अणु में विभु-गागर में सागर

असीम अतल शक्ति सागर की एक बूंद

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कहते हैं रूस का मास्को शहर संसार का सबसे बड़ा शहर है। दो लाख एकड़ क्षेत्र में बसे इस भव्य नगर में 65 लाख से भी अधिक नागरिक निवास करते हैं। प्रति वर्ष 1 लाख 20 हजार के हिसाब से नये फ्लैट बनते जा रहे हैं प्रति दिन 350 परिवारों को नये मकान दिये जाते हैं। पूरे शहर में 30 नाट्यघर, 100 सिनेमाघर, 80 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। इनमें 5 लाख छात्र शिक्षा पाते हैं। राजकीय लेनिनग्राड पुस्तकालय में 2 करोड़ 20 लाख पुस्तकें संग्रहीत हैं। इस विशालता में लन्दन जैसे ढाई शहर और पेरिस जैसे 8 शहर समा सकते हैं। मास्को शहर की विशालता का क्या कहना?

हम जिस पृथ्वी में रहते हैं उसमें ऐसे-ऐसे 4 और विशाल शहर हैं। छोटों की तो कोई गणना ही नहीं। अकेले भारतवर्ष में ही 6 हजार के लगभग शहर हैं, दुनिया में तो उनकी संख्या लाखों होगी। इस प्रकार गांवों की संख्या और उनमें रहने वाले निवासी भी पृथ्वी में भरे पड़े हैं। 13000 किलोमीटर व्यास वाली पृथ्वी के सूखे भाग की इस व्यापक हलचल और कल्पना में न उतरने वाली विशालता को भला मनुष्य की एक-एक इन्च से भी छोटी आंखें कहां देखती हैं?

पृथ्वी के जिस भाग का वर्णन किया जा रहा है जो सूखा और आबाद है वह तो कुल 1/4 हिस्सा ही है 3/4 हिस्से में जल भरा हुआ है। समुद्र ही समुद्र है आइये देखें उसकी लम्बाई-चौड़ाई कितनी है।

हिन्द महासागर का क्षेत्रफल 2 करोड़ 80 लाख वर्गमील है जब कि भारतवर्ष और पाकिस्तान दोनों का कुल मिला कर 1626148 ही वर्गमील क्षेत्रफल है। अफ्रीका के दक्षिणी सिरे से लेकर आस्ट्रेलिया के बीच तक इसकी लम्बाई 6200 मील है। उसमें 30 लाख खरब टन जलराशि, 80 हजार खरब टन नमक और 20 किलोवाट प्रति घण्टे की विद्युत शक्ति उसमें भरी हुई है। उसमें रहने वाले जीव-जन्तुओं की संख्या तो मनुष्य शरीर में जीन्स की तरह असंख्य है जब कि अभी ऐसे-ऐसे तीन और महासागर हैं। प्रशान्त महासागर जिसकी औसत गहराई 14050 फुट है 63800000 वर्गमील, अटलांटिक महासागर 12880 फीट गहरा 3183000 वर्गमील, आर्कटिक महासागर 4200 फुट गहरा और 5440000 वर्गमील में फैला हुआ है। सूखी धरती और वह जल भाग जो उसके अतिरिक्त है वाली धरती की विशालता का अनुभव मनुष्य जैसा छोटा प्राणी कर भी कैसे सकता है? वह तो मनुष्य को किसी का अभिशाप लग गया है जो वह अपनी शक्ति का इतना अहंकार करता है। अन्यथा पृथ्वी की तुलना में ही वह इतना छोटा है जितना हिमालय पहाड़ की तुलना में चींटी के शरीर का सौवां भाग। 19 करोड़ 70 लाख वर्गमील की पृथ्वी और अधिक से अधिक 9 वर्ग फीट का मनुष्य-यह तो नगण्य स्थिति हुई।

विशालता की इस माप में पृथ्वी का क्षेत्रफल कोई अन्तिम दूरी नहीं है। उससे तो सूर्य ही कई हजार गुना बड़ा है। पृथ्वी का व्यास 13000 किलोमीटर है तो सूर्य 1390000 किलोमीटर है। पर आप यह न समझें कि यह सूर्य ही विशालता में सरताज हो गया। वह अपना एक सौर परिवार भी रखता है जिसमें 9 ग्रह बुध (मरकरी) शुक्र (वीनस), पृथ्वी (अर्थ), मंगल (मार्स), बृहस्पति (ज्यूपीटर), शनि (सेटन), वारुणी (यूरेनस), वरुण (नैप्च्यून) और यम (प्लूटो) ओर 61 उपग्रह हैं। 1500 छोटे-छोटे ग्रह और भी हैं जिन्हें अवान्तर ग्रह या मध्यग्रह (एस्टोरोइड्स) कहते हैं। अन्तरिक्ष कीट और अनेक पुच्छल तारे भी इस सौर मण्डल में आते हैं। इस सौर मण्डल का व्यास 11800000000000 कि.मी. है। इन्हें मन्दाकिनी (स्याइरल) नामक आकाश गंगा से प्रकाश मिलता है।

आइये देखें सूर्य से भी बढ़कर कोई और बड़ा आकार आकाश में है या नहीं? यदि उसकी खोज करना चाहते हैं तो रात में किसी एकान्त में खड़े होकर आकाश की ओर देखें। आपको असंख्य टिम-टिमाते हुए तारे दिखाई देंगे। जुगनू आंख से भी छोटे दिखाई पड़ने वाले इन तारों में से कई जैसे इतने बड़े हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एटारेस तारे का व्यास 600000000 किलोमीटर, पृथ्वी से लगभग 5000 गुना बड़ा। बैगनर तारा समूह में एक और ऐसा ही तारा देखने में आया है जिसका नाम एप्सिलान और व्यास 4000000000 किलोमीटर है। अब तक विशालता की पैमाइश करते-करते हम जिस स्थान पर पहुंचे हैं, वहां खड़े होकर देखें और कल्पना करें कि पृथ्वी इतनी छोटी हो गई है कि उसका व्यास 1/10 मिलीमीटर अर्थात् बाल की चौड़ाई के बराबर है तो आकाश में चमकने वाला सूर्य चने के दाने के बराबर होगा। एन्टारेस तारा एक साधारण-सी कटोरी जितना बड़ा है। बैगनर तारा समूह का एप्सिलान 6 मंजिले मकान जितना लगेगा। सौर मण्डल की स्थिति अधिक से अधिक एक फुटबाल के मैदान जैसी दिखाई देगी।
अभी तक जितना संसार ऊपर देख चुके वह भी कोई सम्पूर्ण नहीं है। बैगनर तारा समूह की तरह के 88 और तारा-समूह वैज्ञानिकों की दृष्टि में अब तक आ चुके हैं। अनुमान है कि यह सब 900000000000000000 किलोमीटर व्यास वाली आकाश गंगा से प्रकाश लेते हैं। इस क्षेत्र को आकाश गंगा विश्व (गैलेक्सी) कहते हैं।

स्मरण रखना चाहिये कि यह जानकारी अन्तिम नहीं है। इतने विस्तार को जान जाना मनुष्य के बस की बात तो नहीं है। लेकिन भगवान् ने जो विराट् सृष्टि दृश्य जगत् में बनाई है अदृश्य जगत् में, सूक्ष्म रूप में भी वह ज्यों की त्यों विद्यमान है। उसको खोजने उसे पाने, उसमें भ्रमण का आनन्द लेने के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है। संख्या अनुमान मात्र है अन्तिम सत्य नहीं।

सूर्य-चन्द्रमा आदि ग्रह-नक्षत्र जितने बड़े हैं ‘अमीबा’ उतना ही छोटा 0.8 मिलीमीटर का जीव है। जीवाणु विज्ञान के अनुसार सूक्ष्म जीवाणु 1/25000 इन्च का बाल की नोंक से भी छोटा होता है। बैक्टीरिया (जीवाणु) में भी अपनी तरह की चेतना गुण-कर्म-स्वभाव विद्यमान है और अपनी सृष्टि में वह सन्तुष्ट होने के साथ ही उसकी गति ऐसी है जो एक सैकिण्ड में पृथ्वी के ओर-छोर की यात्रा मजे में सम्पन्न कर सकता है। जो जितना छोटा उतना ही गतिमान।

यह छोटापन अभी अन्तिम नहीं है। संसार के सब पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। एक परमाणु का व्यास 0.0000001 मिलीमीटर होता है और उसमें पाये जाने वाले इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रॉन सब सूर्य-चन्द्रमा की तरह शक्ति सम्पन्न हैं। परमाणु विज्ञान में उसे कोई आश्चर्य नहीं माना जाता, जब कि परमाणु की शक्ति को नागासाकी और हिरोशिमा में अच्छी तरह देखा जा चुका है।

ब्रह्माण्ड की तुलना की तरह चेतना परमाणु इतना छोटा है कि यदि उसके नाभिक का व्यास 1/10 मिलीमीटर मानें तो पूरा परमाणु एक भव्य इमारत जैसा लगेगा और बैक्टीरिया जिसका व्यास ऊपर दिया है इतना बड़ा लगेगा जितनी लन्दन से बर्लिन की दूरी। अमीबा जो सबसे छोटा एक कोशीय जीव है इतना बड़ा होगा कि उसे पृथ्वी की गोलाई में दो बार आसानी से लपेटा जा सकेगा। उस तुलना में मनुष्य इतना बड़ा होगा कि पृथ्वी में खड़ा होकर बड़े आराम से सूर्य को पकड़ ले तब पृथ्वी इतनी बड़ी होगी कि दोनों ध्रुवों के बीच की दूरी प्रकाश की गति से चलकर पूरी की जाये तो पूरे दो वर्ष लग जायें। एक ओर ब्रह्माण्ड की यह विशालता एक ओर जीवन की यह लघुता दोनों परि विचार करते हैं तो ऋषियों की ‘अणोरणीय महतो महीयान’ वह अणु से भी छोटा और ब्रह्माण्ड के समान विशाल है, कि उक्ति को ही शिरोधार्य करना पड़ता है और तब विराट् के दर्शन के लिये उपाय एक ही रह जाता है कि हम अपनी लघुता को अन्तःकरण की गहराई तक अनुभव करें।

परमाणु-संसार की खोज करते समय जो शक्ति कण पाये गये हैं वह ब्रह्माण्ड के एक नक्शे की तरह हैं। केन्द्रक (न्यूक्लियस) उसका मुख्य भाग है उसके आस-पास शून्य (आकाश) है। उसे पोले स्थान में इलेक्ट्रान चक्कर लगाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक पदार्थ के परमाणु में अलग-अलग तरह की होती है। चक्कर काटते हुए इलेक्ट्रान ठीक उसी प्रकार हैं जिस प्रकार सौर मंडल के ग्रह-उपग्रह। केन्द्रक या नाभिक न्यूक्लियस) सूर्य की तरह हैं जो सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स के द्वारा इलेक्ट्रानों को नियमित किये रहता है। इलेक्ट्रान स्वयं सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स के द्वारा केन्द्रक की ओर खिंचे रहते हैं। यह व्यवस्था भी ब्रह्मांड में गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्तों की तरह है। यह दृश्य और मंडल भी ब्रह्मांड का एक परमाणु ही है जिसका केन्द्रक सूर्य और इलेक्ट्रान अनेक ग्रह-उपग्रह हैं।

लगता है सूर्य असीम शक्ति का भण्डार है, पर वस्तुतः वह भी विराट् ब्रह्माण्ड के महा संचालक ब्रह्म सूर्य का एक नगण्य-सा घटक ही है। सूर्य अपनी शक्ति उसी प्रकार अपने सूत्र संचालक महा सूर्य से प्राप्त करता है जैसे कि अपनी पृथ्वी सौर-मंडल के अधिष्ठाता अपने सूर्य से। जीव और ईश्वर की दूरी ही उसकी शक्ति को दुर्बल बनाती है। यदि यह दूरी घटती जाये तो निश्चित रूप से सामर्थ्य बढ़ेगी और स्थिति वह न रहेगी जो आज कृमि-कीटकों जैसी दिखाई पड़ रही है।

ब्रह्माण्ड की दूरी का अनुमान नहीं किया जा सकता। पर परमाणु के नाभिक के, अन्दर के प्रोटानों की दूरी तो कुल 1/2000000000000 इंच होती है। यदि यह दूरी आधा इंच होती तो उन दोनों के बीच की दूरी 1/4 इंच होने पर शक्ति सोलह गुनी होती 1/2 इंच होने पर 64 गुनी—तात्पर्य यह है कि ब्रह्माण्ड की जो शक्ति विस्तार में है, परमाणु में वही शक्ति प्रोटानों की समीपता में है। पति-पत्नी जितने प्रेम और आत्मीयता से रहते हैं, उनकी शक्ति उतनी ही अधिक होती है। इसका अनुमान इस व्याख्या से चलता है अर्थात् दो प्रोटानों के बीच में 1/1000000000000 इंच की दूरी के बीच इतनी शक्ति होगी, जो इस्पात की 10 इंच मोटी चादर को भी काटकर रख देगी। जीव और ईश्वर की समीपता का भी ऐसा ही सत्परिणाम हो सकता है। इस समीपता के आधार पर सामान्य को असामान्य देखा जा सकता है।

ध्यान—मन की एकाग्रता द्वारा अपनी प्राणमय चेतना (नाभिकीय चेतना) को सूर्य या किसी अन्य चेतना के साथ जोड़ देने से दो तत्वों का मिलन ऐसे ही हो जाता है जैसे दो दीपकों की लौ मिलकर एक हो जाती है। व्यक्ति अपनी अहंता भूलकर जब किसी अन्य अहंता से जोड़ लेता है तो उसकी अनुभूतियां और शक्तियां भी वैसी ही—इष्टदेव जैसी ही हो जाती हैं। ध्यान की परिपक्वता को एक प्रकार का संलग्न ही कहा चाहिये। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि वह शक्ति विस्फोट की शक्ति से भी अधिक प्रखर होती है। आत्म-चेतना का ब्राह्मी-चेतना से मिलकर ब्रह्म साक्षात्कार इसी सिद्धान्त पर होता है।

सूर्य का तापक्रम 600 डिग्री सेन्टीग्रेड है तो अन्दर का अनुमानित ताप 15000000 डिग्री सेन्टीग्रेड। 12 हजार अरब टन कोयला जलाने से जितनी गर्मी पैदा हो सकती है उतनी सूर्य एक सैकिण्ड में निकाल देता है। अनुमान है कि सूर्य का प्रत्येक वर्ग इंच क्षेत्र 60 अश्वों की शक्ति (हार्स पावर) के बराबर शक्ति उत्सर्जित करता है। उसके सम्पूर्ण 3393000000000000 वर्ग मील क्षेत्र में शक्ति का अनुमान करना हो तो इस गुणन खण्ड को हल करना चाहिए—339000000000000×1760×3×12 इतने हार्स पावर की शक्ति न होती तो यह जो इतनी विशाल पृथ्वी और विराट् सौर जगत् आंखों के सम्मुख प्रस्तुत है वह अन्धकार के गर्त में बिना किसी अस्तित्व के डूबा पड़ा होता।
इस प्रचण्ड क्षमता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यदि 93000000 मील लम्बी और 880 गज मोटी बर्फ की सिल्ली के ऊपर उसको केन्द्रित (फोकस) कर दिया जाये तो सारी बर्फ एक सैकिण्ड में गलकर बह निकलेगी। सूर्य के 1 इंच में जिस ऊर्जा व प्रकाश की कल्पना की गई है वह 5 लाख मोमबत्तियों के एक साथ जलाने की शक्ति के बराबर होता है। यह सारी शक्ति एक साथ पृथ्वी पर फेंक दी जाती तो यहां की मिट्टी भी जलने लगती। जलने ही नहीं लगती यह भी एक प्रकार का सूर्य पिण्ड हो जाती जबकि सामान्य स्थिति में पृथ्वी को सूर्य—शक्ति का लगभग 220 करोड़वां हिस्सा ही मिलता है। 3 अरब आबादी मनुष्यों की, 100 अरब आबादी पक्षियों की, 1000 अरब आबादी अन्य जीव-जन्तुओं की और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विशाल वनस्पति जगत तथा ऋतु संचालन का सारा कार्य उस 220 करोड़वें हिस्से जितनी शक्ति से सम्पन्न हो रहा है। पूरी शक्ति जो सौर-मंडल के करोड़ों ग्रहों-उपग्रहों, क्षूद्र ग्रहों का नियमन करती है, प्रकाश और गर्मी देती है। अपने 19 करोड़ 98 लाख महाशंख भार को 200 मील प्रति सैकिण्ड की भयानक गति से 25 करोड़ वर्ष में पूरी होने वाली विराट् आकाश की परिक्रम भी वह अपनी इसी शक्ति से पूरी करता है। उस सम्पूर्ण शक्ति और सक्रियता को कूता जाना सम्भव नहीं है, उसे भावनाओं में केवल मात्र उतारा जाना सम्भव है।

सूर्य और पृथ्वी की तुलना नहीं हो सकती। किन्तु अपने स्थान पर पृथ्वी और उस पर रहने वाले प्राणियों की सामर्थ्य को देखकर भी दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है और सोचना पड़ता है कि विश्व की प्रत्येक इकाई अपने आप में एक परिपूर्ण सूर्य है।

पृथ्वी के लोग भी इस तरह का विकास किया करते हैं। प्रतिवर्ष मनुष्य जाति 9000000000000000000 फुट पौण्ड ऊर्जा आकाश में भेजती रहती है जबकि हमारे जीवन को अपने समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने के लिए सूर्य प्रति सैकिण्ड चार सौ सेक्टीलियन अर्थात् दस अरब इक्कीस करोड़ किलोवाट शक्ति अपने सारे मण्डल को बखेरता और गतिशील रखता है। परमाणु की इस महाशक्ति की सूर्य की महाशक्ति से उसी प्रकार तुलना की जा सकती है, जिस प्रकार परमाणु की रचना से सौर-मंडल की रचना की तुलना की जाती है। वस्तुतः परमाणु सूर्य और समस्त ब्रह्माण्ड के समान त्रिक है। जो परमाणु में है वही सौर-मंडल में है जिस प्रकार परमाणु अपने नाभिक के बिना रह नहीं सकता, प्रकृति और ब्रह्म की एकता का रहस्य भी यही है।

हाइड्रोजन परमाणु का एक इलेक्ट्रोन अपने केन्द्र के चारों ओर एक सैकिण्ड में 6000 खरब चक्कर काटता है। सौर-मंडल के सदृश परमाणु के भीतर विद्युत कण भयंकर गति से घूमते हैं फिर भी उसके पेट में बड़ा सा आकाश भरा रहता है। परमाणुओं के गर्भ में चल रही भ्रमणशीलता के कारण ही इस संसार में विभिन्न हलचलें हो रही हैं। यदि वे सब रुक जायं तो आधा इंच धातु का वजन तीस लाख टन हो जायेगा और सर्वत्र अकल्पनीय जड़ता भरा भार दिखाई पड़ेगा।

हाइड्रोजन संसार का सबसे हल्का तत्व है और वह सारे विश्व में व्याप्त है। उसके एक अणु का विस्फोट कर दिया जाय तो उसकी शक्ति संसार के किसी भी तत्व की तुलना में अधिक होगी। जो जितना हलका वह उतना ही आग्नेय, शक्तिशाली, सामर्थ्यवान और विश्वव्यापी यह कुछ अटपटा-सा लगता है, पर है ऐसा ही।
किसी गुब्बारे में 300 पौण्ड हवा भरी जा सकती है तो उतने स्थान के लिए हाइड्रोजन 100 पौण्ड ही पर्याप्त होगा, उसी प्रकार जितने स्थान में एक औंस पानी या 2/3 ओंस हाइड्रोजन रहेगा, उतने स्थान को मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के प्रकाश अणुओं का 1224 वां भग ही घेर लेगा। यदि प्रयत्न किया जाय तो इन अणुओं की सूक्ष्मतम अवस्था में पहुंच कर विराट् विश्वव्यापी आत्म-चेतना के रूप में अपने आपको विकसित और परिपूर्ण बनाया जा सकता है।

सर्गे सर्गे पृथगरूपं सन्ति सर्गान्तराण्यपि ।
तेष्वप्यन्तः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत् ।।
—योगवशिष्ठ 4।18।46-17
आकाशे परमाण्वन्तर्द्रव्यादेरणुकेऽपि च ।
जीवाणुर्यत्र तत्रेदं जगदवेत्ति निजं वपुः ।।
—योगवशिष्ठ 3।44।34-35

अर्थात्—‘‘जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के भीतर नाना प्रकार के सृष्टि क्रम विद्यमान हैं। इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्न लोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनन्त द्रव्य के अनन्त परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान हैं।’’

हमारे लिए वर्ष 365 1/4 दिन का होता है, पर सूर्य के लिए वह अपनी एक हजार किरणों के घूमने भर का समय, सूर्य का प्रकाश हर क्षण पृथ्वी के आधे भाग पर पड़ता है अर्थात् सूर्य का एक सैकिण्ड पृथ्वी के निवासी के लिए 12 घन्टे। कीट-पतंगों के लिए तो उसे कल्प ही कहना चाहिए। सूर्य अरबों वर्ष से जी रहा है और करोड़ों वर्ष तक जियेगा पर इतनी अवधि में तो मनुष्य की लाखों पीढ़ियां मर खप चुकीं, यदि सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक जितने लोग जन्म ले चुके उन सबके नाम लिखना सम्भव हो तो उसके लिए पृथ्वी के भार से कम के गज की आवश्यकता न पड़ेगी। सूर्य का एक जन्म इतना बड़ा है कि मनुष्य उसकी तुलना में अरबवें हिस्से की भी जिन्दगी नहीं ले पाया। ठीक यही बात मनुष्य की तुलना में कीट-पतंगों की है। वायुमण्डल में ऐसे जीव हैं जो इतने सूक्ष्म हैं कि उनको इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखना संभव है उनमें एक ही कोश (सेल) होता है। उनमें केन्द्रक सूर्य का ही एक कण होता है अन्य तत्वों में कोई भी खनिज, लवण या प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट मिलेंगे। अर्थात् जीव चेतना और प्रकृति का समन्वय ही दृश्य जगत है।

मनुष्य में गर्मी अधिक है, 100 वर्ष का जीवन उसे प्राप्त है, कीड़े-मकोड़े शक्ति के एक अणु और शरीर के एक कोश से ही मनुष्य जैसी आयु भोग लेते हैं। मनुष्य जितने दिन में एक आयु भोगता है उतने में कीट-पतंगों के कई कल्प हो जाते हैं। प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक एन.एस. श्चेरविनोवस्की एक कृषि—विशेषज्ञ थे, उन्होंने 50 वर्ष तक कीट-पतंगों के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन किया और उससे कृषि नाशक कीटाणुओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खोजें कीं। उन्हीं खोजों में भारतीय दर्शन को प्रमाणित करने वाले तथ्य भी प्रकाश में आये। वे लिखते हैं—टिड्डियों की सामूहिक वंशवृद्धि की अवधि सूर्य के एक चक्र अर्थात् 11 वर्ष से है अर्थात् 11 वर्ष में उनकी प्रलय और नई सृष्टि का एक क्रम पूरा हो जाता है। वीविल जो चुकन्दर कुतरने वाला कीड़ा होता है वह भी 11 वर्षीय चक्र से सम्बन्धित है, पर कुछ कीड़ों की सामूहिक वृद्धि 22 वर्ष, कुछ की 33 वर्ष है, इस आधार पर उन्होंने लिखा है कि पृथ्वी का सारा जीवन ही सूर्य पर आधारित है। सिद्ध होता है कि नन्हें-नन्हें जीवाणु (बैक्टीरिया) तथा विषाणु (वायरस) सभी का जीवन कोश (नाभिक या न्यूक्लियस) सूर्य का ही प्रकाश स्फुल्लिंग और चेतन परमाणु है, जबकि उसके कोशिका सार (साइटोप्लाज्म) में अन्य पार्थिव तत्व। जीवन चेतना सर्वत्र एक-सी है, परिभ्रमण केवल मन की वासना के अनुसार चलता रहता है। नाभिक में भी नाभिक (न्यूक्लिअस) होते हैं, जिससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस प्रकार कोशिका सार (साइटोप्लाज्म) का सूर्य नाभिक होता, नाभिक अग्नि तत्व होता है, अग्नि या प्राण में ही मन होता है, उसी प्रकार मन की चेतना में ही विश्व चेतना परमाणु में उसका नाभिक ठीक इसी प्रकार है जिस प्रकार समस्त सौर-मंडल का अधिष्ठाता सूर्य। नाभिक न रहे तो परमाणु का जीवकोश का अस्तित्व नहीं रह सकता उसी प्रकार जब तक सूर्य है तभी तक पृथ्वी और समस्त सौर मण्डल। सूर्य को भी ज्वलनशील चेतन किसी ऐसी नीहारिका से मिलता है जिसके परिवार में अपने सूर्य जैसे एक नहीं अनेक सूर्य और उनके सौर मंडल सम्मिलित हैं। यदि वह नीहारिका नष्ट हो जावे तो यह सारे सौर-मंडल पलक मारते नष्ट हो जावें। विराट् ब्रह्माण्ड में निर्माण और विनाश का यह क्रम एक विलक्षण गणितीय और मस्तिष्कीय प्रक्रिया के अन्तर्गत चल रहा है विज्ञान उस पर आश्चर्यचकित है।

विराट् ब्रह्माण्ड के इस नाभिक में यदि समष्टि गत चेतना ठीक इसी प्रकार की हो जिस प्रकार एक कोश (सेल) के नाभिक (न्यूक्लियस) में जीव चेतना, तो उसे आश्चर्य और अतिशयोक्ति न माना जाये क्योंकि दोनों के रूप एक ही जैसे हैं और ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ की कल्पना को चरितार्थ करते हैं। प्रकाश की यह शोध हमें एक दिन निराकार ब्रह्म तक पहुंचा दे तो कुछ आश्चर्य नहीं क्योंकि विराट् का यह अध्ययन इन कल्पनाओं की ही सत्यता सिद्ध करता है। इसका प्रतिदान करने में तत्ववेत्ता ऋषियों ने बहुत पहले ही सफलता प्राप्त करली थी।

यों परमात्मा को निराकार, निर्विकार, सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान, अव्यय, अविनाशी और सृष्टि का मूल उपादान कहा गया है तथापि जब भी उसके तात्विक शरीर की कल्पना की जाती है दिव्य और विराट् भुवन में प्रकाश भरने वाले स्रोत की ही कल्पना होती है। ब्रह्म और आत्मा के जिस स्वरूप की कल्पना भारतीय तत्व-दर्शियों ने की उसकी स्थावर कलाओं की शतशः सत्य सिद्धि तो ज्योतिर्विज्ञान ने करदी अब उसकी जंगम कलाओं की पुष्टि भी होने लगी है। यही जानकारियां एक दिन ‘एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति’ की पुष्टि और समर्थन करने लगे तो उसे आश्चर्यजनक नहीं माना जाना चाहिए।

विराट् और लघु-परमात्मा और आत्मा

ईश्वर और जीव में लघुता और महानता की दृष्टि से अकल्पनीय अन्तर है। इतने पर भी अंशी के नाते वे सभी विशेषताएं जीव में विद्यमान हैं जो उसके उद्गम स्रोत ईश्वर में होती हैं। प्रश्न केवल विकसित और अविकसित स्थिति का है। अविकसित जीव तुच्छ है इस पर भी उसमें वे सभी सम्भावनाएं मौजूद हैं जिनसे उसका विकास सहज ही विराट् रूप धारण कर सकता है। आग की छोटी-सी चिनगारी, मूलतः ब्रह्माण्ड व्यापी अग्नि तत्व का एक घटक है। जिसे अवसर मिले तो प्रचण्ड दावानल बनकर सुदूर क्षेत्रों को अपनी लपेट में ले सकती है। वह चाहे तो अपना चिनगारी स्वरूप समाप्त करके विश्व-व्यापी अग्नि तत्व में विलीन हो सकती है। जीवन जब तक चाहे अपनी छोटी स्थिति में रहे—संकल्प करे तो महान् बन जाय और उसको उत्कण्ठा हो तो अपने उद्गम में विलीन होकर पूर्ण ब्रह्म भी बन सकता है। तुच्छता से महानता में विकसित होने में प्रधान बाधा उसकी संकल्प शक्ति की ही तो है। उसी की अभिवृद्धि के लिए साधना का मार्ग अपनाया जाता है।

विराट् और लघु की—परमात्मा और आत्मा की प्रत्यक्ष तुलना सूर्य और परमाणु से कर सकते हैं। सूर्य का विस्तार और शक्ति भण्डार असीम है, पर नगण्य-सा दीखने वाला परमाणु भी तुच्छ नहीं है। अपनी छोटी स्थिति में उसकी शक्ति भी उतनी ही है जितनी कि विस्तृत स्थिति में विशालकाय सूर्य की। ब्रह्म और जीव का अनुपात भी इसी प्रकार है।

सूर्य की तुलना में परमाणु तुच्छ है किन्तु परमाणु के भीतर भी इतना ही बड़ा संसार विद्यमान है जितना सूर्य के घेरे में। उसका सौर परिवार विशाल वट वृक्ष जिस बीज से अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और बड़ा हुआ है वह आधे सेन्टीमीटर व्यास से भी छोटा घटक रहेगा। इस बीज की चेतना ने जब विस्तार करना आरम्भ किया तब तना, तने से डाल, डालों से पत्ते, फूल, फल, जड़ें आदि बढ़ते चले गये। मनुष्य शरीर की आकृति और विकास प्रक्रिया भी ठीक ऐसी ही है। वीर्य के एक छोटे से छोटे कोष (स्पर्म) को स्त्री के प्रजनन कोष ने धारण किया था। पीछे वही कोष जिसमें मनुष्य स्त्री या पुरुष के शरीर की सारी संभावनाएं आकृति-प्रकृति, रंग रूप, ऊंचाई, नाक-नक्शा आदि सब कुछ विद्यमान था उसने जब बढ़ना प्रारम्भ किया तो वह अन्तरिक्ष की अनन्त अक्तियों को खींच-खींचकर शरीर रूप में विकसित होता चला गया। एक सेण्टी मीटर स्थान में कई अरब कोष आ सकते थे, जो उसी सूक्ष्मतम कोष से 5 फुट 6 इंच का मोटा शरीर दिखाई देने लगता है।

गर्भ के भीतर रहने तक तो यह लघुता याद रहती है, किन्तु बाहर की हवा लगते ही जीवन का मूल भूत आधार भूल जाता है और मनुष्य अपने आपको स्थूल पदार्थों का पिंड मात्र मानकर मनुष्य जीवन जैसी बहूमूल्य ईश्वरीय विरासत को गंवा बैठता है। हम यदि छोटे से छोटे अणु में भी जीवन की अनुभूति कर सके होते तो जन चेतना के प्रति हमारा दृष्टिकोण आज की अपेक्षा कुछ भिन्न ही होता।

धरती पर जीवनोपयोगी परिस्थितियों का आधार जिन रासायनिक हलचलों और आणविक गतिविधियों पर निर्भर है, वे अन्तरिक्ष से आने वाली रेडियो तरंगों पर अवलम्बित हैं। शक्ति के स्रोत उन्हीं में हैं। विविध-विध हलचलों की अधिष्ठात्री इन्हीं को कहना चाहिए, हमारा परिवार, हमारा शरीर, हमारा अस्तित्व सब कुछ प्रकारान्तर से इन रेडियो तरंगों पर निर्भर है जिन्हें हम आत्मा की तरह जानते भले ही नहीं, पर निश्चित रूप से अवलम्बित उन्हीं पर हैं। जीवन लगता भर अपना है, पर उसमें समाविष्ट प्राण इसी अदृश्य सत्ता पर निर्भर हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में रेडियो तरंग पुंज कहते हैं।

यह रेडियो तरंग पुंज अदृश्य सत्ता के घटक मात्र हैं। इस प्रकार के अनेकानेक शक्ति पुंजों को ब्रह्मांडीय चेतना कहा जाता है। ब्रह्मांडीय चेतना की उन दिनों वैज्ञानिक क्षेत्रों में बहुत चर्चा है। उसे परा प्रकृति की स्वीकृति माना जाना चाहिए।

परा और अपरा प्रकृति

प्रकृति के दो स्तर हैं। एक ‘परा’ दूसरा ‘अपरा’ परा वह है जिसे पंच भौतिक कह सकते हैं। इन्द्रिय चेतना से जो अनुभव की जा सकती है अथवा यन्त्र उपकरणों की सहायता से जो प्रत्यक्ष हो सकती है। भौतिक विज्ञान का कार्यक्षेत्र यहीं तक सीमित है कुछ समय पूर्व तक वैज्ञानिक इतने को ही सब कुछ मानते थे। चेतना की व्याख्या आणविक एवं कम्पन परक हलचलों की ही प्रतिक्रिया है। विज्ञान द्वारा अब अपरा प्रकृति के अस्तित्व को भी स्वीकार किया जाने लगा है इस नये कार्य क्षेत्र को सूक्ष्म जगत कहा जाने लगा है। इसकी हलचलें आणविक गतिविधियां नहीं कही जा सकतीं और न ताप, प्रकाश शब्द के कम्पनों से उसकी कोई तुलना है। इसे समष्टि मस्तिष्क माना गया है। बल्ब में जलने वाली बिजली—अन्तरिक्ष में व्यापक विद्युत शक्ति की एक चिनगारी समझी जाती थी और दोनों का परस्पर सघन सम्बन्ध स्वीकार किया जाता था। अब व्यष्टि मस्तिष्क की एक चिनगारी और समष्टि मस्तिष्क की व्यापक अग्नि के समकक्ष माना गया है। व्यक्तिगत मस्तिष्क की अपनी सत्ता और क्षमता है किन्तु वह सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है वरन् वह समष्टि मस्तिष्क का एक अंग है जिसे इन दिनों वैज्ञानिक क्षेत्र में ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ नाम दिया गया है। व्यक्ति समाज का एक अविच्छिन्न अंग है। एकाकी रहने लगे तो भी वह समष्टि से पृथक होने का दावा नहीं कर सकता। उसे अब तक जो ज्ञान अनुभव, संस्कार, कौशल आदि मिला है—शरीर पोषण हुआ है।—वह सब समाज का ही अनुदान है। एकाकी निर्वाह में भी आखिर कुछ उपकरण तो साथ रखे ही गये हैं। माला, कमण्डल, कोपीन, कुल्हाड़ी जैसे साधनों के बिना तो गुफा में रहने वाले भी काम नहीं चला पाते। अग्नि का आविष्कार उस एकाकी व्यक्ति ने स्वयं नहीं किया है। इस प्रकार एकान्तवासी कहलाने वाले का भूत-कालीन और वर्तमान क्रिया कलाप समाज सम्बद्ध रहा। आगे भी अन्तरिक्ष में चलने वाली असंख्य व्यक्तियों की असंख्य विचार तरंगें अप्रत्यक्ष रूप से उसे प्रभावित करेगी और वह स्वयं दूसरों को अपनी मनः तरंगों से प्रभावित करेगा, यह भी सामाजिक आदान-प्रदान हुआ।

व्यक्ति का शरीर निर्वाह एवं विकास समाज पर आश्रित है और अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति मस्तिष्क स्वतन्त्र दीखने पर भी वह समष्टि मस्तिष्क का एक अंग है।

‘समूह मस्तिष्क’ के अस्तित्व और उसके ‘व्यक्ति मस्तिष्क’ के साथ आदान-प्रदान की बात अब दिन-दिन अधिक स्पष्ट होती और अधिक प्रमाणित बनती चली जा रही है। मनुष्य का अचेतन मन अत्यधिक अद्भुत और रहस्यमय होने की बात तथ्य रूप में स्वीकार करली गई है। चेतन मन की बुद्धि क्षमता उसकी तुलना में अति तुच्छ है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में मनुष्यों के छोड़े हुए विचार और उनके आदान-प्रदान की जानकारी भी ऐसी ही उथली और कम महत्व की समझी जाने लगी है और रहस्यमय उस प्रवाह को माना जाने लगा है जो समष्टि की अचेतन—चेतना से सम्बद्ध है।

मानवी चेतना मोटे तौर से शरीर निर्वाह एवं अहंता की तुष्टि तथा विस्मृति में संलग्न हलचल मात्र दृष्टिगोचर होती है। उसका प्रयोजन शरीर को सुखी तथा सक्रिय बनाये रहना भर प्रतीत होता है। लगता है शरीर मुख्य है और उसकी तृप्ति, पुष्टि, सुरक्षा एवं प्रगति के लिए सरंजाम जुटाने भर के लिए उसका सृजन एवं उदय हुआ है। आमतौर से ऐसा ही समझा जाता है। उपयोग भी इसी स्तर पर होता है। मस्तिष्क का शरीर सुख के लिए जितना अधिक उपयोग हो सके उतनी ही उसकी सफलता एवं सार्थकता मानी जाती है।

गहराई में उतरने पर बात कुछ दूसरी ही दृष्टिगोचर होती है। मस्तिष्क—चेतना के निवास का केन्द्रीय शक्ति संस्थान है। यहां ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीव चेतना का मिलन संगम होता है और उस आदान-प्रदान के आधार पर प्राणि जगत को अनेकानेक सुविधाएं एवं सम्वेदनाएं उपलब्ध होती हैं। यह मस्तिष्कीय केन्द्र इतना अधिक शक्तिशाली है कि उसके माध्यम से पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता का अनुभव एवं लाभ आश्चर्यजनक मात्रा में उपलब्ध किया जा सकता है।

हमें सामान्य जानकारियां इन्द्रिय शक्ति के आधार पर मिलती हैं। पर यदि प्रसुप्त अतीन्द्रिय शक्ति को जागृत किया जा सके तो व्यापक ब्रह्माण्ड सत्ता के साथ अपना सम्पर्क जुड़ सकता है और असीम से असीम स्थिति में पहुंचा जा सकता है।

इस विश्व में जड़ और चेतना की द्विधा अपने-अपने नियत प्रयोजनों में संलग्न है। उनका वैभव भी महासमुद्र की तरह है जिसके किनारे पर बैठ कर मनुष्य ने सीप और घोंघे ही ढूंढ़े हैं। प्रकृत परमाणुओं में और जीवाणु घटकों में जो सामर्थ्य तथा चेतना विद्यमान है उसका बहुत छोटा अंश ही जानना, हथियाना सम्भव हो सका है। सब कुछ पाना खींच-तान से—छीना झपटी से नहीं उसमें घुल जाने से ही सम्भव हो सकता है। समुद्र के साथ एकता स्थापित करनी हो तो घड़े को अपना जल समुद्र में मिला देना पड़ेगा तभी तुच्छता को सुविस्तृत स्थिति में अनुभव कर सकना सम्भव होगा।

योग साधना का प्रयोजन अपनी ससीमता को असीमता के साथ जोड़ देना है। इस प्रयोजन में जितनी ही सफलता मिलती जाती है उतनी ही मात्रा में मनुष्य उप वैभव सर आधिपत्य जमाता जाता है जिसके प्रभाव को हम जड़-चेतन जगत में अपने चारों ओर फैला हुआ देखते हैं। सीमाबद्ध स्थिति में हम तुच्छ और दरिद्र होते हैं, पर असीम के साथ जुड़ जाने पर महानता प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रह जाती। सम्पन्नता से—भरे पूरे भण्डार से हमारी भागीदारी जितनी अधिक होती है उतनी ही अपनी स्थिति भी विभूतिमयी बनती चली जाती है। सिद्ध पुरुषों में देखी गई विशिष्ट क्षमतायें और कुछ नहीं विराट् के साथ उनकी घनिष्ठता का आरम्भिक उपहार भर है। बढ़ी-चढ़ी स्थिति तो ऐसी बन जाती है जिसमें आत्मा और परमात्मा के बीच कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं रह जाता, दोनों समतुल्य ही दीखते हैं।
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