ईश्वर का विराट रूप

ईश्वर की अनुभूति कैसे हो?

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जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होगी, वह उतनी ही व्यापक होगी । पंचभूतों में पृथ्वी से जल, जल से वायु वायु से अग्नि और अग्नि से आकाश सूक्ष्म है, इसलिए एक-दूसरे से अधिक व्यापक हैं । आकाश-ईथर तत्त्व हर जगह व्याप्त है, पर ईश्वर की सूक्ष्मता सर्वोपरि है, इसलिए इसकी व्यापकता भी अधिक है । विश्व में रंचमत्र भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ ईश्वर न हो । अणु-अणु में उसकी महत्ता व्याप्त हो रही है । स्थान विशेष में ईश्वर तत्त्व की न्यूनाधिकता हो सकती है । जैसे कि चूल्हे के आस-पास गरमी अधिक होती है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि उस स्थान पर अग्नि-तत्त्व की विशेषता है, इसी प्रकार जलाशयों के समीप शीतल स्थान में अग्नि तत्व की न्यूनता कही जाएगी । जहाँ सत्य का, विवेक का आचरण अधिक है, वहाँ ईश्वर की विशेष कलाएँ विद्यमान हैं । जहाँ आलस्य, प्रमाद, पशुता अज्ञान है, वहाँ उसकी न्यूनता कही जाएगी । संपूर्ण शरीर में जीव व्याप्त है, जीव के कारण ही शरीर की स्थिति में और वृद्धि होती है, परंतु उनमें भी स्थान विशेष पर जीव की न्यूनाधिकता देखी जाती है । हृदय, मस्तिष्क पेट और मर्मस्थानों पर तीब्र आघात लगने से मृत्यु हो जाती है, परंतु हाथ-पाँव, कान-नाक नितंब आदि स्थानों पर उससे भी अधिक आघात सहन हो जाता है । बाल और पके हुए नाखून जीव की सत्ता से बढ़ते हैं, पर उन्हें काट देने से जीव की कुछ भी हानि नहीं होती । संसार में सर्वत्र ईश्वर व्याप्त है । ईश्वर की शक्ति से ही सब काम होते हैं परंतु सत्य और धर्म के कामों में ईश्वरत्व की अधिकता है । इसी प्रकार पाप-प्रवृत्तियों में ईश्वरीय तत्त्व की न्यूनता समझना चाहिए । धर्मात्मा, मनस्वी, उपकारी, विवेकवान और तेजस्वी महापुरुषों को 'अवतार' कहा जाता है क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा के आकर्षण से ईश्वर की मात्रा उनके अंतर्गत अधिक होती है । अन्य पशुओं की अपेक्षा गौ में तथा अन्य जातियों की अपेक्षा ब्राह्मण में ईश्वर अंश अधिक माना गया है क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा, उपकारी स्वभाव ईश्वर भक्ति को बलपूर्वक अपने अंदर अधिक मात्रा में खींचकर धारण कर लेता है ।

उपरोक्त पंक्तियों में है कि संपूर्ण जड़-चेतन सृष्टि का निर्माण, नियंत्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली आद्य बीज शक्ति को ईश्वर कहते हैं । यह संपूर्ण विश्व के तिल-तिल स्थान में व्याप्त है और सत्य की, विवेक की, कर्त्तव्य की जहाँ अधिकता है, वहाँ ईश्वरीय अंश अधिक है । जिन स्थानों में अधर्म का जितने अंशों में समावेश है, वहाँ उतने ही अंश में ईश्वरीय दिव्य सत्ता की न्यूनता है ।

सृष्टि के निर्माण में ईश्वर का क्या उद्देश्य है ? इसका ठीक-ठाक कारण जान लेना मानव बुद्धि के लिए अभी तक शक्य नहीं हुआ । शास्त्रकारों ने अनेक अटकलें इस संबंध में लगाई हैं, पर उनमें से एक भी ऐसी नहीं है जिससे पूरा संतोष हो सके । सृष्टि रचना में ईश्वर का उद्देश्य अभी तक अज्ञेय बना हुआ है । भारतीय अध्यात्मवेत्ता इसे ईश्वर की 'लीला' कहते हैं । अत: ईश्वरवाद का सिद्धांत सर्वथा स्वाभाविक और मनुष्य के हित के अनुकूल है । आज तक मानव समाज ने जो कुछ उन्नति की है, जिसका सबसे बड़ा आधार ईश्वरीय विश्वास ही है । बिना परमात्मा का आश्रय लिए मनुष्य की स्थिति बड़ी निराधार हो जाती है, जिससे वह अपना कोई भी लक्ष्य स्थिर नहीं कर सकता और बिना लक्ष्य संसार में कोई महान कार्य संभव नहीं हो सकता । इसलिए परमात्मा के विराट स्वरूप के रहस्य को समझकर ही हमको संसार में अपनी जीवनयात्रा संचालित करनी चाहिए ।

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