सात्विकता की ऊँची कक्षा को ब्रह्म कहते हैं, वैसे तो परमात्मा सत्,रज, तम तीनों गुणों में मौजूद है पर उसकी ब्राह्मी ज्योति सतोगुण में ही है । सात्विक भाव, ब्रह्मकेंद्र से ही उत्पन्न होते हैं । मनुष्य के मन में यों तोअनेक प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं, पर जब सतोगुणी आकांक्षाएँउत्पन्न होती हैं तो उनका उद्गम केंद्र प्रेरकबिंदु वह ब्रह्म ही होता है । ऋषियों में, महात्माओं में, संतों में, सत्पुरुषों में हम परमात्मा का अधिकअंश देखते हैं, उन्हें परमात्मा के समीप समझते हैं और ऐसा मानते हैं किपरमात्मा की उन पर कृपा है । परमात्मा की विशेष सत्ता उनमें मौजूद है । यह सत का आधिक्य ही ब्राह्मी स्थिति है । पूर्ण सात्विकता में जोअधिष्ठित हो जाते हैं, वे 'ब्रह्म निर्वाण' प्राप्त कहे जाते हैं ।
मनुष्य की अंतश्चेतना प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से बनी हुईहै । मन, बुद्धि और चित्त अहंकार प्रकृति के भौतिक तत्त्वों द्वारा निर्मित हैं,जो कुछ हम सोचते, विचारते, धारण या अनुभव करते हैं, वह कार्यमस्तिष्क द्वारा होता है । मस्तिष्क की इच्छा, आकांक्षा रुचि तथा भावनाइंद्रिय रसों तथा सासांरिक पदार्थों की भली-बुरी अनुभूति के कारण होतीहै । मस्तिष्क में जो कुछ ज्ञान, गति और इच्छा है, वह सांसारिक स्थूलपदार्थोँ के आधार पर ही बनती है । स्वयं मस्तिष्क भी शरीर का एक अंगहै और अन्य अंगों की तरह वह भी पंचतत्वों से, प्रकृति से बना हुआ है ।इस अंतःकरण चतुष्टय से परे एक और सूक्ष्म चेतना केंद्र है जिसे आत्माया ब्रह्म कहते हैं । यह ब्रह्म सात्विकता का केंद्र है । आत्मा में से सदा हीसतोगुणी प्रेरणाएँ उत्पन्न होती हैं । चोरी, व्यभिचार, हत्या ठगी आदि दुष्कर्म करते हुए हमारा दिल धड़कता है, कलेजा काँपता है, पैर थरथरातेहैं, मुँह सूखता है, भय लगता है और मन में तूफान सा चलता है । भीतरही भीतर एक सत्ता ऐसा दुष्कर्म करने के लिए रोकती है । यह रोकने वालीसत्ता आत्मा है । इसी को ब्रह्म कहते हैं, असात्विक कार्य, नीचता, तमोगुण पाप और पशुता से भरे हुए कार्य उसकी स्थिति से विपरीत पड़तेहैं, इसीलिए उन्हें रोकने की भीतर ही भीतर प्रेरणा उत्पन्न होती है । यहप्रेरणा शुभ-सतोगुणी पुण्य कर्मों को करने के लिए भी उत्पन्न होती है । कीर्ति से प्रसन्न होना मनुष्य का स्वभाव है और यह स्वभावअच्छे-अच्छे प्रशंसनीय, श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रोत्साहन करता है ।शुभ कर्मों से यश प्राप्त होता है और यश से प्रसन्नता प्राप्त होती हैं ।यश न भी मिले तो भी सत्कर्म करने के उपरांत अंतरात्मा में एक शांतिअनुभव होती है, यह आत्मतृप्ति इस बात का प्रमाण है कि अंतःकरणकी अंतरंग आकांक्षा के अनुकूल कार्य हुआ है । दया प्रेम, उदारता,त्याग, सहिष्णुता उपकार, सेवा-सहायता, दान, ज्ञान, विवेक की सुख-शांतिमयी इच्छा तरंगें आत्मा में से ही उद्भूत होती हैं । यहउद्गम केंद्र ही ब्रह्म है ।
वेदांत दर्शन ने सारी शक्ति के साथ यही प्रतिपादित किया है कि आत्माही ईश्वर है । 'तत्त्वमसि', 'सोsहम्', 'शिवोsहम्', 'अयमात्मा ब्रह्म' सरीखेसूत्रों का अभिप्राय यही है कि आत्मा ही ब्रह्म है ईश्वर का प्रत्यक्ष अस्तित्वअपनी आत्मा में ही देखने की वेदांत की साधना है । अन्य ईश्वर भक्त भीअंतःकरण में परमात्मा की झाँकी करते हैं असंख्यों कविताएँ श्रुतिवचन ऐसेउपलब्ध होते हैं जिनमें यह प्रतिपादन किया गया है कि ''बाहर ढूँढ़ने सेनहीं अंदर ढूँढ़ने से परमात्मा मिलता है।'' संत कबीर ने कहा है कि परमात्मा हमसे चौबीस अंगुल दूर है । मन का स्थान मस्तिष्क और आत्मा का स्थान हृदय है । मस्तिष्क सेहृदय की दूरी चौबीस अंगुल है । इस प्रतिपादन में ईश्वर को अंतःकरणमें स्थित बताया गया है ।
मनुष्य दैवी और भौतिक तत्वों से मिलकर बना है । इसमें मन भौतिकऔर आत्मा दैवी तत्त्व है । आत्मा में तीन गुण हैं-सत् चित् और आनंद । वह सतोगुणी है श्रेष्ठ शुभ दिव्य मार्ग की ओर प्रवृत्ति वाला एवं सततहमेशा रहने वाला अविनाशी है । चित-चैतन्य, जाग्रत, क्रियाशील, गतिवानहै, किसी भी अवस्था में वह क्रियारहित नहीं हो सकता । आनंद, प्रसन्नता, उल्लास, आशा तथा तृप्ति उसका गुण है । आनंद की दिशा में उसकीअभिरुचि सदा ही बनी रहती है । आनंद अधिक आनंद अति आनंदउपलब्ध करना उसके लिए वैसा ही प्रिय है जैसा मछली के लिए जल ।मछली जलमग्न रहना चाहती है, सत् चित् आनंद गुण वाली आत्मा में जैसे-जैसे निकटता होती जाती है वैसे ही वैसे मनुष्य अधिक सात्त्विकअधिक क्रियाशील और अधिक आनंदमग्न रहने लगता है । योगीजन ब्रह्मकी प्राप्ति के लिए साधना करते हैं । इस साधना का कार्यक्रम यह होता हैकि आत्मा की प्रेरणा के अनुसार मन की सारी इच्छा और कार्य प्रणाली हो ।भौतिक पदार्थों के नाशवान, अस्थिर और हानिकर आकर्षणों की ओर से मुँह मोड़कर जब आत्मा की प्रेरणा के अनुसार जीवनचक्र चलने लगता है तो मनुष्य साधारण मनुष्य न रहकर महान मनुष्य बन जाता है । ऐसे महापुरुषों केविचार और कार्य सात्विकता, चैतन्यता और आनंददायक स्थिति से परिपूर्णहोते हैं । उन्हें संत महात्मा, योगी तपस्वी परमहंस सिद्ध आत्मदर्शी याब्रह्मपरायण कहते हैं। जिनका ब्रह्मभाव आत्मविकास पूर्ण सात्विकता तक विकसित हो गया है समझना चाहिए कि उन्होंने ब्रह्म को प्राप्त कर लिया,उन्हें आत्मदर्शन हो गया।