इस ब्रह्माण्ड में इस स्तर का और कोई ग्रह नहीं खोजा जा सका, जैसा कि
सुंदर, सुव्यवस्थित, सुनियोजित और अगणित विशेषता संपन्न है, यह भू- मंडल
स्वर्ग लोक की कल्पना तो की जाती है, पर उसमें इतनी विशेषताएँ और
विचित्रताएँ आरोपित नहीं की जा सकीं जितनी कि अपने भू- लोक में विद्यमान
हैं। इसी से इसे ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ नाम दिया गया है। अपने सौर मण्डल में
जितने भी ग्रह उपग्रह खोजे गए हैं, उनमें आकार की दृष्टि से कई तो पृथ्वी
से कई गुने बड़े हैं, पर प्रकृति शोभा, प्राणी समुदाय, वृक्ष, वनस्पति आदि
की समता और कहीं नहीं। ऋतुओं का ऐसा परिवर्तन अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं।
फिर मनुष्य जैसा प्राणी मिल सकना सर्वथा दुर्लभ ही है जिसे अगणित क्षमताओं,
विशेषताओं और विभूतियों का भंडार माना जाता है। भले ही उनमें से कितनी ही
प्रसुप्त स्थिति में ही क्यों न बनी रहती हों?
अन्य ग्रहों की
तुलना में बहुत छोटे आकार की इस पृथ्वी में इतना सौन्दर्य और इतना सौष्ठव
किस प्रकार संभव हुआ। इसके भौतिक कारणों को देखते हुए मात्र एक ही प्रमुख
तथ्य सामने आता है कि सूर्य से पृथ्वी की दूरी इतनी सही सार्थक है कि उस
संतुलन के कारण ही यह सब संभव हुआ। यदि दूरी कम रही होती, तो वह अग्नि पिंड
जैसी बन जाती। अधिक दूर होती, तो शीत की अधिकता से यहाँ किसी प्रकार की
हलचलें दृष्टिगोचर नहीं होतीं। सुनिश्चित दूरी का यह सुयोग ही धरती में ऐसी
विशेषताएँ संभव कर सका है, जैसी कि ब्रह्माण्ड भर में अन्यत्र कहीं भी
खोजी और जानी नहीं जा सकी।
तत्त्वदर्शियों से लेकर
विज्ञानवेत्ताओं तक, सब एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं कि ‘‘सूर्य आत्मा
जगत: तस्थुषच’’ अर्थात्’ सूर्य ही जगत की आत्मा है।’’ पृथ्वी का अधिपति
सूर्य ही बताया गया है और उस तथ्य को पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका जैसे अनेक
अलंकारों से अभिव्यक्त किया गया है।
सूर्य की किरणें जब धरती
पर बरसती हैं तो उस क्षेत्र में उत्साह और पराक्रम दौड़ जाता है।
वनस्पतियों, प्राणियों और पदार्थों में हलचलों का दौर चल पड़ता है। दिवाकर
के अस्त होते ही सुस्ती, थकान, नींद, अकर्मण्यता आ घेरती है और हलचलों में
अधिकांश पर विराम लग जाता है। जहाँ किरणें नहीं पहुँचती वहाँ सीलन, सड़न
नीरसता और निस्तब्धता ही अपना डेरा डालने लगती है। ऐसे स्थानों पर पहुँचने
के लिए विषाणु घात लगाने लगते हैं। जहाँ सौर ऊर्जा की जितनी पहुँच है वहाँ
उतनी ही बलिष्ठता, सुदृढ़ता का माहौल दृष्टिगोचर होता है।
इस
संसार के प्रमुख तत्त्व शब्द, प्रकाश और ताप माने जाते हैं। इन्हीं की
तरंगें अणु- परमाणु और उनके घटक अपने- अपने परिकर के साथ परिभ्रमण में निरत
रहकर विभिन्न पदार्थों के स्वरूप गढ़ती हैं। वस्तुएँ अनेक रंग की दिखाई
पड़ती हैं। यह रंग कहाँ से आता है? उत्तर स्पष्ट है जो वस्तु या पौधा अपने
अनुरूप, किरणों में विद्यमान जिन रंगों को अवशोषित कर लेता है, वह उसी रंग
का बन जाता है। रंगकर्मी अकेला सूर्य है। उसी ने इस वसुधा के विभिन्न घटकों
को अपनी योजना के अनुसार चित्रशाला की तरह रंग भरकर अद्भुत कलाकारिता का
परिचय दिया है।
धरती पर अनेक रसायन उपलब्ध होते हैं। उन्हीं के
आधार पर वनस्पतियों और प्राणियों की काया का निर्माण होता है। यह रसायन
सूर्य और पृथ्वी के संयोग से ही विनिर्मित होते हैं। उन्हीं को खाद्य
पदार्थों से लेकर पदार्थ जगत के अन्य अनेक क्षेत्रों में उपजते, बढ़ते और
अपने ढंग से काम करते देखा जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती पर
जितना कुछ जीवन तत्त्व विद्यमान है, जितनी भी हलचलें हैं, उसका उद्गम
केन्द्र सूर्य सत्ता में सन्निहित है। एंगग्स्ट्राम एवं ह्यूगनिन्स जैसे
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि सूर्य प्रभा में सोडियम, कैल्शियम, बेरियम,
जिंक, कापर, आयरन, मैंगनीज, कोबाल्ट, कैडमियम जैसी धातुओं के निर्माण की
क्षमता है। मानवी जीवनी शक्ति सूर्य से ही प्राप्त अनुदान है। इसके अभाव
में ही आदमी रोगी होता है।
मनुष्य शरीर में अनेकानेक प्रवृत्ति
के जीव कोश, ऊतक, क्षार, प्रोटीन, स्राव, हारमोन, विटामिन्स आदि पाए जाते
हैं। मोटे तौर से इन्हें प्रकृति की देन मान लिया जाता है, पर सूक्ष्म
सर्वेक्षण से प्रतीत होता है कि यह भिन्नताएँ मात्र इस कारण विनिर्मित होती
हैं कि अमुक स्थानों तक सूर्य का प्रभाव किस स्तर का, किस मात्रा में, किस
गति से पहुँचता है? वहाँ किन घटकों के साथ किस प्रभाव का मिश्रण होकर क्या
प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है? रसायन भी सूर्य किरणों का ही उत्पादन हैं।
सृष्टि के आदि से लेकर अब तक धरती के वातावरण में प्राणियों, पदार्थों,
मौसमों में जो चित्र- विचित्र परिवर्तन होते रहते हैं। उनके मूल में पृथ्वी
और सूर्य के बीच चलने वाले आदान- प्रदान और उसके कारण उत्पन्न होने वाली
प्रतिक्रियाओं में अंतर आते रहना ही प्रमुख कारण रहा है। प्रकृति का
प्राकृतिक इतिहास जिस प्रकार बदलता रहता है, उसके कारण तलाश करने पर यही
निष्कर्ष सामने आता है कि दोनों ग्रहों के बीच जो अंतर पड़ता रहा है, वही
इन उथल- पुथलों का निमित्त कारण रहा है।
भविष्य के संबंध में
विचार करने पर भी दृष्टि इसी केन्द्र पर जमती है कि सूर्य शक्ति का अगले
दिनों कितना और किस प्रकार उपयोग कर सकना संभव होगा? मनुष्य की सबसे बड़ी
आवश्यकता ‘ऊर्जा’ पर अवलंबित है। भोजन बनाने, ईंट, सीमेन्ट, रसायने
विनिर्मित करने, धातुएँ पकाने, जलयान, थलयान, वायुयान चलाने, कारखानों को
गतिशील रखने, जमीन से पानी निकालने आदि के लिए ईंधन कहाँ से आए, इसके उत्तर
में वैकल्पिक ऊर्जा का एक मात्र आधार सूर्य ही रह जाता है।
सूर्य का एक रूप है जो अपनी चमक और गर्मी के रूप में हर किसी को प्रत्यक्ष
परिचय देता है। दूसरा उसका आध्यात्मिक स्वरूप है, जो अंतःकरण में प्रेरणा,
प्रकाश, साहस, उत्साह, पराक्रम, आदि दे सकने में सक्षम है। उसे अध्यात्म-
भाषा में ‘सविता’ कहते हैं। यह जड़ अग्नि पिंड नहीं, वरन् सचेतन प्राण
शक्ति है। आवाहन आकर्षण किए जाने पर वह साधक में ओजस्, तेजस्, वर्चस्
प्रदान करने में समर्थ है। कुंती ने इसी शक्ति का आवाहन करके सूर्य पुत्र
कर्ण को जन्म दिया था। कर्ण के शरीर और मन में यही शक्ति कवच- कुंडल बनकर
परिलक्षित हुई थी। अन्य अनेक प्रसंगों में सूर्य के माध्यम से चमत्कारी
क्षमताएँ प्राप्त किए जाने के उल्लेख हैं। रघुवंशियों का उपास्य सूर्य ही
था।
नवयुग में जन मानस को परिष्कृत करने के लिए प्रखर प्रतिभा
संवर्धन की आवश्यकता पड़ेगी। महामानवों के उत्पादन अभिवर्धन में सविता की
चेतना शक्ति का प्रयोग अभीष्ट होगा। इसके लिए इन दिनों भी उच्चस्तरीय
आत्माएँ अपने सूक्ष्म शरीर से विशेष प्रयोग- प्रदान कर रही है।
सार्वजनिक प्रयोग के रूप में शान्तिकुञ्ज में युग संधि वेला में ऐसा ही एक
महापुरश्चरण चला रहा है। यह शारदेय नवरात्र १९८८ से आरंभ हुआ था और दिसम्बर
२००० तक चलेगा। इसकी पूर्णाहुति भी अपने ढंग की अनोखी और विशालकाय होने की
संभावना है। साधना विज्ञान में श्रद्धा रखनेवाले शान्तिकुञ्ज के एक महीने
एवं नौ दिन वाले सत्रों में सम्मिलित होने आते हैं और साथ ही इस युग संधि
पुरश्चरण में भी भाग लेते रहते हैं।
इन दिनों अणु आयुधों से
उद्भूत रेडियोधर्मिता से कैसे जूझा जाए, इस संबंध में प्रसिद्ध दार्शनिक
आर्थर कौस्लर ने भी आध्यात्मिक उपचारों का आश्रय लेने की बात कही है। अपना
अभिमत ब्लिट्ज के संपादक श्री करँजिया से हुई चर्चा में जो प्रसिद्ध
पत्रिका नवनीत (मार्च १९८३) में प्रकाशित हुआ था। व्यक्त करते हुए उनने कहा
था कि अणु- आयुधों से भी बढ़कर सामर्थ्य गायत्री मंत्र में है जो
सावित्री- सविता महामंत्र है। वे कहते हैं कि जब विश्व के करोड़ों भारतीय,
गायत्री मंत्र का समवेत उच्चारण पुरश्चरण के रूप में करेंगे, तो इस
अनुष्ठान से उत्पन्न ऊर्जा ब्रह्माण्ड में सूर्य को भेदने वाली मिसाइल का
काम करेगी तथा ‘भर्ग’ से मिलकर आणविक शक्ति को नष्ट कर देगी।
प्राचीनकाल के ऋषियों की तरह अगले दिनों अपने समय के तत्त्वज्ञानी भी यह
अनुभव करेंगे कि मानव प्रकृति में इस महत् शक्ति के आधार पर आवश्यक
परिष्कार, परिमार्जन एवं परिवर्तन संभव किए जा सकेंगे। सूर्य पुराण,
अक्षुण्योपरिषद्, आदित्य हृदय आदि से सूर्य की विशिष्ट क्षमताओं का उल्लेख
और उसके ऐसे उपचारों का संकेत हैं, जिनमें शरीर मन एवं भाव संवेदनाओं को इस
शक्ति से उच्चस्तरीय लाभ प्रदत्त किया जा सके। इन प्रतिपादनों के संबंध
में अब ऐसी शोधें होंगी, जिन्हें झुठलाया न जा सके, परीक्षण की कसौटियों पर
जिन्हें सही सिद्ध किया जा सके। अगले दिनों सूर्य विज्ञान को प्रमुखता
प्राप्त होगी और उनका न केवल पदार्थ शक्ति के रूप में प्रयोग होगा वरन्
मानसोपचार के रूप में भी काम में लाया जा सकेगा। सूर्य नमस्कार, सूर्यभेदन
प्राणायाम, सूर्योपस्थान आदि विधि उपचारों के असंदिग्ध परिणाम सभी के समक्ष
हैं। इससे सूर्य की शक्ति पर विश्वास जमता है।
जिन्हें इन
प्रतिपादनों पर दृढ़ विश्वास हो उनके लिए एक सार्वजनीन उपासना प्रावधान
बनाया गया है। वह इस प्रकार है- ब्रह्म मुहूर्त में यथासंभव शरीर और मन से
शुद्ध होकर नेत्र बंद करके प्रातःकालीन उदीयमान स्वर्णिम सविता का ध्यान
करें। भावना करें कि स्वर्णिम सूर्य किरणें अपने शरीर में प्रवेश कर रही
हैं और उसकी स्थिति चंद्रमा जैसी बन रही है। सूर्य से प्रकाश ग्रहण करके
चंद्रमा चमकता है और अपने शीतल प्रकाश से रात्रि में प्रकाश उत्पन्न करके
वाला अमृत बरसाता है। समझना चाहिए कि ध्यान स्थिति में सूर्य किरणों का
प्रवेश साधक के शरीर में हुआ और वह चंद्रमा की तरह अमृत ज्योति से भर गया
।। यह ज्योति संसार में बिखर कर अमृत ज्योति से भरा- पूरा वातावरण बना रही
है। उससे पदार्थ और प्राणी अनुप्राणित हो रहे हैं। उपयोगी वातावरण बन रहा
है और अवांछनीयताएँ विदा हो रही हैं।
गायत्री मंत्र सूर्य का
मंत्र है। जिन्हें गायत्री मंत्र पर श्रद्धा हो वे उपरोक्त ध्यान के साथ
गायत्री मंत्र मानसिक रूप से जपते रह सकते हैं। जिन्हें उसकी उपयोगिता गले न
उतरती हो, वे मात्र सूर्य का काया में आवाहन और उसके कारण बनते चंद्रोपम
शरीर से अमृत ज्योति वितरण का ध्यान मात्र करते रह सकते हैं।
इसके लिए समय पन्द्रह मिनट रखा गया है, ताकि वह नियम सभी से सध सके। एक ही
भावना एक ही समय यदि लाखों- करोड़ों लोग मिल- जुलकर करें तो उस संयुक्त
शक्ति के उद्भव से सूर्य का चेतना पक्ष, मनुष्य समाज पर अधिक अनुग्रह
बरसाएगा, ऐसी आशा की जा सकती है।