ईश्वर का विराट रूप

ईश्वर का विराट रूप

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गायत्री मंत्र में प्रयुक्त ''ॐ भूर्भुव: स्व:'' ईश्वर के विराट स्वरूप की झाँकी कराता है-


भूर्भुव: स्वस्त्रयो लोका व्याप्तमोम्ब्रह्म तेषु हि ।

स एव तथ्यतो ज्ञानी पस्तदवेत्ति विचक्षण: ॥

अर्थात ''भू: भुव: स्व: ये तीन लोक हैं । इनमें 'ओ३म्' ब्रह्म व्याप्त है । जो उस ब्रह्म को जानता है वास्तव में वही ज्ञानी है ।''


 भू:(पृथ्वी), भुव:(पाताल), स्व:(स्वर्ग) ये तीनों ही लोक परमात्मा से परिपूर्ण हैं । इसी प्रकार भू:(शरीर), भुव:(संसार), स्व:(आत्मा) ये तीनों ही परमात्मा के क्रीड़ास्थल हैं । इन सभी स्थलों को, निखिल विश्व-ब्रह्मांड को, भगवान का विराट रूप समझकर, उस उच्च आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए जो गीता के ११वें अध्याय में भगवान ने अपना विराट रूप बतलाकर अर्जुन को प्राप्त कराई थी ।
 
प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ में, प्रत्येक परमाणु में, भू: भुव: स्व: में, सर्वत्र 'ओ३म्' ब्रह्म को व्याप्त देखना, प्रत्येक वस्तु में विश्वव्यापी परमात्मा का दर्शन करना, एक ऐसी आत्मिक विचारपद्धति है, जिसके द्वारा विश्व सेवा की भावना पैदा होती है । इस भावना के कारण संसार के प्रत्येक पदार्थ एवं जीव के संबंध में एक ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है, जिसके कारण अनुचित स्वार्थ-साधन का नहीं वरन सेवा का ही कार्यक्रम बन पड़ता है । ऐसा व्यक्ति प्रभु की इस सुरम्य वाटिका के किसी भी कण के साथ अनुचित अथवा अन्यायमूलक व्यवहार नहीं कर सकता ।

कर्त्तव्यशील पुलिस, न्यायाधीश अथवा राजा को सामने खड़ा देखकर कोई पक्का चोर भी चोरी करने या कानून तोड़ने का साहस नहीं कर सकता । इसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन में यह भावना दृढ़तापूर्वक समाई हुई है कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है और हजार आँखों में उसके हर विचार और कार्य को देख रहा है तो उसकी यह हिम्मत ही हो सकती है कि कोई पाप गुप्त या प्रकट रूप से करे ।

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