अणु में विभु-गागर में सागर

प्रत्यक्ष से भी अति समर्थ अप्रत्यक्ष

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योग वसिष्ठ में एक महत्वपूर्ण आख्यायिका आती है। लीला नाम की रानी के पति का देहावसान हो जाता है पति के निधन से वह अत्यधिक दुःखी होती है तब महर्षि नारद आकर कहते हैं जिसके लिये तुम विलाप कर रही हो वह इसी तुम्हारे उद्यान में एक नया परिवेश धारण कर चुके हैं। वे लीला को अंतर्दृष्टि देते हैं तो वह देखती है कि उसके पति एक कीटक के रूप में विद्यमान हैं यही नहीं वहां भी उनके पास कई रानियां हैं वे उनमें आसक्त से दिखे। वह जिनकी याद में घुली जा रही थी उसे उसकी सुध तक नहीं थी। लीला ने अनुभव किया कि यह माया, मोह और आसक्ति मनुष्य का नितान्त भ्रम और अज्ञान है उससे भी बड़ा अज्ञान है—मृत्यु की कल्पना वास्तव में जीव-चेतना एक शरीर से दूसरे शरीर एक जगत से दूसरे जगत में परिभ्रमण करती रहती है। जब तक वह सत्य लोक या अमरणशील या परमानन्द की स्थिति नहीं प्राप्त कर लेता तब तक यह क्रम चलता ही रहता है।

उक्त आख्यायिका का तत्वदर्शन बड़े ही महत्व का है। महर्षि वशिष्ठ कहते हैं :—
सर्गे सर्गे प्रथगरूपं सन्ति सगन्तिराण्यपि ।
तेप्वघन्तः स्थसगर्धोः कदली दलपीठवत ।।
—योग वशिष्ठ 4। 18। 16-17
आकाशे परमाण्यन्तर्द्रव्यादरेणु केऽपिच ।
जीवाणु यन्त्र तत्रेदं जदद् वेत्ति निजं वपुः ।।

अर्थात्—जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक अनेक परतें निकलती चली आती हैं उसी प्रकार एक सृष्टि में अनन्त सृष्टियों की रचना विद्यमान है। संसार में व्याप्त प्रत्येक परमाणु में स्वप्न-लोक, छाया-लोक और चेतन जगत विद्यमान हैं उसी प्रकार उस में प्रसुप्त जीवन, पिशाच गति तथा चेतन समुदाय की सृष्टियां ठीक इस दृश्य जगत जैसी ही विद्यमान हैं।

देखने में यह प्रत्यक्ष जीवन और गति अधिक समर्थ और शक्तिशाली दिखाई देते हैं किन्तु यह अपनी भूल तथा स्थूल दृष्टि मात्र है यदि अपने ज्ञान चक्षु जागृत हो जायें और लीला की तरह अन्तर्सृष्टियों की गतिविधियों, उन अवस्थाओं की समर्थता को समझ पायें तो यह पता चलेगा कि शक्ति और सामर्थ्य की दृष्टि से दृश्य-जगत सबसे कमजोर है उसके आंखें, कान, नाक, हाथ-पांव पेट आंतों की सामर्थ्य बहुत सीमित है, उससे भी आगे उसका प्रेत या उसका छाया शरीर विद्यमान है यह अपेक्षाकृत अधिक सामर्थ्यवान है। वह वेद की तरह गतिशील, पहाड़ तक उठा लेने जितना बलवान् और निमिष मात्र में सैकड़ों मील दूर की खबर ले आने वाला अन्तर्दृष्ठा है। उससे भी आगे की एक और सत्ता है देव सत्ता—समस्त शक्तियों, साधनों और दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण वहां न भय है न ईर्ष्या, न द्वेष और अभाव। मृत्यु की पीड़ा भी नहीं सताती प्रियजनों का वियोग भी नहीं रुलाता। सृष्टियों और सृष्टिचरा का यह तारतम्य उस परिपूर्ण अवस्था तक पहुंचा देता है, जहां न इच्छायें हैं न वासनायें हैं, न जरा है, न व्याधियां न कर्तव्य है। इसे आनन्दमय स्थिति, तुरीयावस्था, साक्षी, दृष्टा परमानन्द की स्थिति कहा गया है। भारतीय दर्शन इस स्थिति को प्राप्त करने की निरन्तर प्रेरणा देता रहता है और उसे ही परम पुरुषार्थ की संज्ञा देता है यही जीवन लक्ष्य भी माना गया है।

भारतीय दर्शन के इस सत्य को अब भौतिक विज्ञान भी प्रमाणित करने लगा है। पिछले चालीस वर्षों से चोटी के खगोलज्ञ इस खोज में जुटे हैं कि वह यह जान पायें कि आया यह सृष्टि और यहां के निवासी ही अन्तिम हैं या और भी कोई ब्रह्माण्ड है। इस खोज में अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं वे भौतिक दृष्टि को चकमका देने वाले हैं। स्थूल जगत के अन्दर क्रमशः अधिक सूक्ष्म और समर्थ क्षेत्रों की जैसे-जैसे पहचान होती जा रही है वैसे-वैसे आश्चर्य बढ़ता जा रहा है।
एक के भीतर अनेक सृष्टियों की कल्पना वैसी ही है जैसे जल के भीतर एक और जल। यों सामान्य बुद्धि से परीक्षण करना चाहें या हाथ से अलग करना चाहें तो सामान्य जल से इस भारी जल को अलग नहीं किया जा सकता। अप्रत्यक्ष के अस्तित्व को स्वीकार न करने का कारण यही है कि हम उतनी ही बुद्धि को पूर्ण माने बैठे हैं किन्तु वैज्ञानिक जब प्रयोगों द्वारा उसका प्रभाव स्पष्ट दिखा देते हैं, तो हमें उस बात को मानने को विवश होना पड़ता है। जल के भीतर जल की बात भी ऐसी ही है। सर्वप्रथम 1931 में पहली बार जब वैज्ञानिक यूरे ने जल के भीतर ‘भारी जल’ की उपस्थिति से अवगत कराया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये। इसे समझने के लिये पानी की परमाणविक रचना समझना आवश्यक है। पानी का एक अणु हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से बनता है। सामान्य जल तथा भारी जल में अन्तर हाइड्रोजन के हलके और भारी होने से पड़ता है। हाइड्रोजन संसार का सबसे हलका तत्व है, क्योंकि उसके नाभिक (न्यूक्लियस) में एक ही प्रोटान और एक इलेक्ट्रान होता है। ‘यूट्रान’ नहीं होता किन्तु जब उसमें एक अतिरिक्त प्रोट्रॉन व एक न्यूट्रॉन भी आ जाता है—तो यही जल अणु भारी जल हो जाता है और उसकी विशेषतायें हजार गुना अधिक बढ़ जाती हैं।

इसे सामान्य जल का सार कह सकते हैं तभी तो 6500 किलो ग्राम पानी में से उसका कुल 1 किलो ग्राम अंश ही मिलता है। किन्तु महत्वपूर्ण इतना है कि जितना सामान्य जल 100 डिग्री सेन्टीग्रेड पर उबलने लगेगा और शून्य पर जम कर बर्फ हो जायेगा किन्तु भारी जल 101.4 डिग्री से.ग्रे. पर उबलता और शून्यावस्था से पूर्व ही अर्थात् 3.8 डि. सेन्टीग्रेड पर ही जम जाता है। एक लिटर सामान्य जल का वजन जहां मात्र एक किलोग्राम होता है वहां भारी जल 1100 ग्राम अर्थात् 1 किलो 1 सौ ग्राम होता है। काम तो यह उससे भी महत्वपूर्ण करता है। अभी यूरेनियम के विखण्डन की तकनीक का पूरी तरह विकास नहीं हुआ अतएव जहां भी अणु रिएक्टर हैं वहां ‘मन्दक’ और ‘शीतक’ का प्रयोजन यही जल पूरा करता है। इसकी 180 मैट्रिक टन मात्रा से 200 मेगावाट शक्ति की विद्युत पैदा की जाती है।

प्रसिद्ध डच व्यापारी एन्टानवान लीवेन हाक को शीशों के कौने रगड़-रगड़ कर उनके लेन्स बनाने का शौक था। एक बार उसने एक ऐसा लेन्स बना लिया जो वस्तुओं की आकृति 270 गुना परिवर्द्धित दिखा सकता था। उसने इस लेन्स की सहायता से जब पहली बार गन्दे पानी को देखा तो उसमें लाखों की तादाद में कीटाणु दिखाई दिये। उसके मन में जिज्ञासा जागृत हुई फलस्वरूप अब अपने शुद्ध जल का निरीक्षण किया उसने यह देखा कि वहां भी जीव विद्यमान हैं और वह न केवल तैर रहे हैं अपितु अनेक सूक्ष्म से सूक्ष्म और बुद्धिमान प्राणी की तरह क्रीड़ायें भी कर रहे हैं, वह इस दृश्य से इतना अधिक आविर्भूत हो उठा कि उसने अपनी पुत्री मारिया को भी बुलाया और दोनों घन्टों इस कौतूहलपूर्ण दृश्य को अवाक् देखते रहे। अब तो उससे अनेक गुना शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी बन गये हैं और उनसे दृश्य जगत के निर्माण के आधार परमाणुओं का विस्तृत अनुवीक्षण अन्वेषण और अध्ययन भी सम्भव हो गया है। ब्रह्माण्डों के भीतर अनन्त ब्रह्माण्डों की पदार्थ में विलक्षण अपदार्थ और परम पदार्थ की उपस्थिति जानने के लिये विश्व ब्रह्माण्ड की इस परमाणु की अन्तर्रचना का अध्ययन आवश्यक है।

परमाणु की लघुता को नापना हो तो कोई न कोई सापेक्ष सिद्धान्त ही अपनाना पड़ेगा उदाहरण के लिये एक कांच के गिलास में भरे परमाणुओं को यदि बालू के कण के बराबर मान लिया जाये तो गिलास की समस्त बालू अटलांटिक महासागर में डाल देने से वह पट कर एक खेल का लम्बा चौड़ा मैदान बन जायेगा। परमाणु पदार्थ की अत्यन्त लघुतम इकाई है। यदि 25 करोड़ परमाणुओं, 25 करोड़ सैनिकों की एक हथियार बन्द सेना मानकर उन्हें एक पंक्ति में ‘फालेन’ होने का आदेश दिया जाये तो उनके लिये 1 इन्च भूमि पर्याप्त है। यह अंश भार में इतना क्षुद्र होता है कि हाइड्रोजन के एक परमाणु का भार कुल 1/100000000000000000000000000 ग्राम से भी कम होगा किन्तु इनकी शक्ति बहुत अधिक होती है उसकी कल्पना करना भी कठिन है।

परमाणु पदार्थ का सबसे छोटा टुकड़ा होता है इसके स्वरूप को देखना हो तो अपनी आंख और बुद्धि की 1 इंच के 20 करोड़वें भाग से भी अधिक सूक्ष्म करना पड़ेगा। यदि किसी शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से देखा जाये तो इस परमाणु के भीतर भी एक व्यवस्थित सृष्टि मिल जाती है। यह आश्चर्य की बात है कि परमाणु भी पोला होता है। उसके बीचों बीच केन्द्रक और नाभिक के अतिरिक्त शेष भाग खाली पड़ा रहता है। केन्द्रक और खाली पड़े स्थान की अलग-अलग माप करनी हो तो सापेक्ष गणना करनी पड़ेगी। यदि न्यूक्लियस या केन्द्रक को गेंद के बराबर मान लें परमाणु का शून्य-आकाश 2000 फीट व्यास के घेरे जितना अर्थात् 10’×20’ साइज के 10 बड़े कमरों के बराबर होगा।

अभी तो इनमें और भी कई गुण विद्यमान हैं न्यूट्रॉन, प्रोट्रॉन, पाजिट्रान आदि इनकी संख्या लगभग 30 तक तथा अन्य लगभग 200 हैं। प्रत्येक पदार्थ इन अधो परमाणिक कणों (सब एटॉमिक पार्टिकल) से बने होते हैं। इनकी संख्या किसी में कम किसी में अधिक होती है। उसी के अनुसार वे हलके व भारी होते हैं। यह तत्व भी एक से अधिक हो सकते हैं। हाइड्रोजन के परमाणु में केवल 1 प्रोट्रॉन और 1 ही इलेक्ट्रान होता है। इसलिये वह दुनिया का सबसे हल्का तत्व है। इसमें न्यूट्रॉन नहीं होते। हाइड्रोजन के बाद हीलियम आती है, इसमें प्रोट्रॉन और इलेक्ट्रानों की संख्या तो एक-एक बढ़ी ही साथ ही न्यूट्रॉन भी दो बढ़ जाते हैं। तत्वों में इन अणुओं के बढ़ने का क्रम इसी तरह बढ़ता रहता है। प्राकृतिक रूप से उपलब्ध यूरेनियम जो अब तक का सबसे भारी तत्व माना जाता है में—92 प्रोट्रॉन, 146 न्यूट्रॉन तथा 92 इलेक्ट्रान होते हैं। प्रोट्रॉन धन आवेश और इलेक्ट्रान ऋण विद्युत आवेश होता है। इनकी संख्या परमाणु में समान होती है। इसीलिये प्रत्येक कण में विद्युत ऊर्जा होते हुये भी उसका प्रभाव व्यक्त नहीं होता। इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन आदि कण अत्यधिक वेग वाले होते हैं, किन्तु तो भी इनकी गति प्रकाश की गति से कम होती है डॉ. सुदर्शन तथा टैक्सास यूनिवर्सिटी अमेरिका के उनके सहयोगी डॉ. बिलानिडक ने ऐसे कणों को टार्डियान की संज्ञा दी है इन कणों में द्रव्य-भार शून्य से कुछ अधिक मात्रा में विद्यमान रहता है, किन्तु इससे भिन्न प्रकार के कुछ कण वह होते हैं जिनमें द्रव्य भार बिल्कुल नहीं होता किन्तु जिनकी गति प्रकाश की गति 186000 मील प्रति सेकिण्ड या 299 92.5 किलोमीटर प्रति सेकिण्ड होती है। इन्हें ‘‘लक्सान’’ कहा जाता है। इस वर्ग में प्रोटान, न्यूड्रिनों तथा ग्रेवीटोन आते हैं।

‘टेकियान’ इन दोनों से भी भिन्न कोटि के कण हैं इनमें या तो भार नाम की सत्ता है ही नहीं या है भी तो नाम मात्र के लिये किन्तु इनकी गति प्रकाश की गति से भी बहुत अधिक होती है और अब यह माना जाने लगा है जिस दिन इस वर्ग के कणों की खोज सम्भव हो गई उस दिन सारा ब्रह्माण्ड नंगी आंखों से दिखाई देने वाला एक नन्हा-सा क्षेत्र मात्र रह जायेगा। अर्थात् उस दिन मानवीय चेतना का अस्तित्व अत्यधिक विराट हो जायेगा।
इस परिकल्पना के कुछ ठोस आधार हैं इलेक्ट्रान और पाजिट्रान जो कि टार्डियान किस्म के परमाणविक कण हैं परस्पर मिलने पर गामा किरणों पैदा करते हैं। इन किरणों में प्रकाश की गति होती है अतएव वे ‘‘लक्सान’’ वर्ग में आ जाती हैं। अब यदि ‘‘लक्सान’’ के घटक न्यूट्रिनों व ग्रेवोंटोन आदि मिलकर कोई नई रचना प्रस्तुत करते हैं तो वह निःसन्देह ‘‘टेकियान’’ वर्ग का तत्व होगा और उसे एक ब्रह्माण्ड से दूसरे ब्रह्माण्ड के छोर तक पहुंचने में कुछ सेकिण्ड ही लगेंगे जबकि प्रकाश कणों को वहां तक पहुंचने में शताब्दियां लग जाती हैं।

परमाणु के भीतर के इन कणों से विनिर्मित सृष्टि बहुत महत्वपूर्ण तथा एक स्वतन्त्र भूखण्ड ही प्रतीत होता है, जिसमें नाभिक सूर्य की तरह चमकता है इलेक्ट्रान तारों की तरह चक्कर लगाते हैं, न्यूट्रॉन और प्रोटानों में पहाड़, नदी, नद, वृक्ष वनस्पति आदि के अद्भुत अनोखे दृश्य दिखाई देते हैं। यह तो रही बात दृश्य की।

परमाणु अपने आप में अन्तिम लघुता नहीं है। उससे भी सूक्ष्म तत्व उसके अन्दर बैठे हैं और वह परमाणु की तुलना में इतने छोटे हैं जितनी सौर मण्डल की तुलना में पृथ्वी। सन् 1911 की बात है अर्नेस्ट रदर फोर्ड नामक एक अंग्रेज वैज्ञानिक एक प्रयोग कर रहे थे सीसे की बनी हुई एक प्रकार की बन्दूक की नली में उन्होंने थोड़ी सी रेडियम धातु रखी। सामने एक पर्दा लगाकर उन्होंने बीच में शुद्ध सोने का एक पत्तर लगा दिया। यह ‘‘पत्तर’’—बहुत पतला था तो भी परमाणुओं की सघनता तो थी ही उस पर रेडियम के परमाणुओं ने गोलियों की तरह बौछार की। ध्यान से देखने पर पता चला कि कुछ परमाणु उसे पत्तरे को भी पार कर गये हैं और उनकी आभा सामने पर्दे पर पड़ रही है यह सीधे मार्ग से कुछ हटी हुई थी।

विचार करने से मनुष्य समुद्र के रहस्य को भी ढूंढ़ लेता है, रदर फोर्ड ने सोचा यदि सोने के परमाणु ठोस होते तो रेडियम के परमाणु उसे वेध कर पार नहीं जा सकते थे। स्पष्ट था कि परमाणु के भीतर भी रिक्तता थी, पोलापन था उस पोलेपन ने ही रेडियम परमाणुओं को आगे बढ़ने दिया पर उसका सम्पूर्ण भाग ही पोला नहीं था क्योंकि कई बार रेडियम के परमाणु इस तरह छितर जाते थे मानो सोने के परमाणुओं के भीतर कोई और भी सूक्ष्मतम वस्तु बैठी हुई हो और वह बन्दूक से आने वाले रेडियम परमाणुओं को भी तोड़-फोड़ डालती है। उसे रदर फोर्ड ने पहली बार परमाणु का मध्य नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस) नाम दिया। उसके बाद से नाभिक पर खोजें पर खोजें होती जा रही हैं पर इस सूक्ष्मतम तत्व के बारे में आज तक पर्ण रूप से जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकी पर जो कुछ समझ में आया उसने भारतीय तत्व दर्शन की इस मान्यता को बड़ा बल दिया कि आत्मा एक सर्वव्यापी चेतन तत्व है संसार में जो कुछ भी है वह सब आत्मा में ही है।

परमाणु जितना छोटा होता है उससे भी 10000000000 वां भाग छोटा नाभिक होता है। परमाणु जितना रहस्यपूर्ण है नाभिक उससे भी अधिक रहस्यपूर्ण है। उसमें नियन्त्रण भी है और जीवन की सम्पूर्ण चेतना भी। नाभिक ही सच पूछा जाये तो परमाणु की प्रत्येक गतिविधि का अधिष्ठाता है। उसी प्रकार जीव का अधिष्ठाता आत्मा है जब तक जीव उसे प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती।

यह तथ्य पढ़ते समय भारतीय तत्वदर्शन के यह विवेचन याद आ जाते हैं—
वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेय इति चाहापरा श्रुति ।।
—पञ्चदशी । चित्रदीप प्रकरण । 81

अर्थात्—एक बाल के अग्र भाग के जो सौ भाग करें उनमें से एक भाग के सौवें भाग की कल्पना करो तो उतना अणु एक जीव का स्वरूप है ऐसा श्रुति कहती है।

तस्मादात्मा महानेव नैवाणुर्नापि मध्यमः ।
आकाश वत्ससर्वगतो निरशः श्रुति संमतः ।।
—पञ्चदशी । चित्र । 86

अर्थात्—न अणु है न मध्यम है आत्मा विराट् और आकाश के समान (1) सर्वव्यापी (2) क्रिया रहित (3) सर्वगत (4) नित्य कला युक्त है।
परमाणु विज्ञान ने भारतीय दर्शन की इन सम्पूर्ण मान्यताओं को सिद्ध कर दिया है। भले ही आज के वैज्ञानिक अभी तक जड़ और चेतन के अन्तर को न समझ पाये हों। परमाणुओं की चेतना, जड़ पदार्थों से भिन्न गुणों वाली है। उपनिषद्कार लिखते हैं—
एष हि द्रष्टा, स्प्रष्टा श्रोता घ्राता ।
रसयिता मन्ता बोद्धा कर्त्ता—
विज्ञानात्मा पुरुषः ।।

अर्थात्—देखने वाला, छूने वाला, सुनने वाला, सूंघने वाला, स्वाद चखने वाला, मनन करने वाला और कार्य करने वाला ही विज्ञानमय आत्मा है।
नाभिक तत्व को आत्मा की प्रतिकृति जीवन का सूक्ष्म कण—कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। नाभिक ‘‘प्रोटान’’ और ‘‘न्यूट्रॉन’’ दो प्रकार के कणों से बना हुआ होता है। उसके किनारे इलेक्ट्रान चक्कर काटते हैं। प्रोटान एक प्रकार की धन विद्युत आवेश रहित और इलेक्ट्रान जो इन दोनों की तुलना से 1800 गुना हलका होता है ऋण विद्युत् आवेश होता है। इसे आत्मा से भटका हुआ जीव कह सकते हैं। ‘‘वैशेषिकदर्शन’’ में आत्मा को शान्त, धीर और पूर्ण शक्ति के रूप में भी माना है और पदार्थ के रूप में भी। दोनों विसंगतियां नाभिक में मूर्तिमान हैं। नाभिक के प्रोटान कण होते हैं इनमें भार होता पर न्यूट्रॉन में भार होता है वही सारे परमाणु के भार के बराबर होता है। नाभिक में दोनों का ही अस्तित्व समान है। ‘‘इलेक्ट्रान’’ जीव है और वे तक तक चैन से नहीं बैठ पाते जब तक अक्रियाशील गैसों की अर्थात् मानसिक या आत्मिक द्वन्द्व की स्थिति से मुक्ति नहीं पा लेते।

नाभिक के किनारे इलेक्ट्रान कई कक्षाओं में घूमते हैं। प्रत्येक कक्षा (आरबिट) में 2 एन 2 इलेक्ट्रान हो सकते हैं एन=कक्षा की संख्या अर्थात् प्रथम कक्षा में 4 दूसरे में 8 तीसरे में 18 इलेक्ट्रान होंगे। यह कहना चाहिये जो जितना अधिक उलझ गया है वह उतना ही दुःखी है। पर अन्तिम कक्षा में प्रत्येक अवस्था में किसी भी द्रव्य में अधिक से अधिक 8 ही इलेक्ट्रान होंगे यह इस बात के परिचायक हैं कि प्रत्येक जीव का अन्तिम लक्ष्य एक ही सिद्धान्त से बंधा हुआ है कि उसे आत्म तत्व की खोज करनी चाहिये। परमाणु की सारी हलचल अपने आपको अक्रियाशील बनाने की है अक्रियाशील गैसें अर्थात् हीलियम, नियोन, अगनि, क्रिष्टन, जीनान रैडन आदि। जीव की सारी हलचल पूर्णता प्राप्त करने की है पर जब तक हम त्याग करना नहीं सीखते वह लक्ष्य मिलता नहीं। यह तथ्य भी हमें परमाणु से ही सीखने को मिलता है। उदाहरण के लिये नमक सोडियम और कलोरीन से मिलकर बनता है। सोडियम की बाहरी कक्षा में 1 इलेक्ट्रान को नियोन की स्थिति में पहुंच जाता है ‘क्लोरीन’ की बाहरी कक्षा में 7 इलेक्ट्रान थे एक की आवश्यकता थी वह सोडियम ने पूरी करदी तो जैसे ही उसके इलेक्ट्रान 8 हो गये वह भी अगनि नामक अक्रियाशील गैस की स्थिति में पहुंच जाता है। आपसी क्षमताओं का आदान-प्रदान कर आत्म-विस्तार की यह प्रक्रिया ही आत्म-कल्याण का सच्चा राजमार्ग है।

आत्मा बड़ी विराट् है यह ऊपर कहा गया है। उसे जानने के लिये परमाणु की तुलना और सौर मण्डल से करनी पड़ेगी। वस्तुतः परमाणु में सूर्य और उसका विस्तार ही प्रतिभासित है। सूत्र अक्रियाशील गैसों का पुंज है नाभिक के रूप में परमाणु में वही प्राण भरता है। इलेक्ट्रान्स और कुछ नहीं हर तत्व में नवग्रहों का प्रभाव है। पदार्थ की रासायनिक रचना के अनुरूप वे मनुष्य को भी प्रभावित करते रहते हैं पर यह तभी तक जब तक हमारी मानसिक और बौद्धिक चेतना की खोज नहीं करती उसमें विलीन नहीं हो जाती। जीव रूपी इलेक्ट्रान जिस दिन नाभिक रूप आत्मा में विलीन हो जाता है उस दिन उसकी क्षमता सूर्य के समान प्रत्येक अणु में व्याप्त तेजस्वी और प्रखर हो जाती है।

सर्गाणु कर्षाणु रहस्य ही रहस्य

अब इलेक्ट्रान के भीतर इलेक्ट्रान और नाभिक (न्यूक्लियस) के भीतर अनेक नाभिकों (न्यूक्लिआई) की संख्या भी निकलती चली आ रही है। हमारे ऋषि ग्रन्थों में इन्हें ‘सर्गाणु’ तथा ‘कर्षाणु’ शब्दों से सम्बोधित किया गया है। विभिन्न तत्वों के परमाणुओं की इस सूक्ष्म शक्ति को देवियों की शक्ति कहा गया है। यों सामान्य तौर से तत्व पांच ही माने गये हैं किन्तु ‘वेद निदर्शन विद्या’ में यह स्पष्ट उल्लेख है कि सोना, चांदी, लोहा, अभ्रक आदि ठोस पृथ्वी के ही विभिन्न रूपान्तर हैं। इसी प्रकार वायु के 49 भेद मिलते हैं अग्नियों और प्रकाश के भी भिन्न-भिन्न रूपों का वर्णन मिलता है शाक्त साहित्य में पदार्थ शक्तियों के सैकड़ों नाम मिलते हैं हर शक्ति का एक स्वामी देवता माना गया है और उसे शक्तिमान शब्द से सम्बोधित किया गया है। अब पदार्थ के साथ जिस प्रति पदार्थ की कल्पना की गई है वह प्रत्येक अणु में प्रकृति के साथ पुरुष की उपस्थिति का ही बोधक है।

1930 में इसी विषय पर प्रसिद्ध फ्रांसीसी वैज्ञानिक पाल एट्रियेन मॉरिस डीराक ने इस तरह के कणों की उपस्थिति का उल्लेख किया और उन्हें प्रति-व्यय (एण्टीएलेमेन्ट) का नाम दिया गया। डीराक को 1933 में इसी विषय पर नोबुल पुरस्कार दिया गया। उसके बाद एण्टीइलेक्ट्रान एण्टी प्रोटान सामने आये। सबसे हलचल वाली खोज मार्च 1965 में अमेरिका की ब्रूक हेवेन राष्ट्रीय प्रयोग शाला में हुई जिसमें प्रत्येक तत्व का उल्टा अतत्व होना चाहिये। कोलम्बिया विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों ने ‘एण्टी डयूटिरियम’ की खोज की जो सामान्य हाइड्रोजन के गुणों से विपरीत था और यह निश्चय हो गया कि संसार में प्रोटानों से भारी नाभिक विद्यमान हैं। और यहीं से एक नई कल्पना का उदय हुआ कि संसार में प्रति ब्रह्माण्ड नाम की भी कोई सत्ता होनी चाहिये।

ब्रह्म कहते हैं ईश्वर को अण्ड कहते हैं जिसमें निवास हो सके, लोक आदि। सारे संसार को ही ब्रह्माण्ड कहते हैं और भारतीय दर्शन में एक ही ईश्वर की कल्पना की गई है ऋषियों ने गाया है—

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतीबहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्या धमति सं पतमैर्द्यावा भूमी जनयन देव एकः ।।
—ऋग्वेद 10। 81। 3

एक ही देव (परमात्मा) सब विश्व को उत्पन्न करता, देखता, चलाता है। उसकी शक्ति सर्वत्र समाई हुई है। वही परम शक्तिमान् और सबको कर्मानुसार फल देने वाला है।

अंग्रेजी का ‘यूनिवर्स’ शब्द भी सारे विश्व की एकता का प्रतीक है सृष्टि का कोई भी स्थान पदार्थ रहित नहीं है आकाश में भी गैसें हैं जहां बिलकुल हवा नहीं है वहां विकिरण या प्रकाश के कण और ऊर्जा विद्यमान हैं। प्रकाश भी एक विद्युत चुम्बकीय तत्व है। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि वह एक वर्गमील क्षेत्र पर प्रति मिनट आधी छटांक मात्रा में सूर्य से गिरता रहता है अर्थात् एक वर्ग मील स्थान में जो भी प्राकृतिक हलचल हो रही है उसका मूल कारण यह आधी छटांक विद्युत चुम्बकीय तत्व ही होता है।

जिस प्रकार कोई स्थान पदार्थ रहित नहीं है और प्रति-कण की उपस्थिति भी सिद्ध हो गई जो कि स्थूल कण की चेतना से विपरीत गुण वाला होता है तो यह एक मानने वाली बात हुई कि सारी सृष्टि में व्यापक प्रति-ब्रह्माण्ड तत्व वही ईश्वर होना चाहिये जिसे कण-कण में विद्यमान, कर्माध्यक्ष विचार ज्ञान, मनन आदि गुणों वाला तथा गुणों से भी अतीत कहा गया है।

मनुष्य शरीर जिन जीवित कोशों (सेल्स) से बना है उसमें आधा भाग ऊपर बताये गये भौतिक तत्व होते हैं। उनकी अपनी विविधता कैसी भी हो पर यह निश्चित है कि कोश में नाभिक को छोड़कर हर स्थूल पदार्थ कण कोई न कोई तत्व होता है। उनके अपने-अपने परमाणु अपने-अपने इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन, पाजिट्रान प्रति इलेक्ट्रान तथा नाभिक भी होंगे। पदार्थ ही ब्रह्माण्ड की रचना करता है इस प्रकार योग वशिष्ठ का यह कहना कि प्रत्येक लोक के अन्दर अनेक लोक और उनके ब्रह्मा( शासन कर्त्ता) विद्यमान हैं गलत नहीं है। जीव अपनी वासना के अनुसार जिस पदार्थ की कल्पना करता है उसी प्रकार के तत्व या गुण वाले लोक में चला जाता है। पर जिस प्रकार से मनुष्य के कोश का मूल ‘नाभिक’ ही अपनी चेतना का विस्तार ‘साइटोप्लाज्मा’ के हर तत्व के नाभिक में करता है उसी प्रकार इस सारी सृष्टि में हो रही हलचल का एक केन्द्रक या नाभिक होना चाहिये। चेतन गुणों के कारण उसे ईश्वर नाम दिया गया हो तो इसे भारतीय तत्वदर्शियों की अति-कल्पना न मान कर आज के स्थूल और भौतिक विज्ञान जैसा चेतना का विज्ञान ही मानना चाहिये और जिस प्रकार आज भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां जीवन के सीमित क्षेत्र को लाभान्वित कर रही हैं जीवन के अनन्त क्षेत्र के लाभ इस महान् अध्यात्म विज्ञान द्वारा प्राप्त किये जाना चाहिये।

परमाणु एक सजीव ब्रह्माण्ड है उसमें झांककर देखा गया तो सूर्य सी दमक सितारों-सा परिभ्रमण और आकाश जैसा शून्य स्थान मिला। परमाणु की सारी गति का केन्द्र बिन्दु उसका तेजस्वी नाभिक ही होता है।

सन् 1896 की बात है एक दिन फ्रांसीसी भौतिक विज्ञानी हेनरी बेकरल यूरैनियम पर प्रयोग कर रहे थे तब उन्हें पता चला कि यह यौगिक अपने भीतर अपने आप ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। यह ऊर्जा पदार्थ से फूटती रहती है। मैडसक्यूरी ने इसी का नाम रेडियो सक्रियता बताया था। इसी गुण के कारण पदार्थ टूटते-फूटते गलते और नष्ट होते रहते हैं यह अवधि बहुत लम्बी होती है इसलिये स्पष्ट दिखाई नहीं देती पर प्रकृति में इस तरह की सक्रियता सर्वत्र है। थोरियम का अर्द्धजीवन 14000,000,000 वर्ष है अर्थात् इतने वर्षों में उसकी मात्रा आधी रह जाती है आधी विकिरण से नष्ट हो जाती है। पृथ्वी के लोग भी इस तरह का विकिरण किया करते हैं। प्रतिवर्ष मनुष्य जाति 9000000000000000000 फुट पौण्ड ऊर्जा आकाश में भेजती रहती है जबकि हमारे जीवन को अपने समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने के लिये सूर्य प्रति सेकिंड चार सौ सेक्टीलियन अर्थात् दस अरब इक्कीस करोड़ किलोवाट शक्ति अपने सारे मण्डल को बिखेरता और उसे गतिशील रखता है। इस आदान-प्रदान क्रिया पर सारा संसार चल रहा है। यदि सूर्य यह शक्ति देना बन्द करदे तो सौर मण्डल का हर कण, हर शरीर निश्चेष्ट होकर नष्ट हो जायगा। सौर मण्डलों की रचना व विध्वंस ऐसे ही हुआ करता है।

थोरियम के परमाणु से यदि उसके नाभिक को उसी के इलेक्ट्रान से चोट कराई जाये तो रेडियो-ऊर्जा 14000,00000×2 (उसकी पूरी मात्रा समाप्त होने तक) वर्ष समाप्त होती होगी वह एक क्षण में समाप्त हो जायेगी। यह शक्ति इतनी बड़ी होगी कि वह लन्दन जैसे तीन महानगरों को एक सेकेंड में नष्ट करदे। परमाणु  की इस महाशक्ति की महा शक्ति से उसी प्रकार तुलना की जा सकती है जिस प्रकार परमाणु की रचना से सौरमण्डल की रचना की तुलना की जाती है। वस्तुतः परमाणु, सूर्य और समस्त ब्रह्माण्ड के समान त्रिक हैं। जो परमाणु में है वही सौर मण्डल में है जिस प्रकार परमाणु अपने नाभिक के बिना नहीं रह सकता, सौर मण्डल सूर्य के बिना ब्रह्माण्ड भी एक अनन्त सर्वव्यापी शक्ति के बिना रह नहीं सकता। प्रकृति और ब्रह्म की एकता का रहस्य भी यही है। जब तक नाभिक, न्यूट्रॉन एक हैं, जब तक दोनों में संघात नहीं होता सृष्टि परम्परा परमाणु की तरह स्थिर रहेगी जिस दिन संघात हुआ उसी दिन सारी सृष्टि शक्ति रूप में ‘बहुस्याय एकोभव’ की स्थिति में चली जायेगी।

शरीर एक परिपूर्ण ब्रह्माण्ड है। प्राकृतिक परमाणु (जो साइटोप्लाज्मा निर्माण करते हैं) उसके लोक की रचना करते हैं और नाभिक मिलकर एक चेतना के रूप में उसे गतिशील रखते हैं। सूर्य, परमाणु प्रक्रिया का विराट् रूप है इसलिये वही दृश्य जगत की आत्मा है, चेतना है, नियामक है, सृष्टा है। उसी प्रकार सारी सृष्टि का एक अद्वितीय स्रष्टा और नियामक भी है पर वह इतना विराट है कि उसे एक दृष्टि में नहीं देखा जा सकता। उसे देखने समझने और पाने के लिये हमें परमाणु की चेतना में प्रवेश करना पड़ेगा बिन्दु साधना का सहारा लेना पड़ेगा अपनी चेतना को इतना सूक्ष्म बनाना पड़ेगा कि आवश्यकता पड़े तो यह काल ब्रह्माण्ड तथा गति रहित परमाणु की नाभि सत्ता में ध्यानस्थ व केन्द्रित हो सके। उसी अवस्था पर पहुंचने से आत्मा की परमात्मा को स्पष्ट अनुभूति होती है। नियामक शक्तियों के जानने का और कोई उपाय नहीं है। शरीर में वह सारी क्षमतायें एकाकार हैं चाहें तो इस का उपयोग कर परमाणु की सत्ता से ब्रह्म तक की प्राप्ति इसी से कर लें।
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