनकी हानि कम नहीं है। उन के निराकरण का उपाय किया जाना चाहिये। पर वह अति उत्साह भरा और एकांगी नहीं होना चाहिये। मारक औषधियों की उलटी प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए उनका प्रयोग फूंक-फूंक कर करने में ही कल्याण है।

अन्य प्राणी प्रकृति के आक्रमण को एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं और अधिक दबाव पड़ने पर दम तोड़ देते हैं पर मानवी काया का निर्माण इतना लोचदार है कि वह विपन्न परिस्थितियों में भी निर्वाह कर सकता है और अपने आपको इस प्रकार ढाल सकता है जिससे प्रकृति का दबाव उसे चुनौती न दे सके।

‘न्यूरोफिजियोलाजिकल वेसिस आफ माइण्ड’ ग्रन्थ में उदाहरणों और प्रमाणों में यह बताया गया है कि मनुष्य का सामान्य निर्वाह 1.5 डिग्री में होता है पर वह 10 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर जहां टेम्प्रेचर 15 डिग्री सेन्टीग्रेड होता है तथा ऑक्सीजन की कमी से असुविधा पड़ती है वहां भी कुछ ही दिनों के अभ्यास से सरलता पूर्वक निर्वाह करने लगता है। यहां तक कि 20 हजार फुट पर जहां 25 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान रहता है वहां भी जिन्दा रह सकता है और 25 हजार से अधिक ऊंचाई पर जहां 45 डिग्री सेन्टीग्रेड शीत होता है, सामान्य बुद्धि के हिसाब से मनुष्य का जीवित रह सकना सम्भव नहीं, पर उसकी लोच ऐसी है जो वहां भी जिन्दा बनाये रह सकती है। हिमालय पर रहने वाले हिम-मानव की जीवनचर्या भी कम रहस्यमय नहीं है। यह प्राणी मनुष्य जैसी आकृति, प्रकृति का है उसे रीछ और मनुष्य का सम्मिश्रण कह सकते हैं। अत्यन्त शीत भरे हिम आच्छादित प्रदेश में उतनी ऊंचाई पर वह रहता है जहां सांस लेने के लिए ऑक्सीजन के सिलेण्डर पीठ पर बांधकर पर्वतारोही जाया करते हैं और खुली हवा में सांस लेना मृत्यु को निमन्त्रण देना मानते हैं। लम्बे समय से वह एकाकी जीवन जीता चला आ रहा है। युगीय सभ्यता से दूर रहते हुए भी उसने अपने रहस्यमय जीवन क्रम को किसी प्रकार अक्षुण्ण बनाये ही रखा है।

हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर रहने वाला हिम-मानव अपने अस्तित्व के समय-समय पर अगणित परिचय देता रहा है। पर अभी तक उसे पकड़ने के प्रयास सफल नहीं हो सके। इस अद्भुत प्राणी के सम्बन्ध में अधिक जानने के लिए उसे निकट से देखना, समझना आवश्यक है। यह तभी हो सकता है जब वह पकड़ में आवे। किंतु अति बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य को भी यह हिम-मानव अभी तक चकमा ही देता आया है उसके पकड़ने के प्रयत्नों को निष्फल ही बनाता रहता है। उतने पर भी हिम-मानव का अस्तित्व प्रायः असंदिग्ध ही समझा जाता है।

सन् 1970 की 25 मार्च को अन्नपूर्णा शिखर पर चढ़ाई करने और उस क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी पर विजय पताका फहराने के उद्देश्य से ब्रिटिश पर्वतारोहियों का एक दल अपनी दुस्साहस भरी यात्रा कर रहा था। दल के लोग कैंप में विश्राम कर रहे थे। चंद्रमा की चांदनी सारे हिमाच्छादित प्रदेश को आलोकित कर रही थी। अभी वे लोग सोने भी न पाये थे कि हाथी जैसी भयानक आकृति अपनी लम्बी परछांई सहित उधर घूमती हुई दिखाई दी खतरे की आशंका से वे लोग बाहर निकल आये और राइफलें तान लीं। गौर से देखने पर पाया गया कि यह प्राणी ठीक वैसा ही जैसा कि हिम-मानव का वर्णन करते हुए समय-समय पर कहा या सुना जाता रहा है। आधे घन्टे तक उसकी हरकतें दल ने शान्तिपूर्वक देखीं। उनका उद्देश्य मारना नहीं, जानना था सो उन्होंने आंखें भरकर देखा। थोड़ी देर में वह उछल-कूद करता हुआ पर्वत श्रृंखलाओं की ओट में गायब हो गया।

रात को पहरा देने की पद्धति अपनाकर बारी-बारी से दल के लोग सोये तो सही पर आक्रमण का आतंक रात भर छाया रहा। प्रातःकाल वे लोग तलाश करने गये कि कुछ वास्तविकता भी थी या कोई भ्रम ही था। उन लोगों ने मनुष्य जैसे किन्तु बहुत बड़े साइज के पद चिन्ह देखे जिनके उन लोगों ने फोटो लिये। वे फोटो तत्कालीन कई प्रमुख पत्रों में उस देखे हुए विवरण के साथ प्रकाशित भी हुए।

इससे पूर्व सन् 1958 में एक अमेरिकी पर्वतारोही दल विशेषतया हिम-मानव को जीवित अथवा मृतक किसी भी स्थिति में पकड़ने का उद्देश्य लेकर ही आया था। इस दल के एक सदस्य प्रोफेसर टेम्बा अपने साथ कुछ शेरपा लेकर एक क्षेत्र खोज रहे थे। उनने आश्चर्य के साथ एक झरने के किनारे बैठे देखा। वह पानी में से मेढ़क और मछलियां बीन-बीन कर बिना चबाये निगल रहा था। प्रोफेसर टेम्बा ने उस रात में प्लेश लाइट जलाई तो क्रुद्ध हिम-मानव उनकी ओर दौड़ा। शेरपा समेत वे बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर वापिस लौटने में सफल हुए।

सन् 1958 में इटली के प्रख्यात पत्रकार गाडविन हिम-मानव की खोज में अपने दल समेत हिमाच्छादित चोटियों पर घूमे। एक जगह मुठभेड़ हो ही गई। राइफल का घोड़ा दबाने की अपेक्षा उनने कैमरे का बटन दबाना अधिक उपयुक्त समझा। कुछ ही मिनट सामने रहकर वह विशालकाय प्राणी भाग खड़ा हुआ। उसे पकड़ या मारा तो न जा सका पर फोटो बहुत साफ आये। उसके पैरों के निशानों के भी फोटो उनने लिये और अपने देश जाकर उन चित्रों को छापते हुए हिम मानव के अस्तित्व की सृष्टि की।

तिब्बत और चीन की सीमा पर किसी प्रयोजन के लिए गये एक चीनी कप्तान ने भी हिम-मानव से सामना होने का विवरण अपने फौजी कार्यालय में नोट कराया था। स्विट्जरलैंड का एक पर्वतारोही दल एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिए आया था। उनके साथ पन्द्रह पहाड़ी कुली थे। दल का एक कुली थोड़ा पीछे रह गया। उस पर हिम-मानव ने आक्रमण कर दिया। चीख-पुकार सुन कर अन्य कुली उसे बचाने दौड़े और घायल स्थिति में उसे बचाया।

सन् 1887 में कर्नल वडैल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश पर्वतारोही दल भारत आया था उसने सिक्कम क्षेत्र में यात्रा की थी। 16 हजार फुट ऊंचाई पर उनने बर्फीली चोटियों पर पाये गये हिम-मानव के ताजे पद चिन्हों के फोटो उतारे थे।

वनस्पति विज्ञानी प्रो. हेनरी ल्यूस जिन दिनों वनस्पति शोध के सन्दर्भ में हिमाच्छादित प्रदेशों में भ्रमण कर रहे थे तब उन्होंने मनुष्याकृति के विशालकाय प्राणी को आंखों से देखा था। वह तेजी से एक ओर से आया और दूसरी ओर के पहाड़ी गड्डों में कहीं गायब हो गया। ठीक इसी से मिलते-जुलते साथी सन् 1921 में एवरेस्ट चढ़ाई पर निकले कर्नल हावर्ड व्यूरी की है उनके सामने से भी वैसा ही वन-मानुष से मिलता-जुलता प्राणी निकला था। उस क्षेत्र में आने-जाने वाले बताते थे कि वह अकेले दुकेले आदमियों और जानवरों को अक्सर मार कर खा जाता है।

भारती हिम-यात्री ए.एन. तोम्बाजी ने सिक्किम क्षेत्र में हिम-मानव देखने का विवरण बताया था। स्विट्जरलैण्ड के डायरन फर्थ ने भी सन् 1925 में उसे आंखों से देखा था। नार्वे के दो वैज्ञानिक थोरवर्ग और फ्रसिस्ट किसी अनुसन्धान के सम्बन्ध में सिक्किम क्षेत्र में गये थे। उन पर हिम-मानव ने हमला कर दिया और कन्धे नोंच डाले। गोलियों से उसका मुकाबला करने पर ही वे लोग बच सके। गोली उसे लगी नहीं किन्तु डर कर वह भाग तो गया ही। सन् 1951 में एक ब्रिटिश यात्री एरिक शिपटन ने भी हिम-मानव के पैरों के निशानों के बर्फीले क्षेत्र से फोटो खींचे थे। ऐसे ही फोटो प्राप्त करने वालों में डा. एडमंड हिलेरी का भी नाम है। सन् 1954 में कंचन जंघा चोटियों पर सन जानहंट के दल ने 20 हजार फुट ऊंचाई पर हिम-मानव के पद चिन्हों के प्रमाण एकत्रित किये थे। वे निशान प्रायः 18 इंच लम्बे थे। न्यूजीलैण्ड के पर्वतारोही जार्जलोब ने उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर हिम-मानव के अस्तित्व को असंदिग्ध बताया था।

सन् 1955 में इंग्लैण्ड के दैनिक पत्र ‘डेलीमेल’ ने अपना एक खोजी दल मात्र हिम-मानव सम्बन्धी अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था। दल ने बहुत समय तक हिमाच्छादित प्रदेशों में दौरे किये। इस बीच उन्होंने हिम-मानव देखा या पकड़ा तो नहीं पर ऐसे अनेक प्रमाण अवशेष एवं चित्र संग्रह करके उस पत्र में छपाये जिनसे हिम-मानव सम्बन्धी जब श्रुतियां सारगर्भित सिद्ध होती हैं।

असह्य माने जाने वाले शीत और ताप से प्राणियों का विशेषतया मनुष्य जैसे कोमल प्रकृति जीवधारी का निर्वाह होते रहने के उपरोक्त प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि प्रतिकूलताएं कितनी ही बड़ी क्यों न हों जीव उन सबसे लड़ सकने में समर्थ है। उसका संकल्प बल ऐसी परिस्थितियां पैदा कर सकता है। जिसमें असह्य को सह्य और असम्भव को सम्भव बनाया जा सके। न केवल प्रकृति से जूझने में वरन् पग-पग पर आती रहने वाली कठिनाइयों को निरस्त करने में भी संकल्प बल की प्रखरता का तथ्य सदा ही सामने आता रहता है।

जीवों में विद्यमान यह अद्भुत क्षमताएं ईश्वरीय विधान की करुणामूलक व्यवस्था है ताकि उसकी संतति हर स्थिति में सुरक्षित बनी रहे। इस स्थिति व्यवस्था का कारण किन्हीं अन्य साधनों पर निर्भर नहीं है, बल्कि वह व्यवस्था स्वयं संचालित होती है। इस व्यवस्था के अनुसार स्वयं ही प्रतिकार हो जाता है और स्वयं ही सुरक्षा, सुफल की व्यवस्था बन जाती है। यह व्यवस्था नियम केवल मनुष्यों या सूक्ष्मजीवियों के लिए ही नहीं है वरन् समष्टि जगत् के सभी प्राणियों के लिए है। विश्व जगत् के सभी प्राणी परमकारुणिक व्यवस्था से लाभान्वित होते और अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करते हैं।
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