गायत्री और यज्ञोपवीत

ब्रह्मसूत्र का प्रयोजन

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यज्ञोपवीत का वास्तविक प्रयोजन मन पर शुभ संस्कार जमाना है । आत्मा को ब्रह्मपरायण करने के लिए अनेक प्रकार के, साधन, वत अनुष्ठान विभिन्न धर्मों में बताये गये हैं । हिन्दू- धर्म के ही प्रधान साधनों में एक यज्ञोपवीत है । ब्रह्मसूत्र धारण करके लोग ब्रह्म तत्व में परायण हों, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रह्मसूत्र है । यदि उससे प्रेरणा ग्रहण न की जाए तो वह गले में डोरा बाँधने से अधिक कुछ नहीं ।

उपनिषदों में ज्ञानरूपी उपवीत धारण करने पर अधिक जोर दिया गया है । सूत्र धारण का उद्देश्य भी ब्रह्मपरायणता में प्रवृत्ति करना है । यह प्रवृत्ति ही आत्म-लाभ कराती है ।

येन सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणि गणा इव ।
        तत्सूत्रं धारयेद्योगी योगतत्त्वञ्च दर्शितम् ।।
             बहिः सूत्रं त्यजेद्विद्वान् योगमुत्तममास्थित: ।
  ब्रह्मभावमयंसूत्रं धारयेद्यः स चेतन: ।।
        धारणात्त सूत्रस्य नोच्छिष्टो ना शुचिर्भवेत् ।
    सूत्रमन्तर्गतं येषां ज्ञान यज्ञोपवीतिनाम् ।
   ते वै सूत्रविदो लोके ते च यज्ञोपवीतिन: ।
  ज्ञानमेव परं निष्ठा पवित्रं ज्ञानमुत्तमम्
              अग्निरिव शिखानान्या यस्य ज्ञानमयी शिखा ।।
                              स शिखीत्युच्यते विद्वानितरे केशधारिण: ।  - ब्रह्मोपनिषद्

अर्थात्- जिस ब्रह्मरूपी सूत्र में यह सब विश्व मणियों के समान पिरोया हुआ है, उस सूत्र- यज्ञोपवीत को तत्त्वदर्शियों को धारण करना चाहिए । बाहरी सूत्र की ओर अधिक ध्यान न देकर जो ब्रह्मभाव रूपी सूत्र को धारण करता है, वह चैतन्य है । उस ज्ञानरूपी आध्यात्मिक यज्ञोपवीत को धारण करना चाहिए जो कभी अपवित्र नहीं होता । जिनके ज्ञानरूपी शिखा है और जो निष्ठारूपी यज्ञोपवीत धारी हैं वे ही सच्चे शिखाधारी और सच्चे यज्ञोपवीतधारी हैं तप के समान दूसरी शिखा नहीं है । जिसके ज्ञानमयी शिखा है उसे ही विद्वान् लोग शिखाधारी कहते हैं अन्य तो बाल रखने वाले मात्र हैं ।

सिख सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थों में ऐसा ही जनेऊ धारण करने पर जोर दिया गया है । केवल मात्र बाहरी जनेऊ से ही काम नहीं चलता । आत्मिक यज्ञोपवीत को धारण करने में ही वास्तविक कल्याण है । मानसिक सद्गुणों का सूत्र धारण किये बिना केवल बाह्य उपकरण मात्र से ही प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता ।परन्तु आध्यात्मिक साधना करने वाले व्यक्ति बिना बाह्य उपकरण के अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं ।

दया कपास संतोख सूत, जत गँठी सत बट्ठा ।
एक जनेऊ जीऊ का,  हईता पांडे धत्त ।।  
वां एक तुटै न मल लगै ना, इहु जलै न जाय ।
अन्य सो मानस नानका, जो गल चल्ले पाय ।।  


अर्थात्- हे पण्डित! दयारूपी कपास का सन्तोष रूपी सूत बनावे और सत्य की ऐंठ देकर जत (इन्द्रिय निग्रह) की गाँठ लगावे । जीव को यदि ऐसा यज्ञोपवीत आपके पास है तो पहनाओ । इस प्रकार का यज्ञोपवीत न तो टूट सकता है और न मलिन हो सकता है । न जल सकता है, न विनष्ट हो सकता है । वह मनुष्य धन्य है जो ऐसा यज्ञोपवीत गले में पहनता है ।

पत बिन पूजा, सत बन संजम,  जत बिन काहे जनेऊ ।  -  राग रामकली महला अष्टपदी १।५

अर्थात्- विश्वास के बिना पूजा सत्य के बिना संयम और इन्द्रिय निग्रह के बिना जनेऊ का क्या महत्व है ।
२- अर्थात्- जनेऊ का महत्त्व तभी है जब उसके साथ- साथ विश्वास सत्य संयम आदि आत्मिक भी हों ।


जो साधक मनोसंयम की तक पहुँच जाते है, उनके लिए कर्मकाण्डों का प्रयोजन शेष नहीं रह जाता । इसलिए चतुर्थ आश्रम में जाने पर सन्यासी लोग शिखा सूत्र अग्निहोत्र आदि का परित्याग कर देते है ।

ऐसी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त एक महात्मा अपने सन्ध्या- वन्दन न करने का कारण बताते हुए कहते हैं कि-

हृदाकाशेचिदादित्य: सर्वदैव प्रकाशते ।
नास्तमेति न चोदेति कथं  सन्ध्यामुपास्महे ।।



'' हृदय आकाश में सदा ज्ञानरूपी सूर्य प्रकाशित रहता है । यह सूर्य कभी अस्त नहीं होता न उदय होता है, अतएव  सन्ध्याकाल ही नहीं आता । फिर सन्ध्या- वन्दन किस समय करें ?'


मृता मोहमयी माता जातो ज्ञानमय: सुतः।
पातकं सूतकं नित्यं कथं सन्ध्यामुपास्महे ।।



'मोह रूपी माता मर गई है और ज्ञानरूपी पुत्र पैदा हुआ है । इसलिए सदा सूतक और पातक लगे रहते हैं ऐसी दशा में सध्या- वन्दन किस प्रकार करें ?'

आरम्भिक अवस्था में सहायक साधनों की आवश्यकता अनिवार्य है । जैसे शुरू के विद्यार्थी के लिए पुस्तक, कापी, पट्टी, खड़िया आदि नितान्त आवश्यक हैं इनके बिना शिक्षा आगे नहीं बढ़ सकती । परन्तु कालान्तर में वही बालक जब प्रोफेसर हो जाता है तो फिर खड़िया, पट्टी आदि की जरूरत नहीं होती । वह शिक्षा उसे पूर्ण रूप से हृदयङ्गम हो जाती है । इसी प्रकार आत्म- साधन में सफलता प्राप्त करने वाले संन्यासी को भी शिखा सूत्र की आवश्यकता नहीं होती ।


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