गायत्री और यज्ञोपवीत

गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा-यज्ञोपवीत

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यज्ञोपवीत को ‘‘ब्रह्मसूत्र’’ भी कहा जाता है। सूत्र डोरे को भी कहते हैं और उस संक्षिप्त शब्द-रचना को भी जिसका अर्थ बहुत विस्तृत होता है। व्याकरण, दर्शन, धर्म, कर्मकाण्ड आदि के अनेकों ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनमें ग्रन्थकर्ताओं ने अपने मन्तव्यों को बहुत ही संक्षिप्त संस्कृत वाक्यों में सन्निहित कर दिया है। उन सूत्रों पर लम्बी-लम्बी वृत्तियां, टिप्पणियाँ तथा टीकाएं हुई हैं, जिनके द्वारा उन सूत्रों में छिपे हुए अर्थों का विस्तार होता है। ब्रह्मसूत्र में यद्यपि अक्षर नहीं हैं, तो भी संकेतों से बहुत कुछ बताया गया है। मूर्तियां, चिन्ह, चित्र, अवशेष आदि के आधार पर बड़ी-बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती हैं। यद्यपि इनमें अक्षर नहीं होते तो भी वे बहुत कुछ प्रकट करने में समर्थ हैं। इशारा करने से एक मनुष्य अपने मनोभाव दूसरों पर प्रकट कर देता है। भले ही उस इशारे में किसी शब्द या लिपि का प्रयोग नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत के ब्रह्मसूत्र यद्यपि वाणी और लिपि से रहित हैं, तो भी उनमें एक विशद् व्याख्यान की अभिभावना भरी हुई है।

गायत्री को गुरुमन्त्र कहा गया है। यज्ञोपवीत धारण करते समय जो वेदारम्भ कराया जाता है, वह गायत्री से कराया जाता है। प्रत्येक द्विज को गायत्री जानना उसी प्रकार अनिवार्य है, जैसे कि यज्ञोपवीत धारण करना। यह गायत्री-यज्ञोपवीत का जोड़ा ऐसा ही है जैसा लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधे-श्याम, प्रकृति-ब्रह्म, गौरी-शंकर, नर-मादा का जोड़ा है। दोनों की सम्मिश्रण से ही एक पूर्ण इकाई बनती है। जैसे स्त्री-पुरुष की सम्मिलित व्यवस्था का नाम ही गृहस्थ है, वैसे ही गायत्री उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। उपवीत सूत्र है तो गायत्री उसकी व्याख्या है। दोनों की आत्मा एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, और ‘धियोयोन: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है। तीन तारों का क्या तात्पर्य है, इसमें क्या सन्देश निहित है, यह बात समझना हो तो गायत्री के इन तीन चरणों को भली प्रकार जान लेना चाहिए।

उपवीत में तीन प्रकार की ग्रन्थियां और एक ब्रह्म ग्रन्थि होती है। गायत्री में तीन व्याहृतियां (भू: भुव: स्व:) और एक प्रणव [ॐ]  है। गायत्री के प्रारम्भ में ॐकार और भू: भुर्व: स्व: का जो तात्पर्य है, उसी की ओर यज्ञोपवीत की ब्रह्मग्रंथि तीन ग्रन्थियां संकेत करती हैं। उन्हें समझने वाला जान सकता है कि यह चार गांठें मनुष्य जाति के लिए क्या-क्या सन्देश देती हैं।

हम इस महाविज्ञान को सरलतापूर्वक हृदयंगम करने के लिए चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। 1-प्रणव तथा तीनों व्याहृतियां अर्थात् यज्ञोपवीत की चारों ग्रन्थियां, 2-गायत्री का प्रथम चरण अर्थात् यज्ञोपवीत की प्रथम लड़, 3-द्वितीय चरण अर्थात् द्वितीय लड़, 4-तृतीय चरण अर्थात् तृतीय लड़। आइए, अब इन पर विचार करें—

1—प्रणव का सन्देश यह है—‘‘परमात्मा सर्वत्र समस्त प्राणियों में समाया हुआ है, इसलिये लोक-सेवा के लिये निष्काम भाव से कर्म करना चाहिये और अपने मन को स्थिर तथा शान्त रखें।’’

2—भूः का तत्वज्ञान यह है—‘‘शरीर अस्थायी औजार मात्र है, इसलिए उस पर अत्यधिक आशक्त न होकर आत्मबल बढ़ाने का, श्रेष्ठ मार्ग का, सत्कर्मों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।’’

3—भुवः का तात्पर्य है—पापों के विरुद्ध रहने वाला मनुष्य, देवत्व को प्राप्त करता है। जो पवित्र आदर्शों और साधनों को अपनाता है वही बुद्धिमान है।’’

4—स्वः की प्रतिध्वनि यह है—‘‘विवेक द्वारा शुद्ध बुद्धि से सत्य को जानने, संयम और त्याग की नीति का आचरण करने के लिए अपने को तथा दूसरों को प्रेरणा देनी चाहिये।’’

यह चतुर्मुखी नीति यज्ञोपवीतधारी की होती है। इस सब का सारांश यह है कि—उचित मार्ग से अपनी शक्तियों को बढ़ाओ और अन्तःकरण को उदार रखते हुए अपनी शक्तियों का अधिकांश भाग जनहित के लिये लगाये रहो। इसी कल्याणकारी नीति पर चलने से मनुष्य व्यष्टि रूप से तथा समस्त संसार में समष्टि रूप से सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है। यज्ञोपवीत, गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है, उसका जो सन्देश मनुष्य जाति के लिये है, उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग ऐसा नहीं जिससे वैयक्तिक तथा सामाजिक सुख-शान्ति स्थिर रह सके।

सुरलोक में एक ऐसा कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठकर जिस वस्तु की कामना की जाय वही वस्तु तुरन्त सामने उपस्थित हो जाती है। जो भी इच्छा की जाय तुरन्त पूर्ण हो जाती है। वह कल्पवृक्ष जिनके पास होगा, वे कितने सुखी और सन्तुष्ट होंगे इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

पृथ्वी पर भी एक ऐसा कल्पवृक्ष है, जिसमें सुरलोक के कल्पवृक्ष की सभी सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। इसका नाम है—गायत्री। गायत्री मन्त्र को स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो वह 24 अक्षरों और नौ पदों की एक शब्द-श्रृंखला मात्र है, परन्तु यदि गम्भीरतापूर्वक अवलोकन किया जाय तो उसके प्रत्येक पद और अक्षर में ऐसे तत्वों का रहस्य छिपा हुआ मिलेगा, जिनके द्वारा कल्पवृक्ष के समान ही समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है।

ऐसा उल्लेख मिलता है कि कल्पवृक्ष के सब पत्ते रत्नजड़ित हैं। वे रत्नों जैसे सुशोभित और बहुमूल्य होते हैं। गायत्री कल्पवृक्ष के उपरोक्त नौ पत्ते, निस्सन्देह नौ रत्नों के समान मूल्यवान और महत्वपूर्ण हैं। ‘नौलखा हार’ की जेवरों में बहुत प्रशंसा है। नौ लाख रुपये की लागत से बना हुआ ‘नौलखा हार’ पहनने वाले अपने को बड़ा सौभाग्यशाली समझते थे। यदि गम्भीर तात्विक और दूरदृष्टि से देखा जाय तो यज्ञोपवीत भी नवरत्न जड़ित ‘नौलखा हार’ से किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं है।

गायत्री गीता के अनुसार यज्ञोपवीत के नौ तार, जिन नौ गुणों को धारण करने का आदेश करते हैं, वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि नौ रत्नों की तुलना में इन गुणों की ही महिमा अधिक है।

1—जीव-विज्ञान की जानकारी होने से मनुष्य जन्म-मरण के रहस्य को समझ जाता है। उसे मृत्यु का डर नहीं लगता, सदा निर्भय रहता है, उसे शरीर का तथा सांसारिक वस्तुओं का लोभ-मोह भी नहीं होता। फलस्वरूप जिन साधारण हानि-लाभों के लिए लोग बेतरह दुःख के समुद्र में डूबते और हर्ष के मद में उछलते फिरते हैं, उन उन्मादों से वह बच जाता है।

2—शक्ति-संचय की नीति अपनाने वाला दिन-दिन अधिक स्वस्थ, विद्वान, बुद्धिमान्, धनी, सहयोग-सम्पन्न, प्रतिष्ठावान बनता जाता है। निर्बलों पर प्रकृति के, बलवानों के तथा दुर्भाग्य के जो आक्रमण होते रहते हैं, उनसे वह बचा रहता है और शक्ति-सम्पन्नता के कारण जीवन के नाना विधि आनन्दों को स्वयं भोगता है एवं अपनी शक्ति द्वारा दूसरे दुर्बलों की सहायता करके पुण्य का भागी बनता है। अनीति वहीं पनपती है, जहां शक्ति का सन्तुलन नहीं होता। शक्ति-संचय का स्वाभाविक परिणाम है—अनीति का अन्त, जो कि सभी के लिए कल्याणकारी है।

3—श्रेष्ठता का अस्तित्व परिस्थितियों में नहीं, विचारों में होता है। जो व्यक्ति साधन सम्पन्नता में बढ़े-चढ़े हैं, परन्तु लक्ष, सिद्धान्त, आदर्श एवं अन्तःकरण की दृष्टि से गिरे हुए हैं, उन्हें निकृष्ट ही कहा जायगा। ऐसे निकृष्ट आदमी अपने आत्मा की दृष्टि में, परमात्मा की दृष्टि में और दूसरे सभी विवेकवान व्यक्तियों की दृष्टि में नीच श्रेणी के ठहरते हैं। अपनी नीचता के दण्डस्वरूप आत्म-ताड़ना, ईश्वरीय दण्ड और बुद्धिभ्रम के कारण मानसिक अशान्ति में डूबे रहते हैं। इसके विपरीत कोई व्यक्ति भले ही गरीब, साधन-हीन हो, पर उसका आदर्श, सिद्धांत उद्देश्य एवं अन्तःकरण उच्च तथा उदार है, तो वह श्रेष्ठ ही कहा जायगा। यह श्रेष्ठता उसके लिए इतने आनन्द का उद्भव करती रहती है, जो बड़ी से बड़ी सांसारिक सम्पदा से भी सम्भव नहीं।

4—निर्मलता का अर्थ है सौन्दर्य। सौन्दर्य वह वस्तु है, जिसे मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी और कीट-पतंग तक पसन्द करते हैं। यह निश्चित है कि कुरूपता का कारण गन्दगी है। मलीनता जहां कहीं भी होगी, वहां कुरूपता रहेगी और वहां से दूर रहने की सबकी इच्छा होगी। शरीर के भीतर मल भरे होंगे तो मनुष्य कमजोर और बीमार रहेगा। इसी प्रकार कपड़े, घर, भोजन, त्वचा, बाल, प्रयोजनीय पदार्थ आदि में गन्दगी होगी तो वह घृणास्पद, अस्वास्थ्यकर, निकृष्ट एवं निन्दनीय बन जावेंगे। मन में, बुद्धि में, अन्तःकरण में, मलीनता हो, तब तो कहना ही क्या है, इन्सान का स्वरूप हैवान और शैतान से भी बुरा हो जाता है। इन विकृतियों से बचने का एकमात्र उपाय ‘सर्वतोमुखी निर्मलता’ है। जो भीतर बाहर सब ओर से निर्मल है, जिसकी कमाई, विचारधारा, देह, वाणी, पोशाक, झोंपड़ी, प्रयोजनीय सामग्री निर्मल है, स्वच्छ है, शुद्ध है, वह सब प्रकार सुन्दर, प्रसन्न, प्रफुल्ल, मृदुल एवं सन्तुष्ट दिखाई देगा।

5—दिव्य दृष्टि से देखने का अर्थ है—संसार के दिव्य तत्वों के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना। हर पदार्थ अपने सजातीय पदार्थों को अपनी ओर खींचता है और उन्हीं की ओर खुद खिंचता है। जिनका दृष्टिकोण संसार की अच्छाइयों को देखने, समझने और अपनाने का है, वह चारों ओर अच्छे व्यक्तियों को देखते हैं। लोगों के उपकार, भलमनसाहत, सेवा-भाव, सहयोग और सत्कार्यों पर ध्यान देने से ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों में बुराइयों की अपेक्षा अच्छाइयां अधिक हैं और संसार हमारे साथ अपकार की अपेक्षा उपकार कहीं अधिक कर रहा है। आंखों पर जैसे रंग का चश्मा पहन लिया जाय, वैसे ही रंग की सब वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं। जिसकी दृष्टि दूषित है, उनके लिये प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी बुरा है, पर जो दिव्य दृष्टि वाले हैं, वे प्रभु की इस परम पुनीत फुलवारी में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बरसता देखते हैं।

6—सद्गुण—अपने में अच्छी आदतें, अच्छी योग्यताएं, अच्छी विशेषताएं धारण करना सद्गुण कहलाता है। विनय, नम्रता, शिष्टाचार, मधुर भाषण, उदार व्यवहार, सेवा-सहयोग, ईमानदारी, परिश्रमशीलता, समय की पाबंदी, नियमितता, मितव्ययिता, मर्यादित रहना, कर्तव्य परायणता, जागरूकता, प्रसन्नमुख-मुद्रा, धैर्य, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ, आशा, उत्साह यह सब सद्गुण हैं। संगीत, साहित्य, कला, शिल्प, व्यापार, वक्तृता, व्यवसाय, उद्योग, शिक्षण आदि योग्यताएं होना सद्गुण हैं। इस प्रकार के सद्गुण जिसके पास हैं, वह कितना आनन्दमय जीवन बितावेगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

7—विवेक—एक प्रकार का आत्मिक प्रकाश है, जिसके द्वारा सत्य-असत्य की, उचित-अनुचित की, आवश्यक-अनावश्यक की, हानि-लाभ की परीक्षा होती है। संसार में असंख्यों परस्पर विरोधी मान्यताएं, रिवाजें, विचारधाराएं प्रचलित हैं और उनमें से हरएक के पीछे तर्क, कुछ आधार, कुछ उदाहरण तथा कुछ पुस्तकों एवं महापुरुषों के नाम अवश्य सम्बद्ध होते हैं। ऐसी दशा में यह निर्णय करना कठिन होता है कि इन परस्पर विरोधी बातों में क्या ग्राह्य हैं और क्या अग्राह्य? इस सम्बन्ध में देश, काल, परिस्थिति, उपयोगिता, जन-हित आदि बातों को ध्यान में रखते हुए सद्बुद्धि से निर्णय किया जाता है, वही प्रामाणिक एवं ग्राह्य होता है। जिसने उचित निर्णय कर लिया तो समझिये कि उसने सरलता पूर्वक सुख-शान्ति के लक्ष तक पहुंचने की सीधी राह पा ली। संसार में अधिकांश कलह, क्लेश, पाप एवं दुखों का कारण दुर्बुद्धि, भ्रम तथा अज्ञान होता है। विवेकवान् व्यक्ति इन सब उलझनों से अनायास ही बच जाता है।

8—संयम—जीवन-शक्ति का, विचार-शक्ति का, भोगेच्छा का, भ्रम का संतुलन ठीक रखना ही संयम है। न इनको घटने देना, न नष्ट-निष्क्रिय होने देना और न अनुचित मार्ग में व्यय होने देना संयम का तात्पर्य है। मानव-शरीर आश्चर्यजनक शक्तियों का केन्द्र है। यदि उन शक्तियों का अपव्यय रोककर उपयोगी दिशा में लगाया जाय तो अनेक आश्चर्यजनक सफलताएं मिल सकती हैं और जीवन की प्रत्येक दिशा में उन्नति हो सकती है।

9—सेवा—सहायता, सहयोग, प्रेरणा, उन्नति की ओर, सुविधा की ओर किसी को बढ़ाना यह उसकी सबसे बड़ी सेवा है। इस दिशा में हमारा शरीर और मस्तिष्क सबसे अधिक हमारी सेवा का पात्र है, क्योंकि वह हमारे सबसे अधिक निकट है। आमतौर से दान देना, समय देना या बिना मूल्य अपनी शारीरिक, मानसिक शक्ति किसी को देना सेवा कहा जाता है और यह अपेक्षा नहीं की जाती कि हमारे इस त्याग से दूसरों में कोई क्रिया-शक्ति, आत्म–निर्भरता, स्फूर्ति, प्रेरणा जागृत हुई या नहीं। इस संसार की सेवा दूसरों को आलसी, परावलम्बी और भाग्यवादी बनाने वाली हानिकारक सेवा है। हम और दूसरों की इस प्रकार प्रेरक सेवा करें, जो उत्साह, आत्म-निर्भरता और क्रियाशीलता को सतेज करने में सहायक हो। सेवा का फल है—उन्नति। सेवा द्वारा अपने को तथा दूसरों को समुन्नत बनाना, संसार को अधिक सुन्दर और आनन्दमय बनाने वाला महान् पुण्य कार्य है इस प्रकार के सेवा-भावी पुण्यात्मा सांसारिक और आत्म-दृष्टि से सदा सुखी और सन्तुष्ट रहते हैं।

यह नवगुण निःसन्देह नवरत्न है। लाल, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, वैदूर्य यह नौ रत्न कहे जाते हैं। कहते हैं जिसके पास यह रत्न होते हैं, वे सर्व सुखी समझे जाते हैं। पर भारतीय धर्म-शास्त्र कहता है कि जिनके पास यज्ञोपवीत और गायत्री मिश्रित उपरोक्त आध्यात्मिक नवरत्न हैं, वे इस भूतल के कुबेर हैं। भले ही उनके पास धन-दौलत, जमीन, जायदाद न हो। यह नवरत्न मण्डित कल्पवृक्ष जिसके पास है, वह विवेकयुक्त यज्ञोपवीतधारी सदा सुरलोक की सम्पदा भोगता है। उसके लिए यह भूलोक ही स्वर्ग है, यह कल्पवृक्ष हमें चारों फल देता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों सम्प्रदाय से हमें परिपूर्ण कर देता है।

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