गायत्री और यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत की महान उपयोगिता

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है। इसे द्विजत्व का प्रतीक माना गया है। द्विजत्व का अर्थ है—मनुष्यता के उत्तरदायित्व को स्वीकार करना। जो लोग मनुष्यता की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार नहीं, पाशविक वृत्तियों में इतने जकड़े हुए हैं कि महान् मानवता का भार वहन नहीं कर सकते, उनको ‘‘अनुपवीत’’ शब्द से शास्त्रकारों ने तिरस्कृत किया है और उनके लिए आदेश किया है कि वे आत्मोन्नति करने वाली मण्डली से अपने को पृथक, बहिष्कृत, निकृष्ट समझें। ऐसे लोगों को वेद-पाठ, यज्ञ, तप आदि सत्साधनाओं का भी अनाधिकारी ठहराया गया है, क्योंकि जिसका आधार ही मजबूत नहीं वह स्वयं खड़ा नहीं रह सकता, जब स्वयं खड़ा नहीं हो सकता तो इन धार्मिक कृत्यों का भार वहन किस प्रकार कर सकेगा?

भारतीय धर्म-शास्त्रों की दृष्टि में मनुष्य का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह अनेक योनियों में भ्रमण करने के कारण संचित हुए पाशविक संस्कारों का परिमार्जन करके मनुष्योचित संस्कारों को धारण करे। इस धारणा को ही उन्होंने द्विजत्व के नाम से घोषित किया है। कोई भी व्यक्ति जन्म से द्विज नहीं होता, माता के गर्भ से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं शुभ संस्कारों को धारण करने से वे द्विज बनते हैं। महर्षि अत्रि का वचन है—‘‘जन्मनां जायते शूद्र संस्कारात् द्विज उच्चते ।’’ जन्म जात पाशविक संस्कारों को ही यदि कोई मनुष्य धारण किये रहे तो उसे आहार, निद्रा, भय, मैथुन की वृत्तियों में ही उलझा रहना पड़ेगा। कंचन कामिनी से अधिक ऊंची कोई महत्त्वाकांक्षा उसके मन में न उठ सकेगी। इस स्थिति से ऊंचा उठना प्रत्येक मनुष्यताभिमानी के लिए आवश्यक है। इस आवश्यकता को ही हमारे प्रातः स्मरणीय ऋषियों ने अपने शब्दों में ‘‘उपवीत धारण करने की आवश्यकता’’ बताया है।

किसी भी दृष्टि से विचार कीजिए, मनुष्य-जीवन की महत्ता सब प्रकार असाधारण है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद नर देह मिलती है, यदि इसे व्यर्थ गवां दिया जाय तो पुनः कीट-पतंगों की चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए जाना पड़ता है। कहते हैं कि गर्भस्थ बालक जब रौरव नरक की यातना से दुःखी होकर भगवान् से छुटकारे की याचना करता है तो इस शर्त पर छुटकारा मिलता है कि संसार में जाकर जीवन का सदुपयोग किया जायेगा। कहते हैं कि मनुष्य की रचना परमात्मा ने इस उद्देश्य से की है कि वह मेरा सर्वश्रेष्ठ उत्तराधिकारी राजकुमार सिद्ध हो और ऐसे कार्य करे जो मेरी महिमा प्रकट करते हों। कहते हैं कि आत्मा का सर्वश्रेष्ठ विकास मानव प्राणी में होता है, इसलिए उसका आचरण ऐसा होना चाहिये जिससे ईश्वर अंश जीव की महानता प्रकट हो।

हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को अपनी दूर दृष्टि से, अपने योगबल से, पहले ही भली प्रकार समझ लिया था। उनने चिरकालीन विचार-मन्थन और सूक्ष्म दृष्टि से सृष्टि की प्रत्येक बात का गंभीर परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला था कि—जन्म से मनुष्य भी अन्य पशु-पक्षियों के समान शिश्नोदर परायण होता है, पेट भरने और क्रीड़ा करने की इच्छाएं उसे प्रधान रूप से सताती हैं, यदि कोई विशेष प्रयत्न करके उसे ऊंचा न उठाया जाय तो वह चाहे कितना ही चतुर क्यों न कहलावे, पाशविक वृत्तियों के आधार पर ही जीवन व्यतीत करेगा। चूंकि इस प्रकार की जीवनचर्या अत्यन्त ही तुच्छ और अदूरदर्शितापूर्ण है इसलिए यही कल्याणकर है कि मनुष्यों को इस निम्न धरातल से ऊंचा उठकर उस भूमिका में अपना स्थान बनाना चाहिये, जो उच्च है, आदर्शपूर्ण है, धर्ममयी है और अनेक सत्परिणामों को उत्पन्न करने वाली है। चूंकि यह स्थिति जन्मजात पशु वृत्तियों की क्रियाशैली से बहुत भिन्न है, दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है इसलिये इस एक स्थिति से दूसरी स्थिति में पदार्पण करने की परिवर्तन-पद्धति को ‘उपनयन’ कहा गया है।

देखने में यज्ञोपवीत कुछ लड़ों का एक सूत्र मात्र है जो दाहिने कन्धे पर पड़ा रहता है। इसमें स्थूल रूप से कोई विशेषता नहीं मालूम पड़ती। बाजार में दो-दो, चार-चार पैसे के जनेऊ बिकते हैं। स्थूल दृष्टि से यही उसकी कीमत है तथा मोटे तौर से वह इस बात की पहचान है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों में से किसी वर्ण में इस जनेऊ पहनने वाले का जन्म हुआ है। पर वस्तुतः केवल मात्र इतना ही प्रयोजन उसका नहीं है। उसके पीछे एक जीवित-जागृत दर्शन-शास्त्र छिपा पड़ा है, जो मानव-जीवन का उत्तम रीति से गठन, निर्माण और विकास करता हुआ उस स्थान तक ले पहुंचता है जो जीवधारी का चरम लक्ष है।

स्थूल दृष्टि से देखने में कई वस्तुएं बहुत ही साधारण प्रतीत होती हैं, पर उनका सूक्ष्म महत्त्व अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण होता है, पुस्तकें, स्थूल दृष्टि से देखने में छपे हुए कागजों का एक बंडल मात्र है जो रद्दी पर दो-चार पैसों की ठहरती है पर उस पुस्तक में जो ज्ञान भरा हुआ है वह इतना मूल्यवान है कि उसके आधार पर मनुष्य कुछ से कुछ बन जाता है। ‘‘विक्टोरिया क्रास’’ जो अंग्रेजी सरकार की ओर से बहादुरी का प्रतिष्ठित पदक दिया जाता था, वह लोहे का बना होता था और उसकी बाजारू कीमत मुश्किल से एकाध रुपया होगी, पर जो उसे प्राप्त कर लेता था वह अपने आपको धन्य समझता था। परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर जो प्रमाण पत्र मिलते हैं उनके कागज का मूल्य एक-दो पैसे ही होगा पर वह कागज कितना मूल्यवान है इसको वह परीक्षोत्तीर्ण छात्र ही जानता है। सरकारी कर्मचारियों के पद की पहचान के लिए धातु के बने अक्षर मिलते हैं जो कि कन्धे या सीने पर कपड़ों में लगा दिये जाते हैं। यह धातु के अक्षर बाजारू कीमत से दो-चार आने के ही हो सकते हैं पर वे कर्मचारी जानते हैं कि उन्हें लगा लेने पर और उतार देने पर उनको जनता कितने अन्तर से पहचानती है। यज्ञोपवीत भी एक ऐसा ही प्रतीक है जो बाजारू कीमत से भले ही दो-चार पैसे का हो पर उसके पीछे एक महान् तत्त्वज्ञान जुड़ा हुआ है। इसलिए ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि जनेऊ पहनना कन्धे पर एक डोरा लटका लेना है, वरन् इस प्रकार सोचना चाहिए कि मनुष्य की दैवी जिम्मेदारियों का एक प्रतीक हमारे कन्धे पर अवस्थित है।

यह पूछा जाता है कि मन में कोई बात हो, तो उसी से सब कुछ हो सकता है, इसके लिये वाह्य चिह्न धारण करने की क्या आवश्यकता? जब मन में द्विजत्व ग्रहण करने के भाव मौजूद हों तो उसका होना ही पर्याप्त है। फिर यज्ञोपवीत क्यों पहनें? और यदि मन में उस प्रकार की भावना नहीं है तो जनेऊ पहनने से भी कुछ लाभ नहीं?

मोटे तौर से यह तर्क ठीक प्रतीत होता है, परन्तु जिन्होंने मनुष्य की प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक अध्ययन किया है वे जानते हैं कि इस तर्क में कितना कम तथ्य है। बुराई की ओर, अधर्म की ओर, पाशविक भोगों को भोगने की ओर, मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है। इस ओर मन अपने आप चलता है, पर उसे त्याग के, संयम के, धर्म के, मार्ग पर ले चलने के लिए बड़े-बड़े कष्ट साध्य प्रयत्न करने पड़ते हैं। पानी को बहाया जाय तो वह जिधर नीची भूमि होगी वह बिना किसी प्रयत्न के अपने आप अपना रास्ता बनाता हुआ बहेगा। निचाई जितनी अधिक होगी उतना ही पानी का बहाव तेज होता जायगा। परन्तु यदि पानी को ऊपर चढ़ाना है तो यह कार्य अपने आप नहीं हो सकता, इसके लिये तरह-तरह के साधन जुटाने पड़ेंगे। नल, पम्प, टंकी आदि का कोई माध्यम लगाकर उसके पीछे ऐसी शक्ति का संयोग करना पड़ता है जिसके दबाव से पानी ऊपर चढ़े। दबाव देने वाली शक्ति तथा पानी को ऊपर ले जाने वाले साधन यदि अच्छे हुए तो, वह तेजी से और अधिक मात्रा में ऊपर चढ़ता है, यदि यह साधन निर्बल हुए तो पानी के चढ़ने की गति मन्द हो जायेगी। यही बात जीवन को उच्च मार्ग में लगाने के सम्बन्ध में है। यदि धर्म-मार्ग में, सिद्धान्तमय उच्च पथ में प्रगति करनी है तो उसके लिये ऐसे प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि पानी को ऊपर चढ़ाने के लिये करने पड़ते हैं। सोलह संस्कार, नाना प्रकार के धार्मिक कर्म-काण्ड, व्रत, जप, पूजा, अनुष्ठान, तीर्थयात्रा, दान, पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग ऐसे ही प्रयोजन हैं जिनके द्वारा मन को प्रभावित, अभ्यस्त और संस्कृत बनाकर दिव्यत्व की ओर—द्विजत्व की ओर—बढ़ाया जाता है। इन सबका उद्देश्य केवल मात्र इतना ही है कि मन पाशविक वृत्तियों से मुड़कर दिव्यत्व की ओर अग्रसर हो, यदि ऐसा करना अपने आप ही, सरलतापूर्वक हुआ होता तो यज्ञोपवीत को व्यर्थ बताने वाले तर्क को स्वीकार करने में किसी को कुछ आपत्ति न होती। उस दिशा में यह पृथ्वी ब्रह्मलोक होती और वैसा समय सतयुग कहा जाता। पर आज तो वैसा नहीं है। हमारे मनों की कुटिलता इतनी बढ़ी हुई है कि आध्यात्मिक साधना करने वाले भी बार-बार पथ भ्रष्ट हो जाते हैं तब ऐसी आशा रखना कहां तक उचित है कि अपने आप ही सब कुछ ठीक हो जायगा।

यज्ञोपवीत धारण करना इसलिए आवश्यक है कि उससे एक प्रेरणा नियमित रूप से मिलती है। जिनके जिम्मे संसार के बड़े-बड़े कार्य हैं, जिनका जीवन व्यवस्थित है वे सवेरे ही अपना कार्य-क्रम बनाकर मेज के सामने लटका लेते हैं और उस तख्ती पर बार-बार निगाह डालकर अपने कार्य-क्रम को यथोचित बनाते रहते हैं। यदि वह याद दिलाने वाली तख्ती न हो तो उनके कार्य-क्रम में गड़बड़ पड़ सकती है यद्यपि उस तख्ती का स्वतः कोई बड़ा मूल्य नहीं है पर उसके आधार पर काम करने वाले का अमूल्य समय व्यवस्थित रहता है इसलिए उसका लाभ असाधारण महत्त्वपूर्ण है और उस महान् लाभ का श्रेय उस तख्ती को कम नहीं है। जनेऊ ऐसी ही तख्ती है जो हमारे जीवनोद्देश्य और जीवनक्रम को व्यवस्थित रखने की याद हर घड़ी दिलाती रहती है।

जिन उच्च भावनाओं के साथ, वेदमन्त्र के माध्यम से, अग्नि और देवताओं की साक्षी में यज्ञोपवीत धारण किया जाता है उससे मनुष्य के सुप्त मानस पर एक विशेष छाप पड़ती है। ‘‘यह सूत्र यज्ञमय एवं अत्यन्त पवित्र है। इसके धारण करने से मेरा शरीर पवित्र है, इसलिए इसे सब प्रकार की अपवित्रताओं से बचाना चाहिए। शारीरिक और मानसिक गन्दगियों से इस दैवी पवित्रता की रक्षा की जानी चाहिये।’’ यह भावना उस व्यक्ति के मन में उठनी ही चाहिये, जो जनेऊ धारण करता है। जहां इस प्रकार की सात्विक आकांक्षा होगी वहां दैवी शक्तियां उसके संकल्प को दूर करने में सहायक होंगी, उसे प्रेरणा और साहस देंगी जहां वह फिसलेगा उसे रोकेगी और यदि गिरेगा भी तो उसे फिर उठावेंगी। इस प्रकार यज्ञ की प्रतिमा—यज्ञोपवीत—धारण करने वाला जब यह समझता रहेगा कि मैंने अपने कन्धे और छाती पर यज्ञ भगवान को सुसज्जित कर रखा है तो निश्चित रूप से वह यज्ञमय जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा करेगा। इस प्रकार की आकांक्षा चाहे कितनी ही मन्द क्यों न हो, प्रभु के प्रेरक आशीर्वाद के समय मनुष्य के लिये सदा कल्याणकारी ही होती है और इससे दिन व दिन सन्मार्ग में—कल्याण-पथ—में ही प्रगति होती है। यह प्रगति चूंकि ईश्वरीय प्रगति है इसके द्वारा प्राणी सब प्रकार की सुख-शांति का अधिकारी बनता जाता है।

श्रेष्ठता का आवरण पहन लेना, अपने आपको ऐसे पवित्र बन्धनों में बांध लेना है जिनके कारण पतन के गर्त में गिरते-गिरते मनुष्य अनेक बार बच जाता है। वाह्य वेष को देखकर लोग किसी व्यक्ति के बारे में अपना मत बनाते हैं लोकमत की दृष्टि में कोई व्यक्ति यदि अच्छा बन गया है तो उसे अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है। मन विचलित होकर जब कुमार्गगामी होने को तैयार हो जाता है तब लोक-लाज एक ऐसा बन्धन सिद्ध होती है जो उसे गिरते-गिरते बचा लेती है। जिस व्यक्ति ने ब्राह्मण या साधु का वेष बना रखा है, तिलक, जनेऊ, माला, कमण्डल आदि धारण कर रखे हैं वह सबके सामने निर्भीकतापूर्वक मद्य-मांस का सेवन, जुआ, चोरी, व्यभिचार आदि कुकर्म करने में समर्थ न हो सकेगा। करेगा तो बहुत डरता-डरता, छिपकर, अल्प मात्रा में। पर जिन्होंने अपने को प्रत्यक्ष रूप से मद्य-मांस विक्रेता तथा पाप व्यवसायी घोषित कर रखा है उनको इन सब बातों में तनिक भी झिझक नहीं होती, वह इन कर्मों को अधिक मात्रा में करना अपनी अधिक बहादुरी समझते हैं। रामायण में पतिव्रता होने का एक कारण लोक लाज को भी बताया है। असंख्यों स्त्री-पुरुष मानसिक व्यभिचार में लीन रहते हैं पर लोक-लाज वश वे कुमार्गगामी होने से बच जाते हैं। यज्ञोपवीत श्रेष्ठता का, द्विजत्व का, आदर्शवादी होने का प्रतीक है। यह एक साइनबोर्ड है जो घोषित करता है कि इस जनेऊ पहनने वाले ने कर्त्तव्यमय, धर्ममय जीवन बिताने की प्रतिज्ञा ली हुई है। जो इस प्रकार का साइनबोर्ड कन्धे पर धारण किये हुए हैं उसे अपने मार्ग से विचलित होते हुए झिझक लगेगी, सोचेगा—‘दुनिया मुझको क्या कहेगी’ इस प्रकार की लोक-लाज बहुत हद तक उसे कुमार्गगामी होने से रोकेगी। वह भूल या पाप करेगा भी तो झिझकते हुए कम मात्रा में करेगा। उतना नहीं कर सकेगा जितना सर्वतन्त्र स्वतन्त्र होने पर निर्भय और निर्लज्ज मनुष्य निरंकुशता पूर्वक अकर्म किया करते हैं।

कई व्यक्ति कहते सुने जाते हैं कि हम आदर्श जीवन द्विजत्व ग्रहण तो करना चाहते हैं पर इस समय तक हम द्विज बन नहीं सके हैं, इसलिये हम द्विजत्व के प्रतीक यज्ञोपवीत को धारण क्यों करें? यह आशंका भी उचित नहीं, क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ द्विजत्व में प्रवेश करना, आदर्श जीवन व्यतीत करने का व्रत लेना, दिव्यता में प्रवेश करना है। इसका अर्थ यह नहीं कि जिस दिन व्रत लिया उसी दिन वह साधना पूर्ण भी हो जानी चाहिए। इस संसार में सभी प्राणी अपूर्ण और दोष युक्त हैं। उन दोषों और अपूर्णताओं के कारण ही तो उन्हें शरीर धारण करना पड़ रहा है। जिस दिन वह अपूर्णता दूर हो जायगी, उस दिन शरीर धारण करने की आवश्यकता ही न रहेगी। कोई व्यक्ति चाहे वह कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो, किसी न किसी अंश में अपूर्ण एवं दोषयुक्त है। फिर क्या हम यह कहें कि—‘‘जब सारा संसार ही पापी है तो हमारे अकेले धर्मात्मा बनने से क्या लाभ?’’

हमें इस प्रकार विचार करना चाहिए कि श्रेष्ठता की पाठशाला में प्रवेश करना, द्विजत्व का व्रत लेना ही यज्ञोपवीत धारण करना है। पाठशाला में प्रवेश करने के दिन ‘‘पट्टी-पूजा’’ होती है, इसका अर्थ है कि अब उस बालक की नियमित शिक्षा आरम्भ हो गई। विद्या प्राप्त करने का उसने व्रत ले लिया। यदि कोई विद्यार्थी कहे कि—‘‘सरस्वती पूजा का अधिकार तो उसे है जो सरस्वतीवान् हो, पूर्ण विद्वान हो, हम तो अभी दो-चार अक्षर ही जानते हैं फिर सरस्वती पूजा क्यों करें?’’ तो उसका यह प्रश्न असंगत है क्योंकि वह सरस्वती पूजा का अर्थ यह समझा है कि जो पूर्ण सरस्वतीवान् हो जाय उसे ही पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार तो संसार के किसी भी काम को कोई भी व्यक्ति करने का अधिकारी नहीं है, क्योंकि चाहे वह कितना ही अधिक क्यों न जानता हो तो भी किसी न किसी अंश में वह अनजान अवश्य होगा। ऐसे तो कोई भी वकील, डॉक्टर, पण्डित, शिल्पकार, गायक तथा अध्यापक न मिलेगा। तो क्या उनके द्वारा किये जाने वाले सब काम रुके ही पड़े रहेंगे?

व्रत लेने का अर्थ ही यह है कि—अभी यह नहीं किया जा सका था—आगे यह करेंगे।’’ कोई व्रत लेता है कि मैं नियमित रूप से व्यायाम किया करूंगा, इसका अर्थ है कि वह अब तक ऐसा नहीं करता रहा है, आगे करेगा। जो व्यक्ति सदा से ही नियमित व्यायाम करता है, उसके लिए तो वह एक साधारण, स्वाभाविक दैनिक क्रिया है उसका व्रत लेने की उसे क्या आवश्यकता? इसी प्रकार जो व्यक्ति द्विजत्व में पारंगत नहीं हो सके हैं उन्हें ही यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है। जब उनका द्विजत्व पुष्ट, परिपक्व और पूर्ण हो जायगा तब फिर उन्हें इसकी कुछ भी आवश्यकता न रहेगी। संन्यास आश्रम में जनेऊ का त्याग कर दिया जाता है, क्योंकि उस स्थिति में पहुंचे हुए व्यक्ति के लिये वह निष्प्रयोजन है। जिस कार्य के लिये उसे धारण किया गया था वह पूरा हो चुका तो व्यर्थ का बोझ क्यों लादा जाय? जो लोग शंका करते हैं कि हम में द्विजत्व नहीं है, इसलिये हम जनेऊ पहनने का साहस क्यों करें? उन्हें समझना चाहिए—‘‘उन्हें इसी कारण यज्ञोपवीत अवश्य पहनना चाहिये क्योंकि उनमें द्विजत्व का अभी पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। इस विकास के लिये ही तो उपवीत धारण कराया जाता है।’’ क्या कोई पहलवानी का विद्यार्थी ऐसी शंका करता है कि ‘‘मैं पूर्ण पहलवान नहीं हूं, इसलिये अखाड़े में क्यों उतरूं? मुगदर क्यों उठाऊं?’’ उसे अखाड़े में उतरने और मुगदर उठाने की इसीलिये आवश्यकता है कि चूंकि वह अभी पूर्ण पहलवान नहीं हो पाया। जब वह पूर्ण पहलवान हो जायगा तो उसे इन अभ्यासों से छुटकारा भी मिल सकता है। यही बात उपवीत धारण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

यज्ञोपवीत धारण करना इस बात का प्रतीक नहीं है कि इस व्यक्ति का पूर्ण आध्यात्मिक विकास हो गया। वरन् इस बात का प्रतीक है कि—इस व्यक्ति ने आदर्श-जीवन, धर्ममय जीवन व्यतीत करने का संकल्प किया है और यह अपनी परिस्थिति के अनुसार यथासाध्य अधिक से अधिक प्रयत्न करता हुआ लक्ष्य तक पहुंचने की ईमानदारी के साथ चेष्टा करेगा। ऐसी दशा में यह झिझक करना व्यर्थ है कि हम इस योग्य नहीं कि उपवीत धारण करें। इस अयोग्यता का निवारण उसके धारण करने से ही तो होगा। जो यह कहता है कि मैं तैर नहीं सकता इसलिये पानी में न घुसूंगा। उसे जानना चाहिए कि पानी में घुसे बिना तैरना नहीं आ सकता। जो कहता है कि—मैं घोड़े पर चढ़ना नहीं जानता इसलिए नहीं चढूंगा, उसे जानना चाहिये कि घोड़े की पीठ पर बैठे बिना वह घुड़सवार नहीं बन सकता। यह ठीक है कि आरम्भ में काफी कठिनाई प्रतीत होती है, आरम्भ में काफी गलतियां भी होती हैं, पर उनका संशोधन तो धीरे-धीरे अभ्यास करने से, उस कार्य में लगने से ही तो होगा। ऐसा कोई फायदा इस संसार में नहीं है कि आप किसी कार्य में पूरी पारंगत हो जावें तब उस कार्य को आरम्भ करें। कार्य को आरम्भ करने से ही उसमें कुशलता प्राप्त होती है। जनेऊ धारण करे, जब आप द्विजत्व प्राप्त करने के लिये आगे बढ़ेंगे तभी तो आप धीरे-धीरे इस मंजिल को पार करते हुए एक दिन सच्चे अर्थों में द्विज कहलाने योग्य बनेंगे, तभी तो आपको पूर्ण द्विजत्व की प्राप्ति होगी।





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