शरीर और मनुष्य समाज का तुलनात्मक अध्ययन

August 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बहुत दिन तक पृथ्वी में केवल विवेक और ज्ञान शून्य पशुओं और जीव-जन्तुओं का बाहुल्य रहा। इनमें शक्ति थी, ज्ञानेन्द्रियाँ और कामेन्द्रियाँ थीं, किन्तु विवेक और विचार नहीं था इसलिये वह सबके सब अपनी-अपनी मनमानी करते थे। एक दूसरे को मार कर खा जाते थे। जो अधिक शक्तिशाली होता था वही समाज का मुखिया होता था और उसकी अन्तिम इच्छा ही न्याय होती थी। शक्तिशाली किन्तु विचारहीन के हाथ सत्ता होने से उसका दुरुपयोग होना स्वाभाविक था, उससे पशु-प्रवृत्ति वाले संसार में सर्वत्र अशान्ति छा गई। तब भगवान् ने मनुष्य शरीर पैदा किया उसे बुद्धि और विचार भी दिये और वह विश्वास किया कि अब संसार में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की जा सकेगी।

मनुष्य पशु-योनियों से विकसित हुआ है इसलिये पूर्व संस्कार एवं पाञ्चिक वृत्तियाँ भी निश्चित रूप से भड़की और उनकी पूर्ति का औचित्य ठहराने के लिये उसने उपयोगितावाद जैसे भ्रान्त सिद्धांत का आश्रय लिया। यह देखकर ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था बनाई थी कि मनुष्य इन पशुप्रवृत्तियों से अपने आपको विलग माने और यह अनुभव करे कि अन्य जीवों की तुलना में उसे जा अधिक साधन और सुविधायें मिली हैं वह आत्म-कल्याण और क्षमताओं का उपयोग इस तरह करना चाहिये जिससे अपना विकास भी हो सकता हो और सामाजिक शान्ति एवं सुव्यवस्था भी अक्षुण्ण रह सकती हो। वर्णाश्रम संस्कृति की स्थापना मनुष्य-समाज को उपयोगितावाद जैसी भ्रान्त धारणा से बचाने का ही एक वैज्ञानिक उपाय था। यह व्यवस्था ईश्वरीय आदेश की तरह है। विश्व-शान्ति के लिये उसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय भी नहीं है।

सहयोग और सामूहिकता को ईश्वरीय आदेश या आत्मा की आवश्यकता मानने कारण हमारे सामने स्पष्टतया हमारा शरीर है। भगवान् बोलता नहीं, लिख कर भी कुछ बात समझाता नहीं पर उपयोगिता के विपरीत उसने अपने आदेशों का अनुबन्ध अवश्य किया है। मनुष्य-शरीर की रचना और उनकी क्रिया प्रणाली (एनोटामी एण्ड फिजियोलॉजी) वह उत्तर है जिससे उपयोगितावाद का खण्डन किया जा सकता है।

शरीर एक समाज है। ऐसा समाज जिसमें अनेक गुण, प्रकृति, कर्म एवं स्वभाव वाले लोग निवास करते हैं,। यों पृथ्वी एक है पर उसमें रहने वाले जितने भी मनुष्य हैं वह सब अलग-अलग प्रकृति और स्वभाव के हैं। ठीक उसी प्रकार शरीर एक है पर उसमें कई अरब जीव-कोष (सेल्स) पाये जाते हैं वह सब के सब अनेक तरह के गुण, कर्म और स्वभाव वाले हैं तो भी शरीर जगत के सारे प्राणी और उनके समाज परस्पर इस तरह व्यवहार करते हैं कि शरीर में कहीं भी किसी तरह का गतिरोध, अव्यवस्था एवं कलह उत्पन्न नहीं होती। जब तक सारे जीव-कोष सहयोग और सामूहिकता के नियम का पालन करते रहते हैं, सारा शरीर प्रसन्नतापूर्वक अपने कार्य में जुटा रहता है। इस व्यवस्था में उपयोगितावाद को प्रश्रय मिल गया होता तो मनुष्य का एक महीने जीवित रहना कठिन हो जाता। जिस स्थान का कोष सशक्त होते दूसरे कमजोर कोषों को खाते चले जाने और मनुष्य-शरीर कुछ क्षणों में ही धराशायी हो जाता।

मनुष्य में इतना विवेक नहीं कि वह यह अनुभव करे कि हम एक ही पितामह की सन्तान परस्पर भाई-भाई हैं और इसलिये हम सजातीय हैं। जीव-कोष बताते हैं कि अनेक समाज, संस्कृति और राष्ट्रों में विभक्त मनुष्य दरअसल एक ही माता पृथ्वी और पिता परमात्मा के पुत्र हैं। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया गया होता तो परस्पर उसी तरह का प्रेम, स्नेह, सहयोग, सौजन्य, उदारता, बुद्धिमतां, दया, करुणा, माता, समता और कर्त्तव्य भावना का विकास हुआ होता जिस तरह मनुष्य शरीर में छोटे-छोटे कोष (सेल्स) व्यवहार करते और शरीर समाज की व्यवस्था को सन्तुलित बनाये रखते हैं। यदि विश्व-शान्ति और समृद्धि और कल्याण की भावना को जीवित रखना हो तो हम उन्हीं आदर्शों का पालन करना होगा।

मनुष्य-शरीर के सभी कोष चाहे वह पैर में हों या पेट और मुख में एक ही जीव-कोष (स्पर्म) प्रविष्ट हुआ था उसी से अनेक कोषों वाला शरीर अस्तित्व में आया था। शरीर में जितने कोष हैं वह सब अपने को भाई-भाई मानते हैं और उनके जितने भी समाज बने हैं सब परस्पर सहयोग, सहानुभूति, दया, करुणा, उदारता का पालन करते हैं।

शरीर का कोई भी कोष बिना खाद्य के जीवित नहीं रह सकता। आक्सीजन ही वह खाद्य है जो रक्त के द्वारा शरीर के सम्पूर्ण भागों में पहुँचता और प्राण-संचार करता है। रक्त पैदा करना, सफाई करना और संग्रह करना हृदय का काम है उसके लिये वह जीवन भर क्रियाशील रहता है। हृदय एक क्षण भी रुकता नहीं। उदार मनुष्य उसी तरह एक क्षण भी विश्राम किये बिना सोते-जाते हृदय के समान तप करके अपनी शक्ति बढ़ाते रहते हैं और उस संचित शक्ति या तप से सारे समाज को जीवन-दान देते रहते हैं। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त सच रहा होता तो हृदय अपने रक्त की एक बूँद भी औरों को न देता। अपने लिये तो वह बहुत थोड़ा लेता है शेष सारा का सारा समाज को दे देता है इसलिये हृदय बड़ा है, पूज्य है, सम्माननीय है। यदि वह इस तरह आत्म-त्याग न करता तो शरीर कैसे जिन्दा रहता?

शरीर रचना शास्त्र (एनाटॉमी) का एक बहुश्रुत सिद्धान्त है- एनक्सिया आफ ब्रोन” जिसका अर्थ है यदि मनुष्य को 3 मिनट तक रक्त न मिले तो उसका तुरन्त अन्त हो जाये। मस्तिष्क के मर जाने का अर्थ है शरीर का मर जाना। उसी प्रकार माँसपेशियों को रक्त न मिले तो वह मर (गैंयरीन) जाती हैं। कारोनरी आट्रोज को रक्त न मिले तो दिल का दौरा आ जाता है, रेटिनल आट्रोज को रक्त न पहुँचे तो दीखना बन्द हो जाता है। आँतें, जिगर, फेफड़े, माँसपेशियाँ शरीर का कोई ऐसा हिस्सा नहीं जिसे रक्त का उचित वितरण न होता हो। इससे सिद्ध होता है कि साधनों का एक स्थान पर संग्रह (स्टोर) नहीं होना चाहिये वरन् उन्हें क्रियाशील रहना चाहिये। सामाजिक जीवन में जहाँ भी साधनों का उदारतापूर्वक वितरण होता रहता है वहाँ व्यवस्था रहती है, शान्ति और प्रसन्नता बनी रहती है। पर जहाँ ऐसा नहीं होता किसी स्थान को साधनों का मिलना बन्द कर दिया जाता है तो शरीर के समान उसका दुष्प्रभाव सारी मनुष्य जाति को भुगतना पड़ता है।

साधनों का वितरण समान रूप से नहीं किया जा सकता। आवश्यकता और कार्य का स्वरूप देखना पड़ता है। जो ज्यादा महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं उन्हें अधिक अधिकार, साधन और सुविधायें देनी ही पड़ती है, उनकी तुलना में जो कम महत्व का स्थूल कार्य करते हैं। शरीर में ज्ञान का, चेतना का महत्व सब से अधिक है। व्यवस्थापक ही न रहे तो व्यवस्था कहाँ रहेगी? मकान मालिक ही न हो तो मकान कहाँ सुरक्षित रह सकता है? व्यवस्थापक को, मकान मालिक को अधिक महत्व देने की तरह ही शरीर में ज्ञान वाले भाग की भी अधिक देख-रेख की आवश्यकता है। शरीर में यह व्यवस्था है। हृदय से बाई ओर (लेफ्ट वैन्ट्रिकिल) सबसे बड़ी धमनी (एओटी्र) निकलती है और सबसे शुद्ध रक्त का सबसे शुद्ध भाग कैरोटेड एवं इनामिनेटेड धमनी द्वारा होकर बरटेबरल आट्रीज में पहुँचता है। यहाँ से सेरीब्रल आट्रीज में वह शुद्ध रक्त पहुँच कर सारे शरीर को पोषण प्रदान करता है। मस्तिष्क में जितना शुद्ध रक्त पहुँचता रहता है उतना ही शरीर निषेधात्मक आवेग (निगेटिव इम्पल्सेज) जैसे क्रोध, चिड़चिड़ापन, भय, आतुरता, आलस्य से बचा रहता है और प्रसन्नता एवं दीर्घ जीवन बना रहता है। इससे यह पता चलता है कि जिस समाज में उन बुद्धिजीवियों को, जो लोगों को सद्ज्ञान और सत्कर्मों की प्रेरणा देते रहते हैं, पर्याप्त पोषण मिलता रहता है, वहाँ सुख और शान्ति बनी रहती है। जीवन और प्राण बना, रहता है।

समाज की सुरक्षा का प्रश्न द्वितीय है। पोषण अनिवार्य रूप से मिले पर समाज को बाहरी आक्रमणों से बचाना भी आवश्यक है। ऐसे वर्ग को जो शान्ति और सुव्यवस्था की रक्षा करते हैं क्षत्रिय कहते हैं और उन्हें द्वितीय श्रेणी का शुद्ध रक्त दिया जाता है। हाथ शरीर की रक्षा करते हैं उन्हें अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक सक्रिय रहना पड़ता है, यह समझ कर ही हृदय उन्हें सब क्लेरियन आट्रीज द्वारा द्वितीय श्रेणी का रक्त प्रदान करता है। हाथ शरीर की रक्षा करते हैं उन्हें अन्य अंकों की अपेक्षा अधिक सक्रिय रहना पड़ता है यह समझ कर ही हृदय उन्हें सबक्लेरियन आट्रीज द्वारा द्वितीय रेणी का रक् प्रदान करता है। उसमें भेद-भाव नहीं आवश्यकता को ही प्राथमिकता दी गई है।

तीसरे नम्बर पर शरीर के वे निचले भाग पेट, पैर आदि आते हैं उन्हें डिसेन्डिग एऔर्टा से रक्त पहुँचाया जाता है उन्हें आवश्यकतानुसार मात्रा तो अधिक दी जाती है पर उसकी शुद्धता दोनों से कम होती है।

समाज में एक शूद्र वर्ग मी होता है। शूद्र का अर्थ कोई जाति नहीं। विभाग सभी कर्मानुसार हैं। ब्राह्मण वह है जो बुद्धिजीवी ही नहीं सच्चरित्र और परमार्थी भी है। क्षत्रिय यह है जो समाज को बुरे तत्त्वों से रक्षा करता है। वैश्य वह है जो अपने चार्बों को तो थोड़ा अधिक देखता है पर समाज के पोषण का कार्य ईमानदारी से करता है। शूद्र वह है जो सद्गुण रहित है। यद्यपि वह हानिकारक है पर त्याज्य नहीं। उसका भी उपयोग करना चाहिये, यह शिक्षा हमें अपने शरीर रूपी समाज से मिलती है।

सारे शरीर में प्रयोग के बाद रक्त में आक्सीजन की कमी हो जाती है प्लाज्मा वही बना रहता है अर्थात् श्वेताणु (व्हाइट ब्लड कार्पसल्स) एवं लाल-अणु (रेड ब्लड कार्पसल्स) को मात्रा वही रहती है, केवल शुद्धता नष्ट हो जाती है। ऐसे रक्त को शिराओं द्वारा लौटा कर हृदय में पहुँचाने की व्यवस्था की गई है शिराओं में वालव लगे होते हैं वह रक्त को नीचे वहीं जाने देते दूसरे फेफड़ों में से साँस निकलने के बाद वायु-शून्यता (वैकुअम) उत्पन्न होने से भी रक्त ऊपर की ओर दौड़ने लगता है। माँसपेशियों के दबाव के द्वारा भी अशुद्ध रक्त हृदय की ओर बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि समाज में फैल रही गन्दगी और कुरीति का सब तरफ से ऐसा सामना करना चाहिये जिससे उसे शुद्ध और उपयोगी बनाया जा सके। ऐसा नहीं होता तो समाज विश्रृंखलित होने लगते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर में अशुद्ध रक्त न लौटे तो बीमारी (कन्जस्टिव कार्डियक फेलर) हो जाती है और हाथ-पैर में सूजन, फेफड़ों में बलगम इकट्ठा हो जाता है। जिगर बढ़ जाता है। दिल बड़ा (डाइलेटेड) और कमजोर हो जाता है।

साधनों का अभेद वितरण, आवश्यकतानुसार वितरण और समाज में गुणों की दृष्टि से शुद्धिकरण का क्रम जहाँ शरीर की भाँति चलता रहता है वहाँ स्थिर, शान्ति और सुव्यवस्था बनी रहती है। शरीर उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी आधार पर ही ऋषियों ने वर्णाश्रम संस्कृत का ढाँचा तैयार किया था। सारा समाज अपने-अपने कर्तव्यों का पालन किस प्रकार करे इसका निर्धारण भी उन्होंने शरीर के विभिन्न अवयवों की कार्य-प्रणाली का अध्ययन करके किया था। उसमें भी भेदभाव का नाम नहीं है। सामाजिक अवस्था को ही वहाँ भी प्रमुख स्थान दिया गया है। साम्यवाद और उपयोगितावाद का यह मिला-जुला रूप ही इस पृथ्वी में स्थायी शान्ति का आधार हो सकता है। इसमें व्यक्ति को उदार और त्यागी होना पड़ता है सामाजिक उपयोगिता को ध्यान में रख कर सर्व हित परायण, कर्तव्य परायण होना पड़ता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118