ईश्वर का विराट रूप

ईश्वरवाद की व्याख्या और वास्तविकता

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


यद्यपि ईश्वर संसार का मूल आधार है और सृष्टि के आदि से सभी मनुष्य किसी न किसी रूप में उसे मानते आए हैं, तो भी विद्वानों में इस संबंध में काफी मतभेद हैं । खासकर दार्शनिक विद्वान तो केवल उसकी बात, को स्वीकार कर सकते हैं जो तर्कसंगत हो । इस दृष्टि से ईश्वरवाद के सिद्धांत की विस्तारपूर्वक व्याख्या की जानी आवश्यक है ।

वैदिक ईश्वरवाद का विश्लेषण करने पर हम उसके अंतर्गत निम्न तत्त्वों का समावेश पाते हैं- (१) ईश्वर हमारे गुप्त कार्यों और विचारों को भी जानता है, वह बहुत बल वाला है । (२) ईश्वर प्रसन्न होने पर भौतिक सुख-सामग्रियाँ और परलोक में स्वर्ग एवं मोक्ष देता है । (३) वह नाराज होने पर दैविक दैहिक और भौतिक कष्ट देता है । (४) धर्माचरण और उपासना से वह प्रसन्न होता है, पापी और नास्तिक पर अप्रसन्न होता है । अनेकानेक मंत्र, सूत्र श्लोक इन्हीं चार धारणाओं के आस-पास चक्कर लगाते हैं । अर्थात नाना प्रकार से इन्हीं चार बातों का प्रतिपादन-उपदेश करते हैं । अब हमें विचार करना चाहिए कि कैसी बुद्धिमत्तापूर्वक मानसिक शासन करने की यह व्यवस्था है । ईश्वर सर्वव्यापक होने से हमारे सब कामों को देखता है यह शासन की अत्यंत व्यापकता के लिए है । देखा गया है कि पुलिस थाने के पास चोर लोग उपद्रव नहीं मचाते पर जहाँ पुलिस की पहुँच कम और देर में होती है वहाँ चोरियाँ-डकैतियों अधिक होती हैं । भरी हुई चलने वाली सड़कों पर तो लूट नहीं हो सकती पर निर्जन स्थानों में लुटेरों की खूब घात लगती है । प्रकाश की अपेक्षा अंधकार में अपराध अधिक होते हैं । इससे प्रतीत होता है कि दुष्टता भरे काम की अधिकता एवं न्यूनता इस बात पर निर्भर है कि चोर को कोई देखता है या नहीं ? देखने वाला पहलवान है या नहीं ? बंदर किसी छोटे बच्चे को कमजोर समझकर उसके हाथ से रोटी छीन ले जाता है पर बड़े आदमी की ओर बढ़ने में उसकी हिम्मत नहीं पड़ती क्योंकि बंदर जानता है कि बलवान आदमी सहज में रोटी नहीं छीनने देगा और डंडे से हड्डी-पसली तोड़कर रख देगा । ईश्वर अनंत बल वाला है सर्वव्यापक है और पाप से अप्रसन्न होता है । इसका अर्थ दूसरे शब्दों में यह हो सकता है कि कोई हाथी जैसे बल वाला पुलिस का खुफिया सिपाही हाथ में संगीन और हथकड़ी लिए अदृश्य रूप से हमारी निगरानी के लिए हर वक्त सिर के ऊपर उड़ता-फिरता है । यह विश्वास जितना ही अधिक सच्चा स्पष्ट और बलवान होता है उतना ही मनुष्य धर्मप्रिय बन जाता है । उपरोक्त विश्वास जितना ही संशयात्मक अस्पष्ट धुँधला और निर्बल होता है उतना ही स्वच्छंदता एवं दांभिकता बढ़ती जाती है । अपराधी मनोवृत्ति उसी मात्रा में बढ़ती जाती है । ईश्वरीय शासन नहीं है, संदेहात्मक एवं निर्बल है ऐसी मान्यता बढ़ने से मानसिक अराजकता फैलती है । जब गदर होता है तब उपद्रवी लोग पूरी तरह स्वार्थ-साधन करते हैं क्योंकि उनका विश्वास होता है कि राजसत्ता नष्ट या निर्बल हो गई है, वह हमें दंड नहीं दे सकती । हम देखते हैं कि ईश्वर भक्त कहाने वाले लोग भी बड़े पापकरते हैं इसका मनोवैज्ञानिक हेतु यह है कि पाखंड की तरह लोगों को भुलावे में डालने के लिए सस्ती वाहवाही लूटने के निमित्त वे लंबे-चौड़े तिलक लगाते हैं, कंठीमाला धारण करते हैं रामधुन लगाते हैं पर मानसिक भूमिका के अंतर्गत ईश्वर की अत्यंत ही धुँधली सत्ता धारण किए रहते हैं । ऊपर की पंक्तियों में अदृश्य रूप से चौकीदारी करते हुए सिर पर उड़ने वाले पुलिस मैन के समतुल्य जिस कल्पना का उल्लेख किया गया है, वह चित्र तो उनके मन में बहुत ही धुँधला होता है । इसलिए मानसिक अराजकता केअंधेरे में उनकी पशु-प्रवृत्तियाँ मनमानी करती रहती हैं ।

ईश्वरवाद का वह प्रथम सिद्धांत ही आधारभूत है । ऐसी घड़ी किस काम की जिसमें सुइयाँ न हों । बेपेंदी का लोटा भला किसी की क्या प्यास बुझा सकता है ? वेद के जितने ही मंत्रों में ईश्वर संबंधी वर्णन है । उनके अधिकांश भाग में ईश्वर के महानता सूचक गुणों का गान है । उन गुणों में भी सर्वव्यापकता और बल शालीनता का उल्लेख अधिक किया है । प्रयोजन यह है कि मनुष्यों के मस्तिष्क में यह चित्र बहुत ही साफ और सुदृढ़ बन जाए कि वह अनंत बल वाला शंख चक्र गदा जैसे कठोर दंड शास्त्रों से सुसज्जित ईश्वर पाप से बहुत कुढ़ता है और हमारी चौकीदारी के लिए अदृश्य रूप से हर घड़ी साथ रहता है । जिसके मन में यह कल्पना चित्र जितना अधिक गहरा और श्रद्धा विश्वासमय है वह उतना ही बड़ा आस्तिक है । जिसके अंतःकरण में यह विश्वास जितना निर्बल है वह उतने ही अंशों में नास्तिक है ।

चार सिद्धांतों में ऊपर कहा हुआ सर्वव्यापकता का सिद्धांत प्रमुख है । शेष तीन उसकी पूर्ति के लिए हैं । प्रसन्न प्रलोभन का तत्त्व मौजूद है जो पशु स्वभाव को ललचाने के लिए आवश्यक है । धर्मग्रंथों का बहुत बड़ा अंश माहात्म्य' के वर्णन में लिखा हुआ है । गंगास्नान से पाप कट जाते हैं, सत्यनारायण की कथा सुनने से धन प्राप्त होता है शंकर जी औघड़दानी हैं, वे खुश हो जाएँ तो मालामाल कर देते हैं हनुमान जी रोगों, भूत-पिशाचों को मार भगाते हैं, तुलसी पूजन से लड़की को अच्छा वर एवं लड़के को गुड़िया सी बहू मिलती है । ब्रह्मकुंड में स्नान करने से संतान होती है । हर एक तीर्थ का व्रत-उपवास का, पुस्तक सुनने-पढ़ने का, सत्संग का निदान छोटे से बड़े तक सभी उत्तम कामों के हिंदू धर्मग्रंथों में बड़े-बड़े माहात्म्य लिखे मिलते हैं । वह सब मनुष्य के पशु स्वभाव को ललचाने के लिए हैं ।बैल को घास के तृण दिखाते ले जाइए वह आपके पीछे-पीछे चला चलेगा । छोटी मानस चेतना वालों के लिए प्रलोभन आवश्यक समझकर माहात्म्यों का उल्लेख करना धर्माचार्यों के लिए अत्यंत आवश्यक था इसके बिना वह कार्य आगे न बढ़ता और गाड़ी रुक जाती । ईश्वर के संबंध में भी उन्हें इसी नीति का अवलंबन करना पड़ा ।

तार्किक लोग अकसर यह कहते सुने जाते हैं कि भजन का कुछ माहात्म्य नहीं, भजन करने वालों को कोई ऐसी संपदा नहीं मिलती जो भजन न करने वालों को न मिलती हो । यदि मिलती है तो उसमें उनका कर्त्तव्य हेतु होता है भजन नहीं । ऐसे महानुभावों से हमारा निवेदन है कि वे हर बात में तर्क न करें । ''दूध पीने से चोटी बढ़ जाएगी ।'' ऐसे उपदेश माताएँ अपने बच्चों को अधिक दूध पिलाने के लिए करती हैं । ''अमुक काम कर लावेगा तो राजा बेटा हो जाएगा'' ऐसे-ऐसे प्रलोभनों द्वारा माताएँ अपने बालकों को आज्ञानुवर्ती बनाती हैं । यदि माताएँ इस मार्ग को छोड़कर अधिक दूध पिलाने के लिए बच्चों को समझाएँ कि ''दूध में विटामिन, कैल्शियम, फास्फोरस, प्रोटीन आदि ऐसे तत्त्व हैं जो रक्त के श्वेत कीटाणुओं की वृद्धि करते हैं'', तो यह उपदेश सत्य होने पर भी निरर्थक होगा । आज्ञानुवर्ती बनाने के लिए यदि वे राजाबेटा होने का प्रलोभन छोड़ दें और मनुस्मृति के श्लोक खोलकर धर्मोपदेश सुनावें एवं बच्चों को अल्पज्ञ होने के कारण माता की आज्ञा मानने से ही अधिक मानसिक विकास होता है ऐसा उपदेश करें, तो वह निरर्थक होगा । तार्किक कह सकते हैं कि माता झूठ बोलती है, चोटी बढ़ाने और राजा बेटा होने का प्रलोभन असत्य है । परंतु इतना कहने से ही काम न चलेगा उन्हें वास्तविकता की पेचीदगी तक पहुँचना होगा । छोटे बच्चे का अविकसित मस्तिष्क लोभ के अतिरिक्त और किसी ढंग से प्रभावित नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार धर्माचार्यों ने भी मार्ग में बालबुद्धि स्वल्प ज्ञान रखने वालों के लिए नाना प्रलोभनों से युक्त माहात्म्यों की रचना की और कोई मार्ग भी तो उनके पास नहीं था । इस प्रकार ईश्वर की कृपा से ही सुख मिल सकता है, ऐसी मान्यता रखने वालों से हमारा कुछ विरोध नहीं है । शास्त्र में ईश्वर शब्द बहुत अर्थवाचक है, कहीं-कहीं इसका अर्थ कर्म भी होता है । कर्त्तव्यवादी इस स्थल पर ईश्वर शब्द का अर्थ कर्म करते हों तो कोई आपत्ति नहीं है ।

इसके बाद भय का नंबर आता है । अप्रसन्न होने पर ईश्वर नाना प्रकार के दंड देता है । यह प्रलोभन वाले उपरोक्त भाग का दूसरा पहलू है । किसी पदार्थ के दो पहलू होते हैं- एक उजाला दूसरा अँधेरा । ब्रह्मचर्य रखने से बलवान बनोगे यह वीर्य रक्षा का उजेला पहलू है । वीर्य नाश करने से रोगों से ग्रसित हो जाओगे यह उसी एक सिद्धांत का अँधेरा पहलू है । विद्या पढ़ने से कितने सुख मिलेंगे जब यह बताया जाता है, तो यह भी कहा जाता है कि न पढ़ने से बहुत अभावग्रस्त एवं दुखी जीवन बिताना पड़ेगा । इसी प्रकार जहाँ ईश्वर की प्रसन्नता से सुख मिलना कहा गया है, वहाँ उसका अँधेरा पहलू यह भी बताया गया है कि ईश्वर के नाराज होने से दुःख और कष्ट मिलते हैं । लाभ को उजला कहा जाता है, भय उसका अँधेरा पहलू है । लोभ से भी आगे न चलने वाले पशु स्वभाव के लिए अंतिम मार्ग भय ही बच रहता है । धर्म आज्ञाओं पर न चलोगे तो ईश्वर नाना प्रकार की आधि-व्याधियों से व्यथित कर डालेगा । यह भावना अधर्म पर चलने से रोकती है । यदि गहरा विश्वास जम जाए तो निस्संदेह जीवन की सारी क्रियाएँ उसी के अनुकूल होने लगती हैं । पानी में डूबने से मृत्यु हो जाती है । यह विश्वास सदैव गहरे पानी में जाने से सावधान करता रहता है । प्रत्यक्ष रूप से डूबकर मरने का अनुभव अपने को चाहे जीवन भर न हुआ हो पर विश्वास अनुभव से भी अधिक प्रबल होता है । अनुभव को भूला जा सकता है, पर विश्वास का विस्मरण नहीं होता । भूतों का विश्वास अधिकांश में कल्पित होता है, पर उस अंधविश्वास से ही अगणित व्यक्ति सुख-दुःख का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, कितने ही तो उसी में उलझकर मर तक जाते हैं । निस्संदेह विश्वास बड़ी प्रबल शक्ति है । ईश्वर पाप का दंड देता है । यदि इस बात का पूर्ण निश्चय हो जाए तो संगीन के पहरे में हथकड़ी लगा हुआ कैदी जैसे भलमनसाहत के साथ चलता है वैसा ही आचरण ईश्वरवादी को करना पड़ेगा ।

चौथा तत्त्व यह है कि धर्माचरण और उपासना से ईश्वर प्रसन्न होता है इसके विपरीत से अप्रसन्न । धर्माचरण की बात हम उपरोक्त पंक्तियों में विस्तारपूर्वक समझा चुके हैं कि तुच्छ स्वार्थ से, पशुवृत्ति से, सामाजिक जीवन की ओर बढ़ने के लिए धर्म का सारा विधान है और उस विधान की रक्षा के लिए ईश्वरीय शासन की स्थापना है । इसलिए यह बात सामने आने पर भारी संदेह उठ खड़ा होता है क्योंकि इससे तो ईश्वर चापलूसी पसंद, पक्षपाती, नवाब प्रकृति का सिद्ध होता है । उसकी अलिप्तता, समदर्शीपन, निस्पृहता पर स्पष्ट आक्षेप आता है और वह भी साधारण मनोविकारी मनुष्य की सीमा में आ जाता है । इस संदेह का समाधान करने के लिए केवल शुष्क वाद-विवाद से काम न चलेगा वरन हमें गहराई में उतरकर उस निमित्त का पता लगाना होगा जिसके कारण ईश्वर को उपासनाप्रिय स्वभाव वाला माना गया है । डॉक्टर ने अपने अनुसंधानों के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया है कि मूल वृत्तियों के विरुद्ध यदि कोई नवीन मार्ग निकालना हो तो उसके बार-बार लगातार और कठोर प्रयत्न द्वारा नई आदत डालनी पड़ती है, इस पर भी वह आदत इतनी निर्बलहोती है कि कुछ दिनों उसकी ओर से उदासीनता धारण कर ली जाए तो वह मिट जाती है । इसलिए ऐसी आदतों को सुरक्षित करने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना पड़ता है । यह अनादि सत्य वैदिक ऋषियों को भी ज्ञात था । उन्होंने सोचा कि ईश्वरीय शासन की सर्वांगीण व्यवस्था बना देने पर भी यह पशु-प्रवृत्तियों के मुकाबले में हलकी रहेगी और जरा भी ढील देने पर कठिनाई बढ़ जाएगी । इसलिए नित्य कई-कई विशेष प्रेम एवं भक्ति के साथ मूर्तिपूजा के सहारे ध्यान में मग्न होकर नित्य नैमित्तिक कर्मकांडों द्वारा ईश्वर की पूजा, उपासना करते रहने का आदेश किया । पतंग बनाई जाए उसमें डोरी बाँधी जाए हवा में उड़ाई जाए फिर डोरी को हाथ में से छोड़ दिया जाए तो सारा प्रयत्न निरर्थक हो जाए । जब तक पतंग को हवा में उड़ाना है, तब तक डोरी को हाथ में रखना चाहिए उसकी गतिविधि का संचालन करना चाहिए । फौजी सिपाहियों को नित्य परेड करनी पड़ती है ताकि वह उस शिक्षा को भूल न जाएँ वरन अभ्यस्त बने रहें । धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर का शासन बनाया गया, पर बिना नियमितता के वह शासन विधान कैसे चलेगा ? चूँकि ईश्वरवाद नया शिक्षण है, स्वार्थों को जीवन जानता है, पर ईश्वर के बारे में उसकी मनुष्य योनि में ही ज्ञान मिलता है । पुरानी आदत के मुकाबले में नई, निश्चय ही कमजोर होती है । जंगली सुग्गा बेर-जामुन खाया करता है, पर सोने की पिंजड़े में दाख, अंगूर खाने का नया सुख ग्रहण करने के लिए पकड़ा जाना पसंद नहीं करता । पिंजड़े में उत्तम रहन-सहन मिलने पर भी वह फिर से उड़ जाने का यत्न किया करता है, पिंजड़े की तीलियों से लड़ते हुए भागने का उसका यह यत्न नित्य ही देखा जा सकता है । यदि पिंजड़ा कमजोर हो तो संभव है कि नई सुव्यवस्था को ठुकराकर सुग्गा उड़ जाए चाहे उसे जंगल में कष्ट ही क्यों न सहना पड़े ? यही देवासुर संग्राम मनुष्य के मन में नित्य होता है । आगे बढ़ने और पीछे हटने की रस्साकशी ही खिंची रहती है । ढील पड़ते ही गुड़-गोबर हो सकती है । इसलिएईश्वरवाद के आचार्यों ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि ईश्वर की नित्य उपासना, करनी चाहिए । इसके बिना ईश्वरीय शासन पर विश्वास करने का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता । यही लाभ प्राप्त करना ईश्वर की प्रसन्नता एवं उसे प्राप्त न करना उसकी अप्रसन्नता के अर्थों में कहा गया है ।

हम मानते हैं कि ईश्वर निस्पृह है उसे निंदा-स्तुति की आवश्यकता नहीं, परंतु यह भी मानना पड़ेगा कि नित्य की उपासना किए बिना ईश्वरीय शासन का विश्वास मन में दृढ़ बनाए रखना कठिन है । प्रसन्नता- अप्रसन्नता को आलंकारिक शब्दों में यहाँ इसी प्रयोजन से प्रयोग किया गया है । प्रसन्न होना सुख देना, अप्रसन्न होना दुःख देना ईश्वर के इस कार्यक्रम पर हम मोटी दृष्टि से वाद-विवाद करके किसी ठीक निश्चय पर नहीं पहुँच सकते । यदि हम आज इसका भावार्थ यों समझें कि ईश्वर उपासना में मनुष्य अपने पशु स्वभाव को दबाए रहकर सुख-शांतिमय जीवन बिताता रह सकता है, तो यह अर्थ ठीक शास्त्रकार की आंतरिक इच्छा के ही अनुकूल होगा । माहात्म्यों का वर्णन करते समय प्रलोभनों का समावेश जिस दृष्टि से हुआ है उसी दृष्टि से, उपासना से ईश्वर के प्रसन्न होने और सुख देने का वर्णन है । मूल तात्पर्य इतना ही है कि ईश्वरीय विश्वासों को दृढ़ रखने का निरंतर अभ्यास रखना आवश्यक है, जिससे धर्माचरण के लिए हमारे पूज्य पूर्वजों ने जो गढ़ मानसिक रहस्यों के आधार पर ईश्वरवाद की महत्त्वपूर्ण व्यवस्था बनाई है, वह सुदृढ़ और सुव्यवस्थित बनी रहे ।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: