साधन-अनुसन्धान

August 1969

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“आपकी साधना, आपका ज्ञान, आपका ब्रह्म-वर्चस्व विश्व के कल्याण के लिये है भगवन्। पर यह कहाँ सम्भव है कि आप सुदूर प्रान्तों का निरन्तर परिव्राजन करें और लोभों की ज्ञान-पिपासा को तृप्त करें। गुरुकुल को स्थापना करनी ही होगी देव। उसके बिना भावी पीढ़ी का आध्यात्मिक प्रशिक्षण किस प्रकार सम्भव होगा? आप ही तो कहते हैं कि धर्म-तत्त्व का प्रशिक्षण और प्रसार किये बिना प्रजा का नैतिक, चारित्रिक, सैद्धान्तिक और आत्मिक विकास नहीं हो पाता।”

“सो तो यथार्थ है, तात।” महर्षि कणाद ने शिष्य भौम्यवाद के कथन का समाधान करते हुये कहा-वत्स जिस राष्ट्र के नागरिकों को शिक्षा के साथ दीक्षा नहीं मिलती वहाँ लोगों को बौद्धिक, आत्मिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था संबंधी क्षमताएँ कुण्ठित हो जाती है इसलिये विद्यालय का निर्माण आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, तात। पर गुरुकुल चलते हैं जिन पर ऐसे साधन कहाँ से उपलब्ध होंगे?”

“आप उनकी चिन्ता न करें देव। मुझे आदेश दें भगवन्। साधनों का अनुसन्धान मैं करूँगा मैं लोगों के द्वार-द्वार जाकर साधन एकत्रित करूँगा आवश्यकता हुई तो इस पुनीत उद्देश्य के लिये भीख भी मागूंगा वन के पक्षी अपना आहार जुटा लेते हैं, वणिक नौकाओं में धान्य लाद कर समुद्र की विस्तृत सीमायें लाँघ कर चले जाते हैं और द्रव्यार्जन कर लाते हैं। बादल बरसने की इच्छा करते हैं तो उन्हें समुद्र से जल भी मिल जाता है। भगवती भागीरथी ने जब लोक-कल्याण के लिये अपनी धर्म-यात्रा प्रारम्भ की तब उन्हें भी ऐसी चिन्ता हुई थी, पर क्या हिमालय का अञ्चल इतना संकीर्ण था कि वह गंगा माता को वर्ष भर निरन्तर प्रवाहित होने के लिये जल न दे पाता? भगवन्। मुझे विश्वास है सदुद्देश्य के लिये साधनों का कभी अभाव नहीं होता।” धौम्यपाद ने पुनश्च विनीत निवेदन किया।

“तुम्हारा संकल्प पूर्ण हो वत्स। जाओ मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम गुरुकुल की स्थापना के लिये साधनों का अनुसन्धान करो।” महर्षि कणाद ने मुसकराते हुये उत्तर दिया। ऐसा लगता था उनकी मुस्कुराहट में कुछ रहस्य भरा पड़ा है।

धौम्य चल पड़े। सम्पूर्ण राष्ट्र के नाम एक परिपत्र वितरित कर उन्होंने प्रजा से सहयोग की याचना की। तब महर्षि कणाद की तपश्चर्या का प्रभाव शरद पूर्णमासी के चन्द्रमा की भाँति दिव्य और निष्कलंक चमक रहा था। प्रजा ने अपना अहोभाग्य समझ। जिसके पास जो कुछ था खुशी-खुशी दान देने लगे। देखते-देखते धन-धान्य रत्न, स्वर्ण, रजत, वस्त्राभूषणों के ढेर लग गये। किसी ने भवन निर्माण का उत्तरदायित्व ले लिया, किसी ने छात्रों की भोजन व्यवस्था का। एक वर्ष के भीतर ही साधनों का अंबार लग गया। धौम्यपाद सगर्व गुरुदेव के समीप पहुँचते हैं और उन्हें साधनों की तालिका भेंट करते हे।

तालिका के अंकित अक्षरों को पढ़ते गये ऋषि कणाद, उतनी ही उनकी मुख-मुद्रा गम्भीर होती गई। उन्होंने कहा-तुम्हारा उत्साह सार्थक हो धौम्य, गुरुकुल की स्थापना का कार्य प्रारम्भ कर दो, विद्यार्थियों के प्रवेश का प्रबन्ध अविलम्ब किया जाये, पर इससे पूर्व यह एकत्रित धन-धान्य जहाँ से आया है यथावत् उसे अविलम्ब वापिस कर दिया जाय। जिन साधनों की आवश्यकता थी वह अभी तक नहीं मिले।, अभी उसका अनुसन्धान करना होगा। महर्षि का प्रतिवाद करने की हिम्मत धौम्य में थी कहाँ? उसने उनकी आज्ञा का अक्षरशः पाल किया। जहाँ से धन आया था लौटा दिया गया।

ऋषि कणादि ने उसी दिन मौन व्रत ले लिया। वाणी के प्रसुप्त होते ही स्वप्न-जाल की भाँति उनकी क्रियाशीलता के प्रसुप्त होते ही स्वप्न-जाल की भाँति उनकी क्रियाशीलता जाग पड़ी महर्षि प्रति दिन सूर्योदय होते-होते जंगल में प्रवेश कर जाते और दिन भर लकड़ियाँ एकत्रित कर लीं जिनसे छात्रों के आवास का प्रबन्ध किया जा सके। अगले मास काँस और कुल की उतनी मात्रा काटी कणाद ने, जिससे पर्णकुटीरों में छाया का यथेष्ट प्रबन्ध हो जाता। अगले मास महर्षि ने सघन वृक्षारोपण का कार्य प्रारम्भ किया। कुछ ही दिनों में पौधे बढ़ते दिखाई देने लगे। इसी बीच उन्होंने पर्णकुटीर तैयार किये। निजी आश्रम, शिक्षकों के निवास, छात्रावास और पाठन के कक्ष निर्माण में ऋषि ने अपने स्वेद कणों की एक-एक बूँद उत्सर्ग कर दीं, तब जाकर गुरुकुल की स्थापत्य आवश्यकता की पूर्ति हो पाई। इस बीच भी उन्होंने अपनी आहार की आवश्यकता खेतों बीने हुए दानों से ही पूर्ण की। महर्षि के इस कठोर श्रम को देख कर देश की प्रजा रोमांचित हो उठी। लोगों ने अपने बालकों को भेजना प्रारम्भ कर दिया। और इस प्रकार गुरुकुल की स्थापना हो गई। उसका प्रथम सत्र प्रारम्भ हो गया।

विद्यार्थियों की संख्या पर्याप्त हो गई। सामान्य कृषकों के बच्चों से लेकर महात्माओं और महाराजाओं तक के पुत्रों ने प्रवेश लिया। लोगों को विश्वास था महर्षि कणाद विद्यालय में प्रविष्ट हुये उन्होंने अपना अहोभाग्य समझा। किन्तु महर्षि कणाद को अब तक कोई भी सहायक उपलब्ध नहीं हुआ था। धौम्यपाद उनके आश्रम की देख-रेख करते थे। पर छात्रों के विद्याध्ययन से लेकर उनकी सामान्य देख-रेख तक का सारा कार्य महर्षि को स्वयं ही देखना पड़ता था। प्रथम सत्र के समापन का समय समीप आ चुका था, अब तक भगवान् कणाद ने एक दिन भी विश्राम नहीं किया था। आश्रम के अतिरिक्त वे समीपवर्ती गाँव भी न जा पाये थे। उनकी परिश्रमशीलता, लगन और अध्यवसाय के साथ महान् तप और त्याग-वृत्ति की चर्चा सारे विश्व में छा गई थी। इतने पर भी उनके वृद्ध शरीर में किसी प्रकार की थकावट के लक्षण परिलक्षित नहीं हो रहे थे।

भगवती वर्षा का आगमन निकट देख कर महर्षि ने विचार किया कि जंगल का सम्पूर्ण काष्ट गीला हो जाता है इसलिये समिधाओं के लिये सूखा ईधन एकत्रित कर लेना चाहिये। कुल्हाड़ी और रस्सियाँ लिये छात्रों के साथ महर्षि कणाद वन की ओर चल पड़े। उनके वृषभ-स्कन्ध पर भी एक कुल्हाड़ी विराजमान् थी और वे साल्हाद आगे बढ़ते हुये जा रहे थे। मौन शिष्ट-मण्डल पीछे-पीछे चल रहा था। बादलों ने छाया कर ली थी। सूर्यदेव ने अपना आक्रोश हलका कर लिया था इसलिये मौसम और भी सुहावना हो रहा था।

महर्षि ने शिष्यों के साथ सायंकाल तक लकड़ियाँ काटी। उनकी वृद्ध देह और गौरवर्ण से झर रहे स्वेद बिन्दु ऐसे दीख रहे थे जैसे हिम शिखर से भगवती गंगा का फैलाव मन्द गति से उतर रहा हो। उनकी मुखाकृति और भी उद्दीप्त हो उठी थी। एक-एक विद्यार्थी की वही स्थिति थी। अपने-अपने गट्ठर लिये सभी छात्रों ने जब आश्रम में प्रवेश किया तब ऐसा लग रहा था जैसे श्रम, संयम, स्वावलम्बन और अध्यवसाय ने अनेकों भव्य रूप ले रखे हैं और धीरे-धीरे आश्रम की प्राचीरों में समाते चले जा रहे हैं।

ईधन, समिधायें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा कर अब सब विद्यार्थी संध्या-वंदन के लिये बैठे तब भी महर्षि यह देख रहे थे कि उनके भोजन की व्यवस्था हो गई है या नहीं? किसी पर्णकुटीर में छेद तो नहीं हो गये, कल के लिये समुचित खाद्यान्न जुटाया जा चुका है या नहीं?

बालक अपने-अपने कक्ष में पहुँच चुके थे। दीप वृन्द जल उठे थे। शान्त वातावरण में स्वाध्याय करते छात्र ऐसे भले लग रहे थे जैसे नक्षत्रों से फूटती दिव्य किरणों ने मूर्त स्वरूप धारण कर लिया हो और तब महर्षि कणाद ने स्नान कर साधना-कक्ष में प्रवेश किया। किन्तु आज उनका शरीर इतना थक चुका था कि साधना-प्रकोष्ठ के तीन सोपान भी उनसे चढ़े न जा सके। अन्तिम पैर बढ़ाते ही वह लड़खड़ा गये। उनका कृश-मात भगवती गायत्री की प्रतिमा के सम्मुख जा गिरा। ऋषि अचेत हो गये स्त्र धौम्य। भागते हुये आये। जल की छींटे देकर उन्होंने गुरुदेव को सँभाला। अचेतना दूर हुई। ऋषि ने आंखें खोलीं। पूछा-धौम्य विद्यालय के लिये किसी साधना का अभाव हो तो देखना, उसे पूरा करना। अब यह शरीर बहुत थक गया है।” यह कहते-कहते उनकी आंखें भर आई धौम्य

ने गुरुदेव को उठाया और उन्हें शयनासन पर पौढ़ाया। उनकी चरण रज मस्तिष्क पर चढ़ाते हुये धौम्य ने उत्तर दिया-भगवन् आपने जिन साधनों को आवश्यकता अनुभव की मैंने उन्हें देर से समझा।”


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