अणु में विभु-गागर में सागर

अति विलक्षण चेतना अर्थात् सूक्ष्म की सत्ता

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जीवन की सूक्ष्मतम सत्ता बड़ी विलक्षण और रहस्यपूर्ण है, अब तक ऐसी सूक्ष्म जीवन की इकाई का पता नहीं लगाया जा सका, जो अन्तिम (एब्सोल्यूट) और शाश्वत (इम्पाशिअल) हो। किन्तु उसका पता लगाते-लगाते वैज्ञानिकों ने जिन सूक्ष्मताओं का पता लगा लिया है, वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं हैं।

वैज्ञानिकों के संसार में जीवन की जिन सूक्ष्मतम इकाइयों का पता चल पाया है, उनमें से ‘डायटम’ सबसे छोटा होता है। किन्तु इसमें भ्रमात्मक प्रक्रिया है। ‘डायटम’ को कुछ वैज्ञज्ञनिक जीवाणु मानते हैं, कुछ उसे वनस्पति जगत् का सबसे छोटा कोश (सेल) मानते हैं। इसके बाद सबसे सूक्ष्म इकाई विषाणु (वायरस) है, यह इतना छोटा होता है कि अब तक खोजे गये, लगभग 300 वायरसों में से पोलिये वायरस के 1000000000000000000 कण केवल एक छोटी-सी पिंगपौंग की गेंद में आ जायेंगे। विषाणु इतने सक्रिय होते हैं कि 1918 में आये इन्फ्लूएन्जा में उसने थोड़े ही दिनों में दो करोड़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को मृत्यु के द्वार पर पहुंचा दिया। सूक्ष्मतम की प्रबलतम शक्ति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है। कदाचित हमने भी अपने आपको बड़ा प्रदर्शित करने की भूल न की होती ओर इतने लघु होते गये होते कि संसार की सबसे छोटी इकाई में आत्मसात हो गये होते तो हमारी भी शक्ति ऐसी ही होती। उससे लाखों लोगों का हित कर सकने की स्थिति में होते।

वैज्ञानिक विषाणु (वायरस) को निर्जीव कण मानते हैं, इसकी सक्रियता तो तभी देखने में आती है, जब वह किसी प्राणी के शरीर में कोशिका (सेल) के सम्पर्क में आता है। जड़ हो अथवा चेतन यह वैज्ञानिक जानें पर इतना निश्चित है कि प्रकृति या परमेश्वर को समझने के लिये बाह्य उपकरण काम नहीं दे सकते। उनकी स्पष्अ और सही जानकारी तभी सम्भव है, जब हम उन्हें अपनी मानसिक चेतना-ज्ञान या अनुभूति की अत्यन्त सूक्ष्म इकाई से तोलें। अभी तो वैज्ञानिकों को सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों की सहायता मिल रही है पर सम्भव है आगे चलकर उन्हें भी ‘ध्यान प्रणाली’ अपनानी पड़े। प्रकृति के सूक्ष्मतम सत्यों का पता वस्तुतः चेतना की सूक्ष्म अवस्था तक पहुंचकर ही चल सकता है।

जीवन की सूक्ष्मतम इकाई को अभी जीवाणु कहते हैं। जीवाणु (बैक्टीरिया) इतने छोटे होते हैं कि एक इन्च की लाइन में उन्हें क्रमवार बैठाया जाये तो उनकी संख्या कोई 30000 बड़े आराम से बैठ जायेगी बाल की चौड़ाई में ‘काकस’ नाम के जीवाणु 75 की संख्या से मजे से बैठ सकते हैं, इतनी सूक्ष्म अवस्था में जीवन का होना भारतीय तत्व-दर्शन के ‘अणोरणीयान महतो महीयानात्मा’ यह आत्मा अणु से भी छोटी और विराट् से भी विराट् है, सिद्धान्त की ही पुष्टि करता है। आत्मा का अर्थ यहां भी जीव-चेतना के उस स्वरूप से है, जो अगणितीय (नानमैथेमैटिकल) सिद्धान्तों पर खाता-पीता, पहनता, उठता-चलता, बातें करता, बोलता, हंसता, चिल्लाता, प्रेम-करुणा, दया आदि की अभिव्यक्ति करता पाया जाता है। शरीर से चाहे वह मनुष्य हो या पशु-पक्षी। जिसमें जीव-चेतना के लक्षण हैं, सब आत्मा हैं। विविध रूपों में होते हुये भी विश्वात्मा एक ही है, यह अनुभूति हम चेतना की अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था तक पहुंचकर ही कर सकते हैं।

जीवात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुये न्यायदर्शन में लिखा है—
इच्छाद्वेष प्रयत्न सुख दुःख ज्ञानान्यामात्मनो लिङ्गानि ।

—न्याय-दर्शन 1। 1। 8

अर्थात्—जिसमें भी इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, ज्ञान और प्रयत्न आदि गुण हैं, वह सब जीवात्मा हैं।

जीवात्मा अपने ज्ञान और प्रयत्न के द्वारा कर्म करता है और यह कर्म ही उसे विभिन्न योनियों में भ्रमण कराते हैं। जब तक वह अपने शुद्ध तेजस् स्वरूप को जान नहीं लेता और उसी में लय नहीं हो जाता, तब तक वह जीव भाव में बना सांसारिक दुःख-सुख भोगता रहता है, किन्तु जब वह शुद्ध चैतन्य की प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता है तब वह बार-बार अनेक तरह के शरीर धारण करने की चिन्ता से भी मुक्त हो जाता है।

यह बात जीवाणु के परिचय से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। जीवाणु सबसे छोटे जीवों को कहते हैं, उनकी शारीरिक बनावट मनुष्य से बिलकुल भिन्न होती है। एक नाभिक और उसके किनारे-किनारे प्रोटोन झिल्ली। प्रत्येक किस्म के जीवाणु की प्रोटोन झिल्ली में अपनी तरह के तत्व होते हैं, वह जीवाणु की प्रकृति और उसके स्वभाव पर निर्भर है। अर्थात् आत्मा के अच्छे बुरे गुण ही सब जगह साथ रहते हैं।

जीवाणु कितना खाते हैं, इसका कोई अनुमान भी नहीं कर सकता। पेटू और आलसी आदमी जिस प्रकार केवल खाने और बच्चे पैदा करने में निपुण होते हैं, ज्ञान, विद्या, विवेक सफलता और नई नई तरह की शोध करने की योग्यतायें उनमें विकसित नहीं हो पातीं, उसी तरह जीवाणु भी केवल खाते-पीते और बच्चे पैदा करते रहते हैं। जीवाणु एक घण्टे में अपने भार से दो गुना अधिक खा डालता है। जब तक भोजन मिलता रहता है, वह खाता ही रहता है। गंधक, लोहा, अण्डे, खून, सड़े-गले पत्ते, लकड़ी और मरे हुये जानवर ही इनका आहार हैं, इस दृष्टि से जीवाणु बहुत कुछ मनुष्य का हित भी करते रहते हैं, जीवाणु न होते तो पृथ्वी पर गन्दगी इतनी अधिक बढ़ जाती कि मनुष्य का जीवित रहना कठिन हो जाता।

कुछ जहरीले जीवाणु कारबन मोनो ऑक्साइड पर जीवित रहते हैं। यह एक जहरीली गैस है और मनुष्य के लिये अहितकारक। भगवान् शिव की तरह विष से मानव-जाति की सुरक्षा का एक महान् परोपकारी कार्य जीवाणु सम्पन्न करते हैं, जबकि मनुष्य अधिकांश अपने ही निकृष्ट स्वार्थ-भोग में लगा रहता है।

पाश्चात्य वैज्ञानिक मनुष्य को अमीबा और बन्दरों का क्रमिक विकास मानते हैं, उनसे जब अमैथुनी सृष्टि की बात कही जाती है, तब वे भारतीय तत्व-दर्शन पर आक्षेप करते हैं, आश्चर्य है कि सृष्टि प्रक्रिया जीवाणुओं पर अमैथुनी होती है, इससे भी वे चेतना के सूक्ष्म-दर्शन की अनुभूति नहीं कर पाते। जीवाणुओं की सन्तानोत्पत्ति जितनी विलक्षण है, उतनी ही आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली भी। खमीर पैदा करने वाला एक जीवाणु (बैक्टीरिया) ले लें, आप देखेंगे कि नर और मादा दोनों का काम यह एक ही जीवाणु कर देता है और सिद्ध करता है कि आत्मा न तो पुरुष है, न स्त्री वह तो शुद्ध चेतना मात्र है, स्त्री के शरीर में आ जाने से स्त्री भाव, पुरुष के शरीर में आ जाने पर पुरुष हो जाता है। यही चेतना भैंस के शरीर में भैंस, हाथी के शरीर में हाथी बन जाती है। शरीरों में अन्तर है पर तत्वतः आत्मा एक ही प्रकार की चेतना है।

एक जीवाणु बढ़कर जब पूर्ण हो जाता है, तब उसी में से कोंपल फूटती हैं। नाभिक (न्यूक्लियस) थोड़ी देर में बंट जाता है और एक नये जीवाणु का रूप लेता है। जन्म से थोड़ी देर बाद ही वह भी जन्म दर बढ़ाना प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार पिता और पुत्र दोनों बच्चे पैदा करते चले जाते हैं, 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 और 8 से 16 इस क्रम में बढ़ते हुये एक सप्ताह में खमीर का जीवाणु 168 पीड़ी तैयार कर लेता है, उनमें से लाखों जीवाणु तो एक घण्टे में ही पैदा हुये होते हैं। वह भी बच्चे पैदा करने लगते हैं, जबकि उनका बूढ़ा पितामह भी उन मूर्खों की तरह बच्चा पैदा करने में लगा होता है, जिन्हें यह पता नहीं होता कि बच्चे पैदा करना ही काफी नहीं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य आजीविका आदि का प्रबन्ध न हुआ तो बढ़ी हुई जनसंख्या संकट ही उत्पन्न कर सकती है। जीवाणुओं का अस्तित्व और उनका बेतहाशा प्रजनन भी मनुष्य जाति के लिये खतरनाक ही होता है।

मनुष्य तो भी समझदार है, क्योंकि वह औसतन 25 वर्ष में नई पीढ़ी को जन्म देता है, यह बात दूसरी है कि आजकल दूषित और गरिष्ठ आहार तथा कामुकता के कारण नवयुवक छोटी आयु में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं और इस तरह जनसंख्या की वृद्धि के साथ अपना और परिवार का स्वास्थ्य भी चौपट करते हैं, अन्यथा 25 वर्ष की आयु स्वाभाविक है। उनमें जनसंख्या और अन्य समस्याओं का सन्तुलन बना रहता है। यदि मनुष्य इतना विवेक नहीं रख सकता तो वह भी उन जीवाणुओं की ही तरह समझा जायेगा, जो केवल 15 मिनट बाद एक नया बच्चा पैदा कर देते हैं। 24 घण्टों में इनकी 96 पीढ़ियां जन्म ले लेती हैं, मनुष्य को इतनी पीढ़ियों के लिये कम से कम दो हजार वर्ष चाहियें। 24 घण्टे की इस अवधि में कुल उत्पन्न सन्तानों की संख्या 2।96 (अर्थात् दो-दो को 96 बार गुणा किया जाय) होगी। अक्षरों में लिखने में यह संख्या थोड़ी समझ में आ रही होगी पर यदि विधिवत गुणा करके देखा जाय तो यह संख्या 281374980040 56×281374980040656 होगी।

अनुमान नहीं कर सकते हैं यह तो एक जीवाणु को एक दिन की पैदाइश है, यदि मनुष्य भी ऐसे ही जनसंख्या बढ़ाने की भूल करे तो पृथ्वी पर आहार, विहार, निवास और कृषि उत्पादन आदि की कैसी बुरी स्थिति हो। सौभाग्य है कि जीवाणु बहुत छोटे हैं, इसलिये उनके सर्वत्र भरे होने से भी हमारे सब काम चलते रहते हैं। पर यह नितान्त सम्भव है कि हमारी प्रत्येक सांस के साथ लाखों जीवाणु शरीर में आते-जाते रहते हैं। प्रकृति की इस विलक्षणता से मनुष्य की रक्षा भगवान ही करता है अन्यथा यदि विषैले जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती तो पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों को उसी तरह नजरबन्द रहना पड़ता, जिस तरह चन्द्रमा से कोई विषाणु (वायरस) न आ जाये, इस भय से चन्द्र-यात्री नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और कोलिन्स को चन्द्रमा से उतरने ही नजर बन्द करके तब तक रखा गया, जब तक उन्हें अनेक प्रकार के रसायनों से धोकर बिलकुल शुद्ध और साफ न कर लिया गया।

मनुष्य का यह सोचना व्यर्थ है कि अनेक प्रकार के देश और वर्णों में पाये जाने का सौभाग्य केवल उसे ही मिला है, यह तो सब प्रकृति और परमेश्वर का खेल है, जो जीवन की सूक्ष्म इकाई जीवाणुओं में भी है। इनकी लाखों किस्में हैं और हजारों तरह के आकार। आड़े-टेढ़े, कूबड़े षटकोण, लम्बवत् विलक्षण शिवजी की बारात। कोई फैले रहते हैं, कोई गुच्छों में समुदाय बनाकर, कोई विष पैदा करते हैं, कोई मनुष्य जाति के हित के काम भी। ‘काकस’ ‘डिप्थीरिया’ ‘एफरोचट्स’ नामक जीवाणु जहां उपदंश, फफोले, मवाद पैदाकर देते हैं, वहां वे जीवाणु भी हैं जो दूध को दही में बदलकर और भी सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्द्धक बना देते हैं।

जो अच्छे प्रकार के जीवाणु होते हैं उन्हें काम में लाया जाता है, अच्छे मनुष्यों की तरह सम्मान दिया जाता है, जबकि बुरे और विषैले जीवाणुओं को मारने के लिये संसार भर में इतनी दवायें बनी हैं, जितने खराब मनुष्यों के लिये दण्ड विधान। कहीं अपराधियों को जेल दी जाती है, कहीं काला पानी, कहीं उनका खाना बन्द कर दिया जाता है, कहीं सामाजिक सम्पर्क। उसी तरह औषधियों के द्वारा खराब जीवाणुओं को भी नष्ट करके मारा जाता है। दण्ड का यह विधान कठोरतापूर्वक न चले तो उससे मानव-जाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाये, इसीलिये सत्पुरुष के लिये दया और करुणा जितनी आवश्यक है। बुरे व्यक्ति को दण्ड भी उतना ही आवश्यक है।

हमारे आस-पास के सम्पूर्ण प्राकृतिक जीवन में यह क्रियायें चलती रहती हैं पर हम जान नहीं पाते। मनुष्य की भौतिक आंखें बहुत छोटी हैं, इसलिये यह दृश्य केवल ज्ञान से ही देख या अनुभव कर सकते हैं। पर यह एक सत्य भी है कि इन अनुभूतियों को योग और साधनाओं द्वारा स्पष्ट बनाया जाता है। मनुष्य अपने को शरीर मानने की भूल को छोड़ता हुआ चला जाये और शुद्ध आत्म-चेतना की अनुभूति तक पहुंच जाये तो वह चींटी ही नहीं, जीवाणु की उस सूक्ष्म सत्ता तक भी पहुंचकर सब कुछ यन्त्रवत् देख सकता है, जिसका व्यास 1।30000 इन्च तक होता है। वैज्ञानिक यन्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि आत्म-चेतना के लिये असम्भव कुछ है नहीं।

जीवाणुओं को जिस यन्त्र से देखते हैं, उसका नाम है ‘माइक्रोस्कोप’। माइक्रोस्कोप में कांच के ऐसे शीशे (लेन्स) लगाये जाते हैं, जो प्रकाश किरणों के समूह (बीम) को एक छोटे से छोटे बिन्दु से गुजार सकें। प्रकाश की ऐसी बलवान किरणें छोटी से छोटी वस्तु को इतना बड़ा करके दिखा देती हैं जितना बड़ा आकार उस वस्तु का कभी सम्भव ही नहीं हो। उदाहरण के लिये यदि 5 फुट के व्यक्ति को यदि 1000 गुना बढ़ाकर दिखाया जाय तो उसकी आकृति 5000 फुट की दिखाई देगी। अर्थात् वह मनुष्य पर्वताकार लगेगा। अब तो ‘इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप’ चल गये हैं, एक बार परीक्षण के तौर पर 12 इन्च के बाल को ‘इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप’ से देखा गया तो उसकी बढ़ी हुई लम्बाई 20 मील थी और चौड़ाई 20 फुट। इतना बड़ा बाल संसार में शायद ही कभी सम्भव हो पर प्रकाश किरणों की शक्ति ने यह सम्भव कर दिया। यदि आत्म-चेतना भी इतनी सूक्ष्म की जा सके तो वह एक परमाणु में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड को देख सकती है भारतीय योग दर्शन और चित्त-निरोध का यही उद्देश्य है कि मनुष्य अपने मन को सूक्ष्मता में बैठकर विराट् ब्रह्माण्ड का दिग्दर्शन करे। तभी विश्व के यथार्थ को समझा जा सकता है। जीवाणुओं की परीक्षा और उन पर प्रयोग ऐसी ही स्थिति में बन पड़ता है, जब उन्हें माइक्रोस्कोप द्वारा कई हजार और लाख गुना बढ़ाकर देखते हैं। अन्यथा उनके अस्तित्व का ही पता न चलता। सूक्ष्मता का दर्शन मनुष्य भी उसी प्रकार आत्मा के विकास के द्वारा ही देख सकता है।

जीवाणु आत्मा के अनेक रहस्यों की सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है—
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैन दहति पावकः ।
न चैवं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

—2। 23

हे अर्जुन! यह आत्मा बड़ी विलक्षण है, न तो इसे शस्त्र छेद सकते हैं और न ही अग्नि इसे जला सकती है, जल गीला नहीं कर सकता और न ही हवा इसे सुखा सकती है।
मनुष्य के से शरीर जटिलता से युक्त अत्यन्त सूक्ष्म जीवाणु के अध्ययन से यह सारी बातें सत्य पाई गईं, कई जीवाणु जिन्हें गीले स्थान में ही रहने का अभ्यास था उन्हें सूखे में लाया गया तब भी उनके जीवन को कोई संकट नहीं उपस्थित हुआ। वे 20 वर्ष तक बराबर आर्द्रता की प्रतीक्षा करते रहे। इसी प्रकार उन पर तेज से तेज सूर्य की धूप का भी प्रभाव नहीं होता, ठंडे से ठंडे स्थान में भी जीवाणु मरते नहीं और उन्हें कुछ खाने को न मिले तो भी वे अपना जीवन धारण किये रहते हैं।

चेतना और प्रकृति के द्वैत सम्बन्ध और आत्मा के स्वरूप को जीवाणु के अस्तित्व और अध्ययन द्वारा बहुत स्पष्ट अंशों में समझा जा सकता है, साथ ही मानवीय व्यवहार का बहुत सा मार्ग-दर्शन भी उससे प्राप्त किया जा सकता है।

जीवाणु के यह गुण, यह सूक्ष्मता इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आत्म-चेतना प्रकृति के जड़ परमाणुओं से भिन्न अत्यन्त सूक्ष्म, अमर और सर्वशक्तिमान् सत्ता है, उसे अत्यन्त सूक्ष्मता की अनुभूति द्वारा ही जाना और पहचाना जा सकता है।

जड़वाद एक बौद्धिक दुर्भाग्य

जड़ जगत को ही सब कुछ मान लेना और चेतना को भी जड़ के पीछे काम करने वाली हलचलों की प्रतिक्रिया समझ बैठना जड़वाद का अन्ध समर्थन मात्र है। चेतना के अस्तित्व को झुठलाया जाना अपने युग का बौद्धिक दुर्भाग्य ही कहा जायगा। जिस चेतना ने जड़ पदार्थों को साज संभाल कर उपयोगी एवं सुन्दर बनाया—जिस चेतना ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों को जाना और उनसे लाभान्वित हो सकने की स्थिति तक मनुष्य को पहुंचाया, उसी चेतना के अस्तित्व तक से हम इनकार करने लगे तो इसे आत्म विस्मृति के अतिरिक्त और क्या कहा जायगा?

चेतना का अस्तित्व हम शरीर के माध्यम से भी अनुभव करते हैं, पर वह उतने तक ही सीमित नहीं है। शरीर के बिना भी उसका अस्तित्व बना रहता है। प्रकृति का सूक्ष्म स्वरूप तो यन्त्र उपकरणों की सहायता से खोजा पकड़ा जा सकता है, पर चेतना की परख के लिए कोई भौतिक साधन बन कर तैयार नहीं हुए हैं। वे हो भी नहीं सकेंगे। क्योंकि भौतिक उपकरण अपने सहधर्मी भौतिक पदार्थों को ही पकड़ सकते हैं। शरीर और उसकी इन्द्रियां पंचभूत तत्वों से बनी है। इसलिए उनकी अनुभूतियां भी तत्वों से बने परमाणु परक पदार्थों के आधार पर ही कुछ निष्कर्ष निकालती एवं रस लेती हैं। मशीन भी प्रायः धातुओं से बनी और विद्युत जैसी भौतिक ऊर्जाओं से चलती है। ऐसी दशा में उनका परख क्षेत्र भी स्थूल अथवा सूक्ष्म-दृश्य अथवा अदृश्य जड़ जगत तक ही सीमाबद्ध रहता है। चेतना को तो चेतना ही अनुभव कर सकती है। चेतना को समझने का कोई यन्त्र बन सका तो वह चेतना ही होगा। आत्मा और परमात्मा को प्रयोगशालाओं में अब तक सिद्ध नहीं किया जा सका और वह भविष्य में भी सिद्ध न हो सकेगा। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने इन दोनों की सत्ता को अस्वीकार किया है। वे शरीर को चलता फिरता पौधा मानते हैं और उसको चेतना की मस्तिष्कीय हलचल कहते हैं। मस्तिष्क तो शरीर का ही अंग है। इसलिए वे आत्मा की परिभाषा शरीर तक ही सीमित रखते हैं और मरने के बाद आत्मा की समाप्ति की बात कहते हैं। परमात्मा के सम्बन्ध में भी उनका ऐसा कथन है। प्रकृति व्यवस्था को वे स्वसंचालित मानते हैं। सृष्टि में चल रही विभिन्न व्यवस्थाओं को वे अपने आप—अपने ढर्रे या धुरी पर घूमती हुई कहते हैं और इसमें किसी ईश्वर का दखल स्वीकार नहीं करते।

कठिनाई यह है कि विज्ञान जगत् प्रत्यक्ष भौतिक प्रयोग परीक्षणों को ही सब कुछ मान बैठता है और प्रयोगशालाओं की सिद्धि को ही प्रामाणिक ठहराता है जब कि तर्क और तथ्य यह भी कहते हैं कि इस विश्व के रहस्यों को—विशेषतया चेतन तथ्यों को जानने के लिए प्रयोगशालाओं की उपलब्धियों तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता।
पदार्थों में पाई जाने वाली हलचल स्वसंचालित हो सकती है यह प्रतिपादन गले नहीं उतरता। चेतन संचालक के बिना वस्तुएं निश्चेष्ट और अस्त-व्यस्त पड़ी रहती हैं। बहुमूल्य जलयान, वायुयान, रेल इंजन आदि बिना ड्राइवर के नहीं चलते फिर असीम ब्रह्माण्ड व्यापी अन्तर्ग्रही और सीमित परमाणु सत्ता में जो सुव्यवस्थित अनवरत गति चक्र चल रहा है वह अनायास स्वसंचालित कैसे हो सकता है? इसके पीछे चेतन शक्ति की प्रेरणा एवं व्यवस्था होनी आवश्यक है। इसे तर्क बुद्धि सहज ही समझ सकती है। यदि विवेक, तर्क एवं बुद्धि को भी यान्त्रिक उपकरणों की तरह ही साक्षी साधन मान लिया जाय तो फिर ईश्वर के अस्तित्व को समझने—स्वीकार करने में कोई कठिनाई न रहेगी।

आत्मा के अस्तित्व को प्रयोगशालाओं में तो सिद्ध नहीं किया जा सका, पर अन्य ऐसे अकाट्य प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मरने के बाद भी जीव चेतना का अस्तित्व बना रहता है। इस तथ्य की साक्षी में प्रेतात्माओं की हलचलें तथा पुनर्जन्म की ऐसी घटनाएं प्रस्तुत की जा सकती हैं जो प्रामाणिक व्यक्तियों के अनुभव में आई हैं और उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता इसी प्रकार पुनर्जन्म के भी अगणित प्रमाण मिलते हैं। जिनसे सिद्ध होता है कि पिछले जन्म की ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण नये जन्म में स्मरण बना रह सकता है जो अन्य लोगों को विदित नहीं था। किसी ने सिखा-पढ़ा कर पूर्व जन्म विवरण का कौतूहल तो खड़ा नहीं कर दिया है इस आशंका की काट उन प्रमाणों से हो जाती है जिनमें बालकों ने अपने पूर्वजन्म के सम्बन्धियों को पहचाना और नाम लेकर पुकारा है। इसी प्रकार उनने नितान्त व्यक्तिगत ऐसी घटनाएं सुनाई हैं जो सम्बद्ध व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य लोगों को विदित नहीं हो सकती थीं। जमीन में अपना गढ़ा हुआ धन बताकर उसे निकलवाना पूर्वस्मृति का ठोस प्रमाण समझा जा सकता है। प्रेतात्माओं के अस्तित्व और पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाणों को भी यदि प्रयोगशाला सिद्ध तथ्यों की तुलना में माना जा सके तो फिर आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।

‘दी ह्यूमन पर्सनेलिटी एण्ड इट्स सरवाइबल आफ वाडीली डैथ’ नामक पुस्तक में ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, जो शरीर में पृथक आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। कई उदाहरण एक व्यक्ति के शरीर पर किसी दूसरी आत्मा द्वारा आधिपत्य रखने और फिर उसे मुक्त कर देने के हैं। साथ ही संगीत, गणित, ललितकलाओं आदि में अद्भुत क्षमता व प्रवीणता वाले बच्चों के विवरण भी हैं, जिनका असाधारण ज्ञान पूर्वजन्म की संचित ज्ञान-सामग्री ही सिद्ध होता है।

गणित शास्त्री ओस्पेन्स्की ने तीन ग्रन्थों में गणित के आधार पर चेतना के व्यापक अस्तित्व को सिद्ध करने का अकाट्य प्रयत्न किया है। इस सन्दर्भ में उनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में ‘इन सर्च आफ दि मिरेकुलस—टर्टियम आर्गेनमथ्योरी आफ इन्टरनल लाइफ—अधिक प्रसिद्ध है।

भौतिकी के आचार्य राबर्ट मायर ने ऊर्जा के दर्शन पर जो खोजें की हैं वे बताती हैं कि उसकी अधिकाधिक सूक्ष्म स्थिति में जो तत्व शेष रह जाता है उसे चेतना की संज्ञा दी जा सकती है। यह उच्च स्तर पर एकरस और सर्व-व्यापी स्थिति में बनी रहती है। उसका उपादान और विलयन क्रम तो स्थूल रूप से ही चलता है।

मनोविज्ञानी जे.वी. राइन ने मानवी मनःचेतना को पराजागतिक और परा भौतिक की संज्ञा दी है। वे उसका स्वरूप विद्युतीय एवं चुम्बकीय स्तर की ऐसी स्वतंत्र इकाई के रूप में मानते हैं जो मरने के बाद भी अपनी सत्ता बनाये रहता है। उसमें इतने प्रबल संकल्प भी जुड़े रहते हैं जिनके सहारे पुराने स्तर की तथा नये प्रकार की किसी आकृति का सृजन और धारण कर सके। उनकी दृष्टि में यह व्यक्ति चेतना दृश्य अथवा अदृश्य स्थिति में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रहने में पूर्णतया समर्थ है।

आइन्स्टाइन ने सृष्टि के मूल में चेतना के सक्रिय माना था। जे.ए. थामसन, जेम्स जोन्स, ए.एस. एडिग्रन आदि ने विज्ञान की नवीन दिशाओं का अलग-अलग विवेचन करते हुए एक ही बात कही है—विज्ञान के पास जीवन के प्रारम्भ होने की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। वैज्ञानिक अन्वेषण अब चेतना और विचार जगत की ओर बढ़ रहे हैं।

भारतीय दर्शन और संस्कृति आदिकाल से आत्मा की अखण्डता पर आस्थावान हैं। अणु मात्र होकर भी वह सम्पूर्ण शरीर पर आधिपत्य रखता है। भावनात्मक परिष्कार से आत्मबल बढ़ता है और अपने स्वरूप को जानने वाला जीवात्मा परमात्म-सत्ता से एक रूप हो जाता है।

नोबुल पुरस्कार विजेता भौतिकीविद् श्री पियरे दि कोम्ते ने आत्मा को विश्वात्मा से सम्बन्धित बताया है तथा इसी आधार पर उसे असर भी कहा है, क्योंकि विश्व चेतना अमर है और आत्मा उसी की छोटी इकाई मात्र है।

इलेक्ट्रो डायनेमिक सिद्धान्तों के अनुसार ‘ईगो’ की छानबीन की जाने पर ये तथ्य सामने आए हैं कि जन्म-मरण—चक्र में भ्रमण करती हुई, भिन्न-भिन्न आकृति-प्रकृति अपनाते हुये भी, मूल-सत्ता अक्षुण्ण रहती है।

विभिन्न खोजों के बाद विश्वविख्यात वैज्ञानिक फ्रेड हायल तथा जयंत विष्णु नार्लीकार ने यह स्थापना की है कि विश्व रचना में कारणभूत अणु और मानवीय शरीर की संरचना में कारणभूत जीवाणु की मूल संरचना एक-सी है।

‘‘दि सूट्स आफ कोइन्सिडेन्स’’ के लेखक आर्थरडा कोएस्लर ने जीवात्मा को आणविक या रासायनिक संघात से सर्वथा भिन्न माना है।
‘यू डू टेक इट विद यू’ के लेखक डिविट मिलर ने मस्तिष्कीय कोषों में ही घुली हुई एक अतिरिक्त चेतना को माना है तथा उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है। यह चेतना मस्तिष्क के कोशों को प्रभावित करती है।

हमारा विश्व एक विराट शक्ति-सागर है। यह शक्ति-सागर जड़ चेतना से मिश्रित है। प्राणियों की सत्ता इसमें एक बुल-बुले की तरह स्वतन्त्र अस्तित्व बनाती है, विकसित होती है और समयानुसार विलीन हो जाती है।

मूर्धन्य वैज्ञानिकों की मान्यता है कि इस विराट् शक्ति-सागर में एक भौतिक शक्ति धारा है, दूसरी प्राणिज। दोनों एक अविच्छिन्न युग्म बनाती हैं।
विकासमान विज्ञान अब जीवन को रासायनिक संयोग मात्र नहीं मानता। मनश्चेतना की मरणोत्तर सत्ता तो स्वीकार ही करली गई है। अब चेतना जगत की स्वतन्त्र सत्ता को एक घटक मानने की बारी है।

देखने में लगता है पर

अब तक विज्ञान केवल प्रत्यक्ष और प्रमाणसिद्ध को ही सत्य मानने का आग्रह लेकर चलता रहा है। परन्तु यहां कोई आवश्यक नहीं है कि जो प्रत्यक्ष दिखाई दे या अनुभव में आये वह सत्य ही हो। जो कुछ हम आंखों से देखते हैं क्या वही सत्य है? इस प्रश्न का उत्तर एक बारगी तो हां में ही दिया जा सकता है, पर वस्तुतः वह नितांत बालकों जैसा ही होगा। वस्तुतः जो कुछ हम देखते हैं वह इन अस्तित्वों का अति स्वल्प अंश है जिसे हम देख नहीं सकते। न केवल खुली आंखों से वरन् सूक्ष्मदर्शी यन्त्र भी उन्हें देखने में ही नहीं अनुभव करने में भी असमर्थ रहते हैं।

इतना ही नहीं प्रत्यक्ष अनुभव भी कहां और कितने सही होते हैं। उदाहरण के लिये यों देखने में लगता है कि आप भारतवर्ष के निवासी हैं, पर उसी समय आप पृथ्वी के भी निवासी हैं, पर उसी समय सौर मण्डल के भी। सूर्य एक सेकेंड में 200 ट्रिलियन अर्थात् 1000 मिलियन (100000000 किलोवाट) ऊर्जा पृथ्वी में फेंकता है। वह ऊर्जा इतनी अधिक होती है कि उससे नीपर जैसे 1 करोड़ बिजली घर स्थापित हो सकते हैं। सारी पृथ्वी की एक अरब आबादी तथा चींटी, मक्खी, कौवे, गिद्ध, भेड़, बकरी, गाय, हाथी, शेर, पेड़-पौधे, बादल, समुद्र सभी इस शक्ति से ही गतिशील हैं जिसमें यह शक्ति जितनी अधिक है (प्राणतत्व की अधिकता) वह उतना ही शक्तिशाली और वैभव का स्वामी है। कीड़े मकोड़े उसके एक कण से ही जीवित हैं तो वृक्ष-वनस्पतियां उसका सबसे अधिक भाग उपयोग में लाती हैं। मनुष्य इन सबसे भाग्यशाली है क्यों वह इस शक्ति के सुरक्षित और संचित कोष को भी प्राणायाम और योग-साधनाओं द्वारा मन चाही मात्रा में प्राप्त भी कर सकता है।

हमारे लिये वर्ष 365 1/4 दिन का होता है पर सूर्य के लिये वह अपनी एक हजार किरणों के घूमने भर का समय, सूर्य का प्रकाश हर क्षण पृथ्वी के आधे भाग पर पड़ता है अर्थात् सूर्य का एक सेकेंड पृथ्वी के निवासी के लिये 12 घण्टे। कीट-पतंगों के लिये तो उसे कल्प ही कहना चाहिये। सूर्य अरबों वर्ष से जी रहा है और करोड़ों वर्ष तक जियेगा पर इतनी अवधि में तो मनुष्यों की लाखों पीढ़ियां मर खप चुकी होंगी, यदि सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक जितने लोग जनम ले चुके उन सबके नाम लिखना सम्भव हो तो उसके लिये पृथ्वी के भार से कम कागज की आवश्यकता न पड़ेगी। सूर्य का एक जन्म इतना बड़ा है कि मनुष्य उसकी तुलना में अरबवें हिस्से की भी जिन्दगी नहीं ले पाया।

ठीक यही बात मनुष्य की तुलना में कीट-पतंगों की है वायु मण्डल में ऐसे जीव हैं जो इतने सूक्ष्म हैं कि उनको इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी से ही देखना सम्भव है उनमें एक ही कोश (सेल) होता है। उसमें केन्द्रक सूर्य का ही एक कण होता है अन्य तत्वों में कोई भी खनिज, लवण या प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट मिलेंगे। अर्थात् जीव-चेतना और प्रकृति का समन्वय ही दृश्य जगत है। मनुष्य में गर्मी अधिक है, 100 वर्ष का जीवन उसे प्राप्त है पर कीड़े-मकोड़े शक्ति के एक अणु और शरीर के एक कोश से ही मनुष्य जैसी आयु भोग लेते हैं। मनुष्य जितने दिन में एक आयु भोगता है उतने में कीट-पतंगों से कई कल्प हो जाते हैं। प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक एन.एस. श्चेरविनोवस्की एक कृषि-विशेषज्ञ थे उन्होंने 50 वर्ष तक कीट-पतंगों के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन किया और उससे कृषि नाशक कीटाणुओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खोजें की। उन्हीं खोजों में भारतीय दर्शन को प्रमाणित करने वाले तथ्य भी प्रकाश में आये। वे लिखते हैं—टिड्डियों की सामूहिक वंशवृद्धि की अवधि सूर्य के एक चक्र अर्थात् 11 वर्ष से है अर्थात् 11 वर्ष में उनकी प्रलय और नई सृष्टि का एक क्रम पूरा हो जाता है। वीविल जो चुकन्दर कुतरने वाला कीड़ा होता है वह भी 11 वर्षीय चक्र से सम्बन्धित है पर कुछ कीड़ों की सामूहिक वृद्धि 22 वर्ष, कुछ की 33 वर्ष है इस आधार पर उन्होंने लिखा है कि पृथ्वी का सारा जीवन ही सूर्य पर आधारित है। सिद्ध होता है कि नन्हें-नन्हें जीवाणु (बैक्टीरिया) तथा विषाणु (वायरस) सभी का जीवन कोश (नाभिक या न्यूक्लियस) सूर्य का ही प्रकाश स्फुल्लिंग और चेतन परमाणु है जबकि उनके कोशिका सार (साइटोप्लाज्म) में अन्य पार्थिक तत्व। जीवन चेतना सर्वत्र एक सी है, परिभ्रमण केवल मन की वासना के अनुसार ही चलता रहता है।

नाभिक में भी नाभिक (न्यूक्लिओलस) होते हैं जिससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस प्रकार कोशिका सार (साइटोप्लाज्म) का सूर्य नाभिक होता है, नाभिक अग्नि तत्व होता है, अग्नि या प्राण में ही मन होता है उसी प्रकार मन की चेतना में ही विश्व चेतना या ईश्वरीय चेतना समाधीन होनी चाहिये। प्रत्यक्ष में सूर्य भी स्व-प्रकाशित नहीं वह आकाश गंगा और नीहारिकाओं के माध्यम से किसी सुदूर केन्द्रक से ही जीवन प्राप्त कर रहा है अर्थात् सृष्टि के सयस्त मूल में एक सर्वोपरि शक्ति है उसे ही परमात्मा माना गया है वही चेतना पदार्थ के संयोग से जीवों के रूप में व्यक्त होती हैं श्री शंकराचार्य ने तत्वबोध में इसी तथ्य की पुष्टि करते हुये लिखा है—

नित्य शुद्ध विमक्तैक मखण्डानन्दमद्वयम् ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेवतत् ।
एवं निरन्तराभ्यस्ता ब्रह्मैवास्मीति वासना ।
हरत्यविद्या विक्षेपानं रोमानिव रसायनम् ।।
तत्वबोध 36-37

अर्थात्—जो तीनों कालों में रहने वाला, कभी नाश नहीं होता जिसका, जो मल रहित और संसार से विरक्त, एक और अखण्ड अद्वितीय आनन्द रूप है वही ब्रह्म है किन्तु वही ईश्वरीय चेतना ‘‘मैं हूं’’ के अहंकार भाव के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न हुई वासना रोगों को रसायन के समान अविद्या से उत्पन्न होने वाले चित्त विक्षेप के कारण वास्तविक ज्ञान को नष्ट कर देती है और ईश्वरीय चेतना जीव रूप में काम करती हुई वासनाओं की पूर्ति में कभी यह कभी वह शरीर धारण करती भ्रमण करने लगती है।

हमें मालूम है कि सूर्य ही नहीं चन्द्रमा, बृहस्पति शुक्र, शनि तथा सभी तारागण तक विकरण करते हैं। किसी भी एक बिन्दु को ले लें और कल्पना करें कि वहां सभी विकरण आड़ी टेढ़ी दिशा में गमन कर रहे हैं तो पता चलेगा कि एक ही स्थान पर सूर्य प्रकाश का कण चन्द्रमा के कण को, चन्द्रमा का ब्रह्मणस्पति के कण को बृहस्पति का शनि के कण को पार कर रहा होगा—फिर यह क्रम निरन्तर चल रहा होगा अर्थात् सिनेमा के पर्दे की तरह की गति और दृश्य उस समय हर ग्रह-नक्षत्र के अंतर्वर्ती क्षेत्र का विद्यमान होगा। जिस प्रकार सूर्य के रासायनिक आकाश मण्डल में हाइड्रोजन हीलियम, कार्बन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, सोडियम, सिलिकन, गन्धक, टाइटेनियम, मैंगनीज, कोबाल्ट, निकेल जिंक आदि 24 रासायनिक तत्व विद्यमान हैं उसी प्रकार हर ग्रह के आकाश क्षेत्र में भिन्न जाति के आकाश मण्डल हैं यह तत्व ही ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं विकिरण उनका प्रभाव क्षेत्र लिये होंगे अर्थात् वातावरण के हर बिन्दु पर विश्व का हर दृश्य विद्यमान है मूल चेतना उनमें से अपनी इच्छा (इच्छा आकाश स्वरूप है) और वासना के क्षेत्र में विद्यमान रहती होगी तो कुछ आश्चर्य नहीं यदि वह पृथ्वी के ही किसी आकाश में रहकर भी किसी अन्य ग्रह के दृश्यों और रासायनिक अनुभूतियों का रस ले रही हो।

वायुमण्डल ही नहीं जीवन से रिक्त कोई स्थान नहीं। प्रसिद्ध डच व्यापारी एन्टान वान लीवेनहोक को जब भी अवकाश मिलता वह शीशों के कोने रगड़-रगड़ कर लेन्स बनाया करता उसने एक बार एक ऐसा लेन्स बनाया जो वस्तु को 270 गुना बड़ा करके दिखा सकता था। उसने पहली बार गन्दे पानी और सड़े अन्न में हजारों जीवों की सृष्टि देखी। कौतूहल वश एक बार उसने वर्षा का शुद्ध जल एकत्र किया उसकी मंशा यह जानने की थी कि आया शुद्ध जल में भी कीटाणु होते हैं और वह यह देखकर आश्चर्य-चकित रह गया कि उसमें भी जीवाणु उपस्थित थे उसने अपनी पुत्री मारिया को बुलाकर एक विलक्षण संसार दिखाया—यह जीवाणु जल में तैर ही नहीं रहे थे तरह-तरह की क्रीड़ायें करते हुये वह यह दिखा रहे थे कि उनमें यह इच्छायें, आकांक्षाएं मनुष्य के समान ही हैं भले ही मनुष्य जटिल कोश प्रणाली वाला जीव क्यों न हो पर चेतना के गुणों की दृष्टि से मनुष्य और उन छोटे जीवाणुओं में कोई अन्तर नहीं था। यह जीवाणु हवा से पानी में आये थे

1838 में पौधों की संरचना का परीक्षण करते समय वैज्ञानिक माथियास शेलिडेन ने देखा कि पौधे भी कोशिकाओं से बने हैं और यह कोशिकाएं भी बड़े जीव के भीतर एक जीवित जीव हैं इस प्रकार हर योनिधारी का शरीर ब्रह्माण्ड है और उनमें रह रहे अनेकों चेतन कोश जीव जो अपनी वासना के अनुसार काम करते हैं। हर कोश में विराट् ब्रह्माण्ड की बात विज्ञान भी स्वीकार करता है।

यह इलेक्ट्रानिक प्रकाश की बौछार से ही देखे जा सकते हैं इलेक्ट्रानिक्स विद्युदाणु होते हैं। मन भी एक प्रकार का सचेतन विद्युत परमाणु है—योग ग्रन्थों में उसे ‘अग्नि स्फुल्लिंग’ कहा जाता है उसे ध्यान की एकाग्रता के समय अत्यन्त सूक्ष्म किन्तु दिव्य प्रकाश कण के रूप के त्रिकुटी—दोनों भौंहों के बीच आज्ञा चक्र नामक स्थान में देखा भी जाता है। यही कीट-पतंगों में भी मन और मन की विशेषताओं के होने का प्रमाण है जो किसी भी विज्ञान से कम महत्व का नहीं।

जीवन और जगत में जो कुछ भी महान व महत्वपूर्ण है, वह स्थूल की पकड़ से बाहर और सूक्ष्म है। उसे जानने के लिये सूक्ष्म का विज्ञान ही समझना पड़ेगा तथा उसी दिशा से आगे बढ़ना पड़ेगा। प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों ने इस दिशा में बड़े प्रयत्न किये थे व शोध अनुसंधानों द्वारा उस सूक्ष्म की शक्ति से लाभ उठाने की विधि विकसित कर ली थी। देर सवेर विज्ञान भी इसी दिशा में पहुंच कर असीम विश्व के कण कण में भरी अनन्त अपार क्षमता का सदुपयोग कर सकेगा।
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