हँसती और हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है

August 1969

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(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(‘जिन्दगी हँसते खेलते जिये पुस्तिका का एक अंश)

अपने पास दूसरों को देने के लिए धन-दौलत न हो, किसी को कुछ दे सकने की स्थिति न हो तो भी हम एक वस्तु सदा सब को देते रह सकने में समर्थ हो सकते हैं और निरन्तर पुष्प और सन्तोष लाभ करते रह सकते हैं। उस वस्तु का नाम है-प्रसन्नता यदि अपने स्वभाव में प्रसन्न रहने का समावेश कर लिया जाय, हँसने-मुस्कराने की आदत डाल ली जाय तो जहाँ वहीं भी रहेंगे, वहीं प्रसन्नता बखेरते रहेंगे और जो कोई भी संपर्क में आयेगा प्रसन्न और प्रभावित होता चला जाएगा अपने आपकी संतुष्टि भी प्रसन्नता की मनोदशा पर निर्भर रहती है।

यह अनुमान सही नहीं है कि जो सुखी एवं साधन सम्पन्न होता है, वह प्रसन्न रहता है। वस्तुस्थिति इससे बिलकुल उल्टी है। जो प्रसन्न रहता है, वह सुखी और साधन सम्पन्न बनता है। प्रसन्नता विशुद्ध रूप से एक ऐसी मनोदशा है, जो पूर्णतया आन्तरिक सुसंस्कारों पर निर्भर रहती है। गरीबी में भी मुस्कुराते और कठिनाइयों के बीच भी जो खोलकर हँसने वाले असंख्य व्यक्ति देखे जा सकते हैं। इसके विपरीत ऐसे भी अगणित लोग हैं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में साधन सम्पन्न भरी पड़ी है पर उनकी आंखें, नाड़ी, तेवर, तने और मुखाकृति इठी रहती है। क्रुद्ध, चिन्तित, असंतुष्ट और उद्विग्न रहना एक मानसिक दुर्बलता मात्र है, जो अन्तःकरण की दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों में ही पाई जाती है। परिस्थितियाँ नहीं, मनोभूमि का पिछड़ापन ही इस क्षुब्धता का कारण है। उदात्त और संतुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में हँसते-हँसाते रहते हैं। वे जानते हैं कि मानव-जीवन सुविधाओं, असुविधाओं की-अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के ताने गाने से बुना है। संसार में अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जन्मा, जिसे केवल सुविधायें और अनुकूलताएँ ही मिली हों और अभाव एवं कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो। इसी तरह ऐसा व्यक्ति भी संसार में नहीं है, जिसे केवल दुःख-दारिद्रय से ही पाला पड़ा हो।

हर किसी के जीवन में कुछ अनुकूलताएँ रहती हैं, कुछ प्रतिकूलताएँ प्रश्न इतना भर है कि कौन, किसको, कितना महत्व देता है। जो अपनी प्रतिकूलताओं पर ही विचार करता रहेगा, उन्हीं की बाबत सोचेगा, उन्हें ही अधिक महत्व देगा, उसे प्रतीत होगा कि वह मात्र कठिनाइयों में ही घिरा हुआ है। अस्तु उसे दुःखी रहना पड़ेगा इन कठिनाइयों के निमित्त कारण जो भी प्रतीत होंगे, इस स्तर पर अपनी मनोभूमि जमा देने वाला व्यक्ति सदा क्षुब्ध ही दिखाई पड़ेगा उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन जुड़ जाएगा और जब भी अवसर मिलेगा, वह अपनी व्यथा अथवा नाराजगी व्यक्त करते हुए अपनी मानसिक अस्त-व्यस्तता प्रकट कर रहा होगा।

इसके प्रतिकूल अपनी अनुकूलताओं पर विचार करना आरम्भ किया और अपनी तुलना पिछड़े हुए लोगों के साथ करना आरम्भ की उसे लगेगा हम करोड़ों में अच्छे हैं। हमारे पास जो हैं, उसके लिए भी-लाखों करोड़ों तरसते हैं। इस तथ्य को जो समझ लेगा, वह अपने को सौभाग्यशाली मानेगा और सन्तोष का बहुत बड़ा आधार प्राप्त कर लेगा। सभी सुविधायें किसे मिली हैं? हर दृष्टि से सुखी यहाँ कौन है? कुछ न कुछ अभाव हर किसी को रहेंगे, इस अपूर्णता के कारण ही हम मनुष्य हैं। जिसे हर सुविधा मिले उसे तो फिर देवता था भगवान् कहा जाएगा मनुष्य जीवन का कदम तो अनुकूलता, प्रतिकूलता के ताने-बाने से बुना गया है। यह तथ्य जिनकी समझ में आ गया वे अपनी सुविधाओं पर ही विचार करेंगे, दूसरों के द्वारा किये हुए सद्व्यवहारों को ही स्मरण रखेंगे- संसार में बिखरी पड़ी शोभा और अनुकूलता को ही देखेंगे, ऐसी मनःस्थिति में उन्हें ऐसा बहुत कुछ मिलेगा, जिसके आधार पर हर घड़ी प्रसन्न और संतुष्ट रहा जा सके।

प्रसन्नता एक ईश्वरीय वरदान है। और यह हर सुसंस्कृत मनोभूमि के व्यक्ति को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सकता है। जिसे शुभ देखने की आदत है, वह प्रियदर्शी सर्वत्र आनन्द-मंगल ही देखेगा, ईश्वर की अनुकम्पा और लोगों की सद्भावना पर विश्वास रखेगा, ऐसी दशा में हँसने और हँसाने के लिए उसके पास बहुत कुछ होगा। किन्तु जिसे अशुभ चिन्तन की आदत है, दूसरों के दोष-दुर्गुण और अपने अभाव अवरोध ढूँढ़ने की आदत है, जो इसी शोध में लगे रहते हैं और जो प्रतिकूलताएँ दिखती हैं, उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचते हैं, उन्हें अपने चारों और केवल दुष्टता और विपन्नता ही दिखाई देती है। ऐसे लोगों को क्षुब्ध ही रहना पड़ेगा, वे असमंजस, खिन्नता और उद्विग्नता ही अनुभव करते रहेंगे। रोष उनकी वाणी से और असन्तोष उनकी आकृति से टपकता रहेगा, ऐसे व्यक्ति स्वयं दुःखी रहते हैं और अपने संपर्क में आने वाले दूसरों को दुःखी करते रहते हैं।

मनुष्य जीवन की एक भारी विडम्बना है कि वह सृष्टि का मुकुटमणि और संसार के समस्त प्राणियों की तुलना में अधिक साधन सम्पन्न होते हुए भी अपने को दुर्भाग्य ग्रस्त माने और दुःखी रहे। यह एक विपन्नता हो है कि दूसरों की सद्भावना, सज्जनता और सहकारिता को भुलाकर कोई केवल दोष-दुर्गुणों को ही ढूँढ़ता रहे। कठिनाइयों को सोचे और सुविधाओं को भुला दें, लाभ की ओर ध्यान न दें और हानि को ही सोचता रहे। यह एकांकी मनोभूमि अर्धांग पक्षाघात के रोगी की तरह है, जिसका एक ओर का आधा शरीर तो काम करता है पर दूसरी और निर्बलता, रुग्णता और पीड़ा की स्थिति बनी रहती है। हम जितनी देर, जितनी बढ़ा-चढ़ाकर अपनी प्रतिकूलताएँ सोचेंगे, उसी अनुपात से अपने रोष और विक्षोभ को बढ़ा लेंगे। इसके प्रतिकूल अपने चिन्तन की धारा यदि उपलब्ध सुविधाओं और सद्भावनाओं की ओर प्रवाहित हो चले तो संतोष और उल्लास की अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने के लिये पर्याप्त आधार मिल जाएगा

हमें क्रुद्ध, रुष्ट, असंतुष्ट और क्षुब्ध नहीं रहना चाहिये। इससे मस्तिष्क में अनेकों नई विकृतियाँ उत्पन्न होती और बढ़ती चली जाती हैं। आग जहाँ रहेगी, वहीं जलाएगी असंतोष जहाँ रहेगा, वहीं विक्षोभ उत्पन्न करेगा और उससे सारा मानसिक ढाँचा लड़खड़ाने लगेगा। चिड़चिड़ा मनुष्य एक प्रकार का पागल ही है। दुःखी, निराश और चिन्तित रहने वाले को सनकी और मुखों की पंक्ति में बिठाया जाएगा ऐसा व्यक्ति अपने ही दुर्गुण से अपने आपको जलाता-गलाता रहता है। और अनेक शारीरिक मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर घोर अशान्ति की प्रेत-पिशाच जैसी अनुद्विग्न जिन्दगी जीता है। बुद्धिमान वे हैं जो सबसे अधिक ध्यान अपने मानसिक संतुलन पर देते हैं और सोचते हैं, जो नहीं मिला उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे। इसके लिये दुःखी रहना तनिक भी आवश्यक नहीं। क्षोभ से तो वे मनःशक्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी, जिनके बलबूते कठिनाइयों का निवारण एवं सुविधाओं का अभिवर्धन, उपार्जन सम्भव होता है। हर समझदार व्यक्ति विक्षोभ की स्वनिर्मित विपत्ति से बचने की चेष्टा करता है ताकि अपने हाथों अपनी बहुमूल्य आन्तरिक समस्वरता को गँवा देने की क्षति न कर बैठें।

हँसते रहना एक दैवी गुण है, जिस पर अमीरों की सुविधायें निछावर की जा सकती है। हँसने की आदत चित्त को हल्का बनाती है और शरीर को निरोग-दीर्घजीवी एवं सुन्दर बनने की सुविधा उत्पन्न करती है। अपना सबसे बड़ा उपहार यही हो सकता है कि प्रसन्न रहने, मुस्कराने और हँसने की आदत को अपने स्वभाव का एक अंग बना लें। यह व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का बहुमूल्य गुण है। खिले हुए फूल के आस-पास जिस तरह तितलियाँ और मधु-मक्खियाँ घिरी रहती हैं, उसी प्रकार हँसते-हँसाते रहने वाले व्यक्ति से, समीपवर्ती लोग अनायास ही आकर्षित और प्रभावित होते हैं। प्रसन्नता की आवश्यकता सभी को है, हँसी का आनन्द हर कोई लेना चाहता है। मुस्कुराहट के साथ निखरने वाला सौंदर्य हर किसी को भाता है। इस प्रकार की आकृति और प्रकृति जिस किसी की भी दिखाई पड़ती है, लोग उसकी ओर खिंचते चले आते हैं। मिठाई खरीदने वाले हलवाई की दुकान पर पहुँचते हैं। हर्ष और उल्लास की-प्रसन्नता और मुसकान की मुख हर किसी को प्रसन्न चित्त मनुष्य के पास खींच कर ले आती है। उसके मित्रों, समर्थकों, प्रशंसकों और सहयोगियों की कमी नहीं रहती।

दूसरों को हम सर्वदा निर्धन और सक्षम होते हुए भी जो बहुमूल्य उपहार निरन्तर देते रह सकते हैं, वह प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ही है। चन्दन अपने चारों ओर सुगन्ध और पुष्प अपने आस-पास शोभा सौंदर्य बखेरता है। हँसमुख और प्रसन्न चित्त मनुष्य भी अपने समीपवर्ती वातावरण में, परिवार और परिचितों में हर्ष-उल्लास की लहर उत्पन्न करता रहता है। संसार में दुःख बहुत है, दुःखियों की कमी नहीं। रोने और रुलाने वालों की भीड़ लगी हैं। चिढ़ने और चिढ़ाने वाले अगणित हैं। खोज उनकी है, जो हँसने और हँसाने की विभूतियाँ बखेरते हुए अपनी आन्तरिक समर्थता और मानसिक प्रौढ़ता का परिचय दे सकें। ऐसे ही लोग इस संसार में आनन्द की अभिवृद्धि कर सकते हैं, उन्हीं का अनुदान समीपवर्ती लोगों की हृदय कलिका को खिला सकता है। कठिनाइयाँ अपने पुरुषार्थ से हल होती हैं पर दूसरों को उल्लास एवं उत्साह प्रदान कर हम किसी का भी चित हल्का कर सकते हैं और निराश जीवनों में आशा की नई किरण बखेर सकते हैं।

हँसना एक दैवी गुण हैं, हँसाना एक उत्कृष्ट स्तर का उपकार है। मुस्कुराता हुआ चेहरा भले ही काला कुरूप क्यों न हो, सदा अति सुन्दर लगेगा। प्रसन्नता एक आदत है, जो कुछ समय के निरन्तर अभ्यास से अपने अन्दर उत्पन्न की जा सकती है। अपनी सुविधाओं को देखें और प्रसन्न रहें। शुभ और प्रिय देखें। उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करें, सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का चिन्तन करें, हमें हँसने के लिए प्रसन्न, रहने के लिए बहुत कुछ मिलेगा। यदि हम हँसना और हँसाना जीवन जी सकें तो समझना चाहिये कि हमने एक सच्चे कलाकार की जैसी मंगलमयी सफलता एवं उल्लास भरी उपलब्धि प्राप्त कर ली।


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