इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग २

मानवी दुर्बुद्धि से ही उपजी हैं आज की समस्याएँ

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कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है, किं तु फल प्राप्त करने में वह सृष्टि के नियमों के बंधनों में बँधा हुआ है। अन्य जीवधारी इस तथ्य को अपनी स्वाभाविक प्रेरणा से समझते हुए तदनुरूप आचरण करते रहते हैं, पर मनुष्य है जो तुर्त- फुर्त परिणाम मिलने में विलंब होने के कारण प्राय: चूक करता रहता है। अदूरदर्शिता अपनाता है और यह भूल जाता है कि विवेकशीलता की उपेक्षा करने पर अगले ही दिनों किन दुष्परिणामों को भुगतने के लिए बाधित होना पड़ेगा। यह वह भूल है जिसके कारण मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक गलतियाँ करता है, फलतः उलझनों- समस्याओं विपत्तियों का सामना भी उसे ही अधिक करना पड़ता है। कोई समय था जब मनुष्य अपनी गरिमा का अनुभव करता था एवं स्रष्टा का युवराज होने के नाते, अपने चिंतन और कर्तृत्व को ऐसा बनाए रहता था कि सुव्यवस्था बने और किसी को किसी प्रकार की प्रतिकूलताओं का सामना न करना पड़े।

    इस संसार में इतने साधन मौजूद हैं कि यदि उनका मिल- बाँटकर उपयोग किया जाय तो किसी को किसी प्रकार के संकटों का सामना न करना पड़े। प्राचीनकाल में इसी प्रकार की सद्बुद्धि को अपनाया जाता रहा है। कोई कदम उठाने से पहले यह सोच लिया जाता था कि उसकी आज या कल- परसों क्या परिणति हो सकती है? औचित्य को अपनाये भर रहने से वह सुयोग बना रह सकता है जिसे पिछले दिनों सतयुग के नाम से जाना जाता था। सन्मार्ग का राजपथ छोड़कर उतावले लोग लंबी छलांग लगाते और कँटीली झाड़ियों में भटकते हैं। स्वार्थ आपस में टकराते हैं और अनेकानेक समस्याएँ पैदा होती हैं।

    दूरगामी परिणामों पर विचार न करके जिन्हें तात्कालिक लाभ ही सब कुछ लगता है, वे चिड़ियों मछलियों की तरह जाल में फँसते चासनी पर आँखें बंद करके टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह पंख फँसाकर बेमौत मरते हैं। दुर्बुद्धि का यही कुचक्र जब असाधारण गति से तीव्र हो जाता है तब उलझने भी ऐसी ही खड़ी होती हैं कि जन- जन को विपत्तियों के दल- दल से उबरने नहीं देती।

    क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में बहुधा विलंब लग जाता है, इसी कारण कितने ही लोगों में संदेह उत्पन्न हो जाता है कि जो किया है उसकी तदनुरूप परिणति होना आवश्यक नहीं। कई बार बुरे कार्य करने वाले भी उन पाप- दण्डों से बचे रहते हैं, कई बार अच्छे कर्म करने पर भी उनके सत्परिणाम दीख नहीं पड़ते। इससे सोचा जाता है कि सृष्टि में कोई नियमित कर्मफल व्यवस्था नहीं है, यहाँ ऐसा ही अंधेर चलता है। ऐसी दशा में स्वेच्छाचार बरता जा सकता है, ऐसे लोग प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में जो समय लगता है उसकी प्रतीक्षा नहीं करते और नास्तिक स्तर का अविश्वास अपनाकर जो भी सूझता है उसे कर बैठते हैं। यह भुला दिया जाता हैं कि बीज का वृक्ष बनना तो निश्चित है, पर उसमें देर लग जाती है। दूध को दही बनने में भी कुछ समय तो लग ही जाता है। असंयम बरतने वाले अपने अनाचार का दण्ड तो भुगतते हैं, पर उसमें भी समय लगता है। नशेबाज का स्वास्थ्य बिगड़ता और जीवनकाल घटता जाता है, पर वह सब कुछ तुरंत ही दीख नहीं पड़ता।

    यदि झूठ बोलते ही मुँह में छाले पड़ जाते, चोरी करते ही हाथ में लकवा मार जाता, व्यभिचारी नपुंसक हो जाते तो किसी को अनर्थ करने का साहस ही न होता, पर भगवान ने मनुष्य की समझदारी को जाँचने के लिए कदाचित इतना अवसर दिया है कि वह उचित- अनुचित का निर्णय कर सकने वाली अपनी विवेक बुद्धि को जागृत करे। उसका सही उपयोग करके औचित्य अपनाए और सही मार्ग पर चले ।। इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वालों को दंड तो मिलता है पर देर में। वस्तुस्थिति के कारण उन्हें पश्चाताप तो करना ही पड़ता है। साथ ही अदूरदर्शिता अपनाने की आदत पड़ जाने से, पग- पग पर भूल करने और ठोकरें खाने की दुर्गति भी सहन करनी पड़ती है, इसके विपरीत जो सोच समझ सकते हैं और परिणामों को ध्यान में रखते हुए अपनी वर्तमान गतिविधियों को सुनियोजित करते हैं वे जीवन संपदा का सदुपयोग करके स्वयं धन्य होते और अपने अनुकरण का अवसर देकर अनेकों का भला करते हैं। मनुष्य को ईश्वर ने जो अनेकानेक विशेषताएँ विभूतियाँ प्रदान की हैं उनमें से एक यह भी है कि वह क्रिया की प्रतिक्रिया का अनुमान लगा सके और अनिष्टों से बचते हुए सुख- शान्ति का जीवन जी सके।     

    इन दिनों स्नेह- सद्भाव सहकार- सदाचार की कमी पकड़े से मनुष्य का व्यवहार ऐसा विचित्र बन गया है जिसमें शोषण ही प्रधान दिखाई पड़ता है। सहयोग के आधार पर परस्पर हित साधन की प्रक्रिया चलती रह सकती है, किंतु जहाँ व्यक्तिवाद की आपाधापी ही सब कुछ हो वहाँ यह समझ में नहीं आता कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपना लेने पर दूसरों के अधिकारों को क्षति पहुँचती है या नहीं? यह स्थिति ऐसी है जिसमें दूसरों के कष्ट- संकट और अहित की ओर ध्यान जाता ही नहीं, मात्र अपना ही लाभ सूझता है। अनाचार- अत्याचार शोषण, अपहरण, उत्पीड़न के मूल में यही वृत्ति काम करती है। निःसंकोच जघन्य कृत्य करने वाले वे ही होते है जिन्हें दूसरे के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती। अपने तनिक से लाभ के लिए वे दूसरों पर पहाड़ जितना संकट उड़ेल सकते हैं, इस अनर्थ मूलक प्रवृत्ति की, मानव धर्म के प्रतिपादकों ने भरपूर निंदा की है और कहा है कि ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु' वाली भाव संवेदना को संजोए ही रहना चाहिए। जो व्यवहार हमें अपने लिए पसंद नहीं, वह दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए। सबमें अपनी ही आत्मा को देखने का तात्पर्य है दूसरों के दुःखों को अपना दु:ख और दूसरों के सुख को अपना सुख माना जाय। मानवीय स्तर की भावसंवेदनाओं का उद्गम इसी मान्यता के साथ जुड़ा हुआ है, इसे यदि हृदयंगम कर लिया जाय तो अनाचार बरत सकना संभव न होगा। सेवा -सहायता के लिए मन चलेगा, दुःख बाँट लेने और सुख बाँट देने की उदारता बनी रहेगी।

    अपनत्व को सिकोड़ लेना क्षुद्रता है और उसे व्यापक बनाकर चलना महानता। महामानव पुण्य- परमार्थ की बात सोचते, योजना बनाते और गतिविधि अपनाते रहते हैं, यही आत्म- विकास है। विकसित व्यक्ति का अपनापन मनुष्य मात्र में, प्राणी मात्र में फैल जाता है। ऐसी दशा में जिस प्रकार अपने लिए सुख साधन मिटाने की इच्छा होती है, उसी प्रकार यह भी सूझता है कि दूसरों को सुखी रहते देखकर अपना मन भी हुलसे, दूसरों के दुःख में हिस्सा बँटाने के लिए, सेवा सहायता हेतु दौड़ पकड़े की आतुरता उमगे। यदि इस मानवीय मर्यादा का परिपालन होने लगे, तो कोई किसी के साथ अनीति बरतने की कल्पना ही मन में न उठने दे।

    हर प्रकार के आचरण का मूल कारण है, अदूरदर्शिता, अविवेक। किस कृत्य का भविष्य में क्या परिणाम होगा? इसका दूरवर्ती अनुमान न लगा पाने पर तात्कालिक लाभ ही सब कुछ हो जाता है, भले ही उसके साथ अनीति ही क्यों न जुड़ी हो। जिस प्रकार दृष्टि- दोष होने पर मात्र नजदीक की वस्तु ही दीख पड़ती है और दूर पर रखी हुई वस्तुओं को पहचान सकना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार अदूरदर्शी तुरंत लाभ को सब कुछ मानते हुए उसे किसी भी कीमत पर पूरा करने के लिए जुट जाते हैं। इसके बाद इसकी परिणति क्या हो सकती है? इसका अनुमान तक अदूरदर्शी लोग लगा नहीं पाते, आँखें रहते हुए भी यह अंधे जैसी स्थिति है, जिनका स्वभाव ऐसा बना जाता है वे तत्काल भले ही कुछ लाभ उठा लें पर अपनी प्रामाणिकता खो बैठते हैं। हर किसी की दृष्टि में अविश्वस्त बन जाते हैं। कोई उनका सच्चा मित्र नहीं रहता, उन्हें परामर्श देने या लेने योग्य भी नहीं समझा जाता, शंका दृष्टि बनी रहती है, सच्चे सहयोग के अभाव में, अविश्वस्त वातावरण में वे भीड़ के बीच रहते हुए भी अपने को एकाकी अनुभव करते हैं। एकाकीपन कितना नीरस, कितना निस्तब्ध और डरावना होता है, इसे हर भुक्तभोगी भली प्रकार जानता है। अविवेक के कारण स्वभाव में अनेकानेक अवांछनीयताएँ सम्मिलित हो जाती हैं, दुर्व्यसनों की आदत पड़ जाती है, आलस्य- प्रमाद छल- प्रपंच अतिवाद- अहंकार लिप्सा- तृष्णा जैसे अनेक अनौचित्य बिना बुलाए ही साथ हो जाते हैं। प्रामाणिकता चली जाने पर न तो प्रखरता शेष रहती है और न प्रतिभा ही व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रह जाती है। चोर- चालाकों का मानस सदा भयभीत बना रहता है, अनिष्ट की आशंकाएँ बनी रहती हैं और संदेह करते, संदेहास्पद स्थिति में बने रहते ही समय गुजरता है। इसके प्रतिफल प्रतिशोध के, घृणा- तिरस्कार के रूप में वापिस लौटते हैं, संसार के दर्पण में अपनी ही कुरूप छाया दीख पड़ती है।

    कुछ देर के लिए किसी को मूर्ख बनाया जा सकता है, पर सबको सदा के लिए गफलत में रखा जा सके, यह संभव नहीं। अपने द्वारा किए गए दुर्व्यवहार किन्हीं अन्यों के द्वारा अपने ऊपर प्रतिक्रिया बनकर टूटते हैं, जिसने औरों को ठगा वह किन्हीं अन्यों के द्वारा ठगा जाए, ऐसे घटनाक्रम आए दिन घटित होते देखे जाते हैं। असंयम बरतने वाले तत्काल न सही कल- परसों उसकी दुःखदाई प्रतिक्रिया से दंडित हुए बिना नहीं रहते।

    मनुष्य- मनुष्य के बीच दीख पड़ने वाले दुर्व्यवहारों की परिणति इन दिनों हर क्षेत्र में समाप्त होती चली जाती है। जब विश्वास ही नहीं जमता तो सहयोग किस बलबूते पर पनपे? टूटे हुए मनोबल का व्यक्ति किस प्रकार कोई उच्चस्तरीय साहस कर सकेगा? उसके ऊँचे उठने, आगे बढ़ने का सुयोग कैसे बनेगा?

    मनुष्य- मनुष्य के बीच छाया हुआ छद्म, अविश्वास, असहयोग, अनाचार, चित्र- विचित्र प्रकार के उद्वेग, असंतोष और दुर्व्यवहार उत्पन्न करते देखा जाता है। फलतः धनी- निर्धन शिक्षित- अशिक्षित सभी को अपने- अपने ढंग की कठिनाइयाँ त्रास देती दीख पड़ती हैं। अधिकांश लोगों को श्मशान के भूत- पलीतों की तरह जलते- जलाते डरते- डराते उद्विग्न और असंतुष्ट स्थिति में देखा जाता है। यदि सुविधा- साधनों का बाहुल्य रहा तो भी उससे क्या कुछ बनता है? बाहर वालों को सुखी- संपन्न दीखना और बात है। कितने ही साधनों से संपन्न क्यों न हों, उनका अपनी दृष्टि में अपना मूल्य गई- गुजरी स्थिति में बना रहेगा, असंख्य समस्याएँ और चिंताएँ उन्हें घेरे रहेंगी।

    आज इसी स्थिति में जन साधारण को फँसा देखा जा सकता है। प्रगति के नाम पर सुविधा- साधनों की अभिवृद्धि होते हुए भी चिंतन, चरित्र और व्यवहार में निकृष्टता भर जाने के कारण जो कुछ चल रहा है वह ऐसा है जिसे निर्धनों, अशिक्षितों और पिछड़े स्तर के समझे जाने वालों की तुलना में भी अधिक हेय समझा जा सकता है। इसे प्रगति कहा जाता भले ही हो, पर वस्तुतः है अवगति ही।

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