अणु में विभु-गागर में सागर

स्वरूप जितना महान आधार उतना ही सूक्ष्म

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कलकत्ते में एक ऐसा वट-वृक्ष (फाइकस बेंगालेन्सिज) पाया जाता है, जिसकी ऊपरी छतरी का व्यास 2000 गज से भी अधिक है। बरगद की डालियों से भी जड़ें (बरोहे) निकल-निकल कर पृथ्वी में धंस जाते और ऊपरी फैलाव को साधे रहते हैं। इस वट-वृक्ष में भी हजारों जड़ें निकल कर जमीन में धंस गई हैं, उससे वृक्ष की सुरक्षा, शक्ति और शोभा और भी अधिक बढ़ गई है। हजारों व्यक्ति, हजारों पक्षी उसकी छाया में आश्रय और आजीविका प्राप्त करते रहते हैं। वृक्ष का इतना भारी घेरा एक प्रकार का आश्चर्य ही है। उससे भी बढ़कर आश्चर्य यह है कि इतना विशाल वट-वृक्ष जिस बीज से उगा है, उसका व्यास एक सेन्टीमीटर से अधिक न रहा होगा। वनस्पति विज्ञान (वॉटनी) के जानने वालों को पता होगा कि वृक्ष का सम्पूर्ण विकास जिस धरातल पर होता है, उसे बीज कहते हैं। बीज में ही वह सारी सम्भावनायें छिपी पड़ी रहती हैं, जो आगे चलकर एक दीर्घाकार वृक्ष के रूप में दिखाई देने लगती हैं। बीज की बाह्य त्वचा (इपिडमिस) के भीतर अनेक परतें होती हैं, उन्हें वल्कुट (कार्टेम्स) हतली भित्तियों वाले कोषों (पैरेन्शाइटमस सेल्स) से बने होते हैं। बीज को आड़ा काटा जाय तो वह कोष गोल दिखाई देते हैं। वल्कुट की अन्तिम परत को अन्तस्त्वचा (इन्डोरमिस) कहते हैं।

इसके कोष (सेल्स) आयातकार (रेक्टैन्गुलर) होते हैं। उनकी आड़ी दीवालों पर एक विशेष प्रकार की मोटाई (थिकिन्ग्स) होती है। पतले भित्तियों वाले कोषों की एक परत अन्तस्त्वचा (इन्डोरमिस) के भीतर स्थित होती है, इसे परिरम्भ (पेरीसाइकिल) कहते हैं। जड़ की शाखायें इसी भाग से निकलती हैं। यहीं से कुछ कोष निकल कर बढ़ने के लिये स्थान बना लेते हैं और कोर्टेक्स को काटते हुए जड़ों के रूप में फूट पड़ते हैं। जिस क्रिया में संवहन अतक (कैरोइंग टिसूज) का काम जाइलम और फ्लोएम नाम के तत्व करते हैं। ये दोनों बीज के मज्जा (पिथ) को घेरे रहते हैं। किसी वृक्ष के बीज की यह मज्जा (पिथ) की प्रेरणा ही ऊपर तने और नीचे जड़ के रूप में फूटती हैं। जड़ के इस क्रियाशील भाग को सूक्ष्मदर्शी से देखें तो बिना बढ़े हुए वृक्ष का आकार-प्रकार दिखा दे जाता है। एक विलक्षण संसार उसमें दिखाई दे जाता है।

यह आश्चर्य ही है कि मज्जा (पिथ) का सर्वेक्षण करके यह बताया जा सकता है कि वृक्ष की जड़ें इतनी होंगी, इतनी मोटाई लेकर इस गहराई में अमुक-अमुक दिशा को बढ़ेंगी इसी प्रकार तना कितना मोटा, कितनी शाखों वाला किधर को मुड़ा, डालियों और कितने पत्तों वाला होगा। इस सबका पूर्णाभास इस हिस्से के सूक्ष्म दर्शन द्वारा किया जा सकता है। प्रश्न उन पर्तों और कोषों का नहीं, जो विकास की चेष्टायें करती हैं। सूझने वाली बात वह अन्तर्चेतना है, जो आत्म-प्रेरणा से विकसित होती और अपने आपको बढ़ा कर एक भरे-पूरे वृक्ष के रूप में परिणत कर देती है। एक पूरे वृक्ष का नक्शा एक बीज में भरा है, यह पढ़कर लोग आश्चर्य ही करेंगे। इतना विशाल वट वृक्ष जिस बीज से अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और बड़ा हुआ वह आधे सेन्टीमीटर व्यास से भी छोटा घटक रहा होगा। उस बीज को चेतना ने जब विस्तार करना प्रारम्भ किया तो तना, तने से डालें, डालों से पत्ते, फल, फूल, जड़ें आदि बढ़ते चले गये। मनुष्य-शरीर की प्रवृत्ति और विकास-प्रक्रिया भी ठीक ऐसी ही है। वीर्य के एक छोटे-से-छोटे कोश (स्पर्म) को स्त्री के प्रजनन कोष ने धारण किया था। पीछे यही कोष जिसमें मनुष्य स्त्री या पुरुष के शरीर की सारी सम्भावनायें—आकृति-प्रकृति, रंग-रूप ऊंचाई, नाक नक्शा आदि सब कुछ विद्यमान था—उसने जब बढ़ना प्रारम्भ किया तो यह अन्तरिक्ष की अनन्त शक्तियों को खींच-खींचकर शरीर रूप में विकसित होता चला गया। एक सेन्टीमीटर स्थान में कई अरब कोष आ सकते थे, जो उसी सूक्ष्मतम कोष से 5 फुट 6 इंच का मोटा शरीर दिखाई देने लगता है। गर्भ के भीतर तक तो यह लघुता याद रहती है, किन्तु बाहर हवा लगते ही जीवन का मूलभूत आधार भूल जाता है और मनुष्य अपने आप को स्थूल पदार्थों का पिण्ड मात्र मानकर मनुष्य जीवन जैसी बहुमूल्य ईश्वरीय विरासत को गंवा बैठता है। हम यदि छोटे-से छोटे अणु में भी जीवन की अनुभूति कर सके होते, तो जन-चेतना के प्रति हमारा दृष्टिकोण आज की अपेक्षा कुछ भिन्न ही होता।

भारतीय आचार्यों ने इस गहराई को अनुभव किया था, इसलिये उनका अधिकांश समय, ध्यान, धारणा, जप, तप, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि साधनाओं में लगा था। उन्होंने प्रकाश के एक परमाणु में अपनी चेतना स्थिर कर संसार के रहस्यों को उसी तरह करतल गत किया था, जिस प्रकार मज्जा (पिथ) में ध्यान जमाने से वृक्ष की भूत-भविष्य की कल्पनायें साकार हो उठती हैं। शरीर जिन कोषों से बनता है, उसमें चेतन परमाणु ही नहीं होते, वरन् दृश्य-जगत् में दिखाई देने वाली प्रकृति का भी उसमें विकास होता है।

इससे मनुष्य-शरीर की क्षमता और मूल्य और भी बढ़ गया है। द्रव, गैस और ठोस- जल, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन-कार्बन, सिल्वर, सोना, लोहा, फास्फोरस आदि—जो कुछ भी पृथ्वी में है और जो कुछ पृथ्वी में नहीं है। अन्य ग्रह नक्षत्रों में है, वह सब भी—स्थूल और सूक्ष्म रूप से शरीर में है। जिस तरह वृक्ष में कहीं तने, कहीं पत्ते कहीं फल एक व्यापक विस्तार था, शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार विभिन्न लोक और लोकों की शक्तियां विद्यमान देखकर ही शास्त्रकार ने कहा था—‘‘यत्ब्रह्मांडे तत्पिंडे’’ ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण शक्तियां मनुष्य शरीर में विद्यमान हैं। सूर्य, चन्द्रमा, बुध, बृहस्पति, उत्तरायण, दक्षिणायन मार्ग, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण यह सब शरीर में हैं। यजुर्वेद का कथन है— शीर्ष्णो द्यौः समावर्ततः यस्य वातः प्राणाप्राणौ, नाभ्याऽसीदन्तरिक्षं दिशः श्रोत्रं पद्भयां भूमिः अर्थात् द्यौ शिर, वायु ही प्राण, अन्तरिक्ष नाभि, दिशा कान और भूमि पैर हैं—इस तरह यह विराट् जगत् मेरे भीतर समाया हुआ है। ईसाई धर्म की पुस्तक बाइबल की व्याख्या करते हुए पैरासेल्सस लिखते हैं कि—‘‘मनुष्य-शरीर को इच्छाओं का सजा हुआ वाद्ययन्त्र कहना चाहिए, जिसमें कि आत्मा की झंकार सबसे मधुर सुनाई देती है। इच्छायें आकाश में स्थिर नक्षत्रों (देव-शक्तियों) के बीज-कोष ही हैं। यह बीज शरीर के कुछ महत्वपूर्ण स्थानों में रहते हैं। उनकी आणविक संरचना और उन नक्षत्रों की आणविक संरचना में विलक्षण साम्य होता है।’’

पैरासेल्सस आगे लिखते हैं—‘‘शरीर की रचना (नक्षत्र गति) के संरक्षण और निर्देशन में होती है। उत्पत्ति के तीसरे दिन चन्द्रमा ने बुद्धि और तुला ने व्यक्तित्व को प्रभावित किया। शरीर में तन्मात्रायें दूसरे दिन ही आ गई थीं, जिनकी उत्पत्ति सूर्य-शक्ति से हुई। हृदय पर लियो (चन्द्रमा) का अधिकार होता है और वह आत्मिक शान्ति और सौम्यता प्रदान करता है। शरीर के दूसरे सूक्ष्म अंगों को सेजीटेरियस, इगो प्रभावित करते हैं।’’ मनुष्य शरीर में विद्यमान यही चेतना-कोष ही जीवन की गतिविधियों का निर्माण करते हैं। इस तरह बाइबिल और बाइबिल के पण्डित भी इस तथ्य से परिचित थे कि शरीर का स्थूल भाग जहां पार्थिव अणुओं से बना है वहां उसकी चेतना का विस्तृत ढांचा ब्रह्मांड की शक्तियों और नक्षत्रों से बना है उसका स्वरूप चाहे कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। योग ग्रन्थों में वर्णित चमत्कार शरीर की इन सूक्ष्म और अलौकिक शक्तियों का विकास मात्र है। सब कुछ हमारे शरीर में हैं, यदि हम उसे खोजने का प्रयत्न करें तो बाह्य सम्पदायें न होने पर भी अतुल शक्तियों के स्वामी बन सकते हैं। बहुमुखी शक्तियों के स्रोत हमारे भीतर भरे पड़े हैं, उनका विकास जीवन की अनेक धाराओं में कलकत्ते के वट-वृक्ष की भांति किया जा सकता है उससे अपना ही नहीं हजारों औरों को भी आश्रय, संरक्षण और जीवन प्रदान किया जा सकता है। योग ग्रन्थों में वर्णित चमत्कार शरीर की उन सूक्ष्म और अलौकिक शक्तियों का विकास मात्र है। सब कुछ हमारे शरीर के भीतर ही है, यह बात और है कि वह हमें दिखाई नहीं देता है। संसार के बहुत से पदार्थ और विशेषतायें नहीं दिखाई देतीं बहुत से ही नहीं अधिकांश—तत्व अदृष्ट ही रहते हैं। केवल वही पदार्थ दिखाई पड़ते हैं जो स्थूल होते हैं, उनके भीतर काम करने वाली सत्ता जो सूक्ष्म में सन्निहित है न तो आंख से दिखाई देती है और न प्रत्यक्ष उपकरणों से ही समझ में आती है। जो सशक्त है वह सूक्ष्म है जो सशक्त है वह सूक्ष्म है, स्थूल तो उसका आवरण है। काया को हम देख पाते हैं और मनुष्य को उसके कलेवर के रूप में ही पहचानते हैं, पर असली चेतना तो प्राण है जो न तो दिखाई पड़ता है और न उसका स्तर सहज ही समझ में आता है।

जो सूक्ष्म है वही शक्ति का स्रोत है, उसे समझने और उपभोग करने के लिये अधिक गम्भीर और वेधन दृष्टि चाहिए। उसका उपयोग करने तथा उससे लाभान्वित होने के लिये तो और भी अधिक पैनी दृष्टि चाहिए। छोटे से बीज में वृक्ष का विशालकाय कलेवर छिपा रहता है, एक शुक्राणु में मनुष्य का सारा ढांचा पूरी तरह सन्निहित है, अणु की नगण्य सत्ता में एक पूरे और मण्डल की प्रक्रिया पूरी तरह विद्यमान है। यह सब जानते हुए भी हम ‘सूक्ष्मता की शक्ति’ से एक प्रकार अपरिचित बने हुए हैं। चिकित्सा पद्धतियों में से सूक्ष्मता पर अवलम्बित एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया होम्योपैथी की है। उसमें विष को विष से मारने की—कांटे से कांटे निकालने की—शठेंशाठ्यां समाचरेत् की नीति को मान्यता दी गई है, साथ ही यह भी प्रतिपादन किया गया है वस्तु के स्थूल कलेवर में जितनी सामर्थ्य है उसकी अपेक्षा उसके अन्तराल में सन्निहित सूक्ष्म शक्ति की गरिमा अत्यधिक है। चिकित्सा में काम आने वाली औषधियों के बारे में भी यही बात है, उन्हें मोटे रूप में सेवन किया जाय तो स्वल्प गुण दिखावेंगी किन्तु यदि उन्हें अति सूक्ष्म बनाकर सेवन किया जाय तो उसी पदार्थ की सामर्थ्य अनेक गुनी बढ़ जायेगी और अपना चमत्कारी प्रभाव प्रस्तुत करेगी। होम्योपैथी को एक प्रकार से सूक्ष्मता की शक्ति का प्रतिपादन ही कहना चाहिए। अर्गेनन सूत्र 269, 270 में होम्योपैथी चिकित्सा के आविष्कारक डा. हैनीमैन ने बताया है कि होम्योपैथी औषधियों के निर्माण का सिद्धान्त यह है कि उनके अन्दर जो अदृश्य सूक्ष्म महाशक्ति है उसे जगाया जाये ताकि वह अदृश्य रोग शक्ति से ग्रसित जीवनी शक्ति (वायटैलिटी) को रोग मुक्ति करने में सहायक हो सके। पदार्थों के अन्दर यह जो अदृश्य सूक्ष्म शक्ति है वह उसकी चेतना और संस्कार हैं हम नहीं जानते पर यह सत्य है कि आज का रोग हमारे कल के मानसिक विकार का ही परिणाम होता है रोग को औषधियां तब तक ठीक नहीं कर सकतीं जब तक उन विकारों को नष्ट न किया जाये।

औषधियां तेजी से तात्कालिक आराम पहुंचा सकती है पर उनके स्थूल गुण स्थूल रोग को ही दबा सकते हैं। दबे हुये दोष फिर नये रोगों के रूप में फूट पड़ते हैं और जब तक रोग शारीरिक कष्ट के रूप में उभर कर न आयें तब तक मनुष्य के मन में अशान्ति उत्पन्न किया करते हैं। होम्योपैथी के डाक्टरों के विभिन्न पदार्थों के गुणों का विभिन्न देश, जाति, वर्ण और आयु के लोगों ने प्रयोग किया और उनके गुणों का अध्ययन कर उन्हें औषधि के रूप में प्रस्तुत किया यह एक जटिल प्रणाली है तो भी उन औषधियों के निर्माण की जो विधि और प्रभाव हैं उससे सूक्ष्म संस्कारों की महत्ता ही प्रतिपादित होती है। ‘‘ओरम मिटैलिकम’’ एनाकार्डियम प्लैटिना, इग्नोशिया आदि औषधियां कई तरह के मानसिक लक्षण भेद का प्रतीक हैं उसकी सूक्ष्म और नाभिकीय शक्तियों को जागृत करने के लिये होम्योपैथी औषधि निर्माताओं को दीर्घ कालीन परिश्रम करना पड़ता है। उदाहरण के लिये ‘‘औरम मिटैलिकम’’ बनाते समय सोने के एक टुकड़ा का अच्छी तरह खरल करके बहुत बारीक चूर्ण बना लेते हैं। चूर्ण बनाते समय उसमें दूध और शक्कर मिलाकर उसकी अच्छी तरह घोटाई की जाती है। उस विचूर्णित स्वर्ण की एक रत्ती मात्रा को 400 बूंद परिश्रम जल (डिस्टिल्ड वाटर) तथा 100 बूंदें रेक्टीमाइड अल्कोहल के साथ डालकर मिला लेते हैं यह एक शक्ति ‘‘पोटैंसी’’ की औषधि हुई। तीनों वस्तुओं के घोल में 1 रत्ती सोना था अब उस पूरे घोल का कुल 1 बूंद लिया उसमें स्वर्ग की मात्रा 1 रत्ती के सौगुने से भी कम होगी उस एक बूंद में 100 बूंद अल्कोहल मिलाकर फिर हिलाते हैं।

यह 2 शक्ति पोटैंसी की औषधि हुई। इसमें से एक बूंद औषधि 100 बूंद अल्कोहल लेकर फिर मिलाया यह तीन पोटैंसी हुई। इसी प्रकार औषधि की सूक्ष्म शक्ति को कई लाख पोटैंसी तक ले जाते हैं और जब वह औषधि किसी रोगी व्यक्ति को दी जाती है तो उसमें तीव्र हलचल उत्पन्न कर देती है। पिछले दोषों को उभार देती है जैसे जैसे रोग के लक्षण उभरते रहते हैं तब तक अनुभूत औषधियां दी जाती रहती हैं। समय तो लगता है पर उससे जीवनी शक्ति पर लगे जन्म-जन्मान्तरों के दोषों का शमन हो जाता है ऐसा हर होम्योपैथी चिकित्सक का विश्वास है। यह चिकित्सा पद्धति हमारा ध्यान पदार्थों की सूक्ष्म सत्ता के अस्तित्व और उसकी महान् महत्ता की ओर खींचती है यदि पदार्थों और जीवनी शक्ति के सूक्ष्म अस्तित्व की बात का ज्ञान हो जाये तो मनुष्य न केवल अपने शरीर बल्कि अपने जीवन और अपनी आत्मा का भी उद्धार कर सकता है। डा. हैनीमेन की तरह ही पदार्थों की सूक्ष्मशक्तियों के आधार पर डा. शुकालर ने भी वायोकैमी के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए अपनी चिकित्सा पद्धतियों का विवेचन किया तो उनका मजाक उड़ाया गया और विरोध किया गया। भला बाल की नोंक से भी बहुत कम मात्रा में दी गई औषधि भी किसी पर कुछ असर कर सकती है? उतने भर से क्या किसी के कठिन रोग का निवारण हो सकता है? एक दिन कार्लवोन नागेली के हाथ से एक लीटर भाप से उड़ाये हुए एक लीटर पानी में तांबे के संयोगवश चार पैसे गिर गये। उस पानी को ऐसे ही उसने अपने बगीचे के स्पाइरोगिर पौधों में डाल दिया। आश्चर्य यह कि वे पौधे कुछ ही मिनटों में मर गये। आखिर पानी में ऐसा क्या विष मिल गया जो इतनी जल्दी इतने पौधे समाप्त हो गये। देखा तो उसमें चार तांबे के पैसे जरूर पड़े थे।

पर इससे क्या, पैसों में तो कोई विष नहीं होता फिर इतने सारे पानी में इतने कम तांबे का ऐसा क्या असर होता है—फिर तांबा कोई विष भी तो नहीं है। जो हो, इस सन्दर्भ में अधिक शोध करना आवश्यक समझा गया। प्रयोगों और विश्लेषणों से यह पाया गया कि अधिक और स्थूल मात्रा की अपेक्षा स्वल्प और सूक्ष्म मात्रा की शक्ति कम नहीं होती वरन् प्रकारांतर से वह और भी अधिक बढ़ जाती है। डा. शुकालर अपनी ‘टिशू केमिडीज’ चिकित्सा पद्धति के द्वारा यही प्रतिपादन करते रहे कि मात्रा की सूक्ष्मता में शक्ति की गुणन प्रक्रिया चलती है। फलस्वरूप अधिक शक्ति के लिये अधिक सूक्ष्मीकरण की बात सही ठहरती है। रसारयन शास्त्री लीविंग ने यह सिद्ध किया कि रुग्ण शरीर के तन्तुओं का घनत्व इतना बढ़ जाता है कि उनमें औषधियों का अन्तः प्रवेश कठिनाई से ही हो पाता है। पर यदि अजैव लवणों को उनके प्राकृत रूप में उपयोग किया जाय तो उनकी वेधकता तन्तुओं को प्रभावित कर सकती है। अणुओं के अलग-अलग होने की स्थिति में—अधिक सूक्ष्म होने की स्थिति में वे इस योग्य रहते हैं कि सघनता का वेधन करके प्रभावशाली परिणाम प्रस्तुत कर सकें। शरीर में जिस अनुपात में जो वस्तु है उससे न्यून अनुपात का पदार्थ यदि सेवन किया जायगा तो उसी शरीर में प्रवेश करने का अवसर मिल जायगा। किन्तु यदि उसका गाढ़ापन अथवा घनत्व अधिक होगा तो शोषक छिद्र उसे आत्मसात् करने में असमर्थ रहेंगे। दूध के एक क्वार्ट में एक ग्रेन का छह लाखवां भाग ही लौह होता है। बच्चे आधा पाइन्ट दूध पीकर आवश्यक मात्रा में लौह प्राप्त कर लेते हैं। शरीर में क्लोरीन की मात्रा लोहे से भी कम है यदि क्लोरीन या लोहे की स्थूल मात्रा दी जाय तो वह कितने ही कम होने पर भी शरीर के अनुपात से कहीं अधिक होगी और उसका दबाव बुरा प्रभाव उत्पन्न करेगा।

संसार भर में रेडियम धातु कठिनाई से 4-5 ओंस होगी, पर उतने से ही संसार भर के चिकित्सा तथा दूसरे प्रयोजन पूरे किये जाने की योजनाएं बन रही हैं। रेडियम से निरन्तर निकलने वाला विकरण अन्ततः समाप्त होगा ही, पर इसमें अब से 25 हजार वर्ष लगेंगे तब कहीं वह शीशे के रूप में ठण्डा हो पायेगा। यही बात धरती पर पाये जाने वाले यूरेनियम के सम्बन्ध में है। उससे भी विकरण निकलता है। समाप्त तो उसे भी होना है, वह भी ठण्डा होकर शीशा ही बन जायगा, पर इसमें आठ अरब वर्ष लगेंगे। सूक्ष्मता की क्षमता ओर अवधि कितनी व्यापक और दीर्घकालीन हो सकती है, इसका अनुमान रेडियम और यूरेनियम धातुओं के क्रिया-कलाप को देखकर लगाया जा सकता है। परमाणु ऊर्जा की प्रतिक्रिया पर वकेरेल, रथरफोर्ड, सौरी, क्यूरी आदि अनेकों मूधर्न्य वैज्ञानिक प्रकाश डाल चुके हैं और कहते रहे हैं—अणु शक्ति मूल इकाई नहीं है वह जिनके संयोग से बनती है वे एल्फा, वीटा और गामा किरणें ही वस्तुतः शक्ति के मूलभूत उद्गम हैं। अणु संचालन अपने आप में स्थूल भी है और परावलम्बी भी उसका उद्गम केन्द्र इस तीन किरणों में है। यदि उन पर नियन्त्रण किया जा सके तो अणु शक्ति से असंख्य गुनी शक्ति करतल गत की जा सकती है। हमारी स्थूल बुद्धि केवल दृश्यमान स्थूल पदार्थों को ही देख पाती है और उनका मोटा मूल्यांकन करके मोटा उपयोग ही समझ पाती है फलतः सम्बन्धित व्यक्तियों एवं पदार्थों से हम बहुत मोटा सा ही लाभ ले पाते हैं। कदाचित उनकी सूक्ष्म शक्ति को समझें और उनसे निःसृत होने वाली चेतना एवं प्रेरणा को समझें तो हर प्राणी और हर पदार्थ हूं इतना अधिक अनुदान दे सकता है कि सिद्धियों और विभूतियों की किसी प्रकार कमी न रहे। वैभव गरिमा का आधार किसी का वैभव बड़प्पन देखकर उसकी गरिमा का मूल्यांकन करना अवास्तविक है।

 गरिमा उत्कृष्टता में छिपी रहती है क्योंकि सशक्तता उसी के साथ जुड़ी रहती है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने पर भौतिकता का कलेवर नहीं रहता, पर इससे शक्ति में कोई कमी नहीं आती वरन् वह आवरण का भार हलका हो जाने पर और भी अधिक क्षमता सम्पन्न बनती जाती है। अध्यात्म सूक्ष्मता का विज्ञान है। उसमें पदार्थ के विस्तार की नहीं गुणों की तेजस्विता को महत्व दिया गया है। आन्तरिक उत्कृष्टतायें आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होतीं तो भी उनका प्रभाव कितना अधिक होता है इसे सहज ही जाना जा सकता है। विचारवान इसीलिए विस्तार की अपेक्षा सूक्ष्मताजन्य प्रखरता को ही महत्व देते हैं। ‘‘अधिकस्य अधिकं फलम्’’ की उक्ति बहुत मोटी बातों में ही सही सिद्ध होती है। सूक्ष्म प्रयोजनों में स्वल्प का ही महत्व बढ़ता जाता है। दृश्य जगत क्या है? पदार्थों का समुच्चय। पदार्थ क्या हैं, यौगिकों, तत्वों और परमाणुओं का समन्वय। परमाणु क्या हैं—विद्युत बिन्दुओं का संगठन। इन विद्युत बिन्दुओं इलेक्ट्रान प्रोटानों की भी गहराई अभी खोजी जा रही है। दृश्य जगत वस्तुतः उन विद्युत बिन्दुओं से आरम्भ होता है जो कहने-सुनने में सरल किन्तु देखने—अनुभव करने में अत्यन्त छोटे कलेवर के कारण अति कठिन हैं।

हमारे शरीर के जीवाणु बहुत ही छोटे हैं। उनकी शोषण शक्ति भी उनके कलेवर के अनुरूप ही स्वल्प है। उनमें प्रवेश कर सकने वाले पदार्थ इतने छोटे होने चाहिए जो इन शरीरगत जीवाणुओं, कोशाओं के भवन में आसानी से प्रवेश पा सकें। आहार में प्राकृतिक रूप से हर जीवनोपयोगी पदार्थ बहुत ही छोटे अंशों में विद्यमान रहता है इसलिये वे पचकर शरीर में घुलमिल जाते हैं। पर यदि उन्हें सघन रूप से लिया जाय तो उनके मोटे कण चूर्ण-विचूर्ण होने में बहुत समय और श्रम लेंगे और तब कहीं कठिनाई से थोड़ी मात्रा में हजम होंगे। यही कारण है कि शाक-भाजी, अन्न, दूध में अत्यन्त स्वल्प मात्रा में मिले हुए क्षार और खनिज हमारे शरीर में घुल जाते हैं किन्तु उन्हीं पदार्थों को यदि गोलियों के रूप में खाया जाय तो उनका बहुत छोटा अंश ही शरीर को मिलेगा बाकी स्थूल होने के कारण बिना पचे ही मल मार्ग से निकल जायगा। हाइड्रोजन परमाणु का एक इलेक्ट्रोन अपने केन्द्र के चारों ओर एक सैकिण्ड में 6000 खरब चक्कर काटता है। परमाणु की रचना सौरमण्डल के सदृश है उनके भीतर विद्युत कण भयंकर गति से घूमते हैं फिर भी उसके पेट में बड़ा सा आकाश भरा रहता है। परमाणुओं के गर्भ में चल रही भ्रमण शीलता के कारण ही इस संसार में विभिन्न हलचलें हो रही हैं। यदि वे सब रुक जायं तो आधा इंच धातु का वजन तीस लाख टन हो जायगा और सर्वत्र अकल्पनीय भार भरी जड़ता दिखाई पड़ेगी। वजन की दृष्टि से कौन वस्तु भारी और कौन हलकी है, इस आधार पर उसकी गरिमा का मूल्यांकन नहीं हो सकता। चट्टान बहुत भारी है किन्तु उसका मूल्य हीरे के एक छोटे से टुकड़े की बराबर नहीं होता।

सबसे हलका हाइड्रोजन अणु—अन्य भारी समझे जाने वाले अणुओं की तुलना में कम नहीं अधिक ही महत्व प्राप्त कर रहा है। बड़े पदार्थ अणुओं का एक विशाल रूप होता है इसमें कलेवर भर का विस्तार होता है प्रत्येक कण को अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और प्रभाव प्रकट करने का अवसर नहीं मिलता। वे यदि अलग-अलग होकर अपनी मूल सत्ता को प्रकट कर सकने की स्थिति में होते हैं तो आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार नमक का एक करोड़वां भाग भी अपना आश्चर्यजनक काम करता है। आहार और चिकित्सा में सूक्ष्मता को महत्व मिलना चाहिये। इस तथ्य पर विज्ञानवेत्ता बहुत समय से प्रकाश डाल रहे हैं। सूक्ष्मता के विशेष शोधकर्त्ता डच विज्ञानी प्रो. डांडर ने एक बार डार्विन को लिखा था—एट्रोपिन की एक ग्रेन का लाखवां हिस्सा भी आंखों पर प्रभाव डालता है। इस प्रकार का डार्विन ने स्वयं का अपना अनुभव प्रो. डांडर को लिखा था—अमोनिया की 1 ग्रेन का एक करोड़ चालीस लाखवां हिस्सा शरीर की ग्रंथियों द्वारा ग्रहण करने पर आंत्र वाहक स्नायुओं में तेज झटका मारते हुए उन्होंने देखा है। एक पाव दूध में एक ग्रेन का छह लाखवां अंश जितना स्वल्प लोहा होता है। पर इतने से ही बच्चे के शरीर की लौह आवश्यकता पूरी हो जाती है।

यदि इसी लोहे को गाली या सुई के रूप में दें तो उससे वैसा पोषण प्राप्त न हो सकेगा। शरीर में फ्लोरीन तो लोहे से भी कम है। उसकी आवश्यकता पूरी करने के लिए आहार या औषधि में उसी स्वल्प अनुपात से विरल अणुओं के रूप में वह तत्व होना चाहिये तभी कोशाओं की वह आवश्यकता पूरी हो सकेगी। लोहा या फ्लोरीन बड़ी मात्रा में देकर शरीर का हित नहीं अहित ही किया जा सकता है। वह बड़ी मात्रा में हजम न होकर अनावश्यक भार डालने के बाद मल द्वारों से बाहर निकल जायगी। पानी में हजारवें भाग के रूप में घुला दालों का ग्लटिन हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड आसानी से पच जाता है, पर जब वही अधिक मात्रा में होता है तो निरर्थक चला जाता है।

बात को और भी अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिये यह स्मरण करना चाहिये कि एक क्यूविक इंच के 12000000 वां भाग आकार का एक लाल रक्ताणु होता है। एक बूंद खून में इस तरह के प्रायः तीन लाख अणु होते हैं, वे ही खनिजों, क्षारों तथा अन्य रसायनों को अपने ऊपर लादे सारे शरीर में ढोते फिरते हैं। इन पर कितनी हलकी और विरल वस्तु लद सकती है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है और खाद्य-पदार्थों में सूक्ष्मता के सिद्धान्त की उपयोगिता समझी जा सकती है। मनुष्य की स्वयं की पूर्ण सत्ता बीज रूप में कितनी छोटी होती है यह जानने के लिये हमें शुक्राणु के आकार पर विचार करना होगा। गर्भाधान के समय उसका आकार एक क्यूविक मिलीमीटर का दस लाखवां भाग मात्र होता है। उसी के भीतर शारीरिक और मानसिक दृष्टि से एक पूर्ण मानव उकड़ू-मुकड़ू बनकर बैठा रहता है। इस सारी दुनिया में प्रायः 5 ओंस रेडियम होने का अनुमान लगाया गया है; पर इतने से ही उसकी महत्वपूर्ण आवश्यकता अगले 25 हजार वर्ष तक मजे से पूरी होती रहेगी। मोटी बुद्धि विस्तार को देखकर ही प्रभावित होती है। उसे यह पता नहीं होता कि काया की विशालता का कोई मूल्य नहीं जीवन तो नापतौल में न आ सकने वाली अकिंचन सी चेतना का है। वह चेतना ही इतने बड़े शरीर यन्त्र के अगणित कलपुर्जों का संचालन करती है और जब वह शिथिल पड़ जाती है तो शरीर लड़खड़ा जाता है और विलग हो जाने पर वही शरीर तत्काल सड़-गलकर नष्ट होने लग जाता है। प्रकाश रश्मियों की लम्बाई एक इन्च के सोलह से तीस लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुने जाने वाली ध्वनि तरंगों की गति एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की होती है, वे एक सैकिण्ड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं।

शब्द और प्रकाश की तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि उन्हें बिना सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता के हमारी इन्द्रियां अनुभव नहीं कर सकती हैं। इस सूक्ष्मता की चरमसीमा तक पहुंचते हैं तो उपनिषद्कार की भाषा में हम विद्युत ब्रह्म की सीमायें छूने लगते हैं। परमाणु सत्ता के अन्तर्गत काम करने वाले विद्युत बिन्दुओं की ओर ही यह संकेत है। वृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि 5।7।1 में कहता है—‘‘विद्युद्धयेव ब्रह्म’’ यह विद्युत ब्रह्म है। चर्म-चक्षुओं से दीख पड़ने वाले वैभव विस्तार का मूल्य बढ़ा-चढ़ाकर मानने की स्थूल बुद्धि प्रायः धोखा खाती है। गहराई से तलाश करने से पता चलता है कि महत्व विस्तार का नहीं उसमें सन्निहित सूक्ष्म क्षमता का है। मनुष्य के धन, बल, पद, ज्ञान आदि के आधार पर नहीं, उसकी आन्तरिक स्थिति को देखकर ही यह समझा जा सकता है कि वह कितना समर्थ और कितना मूल्यवान है।
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