अणु में विभु-गागर में सागर

शरीर संस्थान में भी सूक्ष्म ही प्रखर

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भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सूक्ष्म शक्ति की प्रखरता काम करती देखी जा सकती है। जीवन की गरिमा और सफलता उसके स्थूल वैभव में सन्निहित नहीं है जैसी कि आप लोगों द्वारा समझी जाती है। उसका वर्चस्व सूक्ष्म चिंतन द्वारा किये गये आत्म निरीक्षण और आत्म निर्माण में सन्निहित है। सद्गुणों की सम्पदा वह स्वर्ण भण्डार है जिसके छोटे-छोटे टुकड़ों के बदले प्रचुर मात्रा में मनोरंजक सामग्री खरीदी जा सकती है।

उदाहरण के लिए शरीर संचालन को ही लेते हैं। लगता है हाथ, पैर, सिर आदि के सहारे ही जीवन यात्रा चल रही है। ऊपरी परत उखेड़ने पर पता लगता है कि रक्त, मांस, हड्डी आदि धातुएं प्रधान हैं, पीछे हृदय, फेफड़े, आमाशय, गुर्दे आदि के कल-पुर्जे परस्पर मिल जुलकर जिस तरह काम कर रहे हैं, उस तालमेल को देखकर अचम्भा होता है। आगे चलकर कोटि-कोटि जीवाणुओं की विचित्र गतिविधियां देखकर उसे जादू महल मानना पड़ता है।

मोटे तौर पर यह समझा जाता है कि आहार से रक्त बनता है और रक्त की शक्ति से शरीर में गर्मी तथा शक्ति बनी रहती है। पर बारीकी से देखने पर विदित होता है कि आहार को रक्त में परिणत करने वाली एक प्रणाली और भी है और वही अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण भी है। स्वसंचालित नाड़ी संस्थान तथा चेतन अचेतन द्वारा उनके नियंत्रण संचालन की बात भी अब मोटी बात ही रह गई है। मस्तिष्क अचेतन नाड़ी संस्थान को दिशा प्रेरणा और सामर्थ्य देने वाले केन्द्र और भी सूक्ष्म हैं, और उनके निरीक्षण से पता चला है कि शक्ति और अशक्ति के मूल आधार और भी अधिक गहराई में छिपे हुए हैं और वे पिछले दिनों प्रायः अविज्ञात ही बने रहे हैं। घी-दूध जैसे मोटा बनाने वाले पदार्थों से वंचित व्यक्ति भी जब मोटे होते चले जाते हैं और चिकनाई तथा पौष्टिक आहार में डूबे रहने वाले भी जब दुबले पतले रहते हैं तो आहार का स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव गलत सिद्ध होता है। इसी प्रकार शरीर में चुस्ती थकान, सर्दी, गर्मी का बाहुल्य, कद का बहुत छोटा या बहुत बड़ा होना, मन्द और तीव्र बुद्धि, हिम्मत और भीरुता, सौन्दर्य और कुरूपता जैसी बातें जब स्वास्थ्य के सामान्य नियमों का उल्लंघन करते हुए घटने या बढ़ने लगती हैं तब भी आश्चर्य होता है कि समुचित सावधानी बरतने पर भी यह अकस्मात ही क्या और क्यों होने लगता है।

यह आधार वे ग्रन्थियां हैं जो ‘हारमोन’ नामक रसों को प्रवाहित करती रहती हैं और वह रस रक्त में मिलकर संजीवनी का काम करते हैं। इन रसों के उत्पादन या प्रवाह में तनिक भी व्यतिक्रम या अवरोध उत्पन्न हो जाय तो शरीर का ही नहीं, मन का भी सारा ढांचा लड़खड़ाने लगता है।

साधारणतया आहार-विहार का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाले निरोग रहते हैं और असंयम बरतने वाले—अखाद्य खाने वाले बीमार पड़ते हैं। बीमारियों के कारण रोग-कीटाणुओं के रूप में—ऋतु प्रभाव या धातुओं, तत्वों के हेर-फेर में ढूंढ़े जाते हैं और उसी आधार पर चिकित्सा की जाती है। पर कई बार इन सब मान्यताओं को झुठलाते हुए ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं कि अप्रत्याशित रूप से शरीर के किन्हीं अवयवों का या प्रवृत्तियों का यकायक घटना-बढ़ना शुरू हो जाता है। कारण ढूंढ़ते हैं तो समझ में नहीं आता, अंधेरे में ढेला फेंकने की तरह कुछ उपचार किया जाता है तो उसका कुछ परिणाम नहीं निकलता।

ऐसी परिस्थितियां प्रायः हारमोन ग्रन्थियों में गड़बड़ी आ जाने के कारण उत्पन्न होती हैं। शरीर के सामान्य अवयवों की संरचना और उनकी कार्यपद्धति का ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता आया है इसलिये रोगों के कारण और निवारण के सम्बन्ध में काफी प्रगति भी हुई है। पर यह अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की आश्चर्य चकित करने वाली हरकतें जब से सामने आई हैं तब से चिकित्सा-विज्ञानी स्तब्ध रह गये हैं, प्रत्यक्षतः शरीरगत क्रिया-कलाप से इनका कोई सीधा उपयोग नहीं है। वे किसी महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं चुपचाप एक कोने में पड़ी रहती हैं और वहीं से तनिक सा स्राव बहा देती हैं। वह स्राव भी पाचन अंगों द्वारा नहीं सीधा रक्त से जा मिलता है और अपना जादू जैसा प्रभाव छोड़ता है।

हारमोन, शरीर और मन पर कितने ही प्रकार के प्रभाव डालते और परिवर्तन करते हैं। उनमें से एक परिवर्तन कामवासना का मानसिक जागरण और यौन अंगों की प्रजनन क्षमता भी सम्मिलित हैं।

छोटी उम्र के लड़की और लड़के लगभग एक जैसे लगते हैं। कपड़ों से, बालों से उनकी भिन्नता पहचानी जा सकती है अन्यथा वे साथ-साथ हंसते, खेलते, खाते हैं कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं पड़ता पर जब बारह वर्ष से आयु ऊपर उठती है तो दोनों में काफी अन्तर अनायास ही उत्पन्न होने लगता है। लड़के की आवाज भारी होने लगती है। होठों के बाल काले होने लगते हैं और कोमल अंग कठोर होने लगते हैं। लड़कियां शरमाने लगती है उनके कुछ अंगों में उभार आने लगता है और नये किस्म की इच्छायें तथा कामनायें मन में घुमड़ने लगती हैं।

यह ‘हारमोन’ स्रावों की करतूत है। वे समय-समय पर ऐसे उठते जगते हैं मानो किसी घड़ी में अलार्म लगा कर रख दिया हो अथवा टाइम बम को समय के कांटे के साथ फिट करके रखा हो। यौवन उभार के सम्बन्ध में इन्हीं के द्वारा सारा खेल रचा जाता है। अन्य सारा शरीर अपने ढंग से ठीक काम करता रहे पर यदि इन हारमोन ग्रन्थियों का स्राव न्यून हो तो यौवन अंग ही विकसित न होंगे और यदि किसी प्रकार विकसित हो भी जायं तो उनमें वासना का उभार नहीं होगा, न कामेच्छा जागृत होगी, न उस क्रिया में रुचि होगी। सन्तानोत्पादन तो होगा ही कैसे?

साधारणतया कामोत्तेजना का प्रसंग 15-16 वर्ष की आयु से आरम्भ होकर 60 वर्ष पर जाकर लगभग समाप्त हो जाता है। स्त्रियों का मासिक धर्म बन्द हो जाने पर लगभग पचास वर्ष की आयु में उनकी वासनात्मक शारीरिक क्षमता और मानसिक आकांक्षा दोनों ही समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार 60 वर्ष पर पहुंचते-पहुंचते पुरुष की इन्द्रियां एवं आकांक्षायें भी शिथिल और समाप्त हो जाती हैं। यह सामान्य क्रम है। पर कई बार हारमोनों की प्रबलता इस सन्दर्भ में आश्चर्यजनक अपवाद प्रस्तुत करती है। बहुत छोटी आयु के बच्चे भी न केवल पूर्ण मैथुन में वरन् सफल प्रजनन में भी समर्थ देखे गये हैं। उसी प्रकार शताधिक आयु हो जाने पर वृद्ध व्यक्तियों में इस प्रकार की युवावस्था जैसी परिपूर्ण क्षमता पाई गई है।

लिंग भेद से सम्बन्धित हारमोनों में गड़बड़ी पड़ जाय तो नारी को मूंछें निकल सकती हैं। पुरुष बिना मूंछ का हो सकता है तथा दोनों की प्रवृत्तियां भिन्न लिंग जैसी हो सकती हैं। नारी पुरुष की तरह कठोर व्यवहार करने वाली और नर, जनखों जैसे स्त्री स्वभाव का हो सकता है। यौन आकांक्षायें भी विपरीत वर्ग जैसी हो सकती हैं। इतना ही नहीं कई बार तो इन हारमोनों का उत्पात ऐसा हो सकता है कि प्रजनन अंगों की बनावट ही बदल जाय। ऐसे अनेक आपरेशनों के समाचार समय-समय पर सुनने को मिलते रहते हैं जिनमें नर से नारी की और नारी से नर की जननेन्द्रियों का विकास हुआ और फिर शल्य क्रिया द्वारा उसे तब तक के जीवन की अपेक्षा भिन्न लिंग का घोषित किया गया। इसी नई परिस्थिति के अनुसार उनने साथी ढूंढ़े विवाह किये और गृहस्थ बनाये।

हिप्पोक्रेट्स ने इस तरह की विपरीत वर्गीय कुछ घटनायें देखी थीं और उनका कारण समझने का प्रयत्न किया था। चिकित्सक प्लिनी ने एक ऐसे सात वर्ष के लड़के का वर्णन लिखा है जो लैंगिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो गया था।

8 जनवरी सन् 1910 को दो चीनी बच्चों ने सामान्य बालकों को जन्म दिया। जिसमें माता की उम्र 8 वर्ष और पिता की 9 वर्ष की थी। संसार में यह सबसे छोटे माता पिता हैं। अमोथ फुकेन प्रान्त का यह कृषक परिवार ‘साद’ नाम से पुकारा जाता है। इस परिवार में ऐसे ही बाल प्रजनन के और भी उदाहरण होते हैं।

कलावार (अफ्रीका) में भी कुछ समय पूर्व ऐसी ही घटना घटित हुई थी। वहां एक्क्री नामक एक नीग्रो को आठ वर्षीय पत्नी ने आठ वर्ष चार मास की आयु में ही प्रसव किया और एक बालिका को जन्म दिया, आश्चर्य यह और देखिये कि वह बच्ची भी अपनी मां की तरह आठ वर्ष की आयु में ही मां बन गई। इस प्रकार उमेजी को 17 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते दादी बनने का अवसर प्राप्त हो गया।

सूडान में अभी इसी वर्ष एक नौ वर्ष की लड़की मां बनी है उसका पति 10 वर्ष का है। यह समाचार कुछ ही दिन पूर्व प्रायः सभी समाचार पत्रों में छपा था।
जोरा आगा नामक टर्की के एक दीर्घजीवी वृद्ध पुरुष की आयु 1927 में 153 वर्ष की थी। उस समय उसने अपना ग्यारहवां विवाह किया था। उससे पूर्व 10 स्त्रियों और 27 बच्चों को वह अपने हाथों कब्र में सुला चुका था। उसके जीवित बच्चे 70 से ऊपर थे।

लिंग परिवर्तन की घटनाओं में यही होता है। मनुष्य की आकांक्षायें और अभिरुचियां जिधर गतिशील होती हैं उसी तरह की लिंग मनोभूमि बनती चली जाती है। कोई नारी यदि नर के प्रति अत्यधिक आसक्त होती है, उसी के सान्निध्य एवं चिंतन में निरत रहती है तो उसका अन्तःकरण उसी ढांचे में ढलता और तादात्म्य होता चला जायगा। कालान्तर में वह आकांक्षा उसे स्वयं नर के रूप में परिणत कर सकती है। इसी प्रकार कोई नर यदि नारी के चिंतन और सान्निध्य में अतिशय रुचि लेता है तो उसकी चेतना नारी वर्ग में परिणत होने लगेगी और वह उस प्रवृति की तीव्रता के अनुरूप देर में या जल्दी लिंग परिवर्तन कर लेगा। इसमें एकाध जन्म की देरी भी हो सकती है। लिंग परिवर्तन की ऐसी घटनाओं में जिनमें नारी नर के रूप में या नर नारी के रूप में परिणत किये गये, उनमें शारीरिक या मानसिक कारण नहीं होते वरन् अन्तःचेतना का गहन स्तर कारण शरीर ही इस प्रकार की पृष्ठभूमि विनिर्मित करता है। नपुंसक वर्ग भी ऐसी ही स्थिति है। इसे परिवर्तन का मध्य स्थल कह सकते हैं।

समलिंगी आकर्षण से लेकर सहवास तक की अनेक घटनायें देखने सुनने में आती रहती हैं। इसमें भी वह अतृप्त आन्तरिक आकांक्षा ही उभरती है। दो नर नारी यदि नर रूप में विकसित हो रही होंगी तो उनमें नर के प्रति आकर्षण की विद्यमान मात्रा स्त्री रति की अपेक्षा पुरुष रति में रस एवं तृप्ति अनुभव करेगी और उनमें परस्पर घनिष्ठता बढ़ती जायगी। इसी प्रकार दो नर यदि नारी रूप में विकसित हुए हैं तो उनका पूर्वाभ्यास नारी के प्रति आकर्षण बनाये रहेगा और वे दो नारियां परस्पर मिलन का अधिक आनन्द अनुभव करेंगी। यह विपर्यय दोनों कारणों से हो सकता है। विकसित होती हुई आकांक्षा भी अपनी अतृप्ति का समाधान कर सकती हैं। इसी प्रकार विकास आगे चल पड़ा है। शरीर बदल गये हैं पर पूर्व मनोवृत्ति में भिन्न लिंग के संस्कार अभी भी प्रबल हैं तो वे भी बार-बार वैसी ही उमंगें उठाकर समलिंगी सम्पर्क में अधिक आकर्षण अनुभव कर सकते हैं।

गत वर्ष योरोप में ऐसे विवाहों को अदालत द्वारा भी मान्यता मिल चुकी है जिनमें पति पत्नी दोनों या तो नर ही थे या नारी ही नारी। यों ऐसे प्रसंग निजी और अप्रकट रूप से चलते तो रहते हैं पर पिछली न्यायिक परम्परायें तोड़कर जिन्हें कानूनी मान्यता मिली हो ऐसे विवाह गत वर्ष ही सर्व साधारण के सामने आये हैं।

काम-वासना को ही लें पुराने जमाने में भस्में तथा रसायनें खिलाकर मृत या स्वल्प कामेच्छा को पुनर्जागृत करने का प्रयत्न किया जाता था। यह प्रयास भी नशे से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना जैसी ही सिद्ध हुई। जब से हारमोन प्रक्रिया का ज्ञान हुआ है तब से यौन ग्रन्थियों के रसों को पहुंचाने से लेकर बन्दर एवं कुत्ते की ग्रन्थियों का आरोपण करने तक का क्रम बराबर चल रहा है। आरम्भ में उससे तत्काल लाभ दीखता है पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर आपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि नया रक्त स्वयं बनाने लगे तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रन्थियां तत्काल ही लाभ दिखावेंगी यदि उस उत्तेजना से अपनी ग्रन्थियां जागृत होकर स्वतः काम करने लगें तो ही कुछ काम चलेगा अन्यथा वह बाहरी आरोपण की फुलझड़ी थोड़ी देर चमक दिखाकर बुझ जायगी। अब तक के बाहरी आरोपण के सारे प्रयास निष्फल हो गये हैं। कुछ सप्ताह का चमत्कार देख लेने के अतिरिक्त उनसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हुआ।

सन् 1879 में एक वृद्ध डॉक्टर ब्राउन सेक्वार्ड ने घोषणा की कि उसने कुत्ते का वृषण रस अपने शरीर में पहुंचा कर पुनः यौवन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करली है। 72 वर्षीय इस डॉक्टर की ओर अनेक चिकित्सा शास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने उसकी घोषणा को सच पाया, लेकिन यह सफलता स्थिर न रह सकी वे कुछ ही दिन बाद पुनः पुरानी स्थिति में आ गये।

इंग्लैण्ड के डॉक्टर मूरे ने थामरेक्सिन का प्रयोग एक थायराइड विकारग्रस्त रोगिणी पर किया। दवा का असर बहुत थोड़े समय तक रहता था। कुछ वर्ष जीवित रखने के लिये एक-एक करके 870 भेड़ों की ग्रन्थियां निचोड़ कर उसे आये दिन लगानी पड़ती थीं। इस पर धक्का-मुक्की करके ही उसकी गाड़ी कुछ दिन और आगे धकेली जा सकी।
शरीर शास्त्रियों ने इस अद्भुत निरंकुश को ढूंढ़ने का प्रयत्न किया तो उनकी पकड़ में अन्तः स्राव ग्रन्थियां आ गईं। इनमें छह प्रधान हैं। कई उप प्रधान हैं इनमें तनिक तनिक से रस स्रवित होते रहते हैं और वे रेंग कर रक्त में जा मिलते हैं। इन्हें हारमोन कहते हैं। इनके भी कई भेद-उपभेद ढूंढ़े गये हैं इतना सब होते हुए भी यह आश्चर्य का ही विषय है कि इनमें आखिर ऐसा क्या जादू है, जो शरीर की सामान्य व्यवस्था में इतनी भयानक उलट-पुलट वे करके रख देते हैं। स्वास्थ्य के साधारण नियमोपनियम एक ओर और इनकी मनमानी एक ओर, तथा इस रस्साकशी में सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है और इन हारमोनों की मनमानी जीतती है। इन स्रावों का रासायनिक विश्लेषण करने पर वे सामान्य स्तर के ही सिद्ध होते हैं उनमें कुछ ऐसी अनहोनी मिश्रित नहीं दीखती जिससे ऐसे उथल-पुथल भरे परिणाम होने चाहिए। पर ‘चाहिए’ को ताक पर रखकर जब ‘होता’ है सामने आता है तो बुद्धि चकरा जाती है और इस अन्धाधुन्धी में हाथ पर हाथ डालकर बैठना पड़ता है।

अन्तः स्रावों की भेद उपभेद की दृष्टि से संख्या भी बढ़ती जा रही है पर साधारणतया उनमें से छह प्रमुख हैं (1) पीयूष ग्रन्थि (2) कण्ठ ग्रन्थि (3) अधिवृक्क ग्रन्थि (4) अग्न्याशय ग्रन्थि (5) अण्डाशय ग्रन्थि (6) वृषण ग्रन्थि।

शरीर का आकार सामान्य रखने या उसे असाधारण रूप से घटा या बढ़ा देने का—यकायक भारी हेर-फेर उत्पन्न कर देने का कारण मस्तिष्क स्थित पीयूष ग्रन्थि ही है। उसमें जहां बाल की नोंक की बराबर अन्तर पड़ा कि शरीर में वैसी ही विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं। हार्वर्ड विश्व विद्यालय के सर्जन डा. हार्वे कुशिंग ने एक पिल्ले की पीयूष ग्रन्थि निकाल दी। बस फिर वह बढ़ा ही नहीं। सदा के लिये पिल्ला ही बना रह गया। चूहों के बच्चे पीयूष ग्रन्थि रहित किये गये तो वे बढ़िया से बढ़िया भोजन देने पर भी उतने ही छोटे बने रहे न उनका कद बढ़ा और न वजन में रत्ती भर अन्तर आया। बूढ़े होने तक वे बच्चे ही बने रहे। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के सर्जन फिलिप स्मिथ ने एक चूहे की पीयूष ग्रन्थि दूसरे में फिट करदी तो दूने हारमोन बढ़ने से वह चूहा असाधारण रूप से बढ़ा और अपने साथियों की तुलना में तीन गुना दैत्य जैसा हो गया।

हारमोन ग्रन्थियों में अन्तर आने से शरीर का विकास असाधारण रूप से रुक सकता है और आश्चर्यजनक रीति से बढ़ सकता है। 25 इंच ऊंचा आदमी टामथम्ब और 24 इंच ऊंची स्त्री लेवोनिया लोगों की दृष्टि में आश्चर्य जनक हैं पर यह हारमोन ग्रन्थियों की एक मामूली सी उलट-पुलट मात्र है। टामथम्ब जन्म के समय 9 पौण्ड 2 औंस था, पर न जाने क्या हुआ कि आशा के विपरीत वह जहां का तहां रह गया। बाजीगरों का धन्धा करता था। उसने अपने ही जैसी बौनी लड़की भी ढूंढ़ निकाली उससे शादी करके अपने व्यवसाय को और भी अधिक आकर्षक बनाया। उनका यह पलड़ा दूसरी तरफ झुक जाय तो फिर लम्बाई ही लम्बाई बढ़ती चली जायगी। 8 फुट 11 इंच ऊंचा आदमी राबर्ट वाडली ताड़ के पेड़ जैसा लगता था। पजामू (विहार) में साड़े सात फुट ऊंचा तिलवर नामक व्यक्ति अभी कुछ दिन पहले तक लोगों का ध्यान अपनी अनोखी लम्बाई की ओर खींचता रहता था।

रूस का शासक जार पीटर स्वयं लम्बे कद का था, उसे लम्बे आदमी बहुत पसन्द थे। उसका एक प्रिय लम्बा सार्जेन्ट जब मरा तो जार ने उसके अस्थि-पिंजर को कुन्सत्कैयर के संग्रहालय में सुरक्षित रखने का आदेश दिया। तब से वह रखा ही हुआ था। अब दो सौ वर्ष बाद एक्स किरणों की सहायता से उस कंकाल की असाधारण लम्बाई का कारण खोजा गया है तो उसमें पीयूष ग्रन्थि से अधिक स्राव होना ही कारण पाया गया है।

सिकन्दरिया में एक ऐसा बौना मनुष्य था जिसकी ऊंचाई केवल 17 इंच थी उसका नाम था अलीपियस। उसे वहां के अमीर जैम्बिलकस ने अपने मेहमानों के मनोरंजन के लिये अपने पास रखा था और उसे कभी-कभी तोते के पिंजड़े में बन्द करके इधर-उधर ले जाया जाता था।

ओहियो (संयुक्त राज्य) के सिनसिनाटी नगर में एक लड़की थी कुमारी फैनी माइल्स। यह सन् 1880 में जन्मी। इसके और सब अंग तो साधारण थे पर पैरों के पंजे असाधारण रूप से लम्बे थे। उनकी लम्बाई दो-दो फुट थी। उसकी इस विचित्रता से सभी डरते थे और कोई उससे विवाह करने के लिये तैयार न हुआ।
डेट्रोमेट, मिचीराना (अमेरिका) का एक नागरिक अल्फेड लेंजवेन एक अनोखी शारीरिक विशेषता से सम्पन्न था। जिस प्रकार दूसरे लोग नथुनों से सांस लेते हैं वह आंखों से ले सकता था और छोड़ सकता था। परीक्षा के तौर पर वह जलता दीपक और मोमबत्तियां मुंह और नाक बन्द करके मात्र आंखों से देखकर बुझा देता था।
फेडपैटजेल की आवाज इतनी बुलन्द थी कि जब वे गरज कर बोलते तो उनकी कही हुई बात तीन मील तक सुनी जा सकती थी।

अन्तःस्रावी ग्रंथि में गड़बड़ी

गले के पास थायराइड नामक ग्रंथि है। इससे थाइराक्सिन नामक हारमोन निकलता और रक्त में सम्मिलित होता रहता है। यदि इसकी कमी हो जाय तो पाचन क्रिया बिगड़ जाती है, मस्तिष्क कुन्द हो जाता है, त्वचा और केशों में रुक्षता छाई रहती है, होंठ और पलक लटक जाते हैं, शरीर थुलथुला हो जाता है, उंगली गाढ़ने से गड्ढा बनने लगता है, थकान छाई रहती है, ठण्ड अधिक सताती है, यदि यह ग्रन्थि बढ़ जाय तो गला मोटा होने लगता है, ‘घेंघे’ की शिकायत खड़ी हो जाती है, आहार-विहार सब कुछ ठीक रहने पर भी यह ग्रन्थि सूखने या बढ़ने लग सकती है।

इस महत्वपूर्ण किन्तु अनियन्त्रित ग्रन्थि में गड़बड़ी क्यों पड़ती है यह खोजते हुए शरीर शास्त्री सिर्फ इतना जान सके हैं कि ‘आयोडीन’ की कमी पड़ने से ऐसा होता है। वे कहते हैं भोजन में कम से कम 20 माइक्रो ग्राम आयोडीन होनी चाहिए, समुद्री जल, समुद्री नमक, समुद्री घास-पात समुद्री मछली में वे आयोडीन का बाहुल्य बताते हैं। यह सब करने पर भी बहुत बार निराश ही होना पड़ता है। श्वास नली के ऊपरी भाग को ढके हुए, गहरे लाल रंग की दो पत्तियों वाली, तितलीनुमा यह थाइराइड ग्रन्थि तो भी काबू में नहीं आती। अन्वेषकों ने इस ग्रन्थि के गह्वर में ‘कोलाइड’ नामक एक पीला प्रोटीन और ढूंढ़ निकाला और अनुमान लगाया कि शायद यही थाइराक्सिन को प्रभावित करता हो, पर यह निष्कर्ष भी गलत ही निकाला।

थॉयराइड में सिकुड़न आ जाने से चमड़ी शुष्क रहने लगती है, बाल झड़ने लगते हैं और रूखे हो जाते हैं, उनकी चिकनाई और मुलायमी नष्ट होती जाती है। उभरी हुई आंखें, लटके हुये होठ, याददास्त की कमजोरी, मोटी चमड़ी मांस में उंगली दबाने से गड्ढा जैसा बन जाना जैसी विकृतियां उत्पन्न होती हैं। शरीर में बेहद थकान, मस्तिष्क में जड़ता, याददास्त घटना, उदासी, किसी भी काम में मन न लगना, जैसी शिकायतें अकारण ही पैदा होने लगें तो उसका कारण थाइराइड से प्रभावित होने वाले हारमोन थायराक्सिन की कमी पड़ना समझना चाहिए। इस कमी के कारण शरीर में ऑक्सीजन सोखने की शक्ति घट जाती है। स्वच्छ हवा मिलने पर भी वह उसका लाभ नहीं उठा पाता। ऑक्सीजन की कमी से उपरोक्त उपद्रव खड़े होते और बढ़ते हैं।

इसी कमी को पूरा करने के लिए दूसरे प्राणियों की थाइराइड का सत्व प्रवेश कराया गया उसका ताल-मेल भी नहीं बैठा। कृत्रिम थायराक्सिन बनाने के लिये डा. ई.सी. कैन्डान और हैरिंगटन बार्गन नामक अंग्रेज ने भारी प्रयत्न किया और कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा आयोडीन के सम्मिश्रण से उसे बना भी लिया। देखने में समतुल्य होने पर भी वह उस कमी को पूरी न कर सका, आयोडीन नमक में मिलाकर खिलाने का भी प्रयोग बहुत चला पर वह भी कुछ स्थायी प्रभाव न दिखा सका।
अधिक मात्रा में यह हारमोन निकलने लगें तो भी मुसीबत खड़ी होती है। इंजन तेज हो जाता है और बढ़ी हुई गर्मी हर अवयव को गति तेज कर देती है। धड़कन बढ़ जाती है—पसीना फूटता है, उत्तेजना रहती है, चिड़चिड़ापन बढ़ता है और रक्त चाप बढ़ा हुआ दिखाई देता है। गले की मोटाई बढ़ने लगती हैं। रेडियम, एक्स किरणें रेडियो सक्रिय आयोडीन आदि उपचारों का भी इन दिनों इस पर प्रयोग परीक्षण चल रहा है, थाइराइड के भीतर पाई जाने वाली पैराथाइराइड नन्हीं सी ग्रन्थियों की भी तलाश की जा रही है पर रहस्य का पर्दा तो भी उठता नहीं।

डा. इमले से कनाडा के रसायन शास्त्री कोलीय तक से लेकर थॉयराइड को नियन्त्रित करने का सिलसिला अद्यावधि चल ही रहा है। कैल्शियम देने से शायद कुछ काम चले यह भी परख लिया गया है।

भोजन का ग्रास पेट में पहुंचते ही वहां उसका परिवर्तन होने लगता है। स्टार्च तथा शुगर दोनों अंश ग्लूकोस शर्करा में बदल जाते हैं। इस ग्लूकोस का कुछ अंश तत्काल खून में चला जाता है और शरीर को गर्मी तथा शक्ति देने के काम आता है। शेष ग्लाइकोजन के रूप में जिगर में जाकर जमा हो जाता है और आवश्यकतानुसार उसका उपयोग होता रहता है।

पर जिन्हें मधुमेह—डायबिटीज की शिकायत हो जाती है उनकी भोजन से बनी हुई शर्करा शरीर में काम नहीं आती वरन् रक्त में उसकी मात्रा बढ़ती चली जाती है उधर शर्करा अभाव के कारण शरीर क्षतिग्रस्त होता चला जाता है। यह गड़बड़ी अग्न्याशय नामक ग्रन्थि से निकलने वाले इन्सुलोन नामक हारमोन की कमी पड़ जाने के कारण उत्पन्न होती है।

फैडरिक वैडिंग ने इस सम्बन्ध में भारी शोध की। लैगर हैंस की द्वीपिकाओं में बनने वाले इस रसायन को पहले आइजलीटिन कहा जाता था पीछे इसे इन्सुलिन कहा जाने लगा। इसी शोध पर वैटिंक तथा मैकलियाड को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

आधी लीटर रक्त में एक ओंस के साठवें भाग के बराबर शर्करा रहती है। इसे एक प्रकार का ईंधन कहना चाहिए जिसके आधार पर कोशिकाओं तथा मांस पेशियों को समस्त अवयवों को गरम और गतिशील रहने का अवसर मिलता है, इस कार्य में इन्सुलिन की सहायता एड्रिनेलिन भी करता है।

गुर्दों के पास दो छोटी ग्रन्थियां हैं इन्हें एड्रिनिल या अधिवृक्क कहते हैं। दोनों का मिलाकर कुल वजन लगभग 12 ग्राम बैठता है। वे लगभग दो इंच लम्बी एक इंच चौड़ी होती हैं। इनके दो भाग होते हैं। भीतरी भाग बाहरी भाग से खोल की तरह घिरा होता है। और बाहरी भाग छाल (कोटैक्स) कहलाता है। भीतर के गूदे को ‘मनडुला’ कहते हैं। कोई विपत्ति की घड़ी या तात्कालिक उत्तेजना का अवसर आने पर यह ग्रन्थियां सक्रिय हो उठती हैं और उससे इतनी शक्ति मिलती है जो सामान्य शरीर बल की अपेक्षा कई गुनी होती है।

यह छोटी सी गांठें उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी थीं, इनका कार्य ठीक तरह समझ में नहीं आता था पीछे वे बड़ी महत्व पूर्ण मालूम हुईं। उनके द्वारा स्रवित होने वाला रस ऐडीनेलिन कहा जाने लगा।

भय या खतरे के समय पाचन यन्त्र ठप्प हो जाते हैं और उस ओर लगी हुई शक्ति खतरे का सामना करने के लिये असाधारण शक्ति उत्पन्न करना आरम्भ कर देती है। दिल जोरों से धड़कता है श्वास तेज चलता है, रक्त की चाल बढ़ जाती है ताकि उस शक्ति के आधार पर शरीर उस संकट का सामना करने के लिए जोरदार प्रयत्न करने में—लड़ने या भागने में समर्थ हो सके। श्वास नली चौड़ी हो जाती है ताकि अधिक हवा फेफड़ों में भरी जा सके। रक्त में शर्करा बढ़ जाती है ताकि शक्ति के लिये आवश्यक ईंधन जुट सके। खतरे का सामना करने के लिये इस प्रकार हर अवयव अपनी क्षमता को तीव्र करता है। मांस-पेशियां तन जाती हैं। समस्त शरीर उत्तेजित दीखता है चेहरा लाल हो जाने के रूप में इन बड़ी हुई शक्ति को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

जहां तक खोज का विषय है उन अन्तःस्राव ग्रन्थियों का—उनसे प्रवाहित होने वाले रसों का स्वरूप समझ लिया गया है और उनका रासायनिक विश्लेषण कर लिया गया है। पर उनकी असाधारण महत्ता और असाधारण हरकत का कुछ कारण नहीं जाना जा सका। इतना ही नहीं उनके नियन्त्रण का भी कोई उपाय हाथ नहीं लगा है। यह मोटा और भोंड़ा तरीका है कि उसी स्तर के रसायन बाहर से पहुंचा कर उन स्रावों की कमी-वेशी के परिणामों को रोकने का प्रयत्न किया जाय। इतना ही बन पड़ा है सो किया भी गया है। अन्य जीवों से प्राप्त करके—अथवा रासायनिक पद्धति से विनिर्मित करके उन रसों को व्यक्ति के शरीर में पहुंचाकर यह प्रयत्न किया जाता है कि विकृतियों पर नियन्त्रण किया जाय। उसका लाभ होता तो है पर रहता क्षणिक ही है। भीतर का उपार्जन बन्द हो जाय तो बाहर से पहुंचाई मदद कब तक काम देगी इसी प्रकार जमीन फोड़कर कोई स्रोत निकल रहा हो तो उसे एक जगह से बन्द करने पर दूसरे छेद से फूटेगा। यह तो तात्कालिक या क्षणिक उपचार हुआ। बात तब बनती है जब उत्पादन के केन्द्र स्वतः ही अपने स्रावों को घटा या बढ़ालें। उपचार का उद्देश्य तो तभी पूरा हो सकता है। पर यह स्थिति हाथ आ नहीं रही है। शरीर शास्त्रियों के सारे प्रयत्न अब तक निष्फल ही रहे हैं, और आगे भी इनकी अद्भुत संरचना और कार्य पद्धति को देखते हुए अधिक आशा नहीं बंधती।

ओछी भावनाएं अन्तरात्मा में जमी हों और छोटा बनाने वालों पर बड़प्पन के संस्कार जम जायें तो शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी बड़ा बनाने वाले हारमोन उत्पन्न होंगे। इन्द्रिय भोगों में आसक्त अन्तः भूमिका अपनी तृप्ति के लिए कामोत्तेजक अन्तःस्रावों की मात्रा बढ़ाती है। विवेक जागृत हो और विषय भोगों की निरर्थकता एवं उनकी हानियों को गहराई से समझ लिया जाय तो इन हारमोनों का प्रवाह सहज ही कुण्ठित हो जाता है। इसी प्रकार वियोग, विश्वासघात, अपमान जैसे आघात अन्तःकरण की गहराई तक चोट पहुंचा दें तो युवावस्था में भी भले चंगे हारमोन स्रोत सूख सकते हैं इसके विपरीत यदि रसिकता की लहरें लहराती रहें तो वृद्धावस्था में भी वे यथावत् गतिशील रह सकते हैं। जन्मान्तरों की रसानुभूति बाल्यावस्था में भी प्रबल होकर उस स्तर की उत्तेजना समय से पूर्व ही उत्पन्न कर सकती है।

काम क्रीड़ा शरीर द्वारा होती है, कामेच्छा की मन में उत्पत्ति होती है। पर इन हारमोनों की जटिल प्रक्रिया न शरीर से प्रभावित होती है और न मन से। उसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की अन्तःचेतना से है इसे आत्मिक स्तर कह सकते हैं। जीवात्मा में जमे काम बीज जिस स्तर के होते हैं तदनुरूप शरीर और मन का ढांचा ढलता और बनता बिगड़ता है। हारमोनों को भी प्रेरणा, उत्तेजना वहीं से मिलती है।

पीलियन ग्रन्थि भ्रूमध्य भाग में है। जहां देवताओं का तीसरा नेत्र बताया जाता है। प्राचीन काल में ऐसे प्राणी भी थे जिनके मस्तिष्क में सचमुच एक अतिरिक्त तीसरी आंख और भी होती थी जिससे वे बिना गर्दन मोड़े पीछे के दृश्य भी देख सकें। अभी भी अफ्रीका में कुछ ऐसी छिपकलियां देखी गई हैं जिनके सिर पर कार्निया, रेटिना, लेन्स युक्त पूरी तीसरी आंख होती है।

धान के दाने की बराबर धूसर रंग की इस छोटी-सी ग्रन्थि में आश्चर्य ही आश्चर्य भरे पड़े हैं। जिन चूहों में दूसरे चूहों की पीनियल ग्रन्थि का रस भरा गया वे साधारण समय की अपेक्षा आधे दिनों में ही यौन रूप में विकसित हो गये और जल्दी बच्चे पैदा करने लगे। समय से पूर्व उनके अन्य अंग भी विकसित हो गये पर इस विकास में जल्दी भर रही मजबूती नहीं आयी। काम दहन की शिवजी की कथा की इन हारमोन से संगति अवश्य बैठती है पर अन्तःकरण की रुझान जिस स्तर की होगी शरीर और मन को ढालने के लिये हारमोनों का प्रवाह उसी दिशा में बहने लगेगा।

हारमोन स्रावों की घटोत्तरी बढ़ोतरी का आहार-विहार से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार उनका सचेतन और मन से भी कोई सम्बन्ध अभी तक स्थापित नहीं किया जा सका। इसी प्रकार आनुवंशिकी विज्ञान में—पैतृक जीनों से भी उनकी कुछ संगति नहीं बैठती, अचेतन मन से कोई संग्रहीत संस्कार उन्हें प्रभावित करता हो ऐसी भी तुक किसी प्रकार नहीं बैठती। फिर अकारण इन अन्तःस्रावों की अकस्मात् क्यों घटोत्तरी बढ़ोतरी आरम्भ हो जाती है इसका यथार्थ कारण ढूंढ़ना हो तो हमें अधिक गहराई तक जाना पड़ेगा। इसके आधार मनुष्य की सूक्ष्मतम चेतना से सम्बन्धित हैं।

मनुष्य की सूक्ष्म चेतना से संबद्ध

मनुष्य तीन भागों में विभक्त है। एक भाग वह जो भौतिक पदार्थों का—पंच तत्वों का बना है, जिसे स्थूल शरीर कहते हैं। जिस पर आहार-विहार का प्रभाव पड़ता है और जिसका उपचार औषधियों अथवा उपकरणों से किया जाता है। दूसरा भाग वह जिसे मन, मस्तिष्क अथवा अचेतन कहते हैं। यह सूक्ष्म शरीर है। चिन्तन, चिन्तन एवं वातावरण का इन पर प्रभाव पड़ता है। तर्क, विवेक विचार विनिमय, भावोत्तेजन जैसे उपायों से इसे विकसित किया जाता है। नशीले तथा दूसरे प्रकार के रसायन भी इसे प्रभावित करते हैं। आहार का एवं क्रिया-कलाप का भी इस पर असर पड़ता है। मनोविज्ञान, मस्तिष्कीय विद्या आदि के माध्यम से इसे परिष्कृत संतुलित किया जाता है।
तीसरा भाग इन दोनों से ऊपर है, जिसे कारण शरीर-लिंग शरीर—हृदय, अन्तःकरण आत्म-चेतना आदि नामों से पुकारते हैं। इसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की आस्था, श्रद्धा, आकांक्षा, भावना एवं अहंता से है। उस स्तर के पाप-पुण्य वहां छाये रहते हैं और इन्हीं के आधार पर जीव की अन्तरंग सत्ता का प्रकटीकरण होता है। हारमोन इसी स्तर की स्थिति में प्रभावित होते हैं इसीलिए यदि उन्हें चाहें तो संचित प्रारब्ध, अथवा संग्रहीत संस्कार भी कह सकते हैं। यह संचय इस जन्म का भी हो सकता है और पिछले जन्मों का भी। परिवर्तन एवं उपचार इस स्तर की स्थिति का भी हो सकता है पर वे प्रयत्न होने उसी प्रकार के चाहिए जो आन्तरिक सत्ता की गहराई तक प्रवेश कर सकें और अपना प्रभाव उस पृष्ठभूमि तक उतार सकें।

क्या हारमोन क्षेत्र पर नियन्त्रण हो सकता है? क्या उनकी विकृति गतिविधियों को सन्तुलित किया जा सकता है? क्या इच्छा या आवश्यकता के अनुरूप इन्हें घटाया या बढ़ाया जा सकता है? इसका उत्तर ‘हां’ में दिया जा सकता है। पर यह समझ लेना चाहिए कि इसके लिए प्रयास वे करने पड़ेंगे जो अन्तःचेतना को गहराई तक प्रभावित करते हैं। शारीरिक आहार-विहार या मानसिक तर्क-वितर्क या उपचारों के द्वारा उस गहराई तक नहीं पहुंचा जा सकता जहां इन हारमोनों का मूलभूत उद्गम है। केवल आध्यात्मिक साधनाओं का मार्ग ही ऐसा है जो शरीर और मन को प्रभावित करके हारमोनों को ही नहीं और भी कितने ही महत्व पूर्ण आधारों में हेर-फेर करके मनुष्य को सामान्य से असामान्य बना सकता है।

आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा इसलिए संभव है कि इस विज्ञान दृष्टि में सम्पूर्ण जगत् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक अविभक्त और एक रस सत्ता है। सागर की एक बूंद में भी वही विशेषतायें होती हैं जो सागर की अगाध जलराशि में विद्यमान रहती है। वस्तुतः अध्यात्म की दृष्टि से यह तुलना भी पूरी तरह संगत नहीं बैठती। अध्यात्म के विषय को वैभाविक उपमाओं द्वारा नहीं समझा जा सकता। मनीषियों का तो यह कहना है कि जो अणु में है वही विभु में है इतना ही नहीं अणु ही विभु है। क्योंकि अणु कहने के लिए भी तो एक विभाजन परिधि खींचनी पड़ेगी जब सारा जगत ही उस एक तत्व से संव्याप्त है तो विभाजन रेखा खींचने के लिए भी कौर सा रिक्त स्थान बचता है। इस तथ्य को समझने और हृदयंगम करने के बाद मनुष्य के लिए कोई शोक संताप नहीं रह जाते।
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*समाप्त*
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