मनुष्य की अपनी विचारणा, क्षमता, लगन, हिम्मत, उमंग और पुरुषार्थ परायणता
की महत्ता भी कम नहीं। इन मानसिक विभूतियों के जुड़ जाने पर उसकी सामान्य
दीखने वाली क्रिया- प्रक्रिया भी असामान्य स्तर की बन जाती है और दैवी
विभूतियों की समानता करने लगती है। फिर भी उनकी सीमा एवं समय निर्धारित है
और सफलता का भी एक मापदण्ड है। किंतु यदि अदृश्य प्रगति प्रवाह की इच्छा
शक्ति उसके साथ जुड़ जाए, तो परिवर्तन इतनी तेजी से होते हैं कि आश्चर्य
चकित रह जाना पड़ता है। सहस्राब्दियों में बन पड़ने वाला काम दशाब्दियों
में, वर्षों- महीनों में संपन्न होने लगते हैं। यह अदृश्य उपक्रम अनायास ही
नहीं, किसी विशेष योजना एवं प्रेरणा के अंतर्गत होता है। उसके पीछे
अव्यवस्था को हटाकर व्यवस्था बनाने का लक्ष्य सन्निहित रहता है।
आँधी- तूफान आते हैं, तो उड़ती हुई धूल के साथ मुद्दतों का जमा कचरा कहीं
से कहीं पहुँच जाता है। खंदक भर जाते हैं और भूमि समतल बनने में इतनी
फुर्ती दीखती है, मानों जो करना है उसे कुछ ही क्षणों में कर गुजरे।
रेगिस्तानी टीले- पर्वत आज यहाँ तो कल वहाँ उड़कर पहुँचते प्रतीत होते हैं।
घटाटोप बरसते हैं तो सुविस्तृत थल क्षेत्र जल ही जल से आपूरित दीख पड़ता
है। अस्त- व्यस्त झोपड़ों का पता भी नहीं चलता और बूढ़े वृक्ष तेजी से
धराशाई होते चले जाते हैं। ऐसे ही न जाने क्या अजूबे सामने आ खड़े होते हैं
जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी न थी।
पिछले दिनों पर
दृष्टिपात करें, तो प्रतीत होता है कि सदियों पुरानी परंपराओं में आमूल-
चूल परिवर्तन होने जैसे घटनाक्रम विनिर्मित हुए हैं। भारत ने हजारों वर्ष
पुरानी गुलामी का जुआ कुछ ही समय में हलके- फुलके आंदोलन के सहारे उतार
फेंका। भूपति कहे जाने वालों का अधिकार छिन गया और प्रजाजन कहे जाने वाले
निरीह, भूमिधर बन बैठे। दास- दासियों का क्रय- विक्रय और लूट- अपहरण एक
वैद्य व्यवसाय की तरह सुप्रचलित था, पर अब उसका कहीं, अता- पता भी नहीं
दीखता। पतियों के शव, जीवित पत्नियों, रखैलों के साथ जलाए या गाड़े जाते
थे, पर अब तो उस प्रथा को महिमा मंडित करना तक निषिद्ध है। अस्पृश्यता का
पुराना स्वरूप कहीं भी दीख नहीं पड़ता।
विज्ञान की उमंग उभरी तो
दो- तीन शताब्दियों में ही रेल, मोटर, जलयान, वायुयान, बिजली आदि ने धरती
के कोने- कोने में अपनी प्रभुता का परिचय देना आरंभ कर दिया। अंतरिक्ष में
उपग्रह चक्कर काटने लगे। रेडियो, टेलीविजन एक अच्छा खासा अजूबा है। राकेटों
ने इतनी गति पकड़ ली है कि वे धरती के एक कोने से दूसरे पर जा पहुँचते
हैं। रौवर्टो ने मानवी श्रम का स्थानापन्न होने की घोषणा की है और
कम्प्यूटर मानव मस्तिष्क की उपयोगिता को मुँह बिचकाकर चिढ़ाने लगे हैं। अणु
आयुधों तक का कहना है कि लाखों- करोड़ों वर्ष पहले बनी इस समृद्ध और सुंदर
धरती को वे चाहें तो क्षण भर में धूलि बनाकर अंतरिक्ष में अदृश्य कर सकते
हैं। प्रगति की इस द्रुतगामिता पर हैरत से हतप्रभ होकर ही रह जाना पड़ता
है।
यह भूतकाल की विवेचना हुई। अब वर्तमान पर नजर डालें तो
प्रतीत होता है कि इक्कीसवीं सदी के शुभ संभावनाएँ हरी दूब की तरह, अपनी
उगती पत्तियों के दीख पड़ने के स्तर तक पहुँच रही हैं। प्रतिभा परिष्कार की
सामयिक आवश्यकता लोगों द्वारा स्वेच्छापूर्वक अपनाए जाने में आनाकानी करने
पर भी वसंत ऋतु के पुष्प- पल्लवों की तरह, अनायास ही वह अपने वैभव का
परिचय देती दीखती है। नस- नस में भरी हुई कृपणता और लोभ लिप्सा पर न जाने
कौन ऐसा अंकुश लगा रहा है, जैसे कि उन्मत्त हाथी पर कुशल महावतों द्वारा
काबू पाया जाता है। भागीरथ की सप्त ऋषियों की, बुद्ध, शंकर, दयानंद,
विवेकानन्द, गाँधी, विनोबा की कथाएँ, अब प्रत्यक्ष बनकर सामने आ सकेंगी या
नहीं, इस शंका- आशंका से आज जबकि हर कहीं निराशा बलवती होती दीख पड़ती है,
इतने पर भी नियति की परिवर्तन- प्रत्यावर्तन की क्षमता का समापन हो जाने
जैसा विश्वास नहीं किया जा सकता। महाकाल की हुंकारें जो दसों दिशाओं को
प्रतिध्वनित कर रही हैं, उन्हें अनसुनी कैसे किया जाए? युग चेतना के प्रभात
पर्व पर, उदीयमान सविता के आलोक को किस प्रकार भुलाया जाए? युग अवतरण की
संभावना गंगावतरण की तरह अद्भुत तो है, पर साथ ही इस तथ्य से भी इंकार कैसे
किया जाए कि जो कभी चरितार्थ हो चुका है, वह फिर अपनी पुनरावृत्ति करने
में असमर्थ ही रह जाएगा? युग संधि की वर्तमान वेला ऐसी ही उथल- पुथलों से
भरी हुई है।
मई ८९ में, ग्राम पंचायतों को विशेष अधिकार देने की
बात अचानक बन गई थी। ग्रामीण स्वराज्य गाँधी जी के आरंभिक दिनों का सपना
था। उस पर चर्चाएँ होती रहीं, परियोजनाएँ भी बनती रहीं, पर यह किसी को भी
भरोसा न था कि ८९ में कुछ माह में ही इस संदर्भ में क्रान्तिकारी परिवर्तन
इतनी सरलता से हो गुजरेंगे। राज्य परिवर्तन, खून- खराबे के बिना, आक्रोश-
विद्रोह उभरे बिना कहाँ होते हैं? पर समर्थ हाथों से छिन कर सत्ता निर्धनों
के, पिछड़ों के हाथों इतनी आसानी से चली जाएगी? यह बात मानव गले के नीचे
उतरती नहीं। फिर भी वह यदि संभव हो जाता है, तो उससे इंकार कैसे किया जा
सकता है?
पिछड़ों का संकल्प के स्तर तक पहुँचना असाधारण रूप से
समय साध्य और कष्ट साध्य माना जाता है। फिर भी पिछड़ों को, अशिक्षितों को,
दमित महिलाओं को इतना आरक्षण मिलना कि उन्हीं का बहुमत बन पड़े, इस तथ्य के
सही होते हुए भी, समझ यह स्वीकार नहीं करती कि यह सब इतनी जल्दी और इतनी
सरलता के साथ संपन्न हो जाएगा। इसे मानवी अंतराल का उफान या महाकाल का
विधान कुछ भी कहा जाए, जो असंभव होते हुए भी संभव होने जा रहा है।
इस एक उफान के बाद परिवर्तन की घुड़दौड़ समाप्त हो जाएगी? ऐसा कुछ किसी को भी नहीं सोचना चाहिए। दूरदर्शी आँखें देख सकती हैं कि इसके बाद ही नई घटा की तरह सहकारी आंदोलन पनपेगा और भ्रष्टाचार की ठेकेदारी अपना रास्ता नापती दीखेगी।
कहा जाता है कि बिचौलिए ९४ प्रतिशत डकार जाते हैं और उपभोक्ता के पल्ले मात्र ६ प्रतिशत पड़ पाता है। इतने बड़े व्यवधान से निपटना किस बलबूते पर संभव हो? जिनकी दाढ़ में खून का चस्का लगा है, उन्हें किस प्रकार विरत होने के लिए सहमत किया जा सकेगा? इसका उत्तर एक ही है, घोड़े के मुँह में लगाई जाने वाली लगाम, ऊँट की नाक में डाली जाने वाली नकेल, हाथी को सीधी राह चलाने वाले अंकुश की तरह जब सहकारिता के आधार पर अर्थ व्यवस्था चलेगी, तो वह अँधेरगर्दी कहाँ पैर टिकाए रह सकेगी, जो प्रगति योजनाओं को निगल-निगल कर मगर की तरह मोटी होती चली जाती हैं।
राज्य क्रान्ति में पंचायत राज्य गे दूरगामी परिणाम को देखते हुए उसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इसके पीछे-पीछे सट कर चली आ रही सहकारिता क्रांति है, जिसके सही रूप में चरितार्थ होते ही धन को मध्यस्थों द्वारा हड़प लिए जाने की संभावना लुंज-पुंज होकर रह जाएगी, भले ही उसका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त होने में कुछ देर लगे।
शिक्षा के क्षेत्र में प्रौढ़ शिक्षा गले की हड्डी की तरह अटकी हुई है। जिनके हाथों में इन दिनों समाज की बागडोर है वे अशिक्षित रह कर अनगढ़ बने रहें, यह कितने बड़े दु:ख की बात है। सरकारी धन से इतनी बड़ी व्यवस्था की उम्मीद भी नहीं की जा सकती, विशेषतया तब जब कि पढ़ने वालों में विद्या अर्जन के लिए अभिरुचि ही न हो, इस समस्या का हल अगले दिनों इस प्रकार निकलेगा कि शिक्षितों को अपने समीप के अशिक्षितों में से एक-दो को साक्षर बनाने के लिए बाधित होना पड़ेगा।
हराम की कमाई खाने वालों को जब अपराधी माना जाएगा और तिरस्कृत किया जाएगा तथा दूसरी ओर श्रमशीलों को पुण्यात्मा मानकर उन्हें मान-महत्व दिया जाएगा, तो उस माहौल में उन अपराधियों का पत्ता साफ हो जाएगा जो जिस-तिस बहाने समय तो काटते हैं, पर उपार्जन में, अभिवर्धन में योगदान तनिक भी नहीं देते। पाखंडी, अनाचारी, निठल्ले प्राय: इन्हीं लबादों को ओढ़े अपनी चमड़ी बचाते रहते हैं।
परिश्रम की कमाई को ही ग्राह्य समझा जाएगा तो फिर दहेज प्रथा, प्रदर्शन, अपव्यय, अहंकार जैसी अनेक अव्यवस्थाओं की जड़ें कट जाएँगी। कुर्सी में शान ढूँढ़ने वाले तब हथौड़ा-फावड़ा चला रहे होंगे, बूढ़े भी अपने ढंग से इतना कुछ करने लगेंगे, जिससे उन्हें अपमान न सहना पड़े वरन् किसी न किसी उपयोगी उत्पादन में अपने को खपाकर अधिक स्वस्थ, अधिक प्रसन्न और अधिक सम्मानित अनुभव कर सकेंगे, चोरों में कामचोर तब सबसे बुरी श्रेणी में गिने जाने लगेंगे।
यह क्रान्तियाँ रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह एक के पीछे एक दौड़ती चली आ रही हैं। उनका द्रुतगति से पटरी पर दौड़ना हर आँख वाले को दृष्टिगोचर होगा। अवांछनीय लालच से छुटकारा पाकर औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार करने वालों के पास इतना श्रम-समय मानस और वैभव बचा रहेगा, जिसे नवसृजन के लिए नियोजित करने पर इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़ी हुई सुखद संभावनाओं को फलित होते इन्हीं दिनों, इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष देखा जा सकेगा। नियति की अभिलाषा है कि मनुष्यों में से अधिकांश प्रतिभावान उभरें। अपने चरित्र और कर्तृत्व से अनेक को अनुकरण की प्रबल प्रेरणाएँ प्रदान करें।
यह कुछ ही संकेत हैं जो युग संधि के इन बारह वर्षों में अंकुर से बढ़कर छायादार वृक्ष की तरह शोभायमान दीख सकेंगे, यह आरंभिक और अनिवार्य संभावनाओं के संकेत हैं। इनके सहारे उन समस्याओं का भार अगले ही दिनों हल्का हो जाएगा, जो विनाशकारी विभीषिकाओं की तरह गर्जन-तर्जन करती दीख पड़ती हैं। इतना बन पड़ने से भी उस उद्यान को पल्लवित होने का अवसर मिल जाएगा, जिस पर अगले दिनों ब्रह्मकमल जैसे पुष्प खिलने और अमरफल जैसे वरदान उभरने वाले हैं।
हममें से प्रत्येक को गिरह बाँध रखनी चाहिए कि नवयुग का भवन बन रहा है, वह बनकर रहेगा। स्मरण रखा जाना चाहिए कि अगला समय उज्ज्वल भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है, जो इसमें अवरोध बनकर अड़ेंगे वे मात्र दुर्गति ही सहन करेंगे।
विश्वात्मा ने, परमात्मा ने नवसृजन के संकल्प कर लिए हैं, इनके पूर्ण होकर रहने में संदेह नहीं किया जाना चाहिए। ‘‘इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य’’ का उद्घोष मात्र नारा नहीं है-इसके पीछे महाकाल का प्रचंड संकल्प सन्निहित है। उसको चरितार्थ होते हुए प्रतिभा परिष्कार के रूप में देखा जा सकेगा। अगले दिनों इस कोयले की खदान में ही बहुमूल्य मणिमुक्तक उभरते और चमकते दिखाई देंगे।