अपनों से अपनी बात

August 1969

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दो बड़े यज्ञ अपने परिवार के द्वारा शान और सफलतापूर्वक सम्पन्न हो चुके। सन् 53 का शतकुण्डी नरमेध यश जिसमें 24 व्यक्तियों ने अपना जीवन नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए अर्पित किया था, भुलाया नहीं जा सकता। उसकी स्मृति जिन्हें है, वे जानते हैं कि गायत्री तपोभूमि को शक्तिपीठ के रूप में परिचय करने वाला यज्ञ यज्ञ शतकुण्डी होते हुए भी अनुपम था। हवाई जहाजों से विदेशों में बसने वाले भारतीय धर्मानुयायी भी उसमें सम्मिलित होने आये थे। नरमेध की प्रक्रिया देखने के लिए जनसमूह समुद्र की तरह उमड़ पड़ा था। जिन लोगों ने अपना जीवन शोक-मंगल के लिए समर्पित कर अपनी भौतिक कामनाओं और वासनाओं की बलि दी थी, इन नरमेध के बलि नर पुगर्वो की आत्माहुतियाँ देखकर दर्शकों के मन में भावना प्रवाह आँधी तूफान की तरह उमड़ रहे थे। क्रोध और आवेश में कितने ही व्यक्ति हत्या और आत्म-हत्या करने पर उतारू हो जाते हैं पर धैर्य, प्रेम, त्याग और करुणा से परिपूर्ण अन्तःकरण लेकर युग संस्कृति के पुनरुत्थान में जीवन की बलि देना उस पतंगे का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो प्रकाश में लय हो जाने के आनन्द का मूल्यांकन करता हुआ, शरीर सुख को तिनके की तरह तोड़कर फेंक देता है। उन 24 बलिदानियों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उससे प्रभावित और भी सहस्त्रों व्यक्ति पूरा तथा आँशिक जीवन लोक-मंगल में लगाने के लिए प्रस्तुत हो गये और अपनी नव-निर्माण योजना तेजी से आगे बढ़ चली। 4 हजार गायत्री परिवार की शाखायें और 4 लाख सदस्यों का कार्य उन्हीं दिनों, उसी जोश आवेश में सम्पन्न हुआ था।

दो बड़े यज्ञ अपने परिवार के द्वारा शान और सफलतापूर्वक सम्पन्न हो चुके। सन् 53 का शतकुण्डी नरमेध यश जिसमें 24 व्यक्तियों ने अपना जीवन नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए समर्पित किया था, भुलाया नहीं जा सकता। उसकी स्मृति जिन्हें है, वे जानते हैं कि गायत्री तपोभूमि को शक्तिपीठ के रूप में परिचय करने वाला यज्ञ यज्ञ शतकुण्डी होते हुए भी अनुपम था। हवाई जहाजों से विदेशों में बसने वाले भारतीय धर्मानुयायी भी उसमें सम्मिलित होने आये थे। नरमेध की प्रक्रिया देखने के लिए जनसमूह समुद्र की तरह उमड़ पड़ा था। जिन लोगों ने अपना जीवन शोक-मंगल के लिए समर्पित कर अपनी भौतिक कामनाओं और वासनाओं की बलि दी थी, इन नरमेध के बलि नर पुगर्वो की आत्माहुतियाँ देखकर दर्शकों के मन में भावना प्रवाह आँधी तूफान की तरह उमड़ रहे थे। क्रोध और आवेश में कितने ही व्यक्ति हत्या और आत्म-हत्या करने पर उतारू हो जाते हैं पर धैर्य, प्रेम, त्याग और करुणा से परिपूर्ण अन्तःकरण लेकर युग संस्कृति के पुनरुत्थान में जीवन की बलि देना उस पतंगे का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो प्रकाश में लय हो जाने के आनन्द का मूल्यांकन करता हुआ, शरीर सुख को तिनके की तरह तोड़कर फेंक देता है। उन 24 बलिदानियों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उससे प्रभावित और भी सहस्त्रों व्यक्ति पूरा तथा आँशिक जीवन लोक-मंगल में लगाने के लिए प्रस्तुत हो गये और अपनी नव-निर्माण योजना तेजी से आगे बढ़ चली। 4 हजार गायत्री परिवार की शाखायें और 4 लाख सदस्यों का कार्य उन्हीं दिनों, उसी जोश आवेश में सम्पन्न हुआ था।

अपना ज्ञान यज्ञ भी सफल और सम्पूर्ण होना चाहिये

अपना ज्ञान यज्ञ भी सफल और सम्पूर्ण होना चाहिये

सन् 53 के शतकुण्डी नरमेध यज्ञ की सफलता और प्रतिक्रिया आशाजनक हुई। धार्मिक जगत् में एक ऐसी हलचल उत्पन्न हुई, जिसके पीछे प्राचीनकाल की तरह सतयुग वापिस लाने की उमंग हिलोरें मार रही थी। वह उत्साह पानी के बबूले की तरह समाप्त नहीं हो गया वरन् दावानल की तरह व्यापक होता चला गया। अपनी यज्ञीय प्रक्रिया बहुत ही सार गणित है। उसमें रूढ़िवादिता, वर्ग प्राधान्य और अर्थ लोलुपता के लिए कोई स्थान नहीं। हमारे देशों में तिल, घी चावल नहीं केवल सुगन्धित जड़ी बूटियाँ और औषधियों द्वारा हवन होते हैं। खाद्य पदार्थ न जलाने की सामयिक आवश्यकता को हम समझते हैं। घी की भी उतनी ही नपी-तुली मात्रा व्यय करते हैं, जो आज की विपन्न परिस्थितियों और धार्मिक कर्मकाण्ड की आवश्यकता को देखते हुए न्यूनतम हो सकती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय खाद्य समस्या के प्रति सजग लोगों में से कभी किसी को हमारे कार्यक्रमों पर उँगली उठाने का साहस नहीं हुआ। हमारे यज्ञ विवेक का अवतरण करने के लिए हैं। उनमें अविवेक को कहाँ प्रश्रय मिलेगा। उसी प्रकार ब्राह्मण वर्ग को आर्थिक लाभ पहुँचाने की भी अपने यज्ञों में कोई व्यवस्था नहीं रहती। यह जनजीवन में प्रकाश एवं जनमानस में उल्लास भरने वाला आयोजन हैं। इसलिये उनके होता, अध्वर्यु, उद्गाता, प्रणेता सभी धर्म प्रेमी होते हैं। अपने यज्ञीय आन्दोलन की रूढ़िवादियों के वर्ग लाभ के लिये किये जाने वाले कर्मकाण्डों से कोई तुलना नहीं की जा सकती है। हम व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में यज्ञीय वृत्तियाँ जागृत करने के महान् आदर्श और उद्देश्य को लेकर चले हैं, सो हमारे उत्सव आयोजनों में भी वही पुट रहता है। इस दृष्टि से अपना शतकुण्डीय नरमेध यज्ञ अति सफल रहा। होमात्मक यश का दूसरा बड़ा आयोजन सन् 56 में सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ के रूप में प्रस्तुत हुआ। इसे चक्रवर्ती केन्द्रीकरण की भावना से किये जाने वाले अश्वमेधों की तुलना को समझा जा सकता है। जब राज सत्तायें विश्रृंखलित हो जाती थीं, तब उनका केन्द्रीकरण तथा पुनः निर्माण करने के लिए प्राचीनकाल में किसी सर्वभौम तन्त्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाते थे। इन दिनों धर्म तन्त्र और धर्म-प्रेमी दोनों ही क्रम-अस्त-व्यस्त हो रहे हैं। उनका केन्द्रीकरण करने और एक क्रमबद्धता उत्पन्न करने के लिए अपना सहस्र कुण्डीय यज्ञ था। उसमें भारत के हर प्रान्त के-विदेशों में फैले अपने सुविस्तृत परिवार के लगभग चार लाख प्रबुद्ध परिजन आहुतियाँ देने आये थे। आयोजन बहुत बड़ा था। कहने वाले कहते हैं कि इतना विश्वास, इतना व्यवस्थित और इतना उद्देश्यपूर्ण आयोजन महाभारत के राजसूय यश के बाद पिछले पाँच हजार वर्षों में दूसरा नहीं हुआ। सात नगरों में बसे हुए-सात मील की परिधि में फैले हुए चार लाख होताओं और उनके उनसे दस गुने दर्शकों के उस विशाल आयोजन को देख, यदि इस युग का अद्भुत और अनुपम धार्मिक उत्सव माना जाता है तो इसमें अत्युक्ति की कोई बात नहीं है। उसकी सभी बातें अनोखी थीं। धन के लिए मनुष्य के सामने हाथ न पसारने की कठोर प्रतिभा के साथ इतने खर्चीले जिसमें विपुल धन राशि व्यय हुई होगी, सम्पन्न कर लेना कोई साधारण बात न थी। इतने विशाल जनसमुदाय के आगन्तुकों में से सभी के निवास और दूसरी व्यवस्था जुटा सकना हमारे जैसे एकाकी और साधन रहित व्यक्ति के लिए एक प्रकार से असम्भव ही समझा जाता था, पर यह आश्चर्य ही माना जाएगा कि वह धर्मानुष्ठान सानन्द सम्पन्न हुआ। देखने वालों में से कितनों ने ही एक से एक अद्भुत चमत्कार उस अवसर पर देखे पर उनकी चर्चा यहाँ अनावश्यक ही है।

उस धर्म-तन्त्र द्वारा आयोजित अश्वमेध के समकक्षी सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ का धार्मिक जागरण की दृष्टि से चमत्कारी प्रभाव हुआ। नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान की एक उल्लास भरी लहर धार्मिक जगत् मैं पैदा हुई और उसने रचनात्मक दृष्टि से इतना अधिक कार्य किया कि उस पर सहसा किसी को विश्वास नहीं हो सकता। आँखों के सामने प्रस्तुत घटनायें दीखती हैं-पर विस्तृत विश्व में जन-जन के भीतर होने वाली हलचलों और उनके द्वारा विनिर्मित प्रक्रियाओं का ब्यौरा नहीं रखा जा सकता और न उन्हें देखा जा सकता है। इसलिये लोग भले ही उस प्रतिक्रिया का अनुमान न लगा सकें पर इतना निश्चित है कि जो महान् कार्य उस सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ के फलस्वरूप सम्पन्न हुआ, वह निस्सन्देह अनुपम था। गायत्री यज्ञ और युग-निर्माण एक ही पक्ष के दो पहलू बन गये। इस आधार पर सहस्त्रों आयोजन देश के कोने-कोने में पिछले दिनों सम्पन्न हुए हैं और विदेशों में तथा विधर्मियों में भी उसका स्वागत सहयोग हुआ है। यह हमारी होमात्मक प्रक्रिया के साथ जुड़े हुए गायत्री आहुति यज्ञ का संक्षिप्त-सा ब्यौरा है। उन आयोजनों के पीछे सूक्ष्म देव-शक्तियों का जगना और जनमानस की दिशा मोड़ना तथा भारतीय तत्त्व-ज्ञान के वर्चस्व के अनुरूप परिस्थितियाँ उत्पन्न करना इन यज्ञों का ऐसा रहस्यमय पहलू है जिसे समझ सकना और उस पर विश्वास कर सकना हर किसी के बस की बात नहीं। फिर भी वे एक रहस्यमय सच्चाइयाँ है जो समयानुसार अपनी वास्तविकता प्रकट करेंगी।

होमात्मक यज्ञ के साथ गायत्री जप भी जुड़ा हुआ है। अध्यात्म शक्ति की ज्ञान-गंगा को जनमानस में अवतरण करने के लिए गायत्री जप भी आवश्यक है, सो पिछले दिनों आहुतियों से सौ गुनी ही नहीं बहुत गुनी जप संख्या चलती रही है। अब यह प्रकरण एक व्यवस्थित स्तर पर आ गया है। प्रसारण में जितनी शक्ति लगनी थी, वह लग चुकी अन्तरिक्ष राकेट अपने कई चरण पूरे कर चुका अब वह उस स्थिति में है कि स्वल्प प्रसारण से ही निर्दिष्ट दिशा में स्वयमेव बढ़ता रहेगा। अस्तु अपने परिजनों के जिम्मे इस संदर्भ में दो नियमित प्रकरण चलाते रहने को बात जमा दी है। अपने परिवार द्वारा हर दिन एक चौबीस लक्ष गायत्री पुरश्चरण सम्पन्न किया जाना और हर वर्ष छोटे-छोटे पाँच कुण्डीय 240 गायत्री यज्ञों के धर्मानुष्ठान पूरे करते रहना। सन्तोष की बात है कि यह चौबीस लाख दैनिक जप की क्रिया लगभग पूरी हो चुकी और 240 शाखाओं ने हर वर्ष अपने वार्षिकोत्सवों के रूप में पाँच कुण्डीय गायत्री यज्ञ वर्ष में कुल मिलाकर सहस्र कुण्ड कराते रहने का व्रत ले लिया। जो थोड़ी कमी रह गई या जो लोग उत्साह में संकल्प लेकर पीछे ढील दिखा रहे हैं उनकी पूर्ति भी अगले दिनों पूरी कर ली जाएगी ऐसी आशा है।

होमात्मक और जपात्मक यज्ञ के स्तर का ही हम दूसरा धर्मानुष्ठान ज्ञान-यज्ञ चलाते रहे हैं। हमारा जीवन क्रम इन दो पहियों पर ही लुढ़कता आ रहा है। उपासना और साधना यही तो दो आत्मिक प्रगति के आधार हैं। उपासना पक्ष, गायत्री जप एवं यज्ञ से पूरा होता रहा है। साधना का प्रकरण ज्ञान-यज्ञ से सम्बन्धित है। यह स्वाध्याय से आरम्भ होकर सद्ज्ञान प्रसार के लिए किये जाने वाले प्रबल प्रयत्न तक फैलता है। जो इस दिशा में भी हम चुन नहीं बैठे रहे हैं। रथ के दोनों पहियों की तरह, नाव के दोनों डंडों की तरह ध्यान उस दूसरे पक्ष का भी रखा है और ज्ञान-यज्ञ के लिए भी यथासम्भव प्रयत्न करते रहे हैं। क्योंकि वह पक्ष भी उपासना पक्ष से कम महत्व का नहीं वरन् सच पूछा जाय तो और भी अधिक समर्थ एवं शक्तिशाली है। ज्ञान ही है, जो पशु को मनुष्य-मनुष्य को देवता और देवता को भगवान् बनाने में समर्थ होता है। ज्ञान से ही प्रसुप्त मनुष्यता जागती है और वही आत्मा को अज्ञान के अन्धकार में भटकने से उतार कर कल्याणकारी प्रकाश की ओर उन्मुख करता है। उपासना में दीपक, अगरबत्ती का, अग्नि की स्थापना-ज्ञान रूपी प्रकाश का प्रतिनिधित्व करने के लिए करते हैं, बिना ज्ञान का, बिना भावना का कर्मकाण्ड तो केवल शारीरिक श्रम भाव रह जाता है और उसका प्रतिफल नगण्य ही होता है।

हमारा 43 वर्ष से प्रज्वलित अखण्ड घृत दीप-जीवन में सद्ज्ञान का प्रकाश ज्वलित किये रहने का प्रतीक है। अपनी यज्ञशाला में अखण्ड अग्नि की स्थापना इसी तथ्य का प्रतीक मानी जा सकती हैं कि हवन कुण्ड की तरह हमारे अन्तःकरण में भी सद्ज्ञान की ऊष्मा अविच्छिन्न रूप से बनी रहे। उपासना के घण्टों के अतिरिक्त अपने पास जितना भी समय बच जाता है, उसमें से शरीर निर्वाह के स्नान, भोजन, शयन आदि को छोड़ कर शेष सारा ही समय ज्ञान-यज्ञ के लिए लगाते हैं। छः घण्टे उपासनात्मक कृत्य में लगे तो ज्ञान-यश के लिए उससे दूने बारह घन्टे लगते हैं। महत्व को देखते हुए यह क्रम विभाजन सर्वथा उचित ही था। तो विगत 43 वर्षों से हम अपनी जीवन नौका इसी क्रम से-इन्हीं दो डंडों के सहारे खेते चले आ रहे हैं। 24 लक्ष के 24 गायत्री महापुरश्चरण और यज्ञ, संगठन एवं प्रचार कार्यों के दृश्य होने के कारण असंख्य लोग परिचित हैं पर हमारी ज्ञान साधना, जिसमें दूरी रुचि रही है और दूना श्रम करते रहे हैं, कम ही लोगों की जानकारी में है।

अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाएँ अपने लम्बे जीवनकाल में लाखों व्यक्तियों को प्रेरक प्रकाश देने और उनके जीवनों में आशाजनक काया-कल्प प्रस्तुत करने में समर्थ हुई है। संसार भर का शायद ही ऐसा कोई कालेज, विश्वविद्यालय हो जहाँ हिन्दी के लिए स्थान हो पर हमारे अनुवादित भारतीय धर्म-ग्रन्थ न हों। चारों वेद, 108 उपनिषद्, छहों दर्शन, बीस स्मृतियाँ, 18 पुराण छप चुके। ब्राह्मण ग्रन्थ और आराध्य हमारे जाने से पूर्व प्रकाशित हो जायेंगे। भारत में ही नहीं संसार भर में भारतीय समस्त धर्म-ग्रन्थों का समग्र परिचय प्रस्तुत करने का यह ऐतिहासिक प्रयत्न है। अब तक एक व्यक्ति द्वारा ऐसा दुःसाहस कभी भी नहीं किया गया है। थोड़े ही समय में देश और विदेश में भारतीय तत्त्व-ज्ञान की साँगोपाँग जानकारी कराने की अपने ज्ञान-यज्ञ की एक महत्त्वपूर्ण धारा है, जिससे बहुतों ने बहुत कुछ पाया है।

जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण करने के लिए जिस विचार-क्राँति की मशाल इस ज्ञान-यज्ञ के अंतर्गत जल रही है, उसके प्रकाश में अपने देश और समाज का आशाजनक उत्कर्ष सुनिश्चित है। स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव ने हमें मूढ़ता और रूढ़िवादिता के गर्त में गिरा दिया। तर्क का परित्याग कर हम भेड़िया धंसान के अन्ध-विश्वास के दल-दल में फँसते चले गये। विवेक छोड़ा तो उचित अनुचित का ज्ञान ही न रहा। गुण-दोष विवेचन की नीर-क्षीर विश्लेषण की प्रज्ञा नष्ट हो जाय तो फिर अँधेरे में ही भटकना पड़ेगा। हम ऐसी ही दुर्दशा-ग्रस्त विपन्नता में पिछले दो हजार वर्ष से अकड़ गये हैं। मानसिक दासता ने हमें हर क्षेत्र में दीन-हीन और निराश निरुपाय बनाकर रख दिया है। इस स्थिति को बदले बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। मानसिक मूढ़ता में ग्रसित समाज के लिए उद्धार के सभी द्वार बन्द रहते हैं। प्रगति का प्रारम्भ स्वतन्त्र चिन्तन से होता है। लाभ में विवेकवान् रहते हैं। समृद्धि साहसी के पीछे चलती है। इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का जनमानस में बीजारोपण और अभिवर्धन करना अपनी विचार-क्राँति का एक मात्र उद्देश्य है। ज्ञान की मशाल इसी दृष्टि से प्रज्वलित की गई है।

इस संदर्भ में हमारा झोला पुस्तकालय आन्दोलन सब से महत्त्वपूर्ण है। इसे ज्ञान-यज्ञ का आधार स्तम्भ कहना चाहिये। युग-निर्माण योजना के अंतर्गत पिछले दिनों लगभग 300 छोटी पुस्तिकाएँ ट्रैक्ट प्रकाशित किये गये हैं। जिनमें जीवन जीने की कला, सामाजिक विकास के आधार सूत्र और राष्ट्रीय समर्थता के समस्त बीजमंत्रों का समावेश है। पुस्तिकाएँ छोटी-छोटी हैं पर वे जिस दर्द, जिस तथ्य और जिस तर्क के साथ लिखी गई हैं, उससे उनमें एक सजीव चित्रकारी का समर्थ कर्तव्य सम्पन्न कर सकने की शक्ति भर गई है। इन ट्रैक्टों में जीवन-क्रम अवांछनीयता से मोड़कर वाँछनीयता की दिशा में मोड़ने की अद्भुत समता विद्यमान् है। यही कारण है कि वे जहाँ भी पढ़ी-सुनी जाती हैं। युग परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत कर सकने की इन पुस्तिकाओं में समग्र क्षमता विद्यमान् है। इनके पढ़ने सुनने से पिछले दिनों जो हलचलें उत्पन्न हुई हैं, उन्हें देखते हुए, यह अति आवश्यक प्रतीत होता है कि जनमानस में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के तथ्यों का समावेश करने के लिए इस ट्रैक्ट साहित्य का अधिकाधिक प्रचार किया जाय। और उन्हें घर-घर जन-जन के पास तक पहुँचाया जाय।

स्पष्ट है कि बौद्धिक अवसाद से ग्रस्त अपनी पोड़ी की जीवन समस्याओं को सुलझाने वाले प्रकाशपूर्ण साहित्य में कोई रुचि नहीं है। ऐसा साहित्य उपेक्षित और तिरस्कृत ही पड़ा रहता है। एक तो अपने देश में वैसे ही 80 प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं। जो शिक्षित हैं उनमें से अधिकांश को रोटी-रोजी के काम आने जितनी पढ़ाई याद रहती है। बाकी स्कूल से निकलते ही विस्मरण हो जाती है। जो थोड़े से लोग अन्य साहित्य पढ़ने में रुचि लेते हैं, उनकी कामुकता, अश्लीलता जासूसी, तिलस्मी, किस्से-कहानियों उपन्यासों का हल्का साहित्य रचता है। शिक्षा के साथ साथ ऐसे ही अवांछनीय साहित्य का प्रकाशन और विक्रय बढ़ा है, जो मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों को ही भड़का सकता है। व्यक्ति और समाज की मूलभूत समस्याओं को समझाने और सुलझाने में सहायता करने वाला साहित्य बहुत ही स्वल्प मात्रा में दिखाई पड़ता है। प्रकाशक या लेखक-बेचारा करे भी क्या जब बाज़ार में उनको माँग ही नहीं तो उनके लिए समय और पूँजी कौन घेरे? इस विपन्नता का सामना करना आवश्यक है। अन्यथा लोग प्रकाशपूर्ण विचार-धारा के अभाव में वर्तमान कूपमण्डूकता और क्षुद्रता की कीचड़ में पड़े हुए कीड़ों की तरह ही कुल बुलाते रहेंगे, उन्हें ऊँचे उठने की न तो प्रेरणा मिलेगी, न दिशा। क्रांतिकारी विचार ही मनोभूमियाँ बदलते हैं और बदली हुई मनोभूमि से ही महान् जीवन एवं समर्थ समाज की सम्भावनायें समाविष्ट रहती हैं।

जनमानस तक प्रेरणाप्रद समर्थ एवं प्रकाशपूर्ण विचार धारायें पहुँचाने के लिए युग-निर्माण योजना ने अपने साधन अति स्वल्प रहते हुए भी-अभाव-ग्रस्त परिस्थितियों में भी किसी प्रकार व्यक्ति और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाला साहित्य विनिर्मित किया है। व्यक्ति की सीमा इतनी ही है। हम इतना ही कर सकते थे, सो कर लिया। अब इस प्रकाश को उपयुक्त स्थानों तक पहुँचाने के विशाल कार्यक्रम में दूसरे हाथ और कन्धे भी लगने चाहिये। इसी का उद्बोधन पिछले कई महीने से किया जा रहा है। एक घण्टा समय और दस पैसा रोज निकालने की माँग इसी दृष्टि से की गई थी यह विचार-धारा व्यापक क्षेत्र में अपना प्रकाश पहुँचा सकने में समर्थ हो सकें। झोला पुस्तकालयों की सीधी-सादी योजना इसी महान् प्रयोजन की पूर्ति के लिये है।

अपना ट्रैक्ट साहित्य अति सस्ता है। 300 पुस्तिकाओं का तथा अन्य समस्त पुस्तकों का मूल्य कमीशन काट कर लगभग 100) होता है। इतनी पूँजी लगाकर एक घरेलू किन्तु अति प्रभावशाली संस्था-युग निर्माण पुस्तकालय की-स्थापना कोई भी अपने यहाँ कर सकता है। इसका भारी लाभ वह स्वयं उठा सकता है और उसके परिवार के लोग पढ़कर या सुनकर अपने विचार संस्थान में ऐसा प्रकाश उत्पन्न कर सकते हैं, जिससे उस घर, परिवार का भविष्य स्वर्गीय बन सके। अपने बच्चों और कुटुम्बियों के लिए यह एक अनुपम उपहार है। कोई अपने उत्तराधिकारियों के लिए और कुछ सम्पदा भले ही न छोड़ सकें पर यदि यह युग-निर्माण ट्रैक्ट साहित्य का एक छोटा पुस्तकालय छोड़ दिया है तो समझना चाहिये कि उसने अपने कुटुम्बियों के साथ एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ ग्रह-संचालक का कर्तव्य निभा दिया। आज नहीं तो कभी भी यदि घर के लोग इस साहित्य को पढ़ने में रुचि लेने लगें तो वे देखेंगे कि हमारे लिए एक बहूमूल्य धरोहर सँजोकर रखी गई है।

इस ट्रैक्ट साहित्य को ‘झोला पुस्तकालय’ इसलिये कहा जाता है कि यह पुस्तक खरीद लेने से ही काम नहीं चलता वरन् इन्हें पढ़ाने के लिए अपने मित्रों, परिचितों एवं सम्बन्धियों पर दबाव भी डालना पड़ता है। उनसे अनुरोध भी करना पड़ता है और इस अरुचिकर प्रसंग में रुचि उत्पन्न करने के लिए बहुत कुछ बुद्धि-कौशल दिखाना पड़ता है, अन्यथा इस रूखे विषय का कोई पढ़ने के लिए भी तैयार न होगा। इस साहित्य का प्रभाव और परिणाम अतीव श्रेयस्कर होगा पर कठिनाई एक ही है कि इन बालकों के गले यह कड़वी गोली उतारी कैसे जाये। जिन्हें पढ़ने में ही रुचि नहीं -है तो निष्कृष्ट स्तर की वस्तुएँ तलाश करते हैं, ऐसी दशा मैं यह प्राण वर्धक जीवन साहित्य इनके गले कैसे उतरे? उपाय एक ही है कि जिस प्रकार चाय कम्पनियों ने आज से पचास वर्ष पूर्व मुफ्त चाय पिला-पिलाकर और इसके लिए घर-घर जा-जाकर चाय का प्रचार किया और वह थोड़े ही दिनों में वही स्थिति आई कि रावरंक का-ग्रामीण और शहरी का-काम अब बिना चाय के नहीं चलता। वही रास्ता विचारशील लोग अपनाये और जनसाधारण में इस

सन्दर्भ की अभिरुचि उत्पन्न करें। झोला पुस्तकालय यही पुण्य प्रयत्न है। जहाँ कहीं भी जाया जाय, छाता या छड़ी की तरह हाथ की शोभा के लिए एक बढ़िया वाला प्लास्टिक का वेग या कन्धे पर सिपाहियों जैसा मोटे कपड़े का थैला रखा जाय। उसमें अखण्ड-ज्योति युग-निर्माण की प्रतियाँ एवं ट्रैक्ट पुस्तिकाएँ भरी हों। मिलने-जुलने वालों, जहाँ अवसर मिलें-व्यक्ति की रुचि और समस्याओं के

अनुरूप अपने साहित्य को सामने रखा जाय और उसकी विशेषताएँ एवं प्रतिक्रियाएँ विस्तारपूर्वक, आकर्षक महात्म्य के रूप में समझाई जायें। जब उस सम्बन्ध में आकर्षण उत्पन्न हो ता पढ़ने के लिए उपयुक्त पुस्तिका दी जाय। वापिस लेने जाते समय उस

संदर्भ की फिर चर्चा छेड़ी जाय। इस प्रकार प्रयत्न करते रहने पर सम्बन्धित लोगों में इस साहित्य के पढ़ने की अभिरुचि जगाई जा सकती है। पीछे तो वह स्वयं माँगने आयेंगे। माँगने तक ही सीमित न रहकर आगे तो वे खरीदेंगे भी और अपनी ही तरह झोला पुस्तकालय भी चलाने लगेंगे। शिक्षितों को पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने के लिए यह साहित्य हर दृष्टि से अति उपयोगी है, विश्वास किया जाना चाहिये कि जो एक बार इस सब को पढ़ लेगा, उनकी मनःस्थिति मूढ़ता मैं जकड़ी नहीं रह सकती। उसे कुछ ऐसे प्रगतिशील कदम उठाने की अन्तः प्रेरणा मिलेगी ही, जो उसके तथा समस्त समाज के लिए श्रेयस्कर हो।

ज्ञान-यज्ञ का एक अति महत्त्वपूर्ण आधार झोला पुस्तकालय है। यह पुष्प प्रक्रिया हममें से हर एक के द्वारा चलाई जाय। गत मास अनुरोध किया गया था कि जिनके पास जितने ट्रैक्ट कम हों, उन्हें पूरा करके अब तक के प्रकाशित साहित्य का समग्र पुस्तकालय पूरा कर लिया जाय। यह कोई बड़ी बात नहीं है। अधिकतर पुस्तकें तो परिजनों के पास है ही' जो कम हों, गत अंक में प्रकाशित सूची से मिलाकर शेष और मँगा ली जायें। जिससे इस स्थापना में पूर्णता आ जाय। इस पूर्ति में मुश्किल में 50-40 रु. ही और लगाना पड़ेगा कि अपना पुस्तकालय अद्यावधि प्रकाशन से परिपूर्ण हो जाएगा इस परिपूर्ण पुस्तकालय से ही एक परिपूर्ण प्रक्रिया ठीक तरह चल सकेगी। काम करने के लिए यह एक सर्वांगपूर्ण हथियार हाथ में होगा तो जो करना है, उसे अधिक व्यवस्थित रीति से सफलतापूर्वक किया जा सकेगा।

हम चाहते थे कि हमारा ज्ञान-यज्ञ असंख्य झोला पुस्तकालयों द्वारा घर-घर सद्ज्ञान का प्रकाश पहुँचाने और नैतिक साँस्कृतिक पुनरुत्थान की पुष्प प्रक्रिया गतिशील करने में इन्हें दिनों अग्रगामी हो चले। अपने जीवन के प्रमुख संकल्प सफलतापूर्वक फलित होते देखकर हर किसी को प्रसन्नता होती है, हैं भी सन्तोष होगा। उपासनात्मक प्रक्रिया यज्ञ, जप और धर्म प्रेमियों को एक मंच पर इकट्ठा करने की प्रक्रिया के साथ सफलता की दिशा में इतनी आगे बढ़ गई हैं कि हमें इस संदर्भ में सन्तोष है और विश्वास है कि वह प्रक्रिया आगे भी अपने आप गतिशील रहेगी। पर साधनात्मक दिशा का हमारा दूसरा संकल्प ज्ञान-यज्ञ अभी बहुत अधूरा, लँगड़ा और असंतोषजनक स्थिति में पड़ा है। आकांक्षा इतनी भर है कि हमारी विदाई के शेष बीस महीनों में यह संकल्प भी इतना गतिशील बन जाय, जिस पर सन्तोष व्यक्त किया जा सके।

हम अपने परिजनों से लड़ते-झगड़ते भी रहते हैं और अधिक काम करने के लिए उन्हें भला-बुरा भी कहते रहते हैं, पर वह सब इस विश्वास के कारण ही करते हैं कि उनमें पूर्वजन्मों के महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक संस्कार विद्यमान् हैं, आज वे प्रसुप्त पड़े हैं पर उन्हें झकझोरा जाय तो जगाया जा सकना असम्भव नहीं है। कड़ुवे-मीठे शब्दों से हम अक्सर अपने परिवार को इसलिये को झकझोरते रहते हैं कि वे अपनी अंतःस्थिति और गरिमा के अनुरूप कुछ अधिक साहसपूर्ण कदम उठा सकने में समर्थ हो सकें। कटु प्रतीत होने वाली भाषा में और अप्रिय लगने वाले शब्दों में हम अक्सर परिजनों का अग्रगामी उद्बोधन करते रहते हैं। उस सन्दर्भ में रोष या तिरस्कार मन में नहीं रहता वरन् आत्मीयता और अधिकार की भावना ही काम करती रहती है। लोग भले ही भूल गये हों, पर हम तो नहीं भूले हैं। लम्बी अवधि से चली आ रही ममता और आत्मीयता हमारे भीतर जमी भी पूर्वजन्मों की भाँति सजग है। सो हमें अपनी पूर्वकालीन घनिष्ठता की अनुभूति के कारण वैसा ही कुछ जब भी लगता रहता है कि यह अपनी ही आत्मा के अविच्छिन्न अंग हैं। और इन पर हमारा उतना ही अधिकार है, जितना निकटतम आत्मीय एवं कुटुम्बी-सम्बन्धियों का हो सकता है। अपने इस अधिकार की अनुभूति के कारण ही आग्रह और अनुरोध ही नहीं करते वरन् निर्देश भी देते रहते हैं और उनके प्रति उपेक्षा करते जाने पर लाल-पीले भी होते रहते हैं। इन कटु प्रसंगों के पीछे हमारा कोई व्यक्तिगत राम-द्वेष या स्वार्थ-लोभ नहीं रहना विशुद्ध रूप से लोक-मंगल और जनकल्याण की भावना ही काम करती रहती है। जिस प्रकार लोभी बाप में अपने बेटे को अमीर देखने की लालसा रहती है, उसी प्रकार हमारे मन में भी अपने परिजनों को उत्कृष्ट स्तर के महामानव देखने की आकांक्षा बनी रहती है। और उसी के लिए आवश्यक अनुरोध आग्रह करते रहते हैं। इस बार झोला पुस्तकालयों की पूर्णता के लिए जो अनुरोध किया गया है, उसके पीछे भी यही भावना काम कर रही है कि हमारा शरीर कहीं सुदूर प्रदेश में भले ही चला जाय पर हमारी आत्मा विचारणा, प्रेरणा, भावना और रोशनी प्रिय परिजनों के घरों में पीछे भी जमी बैठी रहे और हमारी अनुपस्थिति में भी उपयुक्त मार्ग दर्शन करती रहे। जो उपेक्षा और आलस्य करते हैं, उन्हें कटु शब्द भी इसीलिये कह देते हैं कि थोड़ी सी पूँजी में घर की एक बहुमूल्य सम्पदा स्थिर करने में जो कंजूसी बरती जाती है। वहीं हमें रुचती नहीं। अनेक आकस्मिक कार्यों में किसी भी सद्गृहस्थ को बहुत व्यय करना पड़ जाता है। उसे किसी प्रकार करते ही हैं। फिर एक घरेलू पुस्तकालय परिपूर्ण कर लेने के लिए आना-कानी की जाती है तो उसे हमें उपेक्षा मात्र मानते हैं और भर्त्सना करते हैं। हमारी भावनाओं का गलत अर्थ न लगाया जाय और जो बात जैसी है, उसे वैसा ही समझा जाय।

कितने व्यक्ति चमत्कारी साधनाओं के विधान जानने और प्रगति में सहायता करने वाले आशीर्वाद पाने के इच्छुक रहते हैं। उन्हें हम सदा यही कहते रहे हैं कि माँगने मात्र से नहीं, पात्रता के अनुरूप ही कुछ मिलता है। चमत्कारी साधनाओं के विधान हमें मालूम है। बताने में भी कोई आपत्ति नहीं, पर वे सफल तभी हो सकेंगे, जब प्रयोग कर्ता केवल कर्मकाण्डों तक ही सीमित न रहकर अपनी भाव भूमिका को भी आध्यात्मिक बनायें। केवल विधान और कर्मकाण्ड कोई सिद्धी नहीं दे। सकते उनके पीछे साधक की उच्च मनोभूमि का होना आवश्यक है और उस प्रकार की भूमिका बनाने की अनिवार्य शर्त उदार, परोपकारी, स्वार्थ-त्यागी और सहृदय होना हैं। जो कंजूस, अनुदार, निष्ठुर, स्वार्थी और धूर्त प्रकृति के हैं, उन्हें किसी उच्च स्तरीय आध्यात्मिक विभूति का लाभ नहीं मिल सकता। इसी प्रकार आशीर्वाद भी केवल वाणी से कह कर या लेखनी से लिखकर नहीं दिये जाते, उनके पीछे तप की पूँजी लगाई गई हो तभी वे वरदान सफल होंगे। तप की पूँजी हर किसी के लिए नहीं लगाई जा सकती। गाय अपने ही बछड़े को दूध पिलाती है। दूसरे बछड़ों के लिए उसके थन में दूध नहीं उतरता। आशीर्वाद भी अपने ही वर्ग और प्रकृति के लोगों के प्रति झरते हैं। केवल चालाकी और चापलूसी के आधार पर किसी का तप लूटते जाने की घात तो कदाचित ही किसी की लगती है। इन तथ्यों के आधार पर हम अपने उन प्रियजनों को जो चमत्कारी विधानों की जानकारी तथा लाभकारी आशीर्वादों की उपलब्धि के इच्छुक रहते हैं, हमें एक ही बात समझानी पड़ती है कि वे इन दोनों सफलताओं को यदि वस्तुतः चाहते हों तो अपना आन्तरिक स्तर थोड़ा ऊँचा उठाये और यह ऊँचाई बढ़ सके, उसके लिए हम उन्हें ज्ञान-यज्ञ सरीखे पुनीत परमानों की साधना करने उनमें सक्रिय भाग लेने के लिए अनुरोध करते रहते हैं। लोक-मंगल परमार्थ और युग की पुकार पूरी करने का कर्तव्य पालन करने के लिए ही नहीं हमारा प्रस्तुत मार्ग-दर्शन आध्यात्मिक लाभों से लाभान्वित होने के लिए आवश्यक पात्रता उत्पन्न करने की दृष्टि से भी इसकी नितान्त आवश्यकता है।

ज्ञान-यज्ञ का वैसा ही व्यापक स्वरूप उन दिनों बनाना चाहिये, जैसा कि सहस्त्र कुण्डीय गायत्री यज्ञ के दिनों परिजनों के उत्साह एवं सहयोग से कुछ कार्य सम्भव हुआ था। उसी स्तर की एक लहर फिर उठनी चाहिये। यह सक्रियता ही हमारी विदाई का अविस्मरणीय उपहार हो सकता है। अपना कार्य क्षेत्र-प्रचार क्षेत्र-संपर्क क्षेत्र सीमित न रहे। वह व्यापक अति व्यापक बने इसके लिए बीस यज्ञ तक चलने वाला एक प्रकार कार्यक्रम गत मास प्रस्तुत किया गया है। युग-निर्माण विचार-धारा का सारांश लेकर छोटी-छोटी सी विज्ञप्तियाँ अगले दिनों प्रकाशित की जा रही है। जिनमें से आठ के नमूने गत अंक के छप चुके, 12 के नमूने इस अंक में छपे हैं। आगे यह क्रम सात महीने और जारी रहेगा और अखण्ड-ज्योति में यह सभी विज्ञप्तियाँ छप जायेंगी। उन्हें अलग से भी छापा जा रहा है। परिजनों से अनुरोध किया गया है कि उन्हें अपने क्षेत्र में पढ़ाने का अभियान पूरे उत्साह से जारी करें और इस कार्य के लिए हर दिन दस पैसे निकालने से कुछ आगे एक कदम और बढ़ाकर हर महीने एक दिन की आमदनी खर्च करने लगें। एक रुपये की सौ विज्ञप्तियाँ इस कागज, छपाई के अति महंगाई के जमाने में लागत मूल्य से भी कम है। एक रुपये में सौ व्यक्तियों को अथवा-एक व्यक्ति को सौ बार ज्ञानदान का प्रकाश पहुँचाया जा सकता है। इससे सस्ता, इससे महत्त्वपूर्ण और इससे अधिक सत्परिणाम प्रस्तुत करने वाला परमार्थ दूसरा हो ही नहीं सकता। साथ ही एक और भी लाभ जुड़ा हुआ है कि 10) मूल्य की एक हजार विज्ञप्तियाँ (कितने ही तरह की मिलाकर लेने पर भी) मँगाने वाले का नाम पता लाल स्याही में छाप दिया जाता है-जैसा कि पिछले अंक की विज्ञप्तियों में नमूने के लिए छपा है। इस प्रक्रिया से वितरण कर्ता का यश बढ़ता है-अनेक लोगों की उसका उदार कर्तृत्व एवं परिचय विदित होता है। लौकिक दृष्टि से यह एक उत्साह वर्धक उपलब्धि है। यह नाम छप जाने पर लोग उससे संपर्क बनाकर अधिक चर्चा करने एवं उसके झोला पुस्तकालय से लाभ उठाने के उत्सुक होंगे। इस प्रकार उसका सेवा क्षेत्र इस विज्ञप्ति वितरण के कारण सहज ही बढ़ जाएगा यह व्यक्तिगत प्रक्रिया हुई। युग-निर्माण की विचार-धारा को व्यापक बनाने का तो यह एक अति सरल, अति प्रभावी मार्


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