इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग २

परिवर्तन प्रक्रिया का सार-संक्षेप

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-उन्नीसवीं शताब्दी से आरंभ होकर बीसवीं सदी के अंतिम चरण तक कालचक्र अत्यंत द्रुतगति से घूमा है। जितना भला- बुरा पिछले हजारों वर्षों में नहीं बन पड़ा वह इस अवधि में हो चला।

    प्रगति के नाम पर असाधारण महत्व के आविष्कार, बुद्धि तीक्ष्णता के पक्षधर, प्रतिपादन, शिक्षा, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में नए निर्धारण, विशालकाय कल कारखाने इन्हीं दिनों लगे हैं। युद्ध सामग्री का उत्पादन एक नया व्यवसाय बनकर उभरा है, अंतरिक्ष को खोज डालना इसी समय की उपलब्धि है, अनेक राज्य क्रांतियाँ हुई हैं। भारत समेत अनेक देशों को प्राप्त स्वतंत्रता आदि अनेक उपलब्धियों की गणना इस क्रम में हो सकती है।

    -बीसवीं सदी में अवगति के नाम पर भी ऐसा कम नहीं हुआ जिसे खेदजनक न कहा जा सके, दो विश्व युद्ध इन्हीं दिनों हुए, जापान पर अणुबम गिराए गए। छोटे- छोटे लगभग १०० युद्ध इसी बीच लड़े गए। नशेबाजी चरम सीमा तक पहुँची, व्यभिचार पाप न रहकर एक सामान्य लोकाचार जैसा बन गया। जिससे पारिवारिक सघनता को भारी चोट पहुँची। जनसंख्या असाधारण रूप से बढ़ी, असंयम और अनाचार फैशन बन गया। प्रकृति प्रकोपों ने कीर्तिमान बनाया, कुरीतियों और मूढ़ मान्यताओं ने सभ्य और असभ्य सभी को एक लकड़ी से हाँका।

    अनौचित्य को रोकने और विकास उपक्रमों को बढ़ाने के लिए भी कुछ होता रहा, पर वह विशिष्ट प्रगति करने और अवगति पर औचित्य का अंकुश लगाने में यत्किंचित् ही सफल हुआ। राष्ट्रसंघ से लेकर सरकारों के विकास कार्य और संस्थाओं के सुधार क्रम इतने सफल न हो सके जिसे कालचक्र की गतिशीलता पर संतुलन बिठा पाने का श्रेय मिल सके। कुल मिलाकर बीसवीं सदी घाटे की रही, उसमें बना कम, बिगड़ा ज्यादा। इस संभावना को भविष्यवक्ता और दूरदर्शी पहले से भी बताते और चेतावनी देते रहे थे। ईसाई मान्यता वाला सेवेन टाइम्स, इस्लाम मान्यता की चौदहवीं सदी, भविष्य पुराण की विनाश, विकृति आदि को मिलाकर देखा जाए तो प्रतीत होता है कि विभीषिकाओं की आशंका अपनी विकरालता ही दिखाती रही।

    -कालचक्र का क्रम ऐसा है कि नीचे से ऊपर की ओर चलकर गोलाई बनाता है। बीसवीं सदी की क्षतिपूर्ति इक्कीसवीं सदी में होगी, इसमें विकास उभरेगा और विनाश की खाई पटती जाएगी। इसलिए ‘‘इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य’’ का उद्घोष उजली परिस्थितियों का परिचायक ही माना जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि में अनेक दिव्यदर्शियों, आँकलन कर्ताओं तथा पाश्चात्य प्रतिभाओं ने एक स्वर से समर्थन किया है। हमें आशा करनी चाहिए कि अगली शताब्दी नया माहौल लेकर आएगी।

    - रात्रि की विदाई और प्रभात के आगमन को मध्यांतर संधि वेला कहा जाता है। ऊषाकाल, ब्रह्म मुहूर्त जैसे नाम उस समय को दिए जाते हैं। युग संधि के संबंध में मान्यता है कि वह बीसवीं सदी के अंतिम बारह वर्षों में ही होनी है, सन् १९८९ से २००० तक के बारह वर्ष इसी स्तर के माने जा रहे हैं। इसकी तुलना सर्दी और गर्मी के बीच आने वाले वसंत से अथवा गर्मी और सर्दी के मध्यवर्ती वर्षाकाल से की जा सकती है। इस अवधि में गलाई और ढलाई की दोनों परस्पर विरोधी दीखने वाली क्रिया- प्रक्रिया चलती दिखाई देगी। अवांछनीयता के उन्मूलन वाला उत्साह उभरेगा और नवसृजन के भव्य प्रवाह का आगमन दीख पड़ेगा।

    -संधिकाल का महत्त्व असाधारण माना गया है। धान्यों की मध्यवर्ती नोक ही उपजाऊ होती है। गाड़ी के दो पहियों को चलाने में मध्यवर्ती धुरी की ही प्रमुख भूमिका होती है। भोर होते ही घर- घर में बुहारी लगती है और कुछ पकाने के लिए चूल्हा गरम किया जाता है। यह दोनों ही प्रयोग युग संधि के मध्यांतर में नए सिरे से नए उत्साह से कार्यान्वित होते दीख पड़ेंगे।

    इन दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने के लिए प्रखर प्रतिभाएँ सृजनशिल्पी के रूप में उभरेंगी और ऐसे पराक्रम प्रस्तुत करेंगी जिन्हें असाधारण की संज्ञा मिलेगी। हर काम मध्य गति से तो सदा सर्वदा चलता ही रहता है, पर विशेष समय में विशेष रूप से सुहावना होता है। अरुणोदयकाल में चिड़ियों को फुदकते, कलियों को खिलते, मंदिरों में शंख बजते, ध्यान होते एवं हर क्षेत्र में नए सिरे से नई हलचल को उभरते देखा जाता है।

    प्राणवान कर्मयोगी, उग्र सिद्धि के इन दिनों में अपने में नई उमंगें उभरती देखेंगे। वे संघर्ष एवं सृजन के दोनों कार्यों में अपने पुरुषार्थ का, हनुमान एवं अंगद जैसा परिचय देंगे। उनने लंका दमन, रामराज्य के सतयुग के सृजन में अपने को पूरी तरह खपाया था। इन भावनाओं से अनुप्राणित असंख्यों को देखा जा सकेगा, रीछ- वानर गीध, गिलहरी, केवट, शबरी जैसे अल्पशक्ति वालों की भी भूमिका देखने योग्य होगी। प्रखर प्रतिभाएँ तो युग सृजेताओं जैसी ऐतिहासिक भूमिका संपन्न करेंगी। युग संधि के बारह वर्षों में यह उत्साह उभरता- उछलता दिखाई दे रहा है। स्वार्थों में कटौती और परमार्थ अपनाने के लिए हर प्राणवान में प्रतिस्पर्धा ठनेगी।

    शुभ के आगमन और अशुभ के पलायन के चिह्न युग संधि के दिनों में ही अंकुरित होने लगेंगे। इक्कीसवीं सदी में नवयुग का वट वृक्ष बढ़ता परिपक्व होता जाएगा और कुछ ही वर्षों में इतना प्रौढ़ हो जाएगा कि भूतकाल से तुलना करने वाले उस ख्याति को एक स्वर से नवयुग कह सकें।

    -नवयुग समुद्र मंथन जैसा होगा, उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप चौदह रत्न निकलेंगे। विज्ञान का दैत्य और अध्यात्म का देव दोनों ही पक्ष मिलकर समुद्र मंथन की भूमिका संपन्न करेंगे। प्रकृति मंदराचल पर्वत जैसी मथनी का काम करेगी, मानवी उत्साह वासुकि सर्प जैसी भूमिका संपन्न करेगा। दिव्य प्रेरणा का अदृश्य सहयोग कर्मावतार की तरह इन सब का भार अपनी पीठ पर धारण किए हुए होगा।

    राजशक्ति, बुद्धिशक्ति, धनशक्ति की महिमा के महत्त्व से सभी परिचित हैं। नवयुग का अवतरण करने में चौथी शक्ति उभरेगी- प्रखर प्रतिभा’’। इसे भाव संवेदनाओं से भरी पूरी आदर्शवादी उमंग भी कह सकते हैं, यह सभी कुसंस्कारी नर- नारियों को अनुप्राणित करेंगी जो ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’ का आदर्श प्रस्तुत कर रहे होंगे।

    -मानव धर्म के रूप में समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को सार्वभौम मान्यता मिलेगी, इसका तत्त्वदर्शन नवयुग का धर्मशास्त्र बनेगा और व्यवहार में उतरेगा।

    -परिवर्तन का प्रवाह युद्धोन्माद को शांत करेगा, शांति और सहयोग का वातावरण बनेगा। इन दिनों भी ईरान, ईराक, कम्पूचिया, नामीबिया, अंगोला, पनामा, निकारागुआ आदि क्षेत्रों में ठंडक आई है, मनोमालिन्य वाले क्षेत्रों में रुझान बदला है, यह क्रम चलता रहेगा।

    -विज्ञान का उपयोग अब युद्ध साधनों की प्रतिस्पर्धा में न होगा। बड़े शहर और बड़े कारखाने अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं, इनकी ओर से मुँह मोड़ते ही देहात कस्बों के रूप में बदलेंगे। कुटीर उद्योग पनपेंगे और ग्राम्य विकास की नई लहर चलेगी। विज्ञान, पूँजी और कौशल के उसी केन्द्र पर केन्द्रित हो जाने से प्रदूषण, शहरी घिचपिच, अस्वस्थता और बेकारी जैसी प्रमुख समस्याओं का समाधान निकलता चला जाएगा।

    -जनशक्ति अपनी प्रगति की आवश्यकताओं को अपने बलबूते संभव बनाएगी। अनुदानों, अनुग्रहों की अपेक्षा न करके समयदान एवं अंशदान के सहारे इतने साधन जुटा लेगी जिनके सहारे सर्वतोमुखी प्रगति के लिए जिन आधारों को खड़ा किया जाना है उन्हें बिना किसी कठिनाई के जुटाया और बढ़ाया जा सके।

    -समुद्री जल को पेय बनाना और सूर्य शक्ति को ऊर्जा के लिए प्रयुक्त करना, यह दो कार्य इक्कीसवीं सदी की प्रधान उपलब्धि होगी, रेगिस्तान उपजाऊ भूमि में बदले जा सकेंगे।

    -समझदारी बढ़ने के साथ जनसंख्या वृद्धि का अनौचित्य सब की समझ में आ जाएगा और अमर्यादित प्रजनन समाप्त हो जाएगा। आधी जनसंख्या नारी के रूप में उपेक्षित, पिछड़ी और गई गुजरी स्थिति में इन दिनों पड़ी है। अगली शताब्दी में नर और नारी एक समान बनकर रहेंगे, फलतः जनशक्ति दूनी हो जाएगी।

    -एकता और समता का औचित्य- समझा और आग्रह किया जाएगा। संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, जाति आदि के नाम पर चल रही विषमता घटती और मिटती जाएगी, एक धर्म एक जाति एवं एक भाषा जैसी मान्यताएँ दिन- दिन प्रबल होती जाएँगी।

    साहित्य, संगीत और कला के अधिष्ठाता, भावना और विचारणा को परिष्कृत करने की योजना बनाएँगे और उसे पूरी करेंगे। सबसे बड़ी बात होगी, मनुष्य का चिंतन, चरित्र और व्यवहार बदलेगा। उसमें मानवी गरिमा के प्रति आस्था का समावेश होगा मर्यादाओं और वर्जनाओं का सभी ध्यान रखेंगे। व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता के प्रचलन के प्रति आक्रोश उभरेगा और उसके स्थान पर समाज निष्ठा एवं परमार्थ परायणता श्रेय संपादित करेंगे।


-भावी संभावनाओं में से यहाँ कुछ का ही उल्लेख है, स्थानीय परिस्थितियों और प्रथाओं के अनुरूप सब में अभीष्ट परिवर्तन चल पड़ेगा। इसे करेगा कौन? इसका उत्तर एक ही है कि जागृत मनुष्यों में से अधिकांश की महत्त्वाकाँक्षाएँ इसी दिशा में मुड़ेंगी कि वे युग परिवर्तन जैसे महान सुयोग में अपनी भूमिका अग्रगामी रखें और युग सृजेता के रूप में अपनी अनुकरणीय, अभिनंदनीय ऐतिहासिक भूमिका निभाएँ।

    -सेवा और सृजन की उमंगें तूफानी गति से उभरेंगी, इसलिए सुधार परिवर्तन के आयोजन स्थानीय परिस्थितियों, आवश्यकताओं एवं साधनों के अनुरूप ही होंगे, ऐसे देवमानवों का बाहुल्य होगा जो एक जीवंत सृजन संस्था के रूप में सोचने और करने में कटिबद्ध हुए दीख पड़ेंगे। इस परिवर्तन का वास्तविक श्रेय तो अदृश्य वातावरण के नियंता, अभिनव व्यवस्थापक को मिलेगा, पर प्रत्येक क्षेत्र के सभी स्तर के मूर्धन्य श्रेय प्राप्त करेंगे। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक संस्था- संगठन भी उस श्रेय से वंचित न रहेंगे, अपनी- अपनी भूमिका के अनुरूप सभी यशस्वी बनेंगे।

    नवयुग की संभावनाओं को कपोल कल्पना समझने, उपहास उड़ाने, निष्क्रिय रहने वाले तो बहुत थोड़े होंगे। यों अड़ंगे- अटकाने और प्रतिगामिता बनाए रखने वाले दुराग्रहियों की भी सर्वथा कमी न रहेगी, पर अंततः: जीतेगा सृजन ही प्रकाश का ही अभिनंदन होगा और सतयुग की वापसी की सुखद संभावनाएँ अगले दिनों साकार होकर रहेंगी।

    इस असंभव को संभव कर दिखाने वाले अग्रगामी अपनी प्रखर प्रतिभा का किस प्रकार, किस सीमा तक परिचय देते हैं- इसी को नवयुग की अद्भुत उपलब्धि के रूप में देखा, समझा और आँका जाएगा।

    प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार- प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
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