गायत्री और यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत संबंधी कुछ नियम

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(1) शुद्ध खेत में उत्पन्न हुए कपास को तीन दिन तक धूप में सुखावे। फिर उसे स्वच्छ कर हाथ के चरखे से काते। कातने का कार्य प्रसन्न चित्त, कोमल स्वभाव एवं धार्मिक वृत्ति वाले स्त्री पुरुषों द्वारा होना चाहिए। क्रोधी, पापी, रोगग्रस्त, गन्दे, शोकातुर या अस्थिर चित्त वाले मनुष्य के हाथ का कता हुआ सूत यज्ञोपवीत में प्रयोग न करना चाहिए।

(2) कपास न मिलने पर, गाय की पूंछ के बाल, स्तन, ऊन, कुश, रेशम आदि का भी यज्ञोपवीत बनाया जा सकता है पर सबसे उत्तम कपास का ही है।

(3) देवालय, नदी तीर, बगीचा, एकान्त, गुरु-ग्रह, गौशाला, पाठशाला अथवा अन्य पवित्र स्थान यज्ञोपवीत बनाने के लिए चुनना चाहिए। जहां तहां गंदे, दूषित, अशांत वातावरण में वह न बनाया जाना चाहिए और न बनाते समय अशुद्ध व्यक्तियों का स्पर्श होना चाहिए।

(4) बनाने वाला स्नान, संध्यावन्दन करने के उपरान्त स्वच्छ वस्त्र धारण करके कार्य आरम्भ करे। जिस दिन यज्ञोपवीत बनाना हो उसे तीन दिन पूर्व से ब्रह्मचारी रहे और नित्य एक सहस्र गायत्री का जप करे। एक समय सात्विक अन्न अथवा फलाहार दुग्धाहार का आहार किया करे।

(5) चार उंगलियों को बराबर-बराबर करके उस पर तीन तारों के 96 चक्कर गिन ले। गंगाजल, तीर्थजल या किसी अन्य पवित्र जलाशय के जल से उस सूत का प्रच्छालन करे। तदुपरांत तकली की सहायता से इन सम्मिलित तीन तारों को कातले। कत जाने पर उसे मोड़कर तीन लड़ों में ऐंठ ले। 96 चप्पे गिनते तथा तकली पर कातते समय मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करे और तीन लड़ ऐंठते समय—(आपोहिष्ठा मयो भवः) मन्त्र से मानसिक जप करे।

(6) कते और इंठे हुए डोरे को तीन चक्करों में विभाजित करके ग्रन्थि लगावे, आरम्भ में तीन गांठें और अन्त में एक गांठ लगाई जाती है। कहीं-कहीं अपने गौत्र के जितने प्रवर होते हैं उतनी ग्रंथियां लगाते हैं और अंत में अपने वर्ण के अनुसार ब्रह्म ग्रन्थि, क्षत्रिय ग्रंथि या वैश्य ग्रन्थि लगाते हैं। ग्रन्थियां लगाते समय (त्र्यम्बकम् बजामहे) मन्त्र का मन ही मन जप करना चाहिए। ग्रन्थि लगाते समय मुख पूर्व की ओर रखना चाहिए।

(7) यज्ञोपवीत धारण करते समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिए।

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलययस्तु तेजः ।।

(8) यज्ञोपवीत उतारते समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिए—

एतावद् दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया ।
जीणत्वात्त्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम् ।।

(9) जन्म सूतक, मरण सूतक, चाण्डाल स्पर्श, मुर्दे का स्पर्श, मल-मूत्र त्यागते समय कान पर यज्ञोपवीत चढ़ाने में भूल होने के प्रायश्चित्य में उपाकर्म से, चार मास पुराना हो जाने पर, कहीं से टूट जाने पर जनेऊ उतार देना चाहिए। उतारने पर उसे जहां तहां नहीं फेंक देना चाहिए वरन् किसी पवित्र स्थान पर नदी, तालाब, देवस्थान, पीपल, गूलर, बड़, छोंकर जैसे पवित्र वृक्ष पर विसर्जित करना चाहिए।

(10) बाएं कंधे पर इस प्रकार धारण करना चाहिए कि बाएं पार्श्व की ओर न रहे। लम्बाई इतनी होनी चाहिए कि हाथ लम्बा करने पर उसकी लम्बाई बराबर बैठे।

(11) ब्राह्मण पदाधिकारी बालक का उपवीत 5 से 8 वर्ष तक की आयु में, क्षत्रिय का 6 से 11 तक, वैश्य का 8 से 12 वर्ष तक की आयु में यज्ञोपवीत कर देना चाहिए। यदि ब्राह्मण का 16 वर्ष तक, क्षत्रिय का 22 वर्ष तक, वैश्य का 24 वर्ष तक उपवीत न हो तो वह ‘‘सावित्री पतित’’ हो जाता है। तीन दिन उपवास करते हुए पंचगव्य पीने से सावित्री पतित मनुष्य प्रायश्चित करके शुद्ध होता है।

(12) ब्राह्मण का बसन्त ऋतु में, क्षत्री का ग्रीष्म में और वैश्य का उपवीत शरद ऋतु में होना चाहिए। पर जो ‘‘सावित्री पतित’’ है अर्थात् निर्धारित आयु से अधिक का हो गया है उसका कभी भी उपवीत कर देना चाहिए।

(13) ब्रह्मचारी को एक तथा ग्रहस्थ को दो जनेऊ धारण करने चाहिए, क्योंकि ग्रहस्थ पर अपना तथा धर्मपत्नी दोनों का उत्तरदायित्व होता है।

(14) यज्ञोपवीत की शुद्धि नित्य करनी चाहिए। नमक, क्षार, साबुर, रीठा आदि की सहायता से जल द्वारा उसे भली प्रकार रगड़ कर नित्य स्वच्छ करना चाहिए ताकि पसीना का स्पर्श होने रहने से जो नित्य ही मैल भरता रहता है वह साफ होता रहे और दुर्गन्ध अथवा जुएं आदि जमने की संभावना न रहे।

(15) मल, मूत्र त्याग करते समय अथवा मैथुन काल में यज्ञोपवीत कमर से ऊपर रखना चाहिए। इसलिए उसे कान पर चढ़ा लिया जाता है। कान की जड़ को मल-मूत्र त्यागते समय डोरे से बांध देने से बवासीर, भगंदर जैसे गुदा के रोग नहीं होते ऐसा भी कहा जाता है।

(16) यज्ञोपवीत आदर्शवादी भारतीय की संस्कृति की मूर्तिमान् प्रतिमा है, इसमें भारी तत्व-ज्ञान और मनुष्य को देवता बनाने वाला तत्व-ज्ञान भरा हुआ है इसलिए इसे धारण करने की परिपाटी का अधिक से अधिक विस्तार करना चाहिए। चाहे लोग उस रहस्य को समझने तथा आचरण करने में समर्थ न हों तो भी इसलिए उसका धारण करना आवश्यक है कि बीज होगा तो अवसर मिलने पर उग भी आवेगा।





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