प्रेम-अमृत का झरना

August 1969

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परमेश्वर का कराल मुख अग्नि-जिह्वा की तरह और उससे प्रेम करना यज्ञ। वह जिसमें देह, प्राण, मन, वस्तु, परिस्थिति, ममता, राग, कामना, मोह आदि को समिधायें बना कर स्वाहा किया जाता है। प्रेम की परीक्षा यही तो है कि हम अपनी प्रिय वस्तुओं का प्रेमी के लिये कितना निःस्वार्थ उत्सर्ग कर सकते हैं। जब तक विवाह नहीं होता व्यक्ति केवल अपने हित की बात सोचता है अपने लिये सबसे अच्छा खाना, सबसे अधिक खर्च, सबसे अच्छे साधन चाहता है उनमें कोई त्रुटि हो, अभाव दिखाई दे तो वह लड़ने-झगड़ने पर उतारू हो जाता है। और किसी को भी उसी तरह अधिक पाने की इच्छा और अधिकार का उसे किंचित् भी ज्ञान न था क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि प्रेम जैसी, उत्सर्ग जैसी सुखद वस्तु भी संसार में कुछ है। जब तक लेना ही लेना, स्वार्थ ही स्वार्थ था तब तक अधिक पाकर भी उसके मन में सन्तोष और तृप्ति न थी।

फिर विवाह हो गया और घर नई दुल्हन आ गई। दुल्हन के अंग-प्रत्यंग नाक-नक्शा पहनाव-ओढ़ाव में अपनी बहन, बुआ, भावज से थोड़ा ही अन्तर था किन्तु वह एक समर्पण का भाव-मैं केवल तुम्हारी हूँ” ऐसा भाव लेकर जो आई थी इसलिये अब उस व्यक्ति के सुख और स्वार्थ, सन्तोष और तृप्ति का माध्यम धर्मपत्नी हो गई। अपना आपा नष्ट हो गया। धर्मपत्नी को आत्म-समर्पण का लाभ यह मिला कि उसे एक प्रेमास्पद स्वरूप, संरक्षक, स्वामी और न जाने क्या-क्या मिल गया पर खोया उस व्यक्ति ने भी नहीं। देखने में नव-वधू ने उसके स्थूल सुखों को छीनना प्रारम्भ कर दिया किन्तु वह जानता है कि बदले में उसे जो प्रेम मिल रहा है उस सुख की तुलना में वस्तुओं का सुख तुच्छ और नगण्य है इसलिये अब उसे अपना ध्यान नहीं रहता। वह अपने की अपेक्षा अपनी पत्नी की सुख-सुविधाओं की चिन्ता करने लगता है। प्रेम की इस परीक्षा में दोनों ही ने खोया पर उन दोनों ने ही जो कुछ पाया उस पर उससे भी अधिक न्यौछावर किया जा सकता है, यह कोई नव-विवाहित दम्पत्ति ही जानते हैं।

परमात्मा के प्रेम का अमृत समुद्र की तरह गहरा और अथाह है। सामान्य हाड़-माँस के शरीर वाले सौंदर्य के प्रति प्रेम-भाव से मनुष्य को थोड़ी देर के लिये ऐसी तृप्ति मिलती है कि मनुष्य उसको बार-बार याद करता है और भटक-भटक जाता है किन्तु प्रेम के अगाध सागर के पास पहुँच कर द्वन्द्व और भटकने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह तो प्रेम का निरन्तर बहने वाला झरना है जो कभी सूखता नहीं और जिसके पास पहुँच कर तृप्ति कभी मिटती नहीं।

किन्तु ऐसा प्रेम, प्रार्थना और थोड़ी-सी पूजा तक ही सीमित नहीं रह सकता। जब नाशवान् वस्तुओं का प्रेम सीमित नहीं रह सकता। जब नाशवान् वस्तुओं का प्रेम आँखों में नशा बन कर छा जाता है एक प्रेमी को मूर्ति के अतिरिक्त और कुछ सुहाता नहीं, मन में उसी की भाव-भंगिमाओं मधुर निःश्वास और मीठी-मीठी बातों के अतिरिक्त कुछ टिकता नहीं तो परमेश्वर के बारे में यह कल्पना कैसे कर ली जाये कि वह थोड़ी देर को प्रार्थना पूजा से भावनाओं में मस्ती बनकर उतर आयेगा। उसके लिये तो मीरा, सूर, तुलसी, गोरखनाथ, रैदास, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नानक और सन्त गोविन्ददास की तरह बस एक ही रट-मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई” “अखियाँ हरि दर्शन की भूखी”, “राम प्रान-त्रिय जीवन जी के”, “मन रे राजा राम होइ ले निरदन्द”, दरमन तोरा जीवन मोरा, “बिन दरसन क्यों जीवै चकोरा”, “राम न भूला दास कबीर”, “न धनं न जनं न सुन्दरी कविताँ वा जगदीश कामये”, “तुमरी अस्तुति तुम ते होइ और “वल्लभ चरन लग्यो चित मेरो” लगानी पड़ती है। अपने अहंभाव को भूल कर उस विशाल-बाहू सहस्त्राक्ष, सहत्रपाद परमेश्वर की प्रेमानुभूति का सुख मिलता है। इन सन्तों के पास कोई जमीन-जायदादें और जागीरें नहीं थी। प्रेम की सत्ता पर ही वह स्वर्गीय सुखों का रसास्वादन-जब तक जिये करते रहे और मरे तो-मुआ कबीर रमत श्रीराम-ईश्वर में ही विलीन हो गये।

पूर्ण समर्पण का ही दूसरा नाम ईश्वर-प्रेम है। पर अर्पित सभी वस्तुओं को बदले में उसी गुण और स्वभाव का अनन्त गुना सुख प्रेमी को मिलता है। देह भगवान् की हो जाये तो फिर वासनाओं से क्या लगाव। उसकी वस्तु उसी के लिये। फिर उस पर अनावश्यक कामनाओं का बोझ क्यों? जो रूखा-सूखा मिले वही खाना, जहाँ सौर भर की जगह मिले वहीं सो जाना उस संयमी के लिये रोग-शोक हारी-बीमारी की क्या चिन्ता। उसके लिये सर्वत्र सन्तोष ही सन्तोष के दर्शन होते हैं।

प्राण परमेश्वर को दे दे तो वह और भी बढ़ता है। प्राण की छोटी-मात्रा को किसी लौकिक कार्य में नियोजित कर के तल्लीनता का अपार सुख मिलता है पर उससे प्राण का विनिमय होता है। जिस तरह शारीरिक व्यक्ति देकर कामोपभोग का क्षणिक सुख प्राप्त किया जाता है प्राण के मूल्य पर ही तो साँसारिक भोग आकर्षित किये जाते हैं पर अपने प्राणों को जब प्रेमी भगवान् के प्राणों से जोड़ देता है तो उसकी अपनी मेधा, प्रज्ञा और ऋतम्भरा बुद्धि का विकास होता है। तालाब के पास के गड्ढे को तालाब से सम्बन्धित कर दो तो गड्ढे का पानी भला तालाब को क्या भरेगा? अपने पानी से भर कर उस नन्हे से गड्ढे को भी तालाब बना देने की क्षमता के समान प्रेमी मनुष्य को अपनी तरह का भगवान् बना देने की क्षमता परमेश्वर में ही है इसलिये उसके लिये हवन किया हुआ प्राण कभी निरर्थक नहीं जा सकता।

मन, वस्तुएँ, परिस्थितियाँ और साँसारिक सुखों को भगवान् के लिये जितना ही उत्सर्ग करते हैं उतना ही आमोद बढ़ता है। जिस प्रकार होम की वस्तुएँ अधिक सूक्ष्म और व्यापक होकर प्रभावित करती हैं, होम किये हुये साँसारिक सुख भी सूक्ष्म होकर आत्मिक सुख, श्रमशक्ति और सौंदर्य प्रदान करते हैं। जब सब कुछ छोड़ कर सहज स्थिति में अपने आपको खाली बना लिया जाता है तब केवल परमात्मा के प्यार का अन्तःकरण में दोहन होता है और उस निर्झरित प्रेम प्रवाह की मस्ती में प्रेमी भक्त संसार के सब कुछ दुःखों का भूल जाता है। उस प्रेम का अन्त नहीं होता, उस सौंदर्य की इति नहीं होती और उस आनन्द का कोई पारावार नहीं होता। वरन् रस और जीवन का माधुर्य बढ़ता ही जाता है।

ऐसे प्रेमी को अपने सुखों की लेशमात्र भी इच्छा नहीं रहती। इच्छाएँ सदैव विचारपूर्ण रहती हैं और जब-जब मन में विकार आता है आत्मा के उजलेपन में अन्धकार छा जाता है। विकार का अँधियारा बढ़ते-बढ़ते वह एक दिन आत्मा को घटाटोप की तरह छोड़ लेती है और दिव्य ईश्वरीय प्रकाश कूड़े में पड़े मोती की तरह निरर्थक हो जाता है। मनुष्य भटकता रहता है, फिर कभी अनायास ही वह प्रकाश मिल जाये तो हरि इच्छा अन्यथा विकार-प्रसूत 84 लाख योनियों में ही मनुष्य भटकता रहता है इसलिये परमेश्वर की आकांक्षा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये इच्छाएँ दूषण की ही नई हैं और इसीलिये भगवत् भक्त केवल ईश्वरीय प्रेम की ही अभिलाषा को दृढ़ बनाते रहे हैं। उससे जहाँ वे लौकिक खड्डों से बचे हैं वहीं उन्हें प्रेम-रस का धारा प्रवाह सिंचन मिलता रहा है।

प्रेम का विकास करते-करते एक दिन सब द्वन्द्व मिट जाते हैं। हम कभी भावनात्मक सुख की ओर जाते हैं फिर कभी पदार्थों की आसक्ति अपनी ओर खींच लेती है। मानव इतर योनियों भ्रमित कराने वाली आसक्ति से ठीक उलटी स्थिति परमेश्वर के प्रेम की है। उसमें लौकिक सुखों के द्वन्द्व समान होकर जीवन में एक प्रकाश की स्थिति शेष रह जाती है प्रियतम की छवि, सौंदर्य और माधुर्य ही शेष रह जाता है। उसे सबसे प्रेम की ही चाह दिखाई देती है। उसे सबमें प्रेम का ही व्यापार दिखाई देने लगता है वह उसी प्रेम के सागर में डूब कर प्रेम-स्वरूप हो जाता है। यही ईश्वरत्व है, इसी का नाम अमृत है। जो प्रेम का अमृत पा गया वह ईश्वर को पा गया।


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