गायत्री और यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में शास्त्रों के आदेश

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शास्त्रों में यज्ञोपवीत की महिमा बड़े विस्तार से वर्णन की गई है। उसे प्रत्येक विचारवान् व्यक्ति के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी बताया गया है। देखिए—

कोटि जन्मार्जितं पापं ज्ञानाज्ञान कृतं च यत् ।
यज्ञोपवीत मात्रेण पलायन्ते न संशयः ।।
—पद्म पुराण कौशल खण्ड

करोड़ों जन्म के ज्ञान-अज्ञान में किये हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं इसमें संशय नहीं।

येनेन्द्राय वृहस्पतिर्व्यासः पर्यदधादमृतं तेनत्वा ।
परिदधाम्या युष्ये दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे ।।
—पा. गृ. 2।2।7

जिस तरह इन्द्र को बृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, युद्ध और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए मैं यज्ञोपवीत धारण करता हूं।

देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तर्षयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जग्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धा दधाति परमे व्योयम् ।।
—ऋग्वेद 10।109।4

प्राचीन तपस्वी सप्त ऋषि तथा देवगण ऐसा कहते हैं कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की महान् शक्ति है। यह शक्ति अत्यन्त शुद्ध चरित्रता और कठिन कर्तव्यपरायणता प्रदान करने वाली है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से नीच जन भी परमपद को पहुंच जाते हैं।

अमौक्तिकमसौवर्ण्य ब्राह्मणानां विभूषणम् ।
देवतानां च पितृणां भागो येन प्रदीयते ।।
—मृच्छकटिक 10-18

यज्ञोपवीत न तो मोतियों का है और न स्वर्ण का फिर भी यह ब्राह्मणों का आभूषण है। इसके द्वारा देवता और ऋषियों का ऋण चुकाया जाता है।

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रथं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।
—ब्रह्मोपनिषद्

यज्ञोपवीत परम पवित्र, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज ही बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धन से छुड़ाने वाला, पवित्रता देने वाला है। यह बल और तेज देता है।

त्रिरस्यता परमासन्ति सत्यास्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्नेः ।
अनन्ते अन्तः परिवीत आगाच्छुचिः शुक्रो अर्योरोरूचानः ।।
—ऋग्वेद 4।7।1

इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्ष हैं। सत्य व्यवहार की आकांक्षा, अग्नि के समान तेजस्विता और दिव्य गुणों की पवित्रता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है।

सदा यज्ञोपवीतिना भाव्यं सदावद्ध शिखेन च ।
विशिखो व्युपवीतश्च यत्करीति न तत्कृतम् ।।
—बोधायन

सदा यज्ञोपवीत पहने और शिखा में गांठ लगाकर रहे। बिना शिखा और बिना यज्ञोपवीत वाला जो धार्मिक कर्म करता है सो निष्फल जाते हैं।

बिना यज्ञोपवीतेन तोयं यः पिवते द्विजः ।
उपवासेन चैकेन पञ्च गव्येन शुद्धयति ।।

यज्ञोपवीत न होने पर द्विज को पानी तक न पीना चाहिए। (यदि इस नियम के भंग होने से वह पतित हो जाय तो) एक उपवास करने पर तथा पंचगव्य पीने पर उसकी शुद्धि होती है।

नाभिव्याहारयेद् ब्रह्म स्वधानि नयनाट्टते ।
शूद्रेण हि समस्तावद्यावद्वेदे न जायते ।।

यज्ञोपवीत होने से पहले बालक को वेद न पढ़ावे। क्योंकि जब तक यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता तब तक ब्राह्मण का बालक भी शूद्र समान है।

कृतोपनयनस्यास व्रतादेश न भिष्यते ।
ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधि पूर्वकम् ।।

जब बालकों का उपनयन संस्कार हो जावे तभी शास्त्र की आज्ञानुसार उसका अध्ययन आरम्भ होना चाहिए इससे पूर्व नहीं।

जन्यना जायते शूद्र संस्कारात् द्विज उच्यते ।
वेद पाठी भवेद् विप्रः, ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ।।

जन्म से सब शूद्र हैं। यज्ञोपवीत होने से द्विज बनते हैं जो वेदपाठी है वह विप्र है। जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण है।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयी वर्णा द्विजातयः ।
तेषां जन्म द्वितीयं तु विज्ञेयं मौञ्जिबंधनम् ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों द्विज कहलाते हैं क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने से उनका दूसरा जन्म होता है।

आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ।
तं रात्रीस्तिस्र उदरे विभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ।।
—अथर्व. 11,3,5,3

गर्भ में बसकर माता-पिता के सम्बन्ध द्वारा मनुष्य का साधारण जन्म घर में होता है। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता के गर्भ में, आचार्य रूपी पिता द्वारा गुरु-गृह में यज्ञोपवीत और विद्याभ्यास द्वारा होता है।

तत्र यद्ब्रह्मजन्मास्य मौज्जीबन्धनचिन्हितम् ।
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।।

यज्ञोपवीत-मेखला-धारण करने से मनुष्य का ब्रह्म जन्म होता है। उस जन्म में गायत्री माता है और आचार्य पिता है।

वेद प्रदानादाचार्य पितरं परिचक्षते ।
नह्यस्मिन्युज्यते कर्म किञ्चिंदामौञ्जिबन्धनात् ।।

वेद पढ़ाने वाले आचार्य को पिता कहते हैं। जब बालक का यज्ञोपवीत संस्कार हो जाता है, तब उसे धार्मिक कर्मों को करने का अधिकार मिलता है, इससे पूर्व नहीं।




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