इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग २

चौथी शक्ति का अभिनव उद्भव

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तीन शक्तियाँ की प्रभुता और महत्ता सर्वविदित है (1) बुद्धि बल, जिसमें विज्ञान, साहित्य और कला भी सम्मिलित हैं, (2) शासन सत्ता- इसके अंतर्गत हैं, व्यवस्था, सुरक्षा और तत्- संबंधी साधन एवं अधिकारी। (3) धन शक्ति- जिसमें उद्योग व्यवसाय, निजी संग्रह एवं बैंक आदि को सम्मिलित किया जाता है। देखा जाता है कि इन्हीं तीनों के सहारे छोटे- बड़े भले- बुरे सभी काम संपन्न होते हैं। प्रगति एवं अवगति का श्रेय इन्हीं तीन शक्तियों को मिलता है। सरस्वती, लक्ष्मी, काली के रूप में इन्हीं की पूजा भी होती है। जन साधारण की इच्छा- अभिलाषा इन्हीं को प्राप्त करने में आतुर एवं संलग्न रहती है। इनमें से जिनके पास जितना अंश हस्तगत हो जाता है, वह उतना ही गौरवान्वित- यशस्वी अनुभव करते हैं। बड़प्पन की यही तीन कसौटियाँ इन दिनों बनी हुई हैं। इनके सहारे वह सब कुछ खरीदा जाता है, जो इच्छानुसार सुविधा साधन अर्जित करने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

    नवयुग के अवतरण में अब चौथी उस शक्ति का उदय होगा, जो अभी भी किसी प्रकार कहीं- कहीं जीवित तो है, पर उसका वर्चस्व कहीं- कहीं कभी- कभी ही दीख पड़ता है। इसी की दुर्बलता अथवा न्यूनता के कारण अनेकानेक विकृतियाँ उग पड़ी हैं और उनने जल कुम्भी की तरह जलाशयों को अपने प्रभाव से आच्छादित करके वातावरण को अवांछनीयताओं से घेर लिया है।

    इस चौथी शक्ति का नाम है, ‘‘प्रखर प्रतिभा’’। सामान्य प्रतिभा तो बुद्धिमानों, क्रिया कुशलों, व्यवस्थापकों और पराक्रम परायणों में भी देखी जाती है। इनके सहारे वे प्रचुर संपदा कमाते, यशस्वी बनते और अनुचरों से घिरे रहते हैं। आतंक उत्पन्न करना भी इन्हीं के सहारे संभव होता है। छद्म अपराधों की एक बड़ी शृंखला भी चलती है। इस सामान्य प्रतिभा से संपन्न अनेक व्यक्ति देखे जाते हैं और उसके बल पर बड़प्पन का सरंजाम जुटाते हैं। तत्काल उसे हुंडी की तरह भुना लिया जाता है। अच्छे वेतन पर अधिकारी स्तर का लाभदायक काम उन्हें मिल जाता है, किंतु प्रखर प्रतिभा की बात इससे सर्वथा भिन्न है। प्रखरता से यहाँ तात्पर्य आदर्शवादी उत्कृष्टता से लिया जाना चाहिए। सज्जन और समर्पित संत इसी स्तर के होते हैं। कर्तव्य क्षेत्र में वे सैनिकों जैसा अनुशासन पालन करते हैं। देव मानव इन्हीं को कहते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी वर्चस्वी, महामानव, युग पुरुष आदि नामों से भी इस स्तर के लोगों का स्मरण किया जाता है।

    इनमें विशेषता उच्चस्तरीय भाव संवेदनाओं की होती है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा जैसे तत्त्व उन्हीं में देखे पाए जाते हैं। सामान्य प्रतिभावान मात्र धन, यश या बड़प्पन का अपने निज के हेतु अर्जन करते रहते हैं। जिसे जितनी सफलता मिल जाती है, वह अपने को उतना ही बड़ा मानता है। लोग भी उसी से प्रभावित होते हैं। कुछ प्राप्ति की इच्छा से अनेक चाटुकार उनके पीछे फिरते हैं। अप्रसन्न होने पर वे अहित भी कर सकते हैं, इसलिए भी कितने ही उनका दबाव मानते हैं और इच्छा न होने पर भी सहयोग करते हैं। यह सामान्य प्रतिभा का विवेचन है।

‘‘प्रखर प्रतिभा’’ संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँची उठी होती हैं। उसे मानवी गरिमा का ध्यान रहता है। उसमें आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा का समावेश रहता है। लोक मंगल और सत्प्रवृत्ति संवर्धन में उसे गहरी रुचि रहती है।

    प्रखर प्रतिभा का दिव्य अनुदान एक प्रकार से दैवी अनुग्रह गिना जाता है। जबकि सामान्य लोगों को लोभ- मोह के बंधनों से क्षण भर के लिए भी छुटकारा नहीं मिलता, तब प्रखर प्रतिभा संपन्न लोग जन- समस्याओं पर ही विचार करते और उनके समाधान की योजना बनाते रहते हैं। भावनाएँ उभरने पर ऐसे मनुष्य बड़े से बड़ा त्याग और पुरुषार्थ कर दिखाने में तत्पर हो जाते हैं। ऐसे लोग असफल रहने पर शहीदों में गिने और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। यदि वे सफल होते हैं तो इतिहास बदल देते हैं। प्रवाहों को उलटना इन्हीं का काम होता।

    आकाश बहुत बड़ा है, पर उसमें सीमित संख्या में ही तेजस्वी तारे चमकते दिखाई पड़ते हैं। उसी प्रकार जन समुदाय को पेट प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सोचते- करते नहीं बन पड़ता, किंतु जिन पर दैवी अनुकम्पा की तरह प्रखर प्रतिभा अवतरित होती है, उनका क्रिया- कलाप ऐसा बन पड़ता है, जिसका चिरकाल तक असंख्यों द्वारा अनुकरण- अभिनंदन होता रहे।

    स्वाध्याय, सत्संग, प्रेरणा परामर्श आदि द्वारा भी सन्मार्ग पर चलने का मार्गदर्शन मिलता है, पर वह सब गले उन्हीं के उतरता है, जिनके अंदर भाव- संवेदनाएँ पहले से ही जीवित हैं। उनके लिए थोड़ी- सी प्रेरणा भी क्रान्तिकारी परिवर्तन कर देती है। सीप में जल की एक बूँद ही मोती उत्पन्न कर देती है, पर रेत में गिरने पर वह अपना अस्तित्व ही गँवा बैठती है। यही बात आदर्शवादी परमार्थों के संबंध में भी है। कई बार तो उपदेशकों तक की करनी- कथनी में जमीन- आसमान जैसा अंतर देखा- पाया जाता है। भावनाओं की प्रखरता रहने पर व्यक्ति व्यस्त कार्यों में से भी समय निकाल लेता है मनोबल बनाए रखता है और उसमें अपनी सदाशयता का खाद- पानी देकर बढ़ाता रहता है। इस प्रकार अपने संपर्क में आने वाले को भी अपने परामर्शों के साथ- गहन भाव- संवेदनाओं का समन्वय करके इतना प्रभावित कर लेता है कि वे इस दिशा में कुछ भी कर गुजरने में झिझकें नहीं।

मध्यकाल में राजपूतों के हर परिवार में से एक व्यक्ति सेना में भर्ती हुआ करता था। ब्राह्मण परिवारों में से एक ब्रह्मचारी परिव्राजक समाज को दान दे दिया जाया करता था। सिख धर्म में भी घर के एक व्यक्ति को समाज सेवी बनाने की परंपरा रही है। इसी के लिए उन्हें अमृत चखाया जाता था, अर्थात् दीक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म विस्तार के दिनों उसी आधार पर लाखों भिक्षु-भिक्षुणियाँ कार्य क्षेत्र में उतरे थे। आज भी समय की माँग ऐसी है, जिसमें चिंतन, चरित्र और व्यवहार में असाधारण परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए भावनाशील लोक सेवियों की, प्रखर प्रतिभाओं की जितनी बड़ी संख्या उपलब्ध हो सकेगी, उतनी ही लक्ष्य पूर्ति में सरलता और गतिशीलता रहेगी। पूरा-आधा या चौथाई जितना ही जिनसे समयदान-अंशदान बन पड़े, समझना चाहिए कि नव सृजन की पुण्य प्रक्रिया में संलग्न होने का उसे उतना ही अधिक श्रेय उपलब्ध हुआ।

    सूक्ष्म जगत में भी कई बार समय-समय पर ज्वार-भाटे जैसे उतार-चढ़ाव आया करते हैं। कभी स्वार्थी, लालची, अपराधी, कुकर्मी समाज में बढ़ जाते हैं। वे स्वयं तो कुछ लाभ भी उठा लेते हैं, पर प्रभाव क्षेत्र के अन्य अनेक का सर्वनाश करते रहते हैं। इसे आसुरी प्रवाह प्रचलन कहा जा सकता है, पर जब प्रवाह बदलता है, तो उच्च आत्माओं की भी कमी नहीं रहती। एक जैसे विचार ही असंख्यों के मन में उठते हैं और उन सब की मिली-जुली शक्ति से सृजन स्तर के कार्य इतने अधिक और इतने सफल होने लगते हैं जिन्हें देखकर लोगों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ जाता है। उसे दैवी प्रेरणा कहने में भी कुछ अत्युक्ति नहीं है।

    इक्कीसवीं सदी में नई दुनियाँ बनाने जैसा कठिन कार्य किया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में प्रखर प्रतिभा का उफान तूफान आना है। अनेक व्यक्ति उस संदर्भ में कार्य करेंगे। आँधी-तूफान आने पर पत्ते, तिनके और धूलिकण भी आकाश तक जा पहुँचते हैं। दैवी प्रेरणा का अदृश्य प्रवाह इन्हीं दिनों ऐसा आएगा जिसमें सृजन सैनिकों की विशालकाय सेना खड़ी दिखाई देगी और उस प्रकार के चमत्कार करेगी जैसे कि अणुबम गिराने के बाद खंडहर बने जापान को वहाँ के निवासियों ने अन्य देशों की तुलना में पहले से भी कहीं बेहतर बना कर किया है। रूस, जर्मनी आदि ने भी कुछ ही दशाब्दियों में क्या से क्या चमत्कार कर दिखाए। उन्हें अद्भुत ही कहा जा सकता है और इतिहास में अनुपम भी।

    दुर्बुद्धि ने पिछली एक शताब्दी में कितना कहर ढाया है, यह किसी से छिपा नहीं है। दो विश्व युद्ध इसी शताब्दी में हुए प्रदूषण इतना बढ़ा है, जितना कि विगत लाखों वर्षों में बढ़ नहीं पाया था। वन बिस्मार हुए। रेगिस्तान बढ़े। अपराधों की बढ़ोत्तरी ने कीर्तिमान स्थापित किया। मद्य, माँस और व्यभिचार ने पिछले रिकार्ड तोड़ दिए। जनसंख्या की बढ़ोत्तरी भी अद्भुत क्रम से हुई। जन साधारण का व्यक्तिगत आचरण लगभग भ्रष्टाचार स्तर पर जा पहुँचा और भी न जाने ऐसा क्या-क्या हुआ, जिसकी चर्चा सुनकर यही कहना पड़ता है कि मनुष्य की तथाकथित वैज्ञानिक, बौद्धिक और आर्थिक प्रगति ने समस्याएँ, विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ ही खड़ी कीं। आश्चर्य होता है कि प्राय: एक शताब्दी में ही इतना अनर्थ किस प्रकार हुआ और द्रुतगति से क्रियाशील किया जाना संभव हुआ।

    अब रात्रि के बाद दिनमान का उदय होने जा रहा है। दूसरे स्तर का प्रवाह चलेगा। मनुष्यों में से असंख्यों में भाव संवेदनाओं का उभार आएगा और वे सभी सृजन की, सेवा की, उत्थान की, आदर्श की बात सोचेंगे। इसमें लोगों का एक बड़ा समुदाय उगता उभरता दृष्टिगोचर होगा। गर्मी के दिनों में घास का एक तिनका भी कहीं नहीं दिखता, पर वर्षा के आते ही सर्वत्र हरियाली छा जाती है। नए युग का दैवी प्रवाह अदृश्य वातावरण में अपनी ऊर्जा का विस्तार करेगा। फलस्वरूप जिनमें भाव संवेदनाओं के तत्त्व जीवित बचे होंगे, वे सभी अपनी सामर्थ्य का एक महत्वपूर्ण भाग नव-सृजन के लिए नियोजित किए हुए दृष्टिगोचर होंगे। व्यस्तता और अभावग्रस्तता की आड़ लेकर कोई भी न आत्म प्रवंचना कर सकेगा और न सुनने वालों में से किसी को इस बात का विश्वास दिला सकेगा कि बात वस्तुतः ऐसी भी हो सकती है, जैसा कि बहकावे के रूप में समझी या कही जा रही है।

    इक्कीसवीं सदी निकट है। तब तक इस अवधि में प्रखर प्रज्ञा के अनेक छोटे-बड़े उद्यान रोपे उगाए, बढ़ाए और इस स्तर तक पहुँचाए जा सकेंगे, जिन्हें नंदन वनों के समतुल्य कहा जा सके, जिन्हें कल्पवृक्ष उद्यानों की उपमा दी जा सके।

    श्रेष्ठ मनुष्यों का बाहुल्य ही सतयुग है। उसे ‘‘स्वर्ग’’ कहते हैं। नरक और कुछ भी नहीं दुर्बुद्धि का बाहुल्य और उसी का व्यापक प्रचलन है। नरक जैसी परिस्थितियाँ उसी में दृष्टिगोचर होती हैं। पतन और पराभव के अनेक अनाचार उसी के कारण उत्पन्न होते रहे हैं। समय परिवर्तन के साथ सदाशयता बढ़ेगी। नव सृजन की उमंग जन-जन के मन में उठेगी और प्रखर प्रतिभा का दिव्य आलोक सर्वत्र अपना चमत्कार उत्पन्न करता दिखाई देगा। यह चौथी-प्रतिभा की शक्ति नवयुग की अधिष्ठात्री कही जाएगी।


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