गायत्री और यज्ञोपवीत

अयोग्य को अनधिकार

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‘‘स्त्री और शूद्रों को वेद ज्ञान तथा ब्रह्म सूत्र नहीं लेना चाहिए’’ इस अभिमत का तात्पर्य किसी को जन्मजात कारणों की वजह से ईश्वरीय धर्म मार्ग में प्रवेश करने से रोकना नहीं है, वरन् यह है कि जिनकी अभिरुचि अध्यात्म मार्ग में नहीं है, जिनकी शिक्षा, अभिरुचि तथा मनोभूमि धर्म मार्ग में प्रवृत्त न होकर दूसरी ओर लगी रहती है, वे वेद-मार्ग में दिलचस्पी न ले सकेंगे, उसमें श्रद्धा न कर सकेंगे, समझ न सकेंगे। अधूरा ज्ञान लेकर तो उसके दुरुपयोग की ही अधिक संभावना है। शास्त्रकारों ने वेद-मार्ग में प्रवेश होने की शर्त यह रखी है कि—धर्म में विशेष रुचि हो, जिसमें यह रुचि पर्याप्त मात्रा में है, वह द्विज है जिसमें नहीं है वह शूद्र है। ऐसे शूद्र वृत्ति वाले लोगों के लिये उपवीत एक भार है। वे उसका उपहास या तिरष्कार करते हैं। ठीक रीति से धारण न कर सकने योग्य उसे धारण न करें तो ही ठीक है, इस दृष्टि से स्त्री और शूद्रों को यज्ञोपवीत निषिद्ध किया गया है।

जिनमें ऐसे दोष न हों वरन् प्रबल धर्म रुचि हो वे जन्म जात कारण से धर्म-संस्कारों से नहीं रोके जाने चाहिये, ऐसे प्रमाण पर्याप्त मात्रा में मौजूद है, जिनसे प्रकट होता है कि शास्त्र स्त्री और शूद्रों को भी उपवीत धारण करने की आज्ञा देता है—

    ‘‘द्विविधा स्त्रियो, ब्रह्मवादिन्यः सद्योवध्वश्च ।
तत्र ब्रह्मवादिनीनां उपनयनं, अग्नि बन्धनं
            वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षावृत्तिश्च । बधूनां तूपवीतार्थं
        विवाहे कधाश्चिदुपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः ।।’’

अर्थात् स्त्रियां दो प्रकार की हैं—ब्रह्मवादिनी और नववधु। ब्रह्मवादिनियों को उपनयन, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन और अपने घर में ही भिक्षा करनी चाहिए। नव-वधुओं को कम से कम विवाह समय में तो यज्ञोपवीत अवश्य ही करना चाहिये।

    पुरा कल्पे तु नारी मौञ्जिबन्धनमिष्यते ।
    अध्यापनं च वेदानां सावित्री वचनं तथा ।।

अर्थात्- पुराने समय में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत धारण करती थी वेद पढ़ती थीं और गायत्री का जप करती थीं ।

प्रवृतां यज्ञोपवीतिनीमभ्युदानायानयेत् सोमोऽददत् गंधर्वायेति ।   -- गो० मु २ । १ । १९- २१

अर्थात्- '' तत्पश्चात् उस कन्या को यज्ञोपवीत धारण कराके वस्त्रों से आच्छादित करके पति के समीप लावे और 'सोमोऽददत् ,, इस मन्त्र' को पढ़े । विवाह के समय यज्ञोपवीत धारण करने का यह विधान मौजूद है तो अन्य समय में फिर कैसे निषिद्ध ठहराया जा सकता है । ''

यजुर्वेदीय पारस्कर गुह्य सूत्र में '' स्त्रिय उपवीता अनुपवीताध'' इत्यादि वचन आते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पढ़ने वाली और न पहनने वाली दोनों प्रकार की होती थीं ।

शुद्राणामदुष्टकर्मणामुपनयनं । इदञ्च रथकारस्योपनयनं । अदुष्टकर्मणा शुद्राणामुपनयनम् ।

अर्थात्- अदुष्ट काम करने वाले शूद्रों का उपनयन होना चाहिए । रथकार का उपनयन होना चाहिए ।

अधिकार- अनधिकार के प्रश्न का समाधान यह है कि द्विजत्व के चिह्न जिसमें हैं जो यज्ञोपवीत की साधना का महत्त्व समझते हैं और हृदयंगम अपने जीवन को ऊँचा बनाना चाहते हैं उन्हें उसके धारण करने की अनुमति होनी चाहिए ।जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में शूद्रत्व भरा हुआ है, वे उपवीत पहनकर उसे भी लज्जित न करें तो ठीक है।







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