माना कोई एक ईश्वर है

August 1969

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श्री रमेशचन्द्र के पास कुछ रुपए हैं। उनको 3 (भाग) उमेश, दिनेश, और सुशील में बँटवारा करना है। उमेश को कुल धन का 1/2 और दिनेश को 1/3 देने के बाद सुशील के लिये कुल सौ रुपए बचे तो बताओ श्री रमेशचन्द्र के पास कुल कितने रुपये थे?

कल्पना मात्र में यह एक पेचीदा प्रश्न है। आप अपनी बुद्धि से प्रश्न को निकालना चाहें तो कठिन हो जाएगा। क्योंकि आपको उत्तर निकालने के लिये सैकड़ों, संख्याओं की कल्पना करनी पड़ेगी और वह सब तब तक गलत होंगी जब तक ठीक वही संख्या अपने आप कल्पना में न आ जायेगी भले ही वह संख्या एक दिन, एक सप्ताह, महीने भर या साल भर में आयें। कल्पना तो आखिर कल्पना ही है। उसका सत्य से उतना ही सम्बन्ध है जितना 1 रु. की लाटरी का 1 लाख रु. के पुरस्कार से है। मिल जाये तो मिल जाये न मिले तो करोड़ों बार एक रुपया लगाते रहने पर भी हाथ कुछ न लगे।

इन दिक्कतों से बचने के लिये गणितज्ञों ने कुछ सूत्र ढूँढ़े हैं। उसका आधार “मान कि उत्तर अमुक है” एक विश्वास है और जब उस विश्वास को प्रयोग में लाते हैं तो वह फलितार्थ शत-प्रतिशत सत्य निकलते हैं इसलिये हमारा विश्वास करना सार्थक हो जाता है।

आइये विश्वास के आधार पर ऊपर के प्रश्न को हल करें। माना यह धन 1 रुपया है। 1/ का 1/2= 1/2 भाग उमेंश को दिया गया 1 का 1/3=1/3 भाग दिनेश को दिया गया। कुल 1/2+1/3=516 भाग दो भाइयों में बाँट दिया गया। अब 1/1/6=1/6 भाग शेष रहा यही हिस्सा सुशील को दिया गया जो 100 रुपये के बराबर था। ऐकिक नियम के अनुसार चूँकि 1/6=100 के, इसलिए 1 बराबर है 600 रुपये के। यही उत्तर है और सही है जब कि सारी दुनियाँ में एक छः सौ के बराबर कभी हो ही नहीं सकता। असम्भव तरीके से सम्भव की खोज का नाम विश्वास है। वहाँ एक समर्थ सूत्र है जिसके आधार पर ही परमात्मा की खोज की जा सकती है। विज्ञान का रास्ता कल्पना और भटकाव का है उससे संसार के सृजन, विकास और संहार वाली शक्तियों का पता चलेगा तो सही, किन्तु भीषण संघर्ष, ध्वंस और हिंसा से भरा हुआ यह लम्बा रास्ता बड़ा अशान्ति और असन्तोष से पार होगा और आद्यशक्ति तक पहुँचना कठिनाई से ही सम्भव होगा।

ईश्वर पर विश्वास कर लेने में जहाँ अनेक व्यक्तिगत लाभ है वहाँ विश्व-शांति के लिये एक सुदृढ़ आधार भी मिलता है। मान लेना एक सूत्र है जिसके आधार पर गणित के उत्तर निकाले जा सकते हैं उसी तरह संसार में प्राणियों का आविर्भाव क्यों और कहाँ से हुआ है? अनेक योनियों में बिखरी प्राण-सत्ता का रहस्य क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे किस तरह प्राप्त किया जा सकता है? इन प्रश्नों का विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं। वह स्थूलता का ही अध्ययन और प्रतिपादन कर सकता है जब कि मनुष्य-शरीर की आधी शक्तियाँ भावनामय, विचारमय, संकल्पमयी है शारीरिक इन्द्रियों की तरह भावनायें भी तृप्ति माँगती हैं और उनका अपना अलग क्षेत्र है। जब ईश्वर को मानवीय चेतना की तरह की ही कोई सत्ता मान लेते हैं तो जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमारी भावनात्मक शक्ति का विकास होने लगता है।

प्राणीमात्र से प्रेम, दया, करुणा, व्यवस्था, समता, सहिष्णुता, उदारता, मैत्री के भावों का विकास होने लगता है। जब हम मान लेते हैं कि संसार किसी भावनाशील शक्ति के द्वारा प्रेरित और नियन्त्रित है। यह भावनायें ही स्थायी सुख और शान्ति प्रदान करती हैं उसी के लिये तो विज्ञान का आश्रय लेते हैं, पर विज्ञान से तो मनुष्य उलझता ही जाता है। जो तृष्णायें, विलासतायें, अहंवृत्तियाँ-क्रोध विक्षोभ, ईर्ष्या, स्पर्द्धा, प्रतिशोध, भौतिक उन्नति के मार्ग में भड़कती है, ईश्वर विश्वास के मार्ग में तो वह तप, त्याग स्वाभिमान, सहयोग और सहानुभूति में बदल जाती हैं, जिससे सारा संसार भी शान्तिमय परिस्थितियों में बना रहता है। यही मनुष्य-जीवन का उद्देश्य भी है।

तमाम रेखागणित (ज्योमेट्री) एक बिन्दु (प्वाइंट) से विकसित होती है। रेखा अनेक बिन्दुओं से बनी एक दूरी है जिसमें लम्बाई है किन्तु चौड़ाई नहीं। बिन्दु वह वस्तु है जिसमें न तो लम्बाई है, मोटाई और न चौड़ाई। ऐसी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं होना चाहिये। कोई भी बिन्दु अंकित किया जायेगा भले ही दशमलव के आगे कई शून्यों के बाद उसका व्यास आये पर मोटाई होगी अवश्य। यदि मोटाई हो जाती है तो वह बिन्दु नहीं रहता और बिन्दु रहता है तो परिभाषा गलत। अस्तित्वहीन वस्तु केवल विश्वास मात्र है उसी पर सम्पूर्ण रेखागणित का धरातल टिका हुआ है और उसके माध्यम से जो भी अर्थ और निष्कर्ष निकाले जाते हैं एक और एक सही निकलते हैं। यह है विश्वास का प्रतिफल। उसी प्रकार ईश्वरीय सत्ता को मान लेने पर व्यक्तिगत कल्याण, समाज और विश्व के हित के परिणाम सही उतरने लगते हैं। दृश्य न होने पर भी उसकी कल्पना बिन्दु की तरह एवं शक्तिशाली सिद्धान्त है। परमात्मा को भी हम उसी रूप में ले लें तो इसमें भी मानवता का कल्याण ही सन्निहित हैं।

मनुष्य-समाज की अधिकांश व्यवस्था विश्वास पर ही आधारित है और उसी से हम सुखी हैं। भाई-भाई में पति-पत्नी में, पिता-पुत्र डाक्टर-मरीज दुकानदार-खरीददार सरकार और ठेकेदार सबका काम विश्वास पर ही चल रहा है। विश्वास प्राप्त करके ही एक साधारण व्यक्ति पार्लियामेण्ट का सदस्य और प्रधानमन्त्री बन जाता है। हमारे विश्वास में इतनी जबर्दस्त शक्ति है कि वह सामान्य-सी परिस्थितियों को कुछ का कुछ बना सकती है। जो केवल दूसरों पर अविश्वास करने वाला अपने आप ही दुःखी, अशान्त और अव्यवस्थित बना रहता है। विश्वास की शक्ति पर ही संसार टिका हुआ है। हमारे लिये उसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है कि ईश्वरीय शक्तियों पर ही विश्वास करें और यह देखें कि उसके फलितार्थ हमारे जीवन में उसी प्रकार सही उतरते हैं या नहीं जिस प्रकार पत्नी, पिता, माता, भाई, भतीजों पर विश्वास करके परस्पर हँसी-खुशी प्रेम और आनन्द का जीवन जी लेते हैं।

रेखागणित की एक स्वयं सिद्ध साध्य (एक्सिअम) यह है- “अ” “ब” एक सरल रेखा है। “उ” बिन्दु पर एक दूसरी सरल रेखा “द” उसे काटती है। इस प्रकार “उ” बिन्दु पर बने हुए दोनों कोणों का योग बराबर दो समकोण होता है। यह एक विश्वास है, उसकी सत्यता का कोई आधार नहीं है। हम चाहें तो उसके टुकड़े (ग्रेजुएशर) ऐसे करें कि वह 180. न होकर 269 हो जायें या कुल 31 ही रखें। 180 डिग्री एक विश्वास की गई संख्या मात्र है। और संसार में अब तक जितनी भी रेखागणित विकसित हुई है सभी त्रिभुजीय (ट्रेन्ग्यूलर) प्रमेय निमेयों का आधार केवल यह प्रारम्भिक विश्वास है। और यह विश्वास इतना सही उतरता है कि हम पृथ्वी में बैठे-बैठे सूर्य, चन्द्रमा, बुध हर्शल प्लूटो, एन्टलारि आदि विस्तृत तारा-मण्डल (गैलेक्सी) की दूरी नाप लेते हैं। एक सरल रेखा पर दूसरी सरल रेखा खड़ी होकर दो समकोण बनाती है इस विश्वास के द्वारा ही अन्तरिक्ष यान चन्द्रमा तक मंगल तक, शुक्र तक चला जाता है। वीनस 5 अभी 2 करोड़ से भी अधिक मीलों की यात्रा कर शुक्र में जा उतरा। यह उस विश्वास का ही फलितार्थ है जो बहुत हलका बिलकुल छोटा वाला निर्जीव विश्वास है। जब कि ईश्वर एक समर्थ विश्वास है कीट-पतंगों के जीवन से लेकर वृक्ष-वनस्पतियों के अस्तित्व तक का भेदन इसी शक्ति के द्वारा किया और आध्यात्मिक रहस्यों का पता लगाया जा सकता है।

सारी खगोल विद्या की जानकारी वृत्त-सिद्धान्तों पर आधारित है। एक विश्वास या स्वयं सिद्ध प्रतिज्ञा (एनन्सियेश) है- तुल्य चापों (ईक्वल आर्म्स) पर आधारित कोण भी तुल्य (ईक्वल) होते हैं। एक गोलाकार वृत्त (सर्किल) में कहीं भी “अ ब” और “स द” दो समान दूरी के चाप (आर्क) लीजिये। अब चाप (आर्क) “अ ब” को उसी वृत्त के किसी भी बिन्दु “य” से मिलाइये, चाप “स द” को भी उसी प्रकार किसी बिन्दू “र” से मिलाइये। इस तरह बिन्दू “य” और “र” पर बने कोण बराबर होते हैं। यह एक स्वयंसिद्ध साध्य है उस पर सारी ग्रह रेखागणित टिकी हुई है, यदि कोई अविश्वास करें कि हम यह बात नहीं मानेंगे तो उसके लिये शेष सारे अभ्यास गलत हो जाते हैं पर यह स्वयं सिद्ध साध्य फलित होती है तो उसके आधार पर सारे विश्व में भ्रमण कर आना उसी तरह सम्भव हो जाता है जिस प्रकार हम अपने किसी जाने-माने शहर तक घूम आते हैं। मान्यता पर चलने वाली गणित जब ऐसे ठोस और सत्य फलितार्थ प्रस्तुत कर सकती है तो हम ईश्वर पर विश्वास करके क्या विश्व के रहस्यों का मूल्यांकन नहीं कर सकते? ऐसी एक विचारधारा ऋषि के अन्तरंग में उठी थी और उन्होंने प्रश्न करके सृष्टि के तत्वों को खोज डाला था। वेदों में सन्निहित ज्ञान वहीं विज्ञान है जिसको पाने के लिये आज पाश्चात्य वैज्ञानिक भारी असन्तुलन, यंत्रीकरण, हिंसा और असामाजिकता पैदा कर रहे हैं। फिर भी वस्तुस्थिति की खोज नहीं कर पा रहे हैं। सिद्धान्त बनते हैं अगले वाला वैज्ञानिक उस सिद्धान्त में या तो संशोधन कर देता या काट कर रख देता है। संशोधनकर्ता भी अपने आपको पूर्ण विश्वस्त नहीं मानता। उसे तब भी यह आशंका बनी रहती है कि कहीं उसी के रहते हुये हो उसका सिद्धान्त काट न दिया जाये। अनेक नोबुल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के धुरे उड़ गये। तब यही मानना पड़ता है कि पाश्चात्य जगत् जिस विज्ञान पर ऐंठा हुआ बैठा है वह खेल खिलौना है। तथ्य उनमें कुछ भी नहीं है।

विशाल ब्रह्माण्ड के रहस्यों, पृथ्वी पर होने पुनर्जन्म की घटनाओं अति मानसिक शक्ति बौद्धिक क्षमता आत्म शक्ति के करतबों, दूर दर्शन, पूर्वानुभूतियों, स्वप्नानुभूतियों, भविष्य के ज्ञान आदि से प्राप्त हमारे मस्तिष्क में रचनात्मक और उपयोगी दृष्टिकोण ईश्वर को मान लेने पर ही बनता है।

विश्वास एक उत्पादक शक्ति है जो सृष्टि के गहन अन्तराल से ज्ञान के हीरे-मोती खोज-खोज कर हमारे ज्ञान-बुद्धि और वर्चस्व को महान् बना देता है। वैज्ञानिक फलितार्थों से भी यह निश्चय हो चुका है कि ईश्वर एक प्रकार की पूर्ण शक्ति है और उस पूर्णता का कितना भी अंश निकाल लेने पर पूर्णता ही शेष रहती है। बात कुछ अटपटी लगती है पर है सत्य। एक चुम्बक पत्थर को कागज में रखकर उसकी शक्ति का चार्ट तैयार कर लें। फिर उस चुम्बक को लोहे से स्पर्श करायें तो लोहा भी चुम्बक बन जाता है। चुम्बक को हटा कर फिर उसका चार्ट तैयार करें तो पता चलेगा कि उसके आवेश का काफी अंश लोहे में खिंच जाने के बाद भी उसकी मूल शक्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ा। उसी प्रकार केवल विश्वास के आधार पर अपनी चेतना का विश्व चेतना के साथ सम्बन्ध जोड़ कर हम उन शक्तियों को विकसित और व्यवस्थित कर सकते हैं जिन्हें ईश्वरीय वैभव के रूप में जाना जाता है और जिनसे हमारे जीवन का वास्तविक अर्थ फलित होता है।

अंकगणित में कुल 9 अक्षर हैं। 1 से लेकर 9 तक पहुँचने के बाद वैज्ञानिकों ने देखा कि इस तरह कितनी ही संख्या कल्पित करते चलें उनका अन्त नहीं हो सकता इसलिये उन्हीं 9 अंकों से आगे की संख्याएँ बनाई गई और पूर्णता के लिये एक ऐसी संख्या की कल्पना की गई जिसमें संख्याओं की ईकाई-दहाई या सैकड़ा की किसी भी दौड़ को विश्राम दिया जा सके। उस संख्या का नाम है शून्य (जीरो)। इस शून्य पर अंकगणित और लम्बी-लम्बी गणनाएँ टिकी हुई हैं वह सत्य भी निकलती हैं पर शून्य अपने आप में क्या है, थोड़ा इस पर भी दृष्टि डाल लें। 3/4 का अर्थ है किसी वस्तु के चार टुकड़े किये जायें और उनमें से 3 टुकड़े लिये जायें तो वह 3/4 कहलायेगा। दो भागों से 1 टुकड़ा लें वह 1/2 कहलायेगा। भिन्न-गणित इन टुकड़ों (पार्टीशन्स )पर ही आधारित है और उससे बड़े लम्बे प्रश्नों को सीमित करना सम्भव हो गया है। पर यदि किसी वस्तु के शून्य टुकड़े करें और उसमें से 1 टुकड़ा लें तब 1/॰ और एक बटा शून्य का क्या अर्थ-

अनन्तता (इमाफिनिटी)। दो, चार, छः, दस किन्हीं संख्याओं के शून्य-टुकड़े करें उत्तर वही अनन्तता आता है जिसका कुछ भी अर्थ नहीं है। अनन्तता कोई संख्या ही नहीं जब कि शून्य को एक संख्या माना गया है उसे हटा दें तो तमाम गणित फेल हो जाये। किसी वस्तु के चार बराबर-बराबर भाग करें और उसमें से शून्य भाग लें तो उत्तर आयेगा शून्य (शून्य नहीं)। इसी प्रकार शून्य के टुकड़े करने और उसमें से कितने ही टुकड़े लेने से जो अनन्तता आई थी उसमें 10 घटाये तो भी अनन्तता ही बचेगी। 1 करोड़ घटाये तो भी अनन्तता ही बचती हैं। शून्य में शून्य घटाने का फलितार्थ शून्य और अनन्तता यह कोई बात नहीं हुई। पर उन्हें निकाला नहीं जा सकता क्योंकि उस पर सारा अंकगणित का आधार बना हुआ है। विश्व की सार्थकता को समझने के लिये वैसे ही हमें भी अनिवार्यतः एक बिन्दु की कल्पना करनी पड़ती है। उसे ईश्वर मानना पड़ता है यदि उसे मान लेते हैं तो निश्चित है कि समाज और देश, अनुशासित, व्यय स्थित और मैत्रीपूर्ण रह सकते हैं।


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