तुम पृथ्वी के सब से आवश्यक मनुष्य हो

October 1973

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मैक्सिस गोर्की कहा करते थे - यह विश्वास रखो कि तुम पृथ्वी से सबसे आवश्यक मनुष्य हो। अपने व्यक्तित्व की, अपने क्रिया कलाप की उपेक्षा करना - प्रकारान्तर से आत्म सक्ता की अवमानना करना है।

सही ढंग से न किया गया कोई भी काम फूहड़ हो जाता है। पर यदि उसी को कलात्मक सुरुचि और व्यवस्था पूर्वक पूरे मनोयोग के साथ सम्पन्न किया जाय तो वही अपने कर्त्ता की प्रतिष्ठा को आसमान तक पहुँचा देता है। प्रश्न यह नहीं कि कितना बड़ा काम किया गया महत्व इस बात का है कि उसे किस सुरुचि और किस सदाशयता के साथ सम्पन्न किया गया।

हर किसी के लिये यह सम्भव नहीं कि उसे राज्य शासन चलने, धर्म गुरु बनने अथवा कवि वक्ता, कलाकार, वैज्ञानिक जैसे विशिष्ठ कार्य करने का ही अवसर मिले और वह अधिक ख्याति प्राप्त करे। यदि बहुसंख्यक लोग इन्हीं प्रयासों की ओर दौड़ पड़ें तो ख्याति प्रदान करने वाले मोर्चे पर भारी भीड़ लग जायगी और धक्का मुक्की होने लगेगी। वस्तुतः हर काम महत्वपूर्ण हो; भले ही वह देखने में छोटा ही प्रतीत क्यों न होता हो। हम मनुष्यों की सत्ता महत्वपूर्ण है।

कृषक अथवा श्रमिक जैसे ख्याति रहित व्यक्ति अपने तो तुच्छ मानते रहते हैं पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। कृषक अन्न न उपजाये, पशु पालक दूध न बढ़ायें। श्रमिक मजदूरी न करें - दुकानदार दुकान बन्द करदें और अध्यापक पढ़ाया न करें तो समाज को कितनी क्षति पहुँचेगी।

प्रशंसा के लिए हम लालायित न हों; अन्यथा दूसरे ओछे आदमियों के हाथ की कठपुतली बन जायेंगे। बढ़-चढ़ कर प्रशंसा चापलूस और चालाक लोग करते हैं उनकी बकवास में कई बार तो घिनौनी दुरभि संधियाँ भरी रहती हैं, जिससे भोले मनुष्यों के अहं को भड़का कर उसे वश वर्ती बनाया जाता है और बेतरह ठगा जाता है। शालीन-व्यक्ति सत्कर्म कर्ताओं के प्रति सम्मान का भाव कर रखते हैं यह आवश्यकता पड़ने पर ही नपी तुली अभिव्यक्ति करते हैं उनसे उस बढ़ी-चढ़ी प्रशंसा की आशा नहीं करनी चाहिए जिसके आधार पर ओछे अहंकार की कर्ण प्रिय तृप्ति हो सके। यह वाचालता तो ओछे लोगों में ही मिल सकती है पर उसका महत्व तनिक भी नहीं होता। छापे में नाम छपाने दान के शिला लेखों में अपनी उदारता की चर्चा कराना या प्रशस्ति सुनकर अहंकार को फुलाना बचकाने लोगों को ही शोभा देता है। किसी भी समझदार व्यक्ति को उस आत्म विज्ञापन की कीचड़ से बचना ही चाहिये।

हमारा हर काम पूर्ण मनोयोग के साथ, लोक हित की दृष्टि से किया गया होगा तो उस दृष्टि से कर्त्ता को असाधारण आत्मसन्तोष मिलेगा। ईमानदारी के साथ कर्त्तव्य पालन अपने आप में एक ऐसी उपलब्धि है जिसमें किसी दूसरे की प्रशंसा की आवश्यकता नहीं पड़ती वह स्वयं ही एक समग्र प्रशंसा है। हमारा व्यक्तित्व यदि सज्जनों जैसा शालीन हैं, उसमें मर्यादा पालन एवं उदार व्यवहार के तत्वों का समुचित समावेश है तो फिर उसकी प्रतिष्ठा में क्या कमी रह गई। दूसरे लोगों पर प्रशंसा के लिये निर्भर रह कर मूर्ख क्यों बनें,? अपनी आँख में यदि अपना अस्तित्व सद्भाव सम्पन्न एवं सत्प्रवृत्ति निरत है तो अपना है अन्तरंग निरन्तर सन्तोष एवं वरदान व्यक्त करता रहेगा। क्या इससे भी बढ़कर कोई और प्रामाणिक प्रशंसा हो सकती है। आत्म प्रतिष्ठा से बढ़कर सम्मान की सही उपलब्धि इस संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं है।


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